October 2016

APPENDIX

BIBLIOGRAPHY OF WORKS QUOTED IN THE TEXT

Abdul-Haqq. Commentary on the Mishkatu’l Masabih, on the margin of the Mishkat. Lahore.

Al ‘Aqdu’l-Farid. Al Azhar Press, Cairo. 1321 A.H.

Al Hidayah. 4 vols. Cairo, 1902 A.D.

Al Jam’i as-Saghir. Cairo, 1321 A.H.

Al Muwatta. Malik bin Anas. Cairo.

As Siratu’l-Halabiyya. 3 vols. Al Azhar Press, Cairo, 1320 A.H.

As Siratu’n-Nabuwiyya. On the margin of Al Suratu’l Halabiyya. Cairo, 1320 A.H.

Arabic Literature. Clement Huart.

Christianity and Islam (Tran.) Becker.

Dictionary of Islam. Hughes, London, 1895 A.D.

Essay on Mohammedan Tradition. Syed Ahmad khan, Quoted in the Dictionary of Islam, London, 1895 A.D.

Futuhu’l-Buldan. Al Baladhuri, Cairo, 1319 A.H.

Hadith and the New Testament. (Tran.). Goldziher, London, 1902 A.D.

Jami u’t-Tirmidhi. 4 vols. Lucknow, 1309 A.H.

Life of Mohammed. Syed Ameer Ali, London, 1873 A.D.

Mantakhab Kanzu’l-’Amal. On the margin of the Musnad Cairo 1313 A.H.

Matnu’l-Arba’inu’n-Nawawi. Cairo.

Mishkatu’l Masabih. 4 vols. Lahore.

Muslim Theology. Macdonald, London, 1903 A.D.

Musnad. 6 vols. Ibn Hanbal, Cairo 1313 A.H.

Muslim Tradition and Gospel Record. Gairdner, Moslem World, Vol. vi.

Mohammed and Mohammedanism. Koelle, London, 1889 A.D.

Qisasu’l-Anbiya. 2 vols. Cawnpore, 1323 A.H.

Sahihu’l-Bukhari (with commentary), 13 vols. Cairo, 1326 A.H.

Sahih Muslim. Cairo, 1284 A.H.

Sharahu’l-Zaraqani. On the margin of Al Muwatta, Cairo.

Sharahu’l-Qastalani. On the margin of Al Bukhari, Cairo, 1326 A.H.

Sharahu’n-Nawawi. On the margin of Muslim, Cairo, 1284 A.H.

Sunun. 2 vols. Abu Da’ud, Cairo, 1313 A.H.

Tawil Mukhtalifu’l-Hadith, Al Imam Ibn Qataibah al Dainuri. (Died 276 A.H.) Cairo, 1326 A.H.

Tafsiru’l-Baidawi. Cairo, 1305 A.H.

Tawarikh Muhammadi. Imadu’d-Din, Lahore, 1904, A.D.

The Life of Mahomet. Muir, London, 1894 A.D.

The Mohammedan Controversy. Muir, Edinburgh, 1897 A.D.

The Encyclopaedia of Islam. London.

Tujiyahu’n-Nazar ila usulu’l-Athar. Cairo, 1328 A.H.

Zubdatu’l-Bukhari, Cairo, 1320 A.H.

Christ in Islam by William Goldsack

इस्लाम में मसीह

अज़

पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहिब

William Goldsack

CHRIST IN ISLAM

BY

Rev William Goldsack

Australian Baptist Missionary and Apologist

1871–1957

पंजाब रिलीजियस बुक सोसाईटी

अनारकली-लाहोर
1945 ईसवी

The Punjab Religious Book Society

Anarkali, Lahore

इस्लाम में सय्यदना मसीह

दीबाचा

हम्द लामहदूद ख़ुदा-ए-अज़्ज़-ओ-जल वह्दहू लाशरीक रउफुर्रहीम व रब्बुल आलमीन के लिए है। जिसने अम्बिया व मुर्सलीन को मबऊस फ़र्मा कर इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान पर अपनी पाक मर्ज़ी का इज़्हार किया और अपने कलाम के वसीले से राह-ए-हयात-ए-दवाम की हिदायत फ़रमाई ।

हमारा इरादा है कि इस रिसाला में तमाम अम्बिया में से ईसा मसीह को मुंतख़ब करके क़ुरआन और अहादीस से दिखावें कि नबी नासरी इस्लाम में क्या रुत्बा रखता था ।

हमारे मुसलमान भाई अक्सर अवक़ात "ईसा रूहुल्लाह" का ज़िक्र करते हैं। लेकिन जो रुत्बा उसे क़ुरआन और अहादीस में दिया गया है। बहुत ही थोड़ों को इस का कुछ ख़्याल है। लिहाज़ा अब हम देखेंगे कि कुतुब इस्लाम मसीह के हक़ में क्या शहादत देती हैं और इस शहादत के बिना पर इस्लाम पर किया फ़र्ज़ ठहर है।

क़ुरआन में मसीह के अल्क़ाब व मोअजेज़ात और काम ऐसे और इस क़दर दर्ज हैं और इस में ऐसी बड़ी बड़ी पेशीन गोईयां पाई जाती हैं कि वो निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ तमाम अम्बिया से अफ़ज़ल व बरतर ठहरता है। क्योंकि ऐसे अल्क़ाब व मोअजेज़ात किसी और नबी से कहीं मंसूब नहीं हैं। मसलन ईसा मसीह क़ुरआन में कलिमतुल्लाह और रूहुम्मिन्हू और अल-मसीह वग़ैरा के अल्क़ाब से मुलक़्क़ब है । कोई और नबी इन अल्क़ाब से मुमताज़ नहीं हुआ। पस इन बातों से हम पर फ़र्ज़ ठहरता है कि मसीह की ज़ात के बारे में तहक़ीक़ात करें हर तरह के पुराने तास्सुब और बे-बुनियाद यूंही माने हुए ख़्यालात को छोड़कर हम क़ुरआन और अहादीस की शहादत पर ग़ौर करें और देखें कि इस अज़-हद ज़रूरी और अहम मसले पर क़ुरआन और अहादीस से किया रोशनी पड़ती है।

Muhammad & the Bible

 

William Goldsack

بِسْمِ اللّهِ الرَّحْمـَنِ الرَّحِيمِ

हज़रत मुहम्मद और किताब-ए-मक़ुदस

यानी

इस दावे की तहक़ीक़ कि तौरेत शरीफ़ और इंजील शरीफ़ में आँहज़रत के

मुताल्लिक़ पेशनगोईयाँ पाई जाती हैं

Muhammad and the Bible

Rev. William Goldsack

Australian Baptist Missionary and Apologist
1871–1957

__________________________

मुसन्निफ़
अल्लामा डब्लयू-गोल्ड सेक साहिब
1955

________________________

पंजाब रिलिजस बुक सोसाईटी
अनारकली – लाहौर
1955 इसवी

بِسْمِ اللّهِ الرَّحْمـَنِ الرَّحِيمِ

 

हज़रत मुहम्मद और किताब-ए-मुक़दस

बहुत से मुसलमानों का अक़ीदा है कि उनके पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहिब के हक़ में तौरेत शरीफ़ और इंजील शरीफ़ में पेशनगोइयाँ मौजूद हैं और बाअज़ मुसलमान मुसन्निफ़ीन ने चंद हवाले भी किताब मुक़द्दस से पेश किए हैं जिनकी बिना पर यह दाअवा किया जाता है कि उनमें पैग़ंबर अरब की बाबत पेशनगोइयाँ पाई जाती है। मुहम्मद साहिब की बाबत पेशनगोइयाँ किताब मुक़द्दस में तलाश करना ख़ाली अज़-इल्लत नहीं है क्योंकि अगर मुसलमानों के ख़्याल के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद साहिब वाक़ई आख़िरी और सबसे बड़े नबी हैं तो जिस तरह सय्यदना मसीह की बाबत यहूदीयों के सहीफ़ों में पेशनगोइयाँ मुन्दरज हैं इसी तरह ज़रूर सहाइफ़ अम्बिया में हज़रत मुहम्मद साहिब अपने आप को उम्मी नबी से मुलक़्क़ब करना पसंद करते थे और अगरचे इस लफ़्ज़ के सही मअनी पर अब तक लोगों में इख़तिलाफ़ है तो भी इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं कि आपने ख़ुद भी मूसवी और मसीही सहीफ़ों को नहीं पढ़ा था लेकिन साथ ही यहूदीयों और मसीहीयों में से एसे नोमुसलमानों की कोई कमी नहीं थी जिन्हों ने हज़रत मुहम्मद साहिब को यह यक़ीन दिला दिया कि आप नबी थे और आपकी आमद की पेशनगोई किताब मुक़द्दस में निहायत वाज़ेह तौर से पाई जाती थी। यहूदीयों के अपने मसीह की इंतिज़ारी के बयानात और मसीहीयों के मसीह की दूसरी आमद के ख़्यालात मिला कर उन लोगों ने एक आने वाले नबी के हक़ में एक आम दलील बनाई जिसके यहूदी और मसीही दोनों मुंतज़िर थे और जिस की बाबत तमाम सहीफ़ों में पेशनगोइयाँ दर्ज हैं ।

इन वजूह की मौजूदगी में यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है । हज़रत मुहम्मद साहिब ने अपनी निस्बत क़ुरआन में यूं तहरीर कर दिया कि :—

النَّبِيَّ الْأُمِّيَّ الَّذِي يَجِدُونَهُ مَكْتُوبًا عِندَهُمْ فِي التَّوْرَاةِ وَالْإِنجِيلِ

इस रसूल को जो नबी है उम्मी जिसको पाते हैं अपने पास लिखा हुआ तौरेत और इंजील में

(सूरा आराफ़ 157 आयत)

और फिर एक जगह और भी सरीह अल्फ़ाज़ में अपनी पेशींगोईयों का यूँ ज़िक्र किया है कि :—

وَإِذْ قَالَ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ إِنِّي رَسُولُ اللَّهِ إِلَيْكُم مُّصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرَاةِ وَمُبَشِّرًا بِرَسُولٍ يَأْتِي مِن بَعْدِي اسْمُهُ أَحْمَدُ ۖ فَلَمَّا جَاءَهُم بِالْبَيِّنَاتِ قَالُوا هَٰذَا سِحْرٌ مُّبِينٌ

तर्जुमा: यानी और जब कहा ईसा मर्यम के बेटे ने ए बनी-इस्राइल ! में भेजा आया हूँ अल्लाह का तुम्हारी तरफ़ सच्चा करता उस को जो मुझसे आगे है तौरेत और ख़ुशख़बरी सुनाता एक रसूल की जो आयोगा मुझसे पीछे उस का नाम है अहमद (सूरा सफ़ 6 आयत)

इन वाक़ियात की मौजूदगी में मुसलमानों के लिए यह बिलकुल फ़ित्री व कुदरती बात है कि अह्देअतीक़ और अह्देजदीद के सहीफ़ों में इन पेशीनगोइयों को तलाश करें जिनका हज़रत मुहम्मद साहिब को.....यक़ीन था कि वो इन सहीफ़ों में मुस्ततिर थीं हमारी ग़रज़ यह है कि हम इस छोटे से रिसाले में किताब मुक़द्दस के इन ख़ास मुक़ामात का मुताअला करें जो अहले इस्लाम बतौर हवाला पेश करते हैं और जिन में पेशीनगोइयों के होने के दावेदार हैं और हमें यह दिखाना है कि इस आयत में भी किसी ऐसे सच्चे नबी की बाबत पेशनगोई नहीं है जो सय्यदना मसीह के बाद आगे आएगा ।

1- इस्तसना की किताब 18 बाब 15 से 21 आयत तक

हज़रत मुहम्मद साहिब के हक़ में किताब मुक़द्दस का जो मुक़ाम अहले इस्लाम सबसे ज़्यादा पेश करते हैं वो इस्तसना की किताब के 18 बाब की 15 आयत से 21 आयत तक है जहां यूं लिखा है :—

"ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी बरपा करेगा। तुम उस की सुनना....मैं उनके लिए इन ही के भाईयों में से तेरी मानिंद एक नबी बरपा करूँगा और अपना कलाम उस के मुँह में डालूंगा और जो कुछ में उसे हुक्म दूंगा वही वो उनसे कहेगा । और जो कोई मेरी इन बातों को जिनको वो मेरा नाम लेकर कहेगा ना सुने तो मैं उनका हिसाब इस से लूँगा ।"

मुसलमान मुनाज़िरीन यह दिखाने को की इस मुन्दरीजा बाला इबारत में हज़रत मुहम्मद साहिब के हक़ में पेशनगोई है इन अल्फ़ाज़ पर-ज़ोर देते हैं कि " इन ही के भाईयों में से " उनका दाअवा यह है कि इन अल्फ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर है कि वो आने वाला नबी जिसकी बाबत यहां पेशनगोई है वो बनी-इस्राइल में से नहीं बल्कि उनके भाईयों में से बरपा होगा और उन से मुराद बनी इस्माईल हैं जिनसे हज़रत मुहम्मद साहिब पैदा हुए ।

इस लिए इस नबुव्वत का मिस्दाक़ सिवाए नबी आज़म अरबी के और कोई नहीं हो सकता नीज़ इन अल्फ़ाज़ पर भी ज़ोर दिया जाता है कि "तुझ सा" यानी मूसा की मानिंद वह नबी बरपा होगा चुनांचे बहुत सी बातों में उनके दर्मियान मुशाबहत बताई जाती है मसलन दोनों ने शादी की और उन की औलाद हुई और दोनों ने तलवार चलाई । मसीहीयों को याद दिलाया जाता है कि उनमें से एक काम भी मसीह ने नहीं किया।

"भाइयों" से बनी-इस्राइल मुराद हैं

जब हम मुंदरजा बाला आयात को इस्लामी तावील की रोशनी में जांचते हैं तो यह तावील एक बड़े मुग़ालता पर मबनी मालूम होती है । सिवाए तास्सुब के और कोई बात उस के मानने पर मजबूर नहीं कर सकती कि " तेरे ही भाईयों में से " के फ़िक़रा से ग़ैर यहूद मुराद हैं। क्योंकि यह लफ़्ज़ "भाईयों" इसी इस्तसना की किताब में बराबर इसी माअनी में मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में इस्तिमाल हुआ है। इस किस्म के मुक़ामात के चंद हवालों से साफ़ ज़ाहिर हो जाएगा कि यह दाअवा कि बनी-इस्राइल के भाईयों से बनी इस्माईल मुराद हैं बिलकुल बे-बुनियाद है। इस्तसना की किताब के 17 वें बाब की 14 वीं और 15 वीं आयत में " भाईयों " का लफ़्ज़ सरीहन ख़ुद इस्राइलियों के लिए इस्तिमाल हुआ है । चुनांचे लिखा है :—

"जब तू इस मुल्क में जिसे ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तुझको देता है पहुंच जाये और इस पर कब्ज़ा करके वहां रहने और कहने लगे कि इन क़ौमों की तरह जो मेरे गिर्दागिर्द हैं मैं भी किसी को अपना बादशाह बनाऊँ तो तू बहर-ए-हाल फ़क़त उसी को अपना बादशाह बनाना जिसको ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा चुन ले। तू अपने भाईयों में से ही किसी को अपना बादशाह बनाना और परदेसी को जो तेरा भाई नहीं अपने ऊपर हाकिम ना कर लेना।"

इन आयतों की तशरीह की चंदाँ ज़रूरत नहीं क्योंकि सबको अच्छी तरह से मालूम है कि यहूदीयो का पहला बादशाह समुएल नबी ने ख़ुद ख़ुदा की हिदायत के मुताबिक़ मम्सुह किया । वो कोई इस़्माईली नहीं बल्कि साउल बिन क़ैस इस्राइल के क़बीला बनियामिन में से था ।

यह 1 समुएल दसवें बाब की 20, 21, 24 वीं आयत से साफ़ ज़ाहिर है चुनांचे यूं मर्क़ूम है।

"पस समुएल इस्राइल के सब क़बीलों को नज़दीक लाया और क़ुरआ बनियामिन के क़बीले के नाम पर निकला। तब वो बनियामिन के क़बीले को ख़ानदान ख़ानदान करके नज़दीक लाया तो मिस्रियों के ख़ानदान का नाम निकला और फिर क़ैस के बेटे साउल का नाम निकला.....और समुएल ने उन लोगों से कहा तुम उसे देखते हो जिसे ख़ुदावंद ने चुन लिया कि इसकी मानिंद सब लोगों में एक भी नहीं? तब सब लोग ललकार बोल उठे कि बादशाह जीता रहे । इन बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि "भाईयों " का इत्लाक़ इसी क़ौम यानी यहूद पर आया है।

अलावा बरीं इस्तसना की किताब के 15 बाब में भी यह लफ़्ज़ बिलकुल इसी मअनी में इस्तिमाल हुआ है चुनांचे मर्क़ूम है :—

"अगर तेरा कोई भाई ख्वाह इब्रानी मर्द हो या इब्रानी औरत तेरे हाथ बिके और वो छः बरस तक तेरी ख़िदमत करे तो तू सातवें साल उस को आज़ाद हो कर जाने देना ।" (12 वीं आयत)

फिर अहबार की किताब के 25 वें बाब की 46 वीं आयत में लिखा है कि "लेकिन बनी-इस्राइल जो तुम्हारे भाई हैं उनमें से किसी पर तुम सख़्ती से हुक्मरानी ना करना।"

इन मुक़ामात से और उन की मानिंद बहुत सी दीगर इबारात से साफ़ ज़ाहिर है कि जब ख़ुदा ने हज़रत मूसा को फ़रमाया कि मैं उनके लिए उनके भाईयों में से एक नबी बरपा करूंगा तो इस से अरब का क़बीला क़ुरैश मुराद नहीं था बल्कि ख़ुद बनी-इस्राइल ही मुराद थे और यह बात ऐसी साफ़ और वाज़ेह है कि इस को राज़ तास्सुब पर हैरत होती है जो उस के ख़िलाफ़ तावील करने पर मजबूर करता है।

मुस्लिम मुनाज़िरीन की यह ग़लती और भी तावील अफु नहीं है क्योंकि ख़ुद उनके अपने क़ुरआन शरीफ़ में यह लफ़्ज़ "भाई" उसी मअनी में इस्तिमाल हुआ है चुनांचे सूरा आराफ़ की 84 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :—

" وَإِلَىٰ مَدْيَنَ أَخَاهُمْ شُعَيْبًا ۗ قَالَ يَا قَوْمِ "

तर्जुमा : यानी और मदयन को भेजा उन का भाई शुऐब बोला ए मेरी क़ौम ।

क़ुरआन शरीफ़ की इस आयत में शुएब अपने क़बीले को "ए मेरी क़ौम" के अल्फ़ाज़ से ख़िताब कर रहे हैं और फिर भी ख़ुदा कह रहा है कि हमने मदयन के पास उनके भाई शुऐब को भेजा। इस आयत पर ज़्यादा लिखना फ़ुज़ूल है क्योंकि अल्फ़ाज़ से ख़ुद ज़ाहिर है कि लफ़्ज़ "भाई" से यहां ख़ुद अपनी क़ौम मुराद है इस्लामी दलील के मुताबिक़ तो लफ़्ज़ " भाईयों" से अदोमी मुराद होंगे इस लफ़्ज़ "भाईयों" के मुताल्लिक़ एक और बात पर ग़ौर करना है और वो ये है कि अगर हम बफ़रज़ महाल यह मान भी लें कि इस्तसना के 18 वें बाब में "भाईयों" का लफ़्ज़ इसी मफ़हूम में इस्तिमाल हुआ है जिसमें अहले इस्लाम पेश करते हैं तो भी हज़रत मुहम्मद साहिब इस से ख़ारिज रह जाते हैं क्योंकि याद रहे कि इस्माईल इस्राइल के भाई नहीं बल्कि चचा थे । इस्राइल यानी याक़ूब के भाई एसु थे। यह पैदाइश की किताब के 25 वें बाब की 24 वीं आयत से 26 वीं आयत तक की इबारत से साफ़ ज़ाहिर है " और जब उस के वज़ा हमल के दिन पूरे हुए तो क्या देखते हैं कि इस के पेट में तवाम हैं और पहला जो पैदा हुआ तो सुर्ख़ था और ऊपर से ऐसा जैसे पश्मीना और उन्हों ने इस का नाम एसु रखा उस के बाद उस का भाई पैदा हुआ और इस का हाथ एसु की एड़ी को पकड़े हुए था और इस का नाम याक़ूब रखा गया।"

लिहाज़ा मुसलमानों की तावील के मुताबिक़ इसी नबी को माअहूद को बनी इस्माईल से नहीं बल्कि अदोमीयों में से होना चाहिए और किताब मुक़द्दस के अल्फ़ाज़ से यह साफ़ ज़ाहिर है । चुनांचे लिखा है "तू किसी अदोमी से नफ़रत ना रखना क्योंकि वो तेरा भाई है।"(इस्तसना 23 बाब 7 आयत) ।

“तुझसे या तेरी मानिंद " से मुराद रुहानी और मन्सबी मुशाबहत है”

इस पेशनगोई के अल्फ़ाज़ के मुताबिक़ कि मैं उनके लिए उनके भाईयों में से तुझसे एक नबी बरपा करूँगा।" मुसलमानों का हज़रत मूसा और हज़रत मुहम्मद साहिब के दर्मियान मुशाबहत साबित करने की कोशिश करना भी लायानी है। यहां जिस मुशाबहत की तरफ़ इशारा है वो कोई जिस्मानी मुशाबहत नहीं है बल्कि रुहानी और मन्सबी मुशाबहत है मुसलमान जो जिस्मानी मुशाबहत पर ज़ोर देते हैं उनको उन मुश्किलात का सामना करना पड़ता है जो इस मुशाबहत को मानने से पेश आती हैं मसलन अहले इस्लाम को फ़ख्र है कि हज़रत मुहम्मद साहिब उम्मी नबी थे जिसका मतलब उनके बयान के मुताबिक़ यह है कि वो लिखना पढ़ना नहीं जानते थे लेकिन किताब मुक़द्दस में मुसा की बाबत लिखा है कि " मूसा ने मिस्रियों के तमाम उलूम की तालीम पाई "(आमाल सातवाँ बाब 22 वीं आयत )

हमारे मुसलमान भाईयों को इस बात में मुशाबहत दिखाने में निहायत दिक़्क़त पेश आएगी।

फिर क़ुरआन शरीफ़ में यह भी आया है कि हज़रत मूसा ने बहुत से मोजज़े दिखाए चुनांचे मर्क़ूम है

कि وَلَقَدْ جَاءَكُم مُّوسَىٰ بِالْبَيِّنَاتِ (सूरा बक़र आयत 92)
यानी तहक़ीक़ आया मूसा तुम्हारे पास निशानीयां लेकर।

लेकिन ख़ुद क़ुरआन शरीफ़ की शहादत से साफ़ ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद साहिब ने कोई मोजिज़ा नहीं दिखाया चुनांचे यूं मर्क़ूम है "

إِنَّمَا الْآيَاتُ عِندَ اللَّهِ وَإِنَّمَا أَنَا نَذِيرٌ مُّبِينٌ

यानी निशानीयां तो अल्लाह के इख़तियार में हैं और में तो साफ़ साफ़ आगाह करने वाला हूँ I

(सूरा अल-अनकबूत 50 वीं आयत)

फिर सूरा बनी-इस्राइल की 59 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

وَمَا مَنَعَنَا أَن نُّرْسِلَ بِالْآيَاتِ إِلَّا أَن كَذَّبَ بِهَا الْأَوَّلُونَ

यानी ए मुहम्मद हमको किसी बात ने नहीं रोका कि तुझे मोजज़ात के साथ भेजते सिवा उस के कि अगलों ने उनको झुठलाया ।

अगर इस किस्म की शख़्सी मुशाबहत पुर इस्ऱार किया जाये तो फिर यह दिखाने में निहायत दिक़्क़त पेश आऐगी कि किस लिहाज़ से हज़रत मुहम्मद साहिब को मूसा की मानिंद कहा जा सकता है? यह कहना कि दोनों ने शादियां कीं और तलवार चलाई बहुत कम एहमीयत रखता है क्योंकि इसी तरह तो झूटे नबी मुसल्लमा और दूसरे कज़्ज़ाब नबियों ने भी यही किया। यह बशारत इस नबी के लिए है जो बनी-इस्राइल की तरफ़ भेजा जाने को था । लेकिन इस पेशनगोई के मुताल्लिक़ एक और बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है। इस बाब मज़कूरा की 15 वीं आयत में लिखा है कि ख़ुदा फ़रमाता है कि "तेरे लिए" यानी बनी-इस्राइल के लिए वह नबी मबऊस होगा । अब ख़ूब वाज़ेह है कि हज़रत मुहम्मद साहिब ने एक ख़ास मअनी में यहूदीयों के लिए नहीं बल्कि अरबों के लिए अपने आपको पैग़ंबर बताया चुनांचे सूरा तौबा में मर्क़ूम है कि :—

لَقَدْ جَاءَكُمْ رَسُولٌ مِّنْ أَنفُسِكُمْ

यानी आया है कि तुम्हारे पास रसूल तुम्हारे में का (सुरह तौबा 128)

और फिर सूरा इब्राहीम की चौथी आयत में लिखा है कि :—

وَمَا أَرْسَلْنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا بِلِسَانِ قَوْمِهِ

और कोई नहीं रसूल भेजा हमने मगर बोली बोलता अपनी क़ौम की ।

फिर सूरा क़सस की 46 वीं आयत में यूं मुन्दरज है:—

وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ الطُّورِ إِذْ نَادَيْنَا وَلَٰكِن رَّحْمَةً مِّن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوْمًا مَّا أَتَاهُم مِّن نَّذِيرٍ مِّن قَبْلِكَ

यानी और तू ना था तुर के किनारे जब हमने आवाज़ दी लेकिन यह महर है तेरे रब की कि तू डर सुनादे उन लोगों को जिन पास नहीं आया कोई डर सुनाने वाला तुझसे पहले।

जब नाज़रीन मज़कूरा बाला तीनों आयात कुरानी का बग़ौर मुताअला करेंगे तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि यह दाअवा किस क़दर सच्चाई से बईद है कि हज़रत मुहम्मद साहिब इस बशारत के मिस्दाक़ हैं जिसके मुताबिक़ "तेरे लिए" यानी यहूदीयों के लिए नबी का बरपा होना बयान किया गया है। इस में कोई शक नहीं कि हज़रत मुहम्मद साहिब इब्रानी से नावाक़िफ़ थे और मशहूर मिशकात-उल-मसाबिह की किताब अल-आदाब में बयान है कि हज़रत मुहम्मद साहिब ने अपने कातिब जै़द को इब्रानी सीखने की हिदायत की ताकि यहूदीयों के साथ ख़त-ओ-किताबत कर सकें।

अगर हज़रत मुहम्मद साहिब ऐसे लोगों की तरफ़ मबऊस हुए जिनमें आपसे पहले कोई नबी मबऊस नहीं हुआ तो आप यहूदीयों के लिए हरगिज़ मबऊस नहीं हुए थे क्योंकि ख़ुद क़ुरआन शरीफ़ की शहादत के मुताबिक़ उनमें पैग़म्बरों का तवील सिलसिला जारी रह चुका था। यह दो पुरमाअनी अल्फ़ाज़ "तेरे लिए" इस दाअवा की तरदीद को काफ़ी हैं कि हवाला ज़ेर-ए-बहस में हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए पेशनगोई है। इस आयत का सरीह मतलब यह है कि इस बशारत से मुराद सय्यदना मसीह हैं जो एक ख़ास माअनी में यहूदीयों के लिए भेजे गए जैसा कि ख़ुद मसीह ने इन अल्फ़ाज़ में दाअवा किया है :—

"मैं इस्राइल के घराने की खोई हुई भेड़ों के सिवा और किसी के पास नहीं भेजा गया"

(मत्ती 15 बाब 24 आयत )

इस बशारत के मुताबिक़ यह नबी यहूदीयों में से बरपा
होने वाला था

इस्तसना का हवाला साफ़ तौर से बताता है कि नबी माअहूद यहूदीयों के "दर्मियान से" बरपा होने को था। यह बशारत किसी मअनी में भी हज़रत मुहम्मद साहिब पर सादिक़ नहीं आ सकती क्योंकि वो यहूदिया में नहीं बल्कि सैंकड़ों मील के फ़ासिला पर मक्का में अरब के बुत परस्तों के दर्मियान

पैदा हुए । बरअक्स उस के इस पेशनगोई में मसीह की बाबत बशारत है क्योंकि वो दाऊद के शहर बैतलहम में पैदा हुआ और तमाम उम्र के दर्मियान रहा जिनमें मुर्सल हो कर आया था । मसीह बिलकुल लफ़्ज़ी माअनी में बनी-इस्राइल के “दर्मियान से” बरपा हुआ और मूसा की इस अजीब पेशनगोई की हर बात इस में पूरी हुई । इस का सबसे बड़ा काम अपने लोगों को गुनाह की गु़लामी से मख्लिसी बख़्शना था । ठीक जिस तरह मूसा ने बनी-इस्राइल को मिस्र की गु़लामी के जुए से बचाया था और ऐन जिस तरह मूसा ने इस्राइल की नाफ़रमानी के सबब से ख़ुदा से सिफ़ारिश की थी इसी तरह अब मसीह भी अपने लोगों के लिए बड़ा शफ़ी बन कर ख़ुदा ताअला के दहने हाथ बैठा है।

इंजील में यह पेशनगोई सय्यदना ईसा मसीह के हक़
में दिखाई गई है

आख़िरी बात इस बशारत के मुताल्लिक़ यह है कि कलाम इलाही यानी इंजील मुक़द्दस में यह साफ़ तौर से बताया गया है कि मूसा की यह पेशनगोई सय्यदना ईसा मसीह के हक़ में है । चुनांचे आमाल की किताब में लिखा है —

" मूसा ने कहा कि ख़ुदावंद ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए मुझसा एक नबी पैदा करेगा। जो कुछ वो तुमसे कहे उस की सुनना। और यूं होगा कि जो शख़्स इस नबी की ना सुनेगा वो उम्मत में से नेस्त व नाबूद कर दिया जाएगा बल्कि समुएल से लेकर पिछलों तक जितने नबियों ने कलाम किया इन सबने इन दिनों की ख़बर दी है । तुम नबियों की औलाद और इस अह्द के शरीक हो जो ख़ुदा ने तुम्हारे बाप दादा से बाँधा जब इब्राहीम से कहा कि तेरी औलाद से दुनिया के सब घराने बरकत पाएँगे । ख़ुदा ने अपने ख़ादिम को उठा कर पहले तुम्हारे पास भेजा ताकि तुम में से हरा एक को इस की बदियों से हटा कर बरकत दे।" (आमाल 3 बाब 22-26 आयत)

इस के अलावा ख़ुद सय्यदना मसीह ने एक मौक़े पर क़तई तौर से इन अल्फ़ाज़ में कहा कि :—

"अगर तुम मूसा का यक़ीन करते तो मेरा भी यक़ीन करते इस लिए कि उसने मेरे हक़ में लिखा है” (युहन्ना 5:46 आयत ) पस अब नतीजा साफ़ ज़ाहिर है कि इस्तसना के अठारहवें बाब की बशारत सिवाए ईसा इब्ने मर्यम के और किसी के लिए नहीं है और हर ज़माना में यह इलाही पैग़ाम लोगों को आगाह करता रहा है कि "जो कोई मेरी बातों को जो वो मेरे नाम से कहेगा ना सुनेगा तो में उस का हिसाब उस से कहूंगा ।"

(2) इस्तसना बाब 33 आयत 2

किताब मुक़द्दस का दूसरा मुक़ाम जो अहले इस्लाम हज़रत मुहम्मद के हक़ में पेशनगोई के मुताल्लिक़ पेश करते हैं वो इस्तसना की किताब के 33 बाब की 2 आयत है जिसमें यूं मर्क़ूम है "ख़ुदावंद सिनाई से आया और शईर से उन पर आश्कारा हुआ। वो कोह-ए-फ़ारान से जलवागर हुआ।" इस आयत के मुताल्लिक़ मुस्लिम मुनाज़िरीन यूं लिखते हैं कि " मज़कूरा बाला हवाला तीन हिस्सों में तक़सीम किया जा सकता है । पहले हिस्से के अल्फ़ाज़ कि "ख़ुदावंद सिनाई से आया उन हैबतनाक क़ुदरत के कामों में जो हज़रत मूसा के ज़रीये से हुए और इस मज़हब में जिसकी तब्लीग़ हज़रत मूसा ने की पुरे हुए हैं और दूसरे हिस्से के अल्फ़ाज़ कि " शईर से उन पर आश्कारा हुआ "हज़रत ने ईसा हैं और उस इंजील में जिसकी आपने मुनादी की पाया-ए-तकमील को पहुंचे हैं। इस के बाद अल्लाह ताअला अपने ख़ादिम की ज़बानी एक आने वाले वाक़िया का ज़िक्र करता है और इस तीसरे हिस्से के यह अल्फ़ाज़ कि:—

"वो कोहॱएॱ फ़ारान से जलवागर हुआ" अजीब और लफ़्ज़ी तौर पर हज़रत मुहम्मद में पूरे होते हैं। (देखो बाइबले मुहम्मद मतबूआ कलकत्ता 1320 हि सफ़ा 17)

फ़ारान अपनी जुग्राफियाई हालत के एतबार से मुहम्मद साहिब और सय्यदना मसीह की बशारत का मौज़ू नहीं हो सकता

अगर यह मुसलमान मुसन्निफ़ जिसने मज़कूरा बाला इबारत को लिखा है इस बियाबान के जुग्राफिया का मुताअला कर लेता जिसमें बनी-इस्राइल मिस्र से निकल कर कनआन के मुल्क मौऊद की तरफ़ जाते वक़्त गर्दिश करते रहे और कम अज़ कम सरसरी तौर पर क़दीम दुनिया के इस हिस्सा का नक़्शा भी देख लेता तो ज़ी फ़हम लोगों में अपनी हंसी कराने से बच जाता।

इस ख़ित्ता अर्ज़ के ख़ाका पर नज़र डालते ही मालूम हो जाएगा कि सिनाई, शईर और फ़ारान जज़ीरा नुमाए सिनाई के तीन पहाड़ हैं जो फ़िलिस्तीन और बहीरा अह्मर के दर्मियान आस-पास वाक़ेअ हैं। इस हवाला मज़कूरा में हज़रत मूसा और सय्यदना मसीह और हज़रत मुहम्मद साहिब के हक़ में बशारत निकालना ना सिर्फ ख़्याली और जुग्राफियाई एतबार से ग़लत है बल्कि इस मुक़ाम के असल मतलब से भी गुरेज़ करना है जिसमें किसी नबी की तरफ़ ज़रा भी इशारा नहीं पाया जाता। इस आयत में गुज़िश्ता तवारीख़ी वाक़ियात की तरफ़ इशारा है और इस में बनी-इस्राइल को इस इलाही जलाल और क़ुदरत के अजीब इज़हार की याद दिलाई गई है जो उन्होंने बियाबान में मुसाफ़िरत के दौरान में मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर देखा था। नाज़रीन इबारात जे़ल से इस आयत का मुक़ाबला करके उस की तस्दीक़ कर सकते हैं ख़ुरूज की किताब 19 बाब गिनती की किताब 13 14 और 16 बाब।

किसी एक लफ़्ज़ या आयत को मसीही सहीफ़ों में से लेकर उसे असल इबारत से बिलकुल जुदा कर के इस की ख़ाली तावील करना ऐसी सख़्त ग़लती है जो मुसलमान मुनाज़िरीन बराबर किया करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि उनको कभी यह ख़्याल भी नहीं आता कि इन नामों और जगहों के हवालों को किताब मुक़द्दस के उन दूसरे मुक़ामात में भी देख लें जिनसे शायद सवालात ज़ेर-ए-बहस पर कुछ रोशनी पड़े । अब इस आयत से जो फ़ीलहाल ज़ेर-ए-नज़र है मालूम हो जाएगा कि इस का नतीजा बिलकुल ग़लत निकलता है। अगर "बाइबले मुहम्मद" के मुसन्निफ़ जनाब अदहु मियां किताब मुक़द्दस में इन बहुत से मुक़ामात का मुताअला करलेते जिनमें शईर और फ़ारान दोनों का ज़िक्र आया है तो हरगिज़ ऐसी बेवक़ूफ़ी ना करते कि इन पहाड़ों से सय्यदना मसीह और हज़रत मुहम्मद साहिब की रिसालत की बशारत मुराद लेते। इस ख़ित्ता मुल्क के जुग्राफिया के मुताअला से साफ़ ज़ाहिर है कि मसीह ने "शईर का सफ़र हरगिज़ नहीं किया और हज़रत मुहम्मद साहिब को फ़ारान का कुछ इल्म ना था। असल वाक़िया यह है कि इस ज़माना में ज़बले शईर अदोमीयों का मुल्क था और बहर-ए-मुर्दार के जुनूब में कुछ फ़ासिले पर यह पहाड़ वाक़ेअ है। पैदाइश की किताब 32 बाब की 13 आयत से यह बख़ूबी ज़ाहिर है जहां यूं लिखा है कि और "याक़ूब ने अपने आगे आगे क़ासिदों को अदोम के मलिक को जो शईर की सर ज़मीन में है अपने भाई एसु के पास भेजा और "यही बात पैदाइश के 36 बाब की 8, 9 आयतों से और भी ज़्यादा वाज़ेह हो जाती है।" पस ऐसु जिसे अदोम भी कहते हैं। कोह शईर में रहने लगा और एसु का जो कोह शईर के अदोमीयों का बाप है यह नसब नामा है।

अलावाबरें बियाबान में बनी-इस्राइल की मुसाफ़िरत के अहवाल का मुताअला यह ज़ाहिर करता है कि इन को मुल्क कनआन में बनाने के लिए अदोमीयों के दर्मियान से हो कर गुज़रना ज़रूर था। चुनांचे लिखा है :—

तब मूसा ने कादस से अदोम के बादशाह के पास एलची रवाना किए और कहला भेजा कि तेरा भाई इस्राइल यह अर्ज़ करता है कि तू हमारी सब मुसीबतों से जो हम पर आएं वाक़िफ़ है..... सो हम को अपने मुल्क में से हो कर जाने की इजाज़त दे.......... शाह अदोम ने कहला भेजा कि तू मेरे मुल्क से हो कर जाने नहीं पायगा । वर्ना मैं तलवार लेकर तेरा मुक़ाबला करूंगा । (गिनती 20 बाब 14, 17, 18 आयतें ) अब इस इबारत से साफ़ ज़ाहिर है कि मिस्र से निकल कर मुसाफ़िरत करते वक़्त अदोमीयों की सरज़मीन में और इसी तरह कोहॱएॱ शईर कनआन पहुंचने से पेशतर रास्ता में थे।

अलावा बरें इस्तसना की किताब के पहले बाब की दूसरी आयत में यू मर्क़ूम है कि "कोह शईर की राह से होरब से क़ादिस बरनीअ तक ग्यारह दिन की मंज़िल है।" अब इस हवाले से यह बात और भी मुस्तहकम हो जाती है और हम साबित कर चुके हैं कि जब शईर होरब और क़ादिस बरनीअ के दर्मियान वाक़ेअ है और यह दोनों आख़िर अलज़िकर मुक़ामात बहर-ए-मुर्दार के जुनूब में हैं।

अब नाज़रीन पर इस मसले की ख़ुराफ़ात बख़ूबी वाज़ेह हैं और हैरत तो यह है कि बहोतेरे मशहूर मुसलमान मुसन्निफ़ों ने भी यही दाअवा किया है कि लफ़्ज़ जबल शईर का इलाक़ा सय्यदना मसीह की रिसालत से है। चुनांचे एक और मुसलमान मुसन्निफ़ रक़मतराज़ है कि " शईर मुल्क-ए-शाम के एक पहाड़ का नाम है जिस पर मसीह जाया करते थे और जहां आपको फ़रिश्तों की मार्फ़त इंजील के मुताल्लिक़ अहकाम मिले" (प्रूफ आफ़ प्रोफेट मुहम्मद फ्रोम दी बाइबल मतबूआ लाहौर सफ़ा 12) हमको मालूम है कि मसीह बैत लहम में पैदा हुआ है और शुमाली सूबा गलील के शहर नासरत में परवरिश पाई और तमाम उम्र अपने आबाई मुल्क में लोगों को तालीम देता रहा। मसीह का अदोम में होना तो दूर की बात है बल्कि बरअक्स उस के हज़क़ईल नबी ने साफ़ तौर पर बता दिया है कि अहले अदोम यानी जबल शईर के बाशिंदे यहूदीयों के सख़्त मुख़ालिफ़ थे। इस नबी की किताब के 35 बाब में उनके शहर की तबाही की पेशनगोई निहायती सफ़ाई से दर्ज है। लिहाज़ा यह दाअवा कि यह अल्फ़ाज़ "वो शईर से उन पर आश्कारा हुआ" सय्यदना मसीह में और इंजील में जिसकी आपने मुनादी की पूरे होते हैं बिलकुल बे-बुनियाद है और अक्ल और किताब से बिलकुल उस का कोई ताल्लुक़ नहीं।

यह निहायत अफ़सोसनाक बात है कि मुसन्निफ़ीन मज़कूरा फ़ारान की जुग़राफ़ियाई हालत से भी ऐसे ही नावाक़िफ़ हैं जैसे जबल शईर से। हज़रत मुहम्मद साहिब का फ़ारान में पैदा होना या उनका वहां रहना तो दूर की बात है लेकिन बरअक्स उस के काफ़ी सबूत मौजूद है कि जबल फ़ारान मक्का से जो कि हज़रत मुहम्मद साहिब का मुसल्लमा पैदाइशी मुक़ाम है जुनूब को पाँच सौ मील के फ़ासले पर वाक़ेअ है और ना सहीफ़ा में और ना तवारीख़ में कोई ऐसी बात है जिससे पैग़ंबर इस्लाम का कोई भी इलाक़ा जबल फ़ारान से होना साबित हो सके। फ़ारान के मुताल्लिक़ किताब मुक़द्दस की इबारत को देखने से यह बात और भी सरीह तौर पर वाज़ेह हो जाएगी। असल बात यह है कि फ़ारान सिनाइ के शुमाल में एक पहाड़ था जैसा कि किताब मुक़द्दस के इस मुक़ाम से ज़ाहिर है कि "तब बनी-इस्राइल दश्तॱएॱ सीना से कूच करके निकले और वुह अब्र दश्त-ए- फ़ारान में ठहर गया" (गिनती 10 बाब 12 आयत ) अलावा बरीं निहायत सफ़ाई के साथ बयान हुआ है कि जब बनी-इस्राइल मिस्र से सफ़र करके कनआन के जुनूबी हिस्सा के क़रीब पहुंचे तो मूसा ने "दश्त फ़ारान" से वाअदे की सरज़मीन में मुख़्बिरी के लिए चंद जासूस भेजे। चुनांचे यूं मर्क़ूम है "इस के बाद वो लोग हसीरात से रवाना हुए और दश्त-ए-फ़ारान में पहुंच कर उन्होंने डेरे डाले.......और ख़ुदावंद ने मूसा से कहा तू आदमीयों को भेज कर वो मुल्क कनआन का जो मैं बनी-इस्राइल को देता हूँ हाल दरयाफ़त करें (गिनती बाब 12:16 आयत से बाब 13:2 आयत) इन जासूसों का वापिस आना ख़ुदा के जलाल के ज़ाहिर होने का एक ख़ास मौक़ा था। चुनांचे लिखा है कि "इस वक़्त ख़ेमा इज्तिमा में सब बनी-इस्राइल के सामने ख़ुदावंद का जलाल नुमायां हुआ"(गिनती बाब 14:10आयत) अब नाज़रीन ख़ुद ही फ़ैसला करलें कि इन अल्फ़ाज़ से कि " फ़ारान ही के पहाड़ से वो आश्कारा हुआ" कोई भी इशारा उस की ज़ात की तरफ़ पाया जाता है जो मक्का में फ़ारान से पाँच सौ मील के फ़ासिला पर जुनूब की तरफ़ पैदा हुआ? या इस से ख़ुदा का वो ख़ास जलाल मुराद है जो बनी-इस्राइल पर फ़ारान में बमूजब तहरीर मज़कूरा नुमायां हुआ I

(3) पैंतालीसवां 45 ज़बूर

चंद मुसलमान मुसन्निफ़ीन दाअवा करते हैं कि 45 ज़बूर में हज़रत मुहम्मद साहिब के हक़ में बशारत है और वो ख़ासकर तीसरी चौथी और पांचवी आयत इस ज़बूर की पेश करते हैं और कहते हैं कि उनमें हज़रत मुहम्मद साहिब का सरीह ज़िक्र मौजूद है चुनांचे वो अल्फ़ाज़ यह हैं :—

"ए ज़बरदस्त ! तू अपनी तलवार को जो तेरी हशमत व शौकत है अपनी कमर से हमाइल कर। और सच्चाई और हलीम और सदाक़त की ख़ातिर अपनी शानोशौकत में इक़बालमंदी से सवार हो और तेरा दाहिना हाथ तुझे मुहीब काम दिखाएगा। तेरे तीर तेज़ हैं। वो बादशाह के दुश्मनों के दिल में लगे हैं।"

इस ज़बूर में एक इलाही हस्ती का ज़िक्र है

अगर नाज़रीन इस तमाम ज़बूर को जिसमें यह आयतें पाई जाती हैं ग़ौर से पढ़ेंगे तो उनको मालूम हो जाएगा कि इस में हज़रत मुहम्मद साहिब का कोई ज़िक्र नहीं है ग़ालिबन इस में पहले सुलेमान बादशाह के एक ग़ैर मुल्की शाहज़ादी के साथ शादी करने की तरफ़ इशारा है और इस शादी का ज़िक्र सलातीन की पहली किताब में मौजूद है चुनांचे लिखा है कि "और सुलेमान ने मिस्र के बादशाह फ़िरऔन से रिश्तेदारी की और फ़िरऔन की बेटी ब्याह ली और जब तक अपना महल और ख़ुदावंद का घर और यरूशलेम के चौगिर्द दीवार ना बना चुका उसे दाऊद के शहर में ला रखा (1 सलातीन 3 बाब 1) लेकिन अगर ग़ौर के साथ इस ज़बूर का मुताअला किया जाये । तो ज़ाहिर होगा कि इस का मतलब और भी गहरा है और एक ऐसे शख़्स की तरफ़ इशारा है जो सुलेमान से बहुत बुज़ुर्ग व बरतर है और जिस में पुर-इस्ऱार तौर से उलूहियत पाई जाती है। चुनांचे छठी आयत में जिसे मुसलमान मुसन्निफ़ीन इक़तिबास करते वक़्त बड़ी एहतियात से छोड़ देते हैं इस शख़्स को यूं ख़िताब किया है "तेरा तख़्त ऐ ख़ुदा अबद-उल-आबाद है" सिर्फ यही आयत मुसलमानों के दाअवा को बे-बुनियाद साबित करने के लिए काफ़ी है क्योंकि ये तो सब मानते हैं कि हज़रत मुहम्मद साहिब ने कभी उलूहियत का दाअवा नहीं किया।

इंजील में इस ज़बूर का हवाला मसीह के हक़ में
पेश किया गया है

बरअक्स उस के इंजील में बड़ी सफ़ाई के साथ यह ज़बूर सय्यदना ईसा मसीह की शान में इस्तिमाल हुआ है जिसकी ताज़ीम मुसलमान कलामउल्लाह व रुहुल्लाह के खिताबों से करते हैं । चुनांचे यूं मर्क़ूम है । "मगर बेटे की बाबत कहता है कि ऐ ख़ुदा तेरा तख़्त अबद-उल-आबाद रहेगा। (इब्रानियों बाब 1:8) ख़ुदा के कलाम की इस इबारत से साफ़ ज़ाहिर है कि यह ज़बूर मसीह की शान में है और दुल्हन से मसीही कलीसिया मुराद है और यह ख़्याल कि मसीही कलीसिया मसीह की दुल्हन है पाक नविश्तों में बार-बार पाया जाता है और इस से ज़बूर ज़ेर-ए-बहस के मुताल्लिक़ जो हमारी राय है इस की और भी तस्दीक़ होती है चुनांचे पौलुस रसूल कुरंथियों की कलीसिया को लिखते वक़्त कहता है "मैंने एक ही शौहर के साथ तुम्हारी निस्बत की है ताकि तुमको पाक दामन कुँवारी की मानिंद मसीह के पास हाज़िर करूँ" (2 कुरंथियों 11 बाब 2) और इसी तरह युहन्ना रसूल अपनी रोया कलमबंद करते हुए लिखता है "फिर मैंने शहर मुक़द्दस नए यरूशलेम को आसमान पर से ख़ुदा के पास उतरते देखा और वो इस दुल्हन की मानिंद आरास्ता था जिसने अपने शौहर के लिए सिंगार क्या हो।" (मुकाशफ़ा 21 बाब 2)

मुसलमान मुनाज़िरीन इस ज़बूर में "तलवार" और "तीर" के ज़िक्र से हुज्जत पेश करते हैं कि यह मसीह के हक़ में नहीं है और फिर फ़ख्र के साथ पूछते हैं कि क्या हज़रत ईसा भी कभी जंगी सिपाही थे गोया इसी बात पर ज़बूर की बशारत के मसीही या मुहम्मदी होने का दार-ओ-मदार है। उनको यह याद नहीं रहता कि लफ़्ज़ तलवार रुहानी माने भी इस्तिमाल होता है। हक़ीक़त तो यह है कि इसी मअनी में यह लफ़्ज़ इंजील में इस्तिमाल हुआ भी है चुनांचे पौलुस रसूल अपने मसीही नव-मुरीदों को " इस दुनिया की तारीकी के हाकिमों और शरारत की इन रुहानी फ़ौजों से जो आसमानी मुक़ामों में हैं "जंग की तरग़ीब देता हुआ कहता है कि "रूह की तलवार जो ख़ुदा का कलाम है ले लो" (एफसियों 6 बाब 17) और जिस ख़ूबी के साथ सय्यदना मसीह ने इस रूह की तलवार का इस्तिमाल क्या वो शैतान से आज़माऐ जाने के इस बयान से ज़ाहिर है जो मत्ती की इंजील के चौथे बाब में मर्क़ूम है जहां शैतान की हर आज़माईश का जवाब मसीह ने इलाही नविश्ता से दिया और यूं उस के हर हमले को रोका।

(4) ग़ज़ल अलग़ज़लात 5 बाब 10 से 16 आयत

ग़ज़ल अलग़ज़लात के पांचवें बाब की 10 वीं आयत से 16 वीं आयत तक बतौर बशारत मुहम्मदी के मुसलमान पेश करते हैं । यह इबारत यूं है :—

"मेरा महबूब सुर्ख़ व सफ़ीद है । वो दस हज़ार में मुमताज़ है। उस का सर ख़ालिस सोना है। उस की ज़ुल्फ़ें पेच दरपेच और कव्वे सी काली हैं। उस की आँखें इन कबूतरों की मानिंद हैं जो दूध में नहा कर लब-ए-दरिया तमकनत से बैठे हों । उस के रुख़्सार फूलों के चमन और बिल्सान की उभरी हुई कियारियाँ हैं। उस के होंट सोसन हैं जिनसे रक़ीक़ मुर टपकता है। उस के हाथ ज़बरजद से मुरस्सा सोने के हल्क़े हैं। उस का पेट हाथीदांत का काम है जिस पर नीलम के फूल बने हों। इस की टांगें कुन्दन के पायों पर संगमरमर के सुतून हैं। वो देखने में लुबनान और ख़ूबी में रशके सर्द है। इस का मुँह अज़बस शीरीं है। हाँ वो सरापा इश्क़ अंगेज़ है।ए यरुशलिम की बेटियों ! यह है मेरा महबूब । यह है मेरा प्यारा ।

अब ताज्जुब है कि एक बंगाली ज़बान की किताब " बाइबले मुहम्मद" का मुसलमान मुसन्निफ़ इस इबारत मज़कूरा के मुताल्लिक़ यूं लिखता है "अगरचे हज़रत सुलेमान दाना ने शख़्स मौसूफ़ की तारीफ़ शायराना पैराया में की है तो भी पूरा बयान आख़िरी नबी के नूर और हुस्न व जमाल के बिलकुल मुताबिक़ है। यही नहीं बल्कि इबारत मर्क़ूमा के आख़िरी जुमला में हज़रत सुलेमान ने रूहुल-क़ुद्दुस की तहरीक से अपने इस महबूब का नाम भी बता दिया कि वो मुहम्मद है। हम नहीं जानते कि आजकल की मुरव्वजा बाइबल में इब्रानी लफ़्ज़ "महमदीम" का जो तर्जुमा दर्ज है वो ब सबब लाइल्मी के है या फ़रेब देने के लिए । अंग्रेज़ी में लफ़्ज़ "महमदीम" का तर्जुमा लवली है । अगर यह ग़लत है चाहिए था कि अंग्रेज़ी में इस का तर्जुमा मुअज़्ज़िज़ या महमूद किया जाता । हमारी राय में मुनासिब तो यह था कि उस का तर्जुमा बिलकुल किया ही ना जाता" बाइबले मुहम्मद सफ़ा 18, 19)

यह इबारत ख़ुदा और इस के लोगों की बाहमी मुहब्बत को ज़ाहिर करती है

इस मुसलमान मुसन्निफ़ की मज़कूरा बाला इबारत में जो जहालत दिखाई गई है हमको उस के जवाब में यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं कि किताब मुक़द्दस की इन आयात ज़ेर-ए-बहस में हज़रत मुहम्मद साहिब का कुछ भी ज़िक्र नहीं है। यह अमर मुसलिमा है कि ग़ज़ल अलग़ज़लात इस्तिआरा के पैराया में लिखी गई है। इस में एक आला शायराना रंग में इस मुहब्बत के रिश्तेदार का ज़िक्र है जो ख़ुदा और ख़ुदा के बरगज़ीदों के दर्मियान है और या मज़कूरा बाला इबारत इस बयान का सिर्फ एक हिस्सा है। किताब "बाइबले मुहम्मद" के मुसन्निफ़ ने इबारत के सिलसिला को छोड़कर सिर्फ लफ़्ज़ "महमदीम" ले कर यह हुज्जत क़ायम करना चाहा है कि यह एक ज़ाती नाम है और इस से मुराद हज़रत मुहम्मद साहिब हैं ! दरअसल यह लफ़्ज़ इल्म यानी कोई ख़ास नाम नहीं है और ना उस का तर्जुमा मुहम्मद है। यह इस्म-ए-नकरा है और इस का इस्म मुश्तर्क होना इस से ज़ाहिर है कि यह बतौर वाहिद के नहीं बल्कि जमा के सीग़ा में इस्तिमाल हुआ है और अक्सर किताब मुक़द्दस में चीज़ों और लोगों दोनों के लिए पाया जाता है। हम यह दिखाने के लिए यह लफ़्ज़ ना इस्म-ए-ख़ास है और ना उस के मअनी मुहम्मद हैं चंद हवाले पेश करते हैं जहां यह लफ़्ज़ आया है और इस दाअवा मज़कूरा का पता लग जाएगा। अगर नाज़रीन हज़क़ील नबी की किताब के 24 वें बाब की 16 वीं आयत पड़ेंगे तो यूं लिखा पाएंगे "ए आदमजा़द देख में तेरी मंज़ूरे नज़र (महमदीम) को एक ही ज़र्ब मैं तुझसे जुदा करूंगा । लेकिन तू ना मातम करना और ना रोना। और ना आँसू बहाना । "फिर उसी बाब की 18 वीं आयत से साफ़ ज़ाहिर है कि हिजक़ील नबी की मंज़ूरे नज़र से मुराद उस की बीवी है जिसे ख़ुदा ने वफ़ात दी । क्या यहां भी यही दलील पेश की जाएगी कि चूँकि इस बाब मज़कूरा की सोलहवीं आयत में इब्रानी लफ़्ज़ “महमदीम" है इस लिए यह भी बशारत मुहम्मदी है !

अलावा-बरें इसी तरह पहले सलातीन के बीस बाब की छटी आयत में चीज़ें हैं चुनांचे लिखा है "लेकिन अब में कल उसी वक़्त अपने खादिमों को तेरे पास भेजूँगा सो वो तेरे घर और तेरे खादिमों के घरों की तलाशी लेंगे और जो कुछ तेरी निगाह में नफ़ीस (महमदीम) होगा वो उसे अपने क़बज़ा में करके ले आएंगे । "पूरी इबारत से साफ़ ज़ाहिर है कि यहां इराम के बादशाह बनहदद का ज़िक्र है जिसने शाह इस्राइल के पास क़ासिद भेज कर धमकी दी कि वो इस्राइल के घरों की तमाम चीज़ें जो उनकी निगाह में नफ़ीस हैं लूट ले जाएगा अब हम पूछते हैं कि एक लम्हा के लिए भी यह दलील पेश की जा सकती है कि चूँकि यहां इब्रानी लफ़्ज़ महमदीम आया है इस लिए यह बशारत मुहम्मदी है ? इबारत के सिलसिला के इलावा जिससे मतलब साफ़ ज़ाहिर होता है किया तवारीख़ से कहीं भी इस बात का पता लगता है कि किसी ग़ैर मुल्की बादशाह ने हज़रत मुहम्मद साहिब को क़ैद किया और उन को बतौर असीर ग़ैर मुल्क में ले गया ? ग़रज़ कि मुसलमान मुसन्निफ़ की सब बातें मुहमल हैं और उन से सिर्फ यह ज़ाहिर होता है कि जो लोग बग़ैर इब्रानी का इल्म हासिल किए चंद इब्रानी अल्फ़ाज़ के माअनों के ज़रीया से दलील निकालने की जुरात करते हैं वो अपने इल्मी इफ़्लास का सबूत देते हैं । हक़ीक़त तो यह है कि यह सारी दलील ही तिफ़लाना है और काबिल-ए-तवज्जा नहीं । अगर लफ़्ज़ महमदीम और लफ़्ज़ मुहम्मद में मुशाबहत होने के सबब से हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए बशारत समझी जाती है तो फिर क़ुरआन में हिंदू राम अवतार के लिए बशारत मौजूद होने की दलील क्यों ना पेश करें क्योंकि क़ुरआन में लफ़्ज़ रुम आया है।

(5) यासयाह बाब 21 आयत 7

यह बड़े अफ़सोस की बात है कि मुसलमान लोग अक्सर हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत की तलाश के शौक़ में किताब मुक़द्दस के मुक़ामात की अजीब व बेमानी तावील करते हैं । अगर पाक किताब में कहीं उनको लफ़्ज़ "तलवार" मिल जाता है तो बस फिर किया है ? हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत का एक गुल मच जाता है इसी तरह अगर लफ़्ज़ ऊंट उनको कहीं नज़र पड़ जाता है तो इस पर भी कहने लगते हैं कि आख़िरश एक अरबी शरीयत देने वाले की सरीह पेशनगोई मिल गई । यासायाह नबी के 21 बाब 7 आयत की जो तावील मुसलमानों ने की है उसे देख कर हम ने यह बातें लिखी हैं और जिस ग़लती की हमने शिकायत की है इस की यह तावील एक उम्दा नज़ीर है। चुनांचे वहां मर्क़ूम है:—

"उसने सवार देखे जो दो-दो आते थे और गधों पर और ऊंटों पर सवार और इस ने बड़े ग़ौर से सुना।" यह सुनकर ताज्जुब होता है कि चंद मुसलमान मुसन्निफ़ों को इस में भी बशारत मुहम्मदी मालूम हुई है और हम को बताया जाता है कि गधों पर सवार से हज़रत ईसा मुराद हैं क्योंकि वो एक मर्तबा गधे पर सवार हो कर यरूशलेम में दाख़िल हुए और इस से भी अजीबतर बात यह है कि ऊंटों पर सवार से हज़रत मुहम्मद साहिब मुराद हैं क्योंकि आप अक्सर ऊंट की सवारी किया करते थे। गोया कोई और सिवाए हज़रत मुहम्मद साहिब ऊंट पर सवार ही नहीं हुआ और ना मसीह के सिवा और कोई गधे पर सवार हो कर कभी यरूशलेम में दाख़िल हुआ ?

किताब-ए- मुक़द्दस की इस इबारत में बाबुल की बर्बादी की पेशनगोई है

अह्देअतीक़ और जदीद में हज़रत मुहम्मद साहिब की निस्बत पेशनगोई के पता लगाने की बहुतेरी कोशिशें हमने देखी हैं मगर यह सबसे बढ़कर मज़हकाख़ेज़ है । इस में तो ज़रा भी अक्ल से काम नहीं लिया गया क्योंकि इस तमाम इबारत में अरबी नबी की तरफ़ इशारा तक भी पाया नहीं जाता। इस बात को ग़ौर से पढ़ने से मालूम होगा कि इस में बाबुल की आने वाली तबाही की पेशनगोई है और जब सौ बरस बाद दाराए फ़ारस ने इस पर क़बज़ा किया तो यह नबुव्वत पूरी हुई। अगर मुसन्निफ़ मौसूफ़ इस बाब की 9 वीं आयत को पढ़ लेते तो जो उन्होंने लिखा है इस के वो हरगिज़ मजाज़ ना थे क्योंकि वहां साफ़ तौर से बाबुल का ज़िक्र आया है चुनांचे लिखा है "और देख सिपाहीयों के ग़ोल और उन के सवार दो दो करके आते हैं फिर उसने यूं कहा कि बाबुल गिर पड़ा गिर पड़ा ।" ऐसे ऐसे मुक़ामात से मुसलमानों को नबुव्वत ढूंढ कर निकालते देखकर यह ख़्याल होता है कि उनको अपने नबी के लिए बशारत की बड़ी कमी महसूस हो रही है।

(6) यासायाह 42 बाब 1 आयत

यासायाह का 42 वां बाब भी अक्सर हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत की दलील में पेश किया जाता है। पहली आयत में लिखा है:—

"देखो मेरा ख़ादिम जिसको मैं सँभालता हूँ । मेरा बर्गुज़ीदा जिससे मेरा दिल ख़ुश है। मैंने अपनी रूह इस पर डाली । वो क़ौमों----मैं अदालत जारी करेगा।

इंजील में ये इबारत सय्यदना ईसा मसीह के
लिए बताई गई है

हम इस इबारत-ए-मज़कूरा की ज़्यादा तशरीह करके नाज़रीन का वक़्त ज़ाए ना करेंगे इतना ही बता देना काफ़ी है कि यह बशारत सफ़ाई के साथ इंजील में सय्यदना ईसा मसीह में पूरी होती हुई ज़ाहिर की गई है और चूँकि ख़ुदा ने अपने कलाम की ख़ुद तशरीह कर दी है इस लिए उस के मुताल्लिक़ इन्सानी तसव्वुरात लेकर ज़्यादा बहस करना फ़ुज़ूल है इंजील की इबारत मज़कूरा जिससे यासायाह की इस नबुव्वत की तशरीह होती है वो यह है :—

"और उसने (सय्यदना ईसा ने )उनको ताकीद की कि मुझे ज़ाहिर ना करना ताकि जो यासायाह नबी की मार्फ़त कहा गया था वो पूरा हो की देखो यह मेरा ख़ादिम है जिसे मैंने चुना । मेरा प्यारा जिससे मेरा दिल ख़ुश है । मैं अपना रूह इस पर डालूँगा और वो ग़ैर क़ौमों को इन्साफ़ की ख़बर देगा।"

यासायाह 42 वां बाब 11 वीं आयत

अक्सर अवक़ात मुसलमान मज़कूरा बाला बातों की तस्दीक़ करते हुए कहते हैं कि यासायाह नबी के बयालिसवे बाब के दूसरे हिस्सा में एक और शख़्स की सरीह बशारत मौजूद है और वो हज़रत मुहम्मद साहिब हैं । ख़ासकर वो इस बाब की ग्याहरवीं आयत पेश करते हैं जिसमें लिखा है :—

"बियाबान और इस की बस्तीयां केदार के आबाद गांव अपनी आवाज़ बुलंद करें। सेलाह के बसने वाले गीत गाएँ। पहाड़ों की चोटियों पर से ललकारें।"

मुसलमानों का दाअवा है कि इस आयत में लफ़्ज़ केदार से सरीहन अरब के लोग मुराद हैं और इस लिए इस में मुहम्मद साहिब की बशारत पाई जाती है।

इस इबारत में मसीह की सल्तनत को फैलाने का बयान है

मज़कूरा बाला इस्लामी तावील के जवाब में हम कहते हैं कि इस में हज़रत मुहम्मद साहिब का बयान बिलकुल नहीं है बल्कि मसीह की सल्तनत की वुसअत के तज़किरा में यह बताया गया है कि ख़ुदा की मर्ज़ी है कि एक रोज़ अहले केदार भी इस सल्तनत की ख़ुशी में शरीक हों यह तो सबको मालूम है कि हज़रत मुहम्मद साहिब क़बीला केदार में से नहीं बल्कि क़बीला क़ुरैश से थे और इस लिए इस आयत में हज़रत मुहम्मद साहिब की तरफ़ कोई इशारा नहीं है । अलावा बरीं दसवीं आयत में लिखा है "ख़ुदावंद के लिए एक गीत गाओ" लेकिन इस्लामी इबारत में गाना बिलकुल मना है इस लिए इबारत ज़ेर-ए-बहस से इस्लाम मुराद नहीं हो सकता हज़रत मुहम्मद साहिब का एक मशहूर क़ौल यह है कि "الغنا ینبت النفاق فی القلب کما ینبت الماء الذرع" यानी गीत गाना इसी तरह दिल में निफ़ाक़ पैदा करता है जिस तरह पानी ज़िराअत पैदा करता है। फिर यह बात कैसे मान ली जाये कि एक ऐसी बशारत जिसमें लोगों के अपने मुंजी के लिए गाकर ख़ुश होने का ज़िक्र है बशारत मुहम्मदी है ?

(7) हबक़्क़ूक़ 3 बाब 3 आयत

अह्देअतीक़ का एक और मुक़ाम जो हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत की दलील में मुसलमान पेश करते हैं वह हबक़्क़ूक़ नबी की किताब के तीसरे बाब की तीसरी आयत है जिसमें यूं लिखा है:—

"ख़ुदा तीमान से आया और क़ुद्दूस कोह-ए- फ़ारान से ।"

तीमान मक्का से जहां हज़रत मुहम्मद साहिब पैदा हुए थे पाँच सौ मील के फ़ासिला पर है जिन्हों ने किताब मुक़द्दस के क़दीम जुग़राफ़िया का मुताअला किया है उनको मालूम है तीमान फ़ारान के क़रीब था और हम देख चुके हैं कि यह आखिरुल्ज़िक्र मुक़ाम मक्का से शुमाली जानिब को 500 मील के फ़ासले पर था और तीमान हक़ीक़त में अदोमीयों के मुल्क का एक हिस्सा था और यह इस आयत से साफ़ ज़ाहिर है "अदोम की बाबत रब-उल-अफफ़वाज यूं फ़रमाता है कि क्या तीमान में ख़िरद मुतालिक़ ना रही" (यिर्मियाह 49 बाब 7 आयत) और फिर मर्क़ूम है "इस लिए ख़ुदावंद ख़ुदा यूं फ़रमाता है कि मैं अदोम पर हाथ चलाऊंगा । इस के इन्सान और हैवान को नाबूद करूंगा और तीमान से लेकर उसे वीरान करूंगा । (हज़क़ीएल 25 बाब 13) इन हवालों से तीमान का मौक़ा साफ़ ज़ाहिर है जो बहीरा मुर्दार से कई मील के फ़ासिला पर ना होगा । इस में हज़रत मुहम्मद साहिब का कोई भी ज़िक्र नहीं है अब रहा इन अल्फ़ाज़ के मुताल्लिक़ कि "क़ुद्दूस कोह फ़ारान से (आया) "सौ पेशतर दिखा चुके हैं कि हज़रत मुहम्मद साहिब का ताल्लुक़ फ़ारान से इतना ही था जितना कि हिन्दुस्तान से क्योंकि यह जगह मक्का से कम अज़ कम पाँच सौ मील दूर थी और ग़ालिबन हज़रत मुहम्मद साहिब को इस की ख़बर तक ना थी ।

इस आयत में इलाही वजूद का बयान है

अगर हम बड़े ग़ौर से इस आयत ज़ेर-ए-बहस का मुताअला करें और सिलसिला की आयतों को मिला कर पढ़ें तो मालूम हो जाएगा कि इस में किसी इन्सानी ज़ात का बयान नहीं है बल्कि ख़ुद ख़ुदा का ज़िक्र है। यह ख़ुदा था जो तीमान से आया और वो क़ुद्दूस जो कोह-ए-फ़ारान से आया । क़ुरआन और हदीसों में बहुत से मुक़ामात हैं जो हज़रत मुहम्मद साहिब की बेगुनाही के बरख़िलाफ़ गवाही देते हैं पस हबक़्क़ूक़ नबी के सहीफ़े की आयत मज़कूरा का बयान मुहम्मद साहिब के लिए हरगिज़ नहीं हो सकता । और ना हज़रत मुहम्मद साहिब की निस्बत यह कहा जा सकता है कि

"इस की शौकत से आसमान छिप गया या यह कि इस की क़दीम राहें हैं" (16 वीं आयत) ग़रज़ कि सारी इबारत का मौज़ू ख़ुदा है और इस आयत को हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत बताना सख़्त तास्सुब पर मबनी है।

(8) मरकुस की इंजील का पहला बाब और सातवीं आयत

मुसलमान ना सिर्फ अह्देअतीक़ में हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारतों के होने का दाअवा करते हैं बल्कि वो इसी तरह अह्देजदीद में भी बताते हैं कि हज़रत मुहम्मद साहिब के हक़ में पेशनगोई सफ़ाई से दर्ज है। अब हम इंजील के चंद ख़ास ऐसे मुक़ामात पर ग़ौर करेंगे पहली पेशिनगोई जिस का हम मुताअला करेंगे मरकुस की इंजील के पहले बाब की सातवीं आयत में बताई जाती है जहां लिखा है :—

"मेरे बाद वो शख़्स आने वाला है जो मुझसे ज़ोर-आवर है। मैं इस लायक़ नहीं कि झुक कर उस की जूतीयों का तस्मा खोलूं।"

मुसलमान कहते हैं कि यह उन अल्फ़ाज़ के ज़रीया से हज़रत ईसा ने साफ़ लफ़्ज़ों में सबसे आख़िरी नबी आज़म मुहम्मद साहिब के आने की बशारत दी है।

यह अल्फ़ाज़ युहन्ना बपतिस्मा देने वाले के हैं जिसने मसीह के हक़ में गवाही दी

चंद मुसलमान मुसन्निफ़ों के दाअवा मज़कूरा की इस चालबाज़ी की नज़ीर मिलना निहायत मुश्किल है क्योंकि यह तो एक लम्हा के लिए भी तस्लीम करना मुहाल है कि जिन मुसन्निफ़ों ने आयत मज़कूरा को हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए बताया है उन्होंने इस मुक़ाम की पूरी इबारत को नहीं पढ़ा होगा उनको अपने मुसलमान नाज़रीन की लाइल्मी का पूरा यक़ीन है जिससे वो फ़ायदा उठा कर उनको यह यक़ीन दिलाना चाहते हैं कि इस आयत के अल्फ़ाज़ मज़कूरा का क़ाइल मसीह है और मुराद इस से हज़रत मुहम्मद साहिब हैं । क्योंकि असल इबारत से साफ़ ज़ाहिर है कि यह अल्फ़ाज़ हज़रत ईसा के नहीं बल्कि उनका क़ाइल युहन्ना बपतिस्मा देने वाला है यानी यहया नबी है। चुनांचे चौथी और छटी आयतों में यूं मर्क़ूम है "युहन्ना आया और बियाबान में बपतिस्मा देता और गुनाहों की माफ़ी के लिए तौबा के बपतिस्मा की मुनादी करता था और युहन्ना ऊंट के बालों का लिबास पहने और चमड़े का पटका अपनी कमर से बाँधे रहता और टिड्डियां और जंगली शहद खाता था और यह मुनादी करता था कि मेरे बाद वो शख़्स आने वाला है जो मुझसे ज़ोरावर है में इस लायक़ नहीं कि झुक कर उस की जूतीयों का तस्मा खोलूं।"

अलावा-बरें युहन्ना ने यह गवाही हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए नहीं दी जो छः सौ बरस बाद हुए बल्कि मसीह के हक़ में जो इन के दर्मियान ज़िंदा मौजूद थे । चुनांचे दूसरे मुक़ाम में यूं लिखा है "युहन्ना ने जवाब में उनसे कहा कि मैं पानी से बपतिस्मा देता हूँ । तुम्हारे दर्मियान एक शख़्स खड़ा है जिसे तुम नहीं जानते यानी मेरे बाद का आने वाला जिसकी जूती का तस्मा में खोलने के लायक़ नहीं" (युहन्ना 1 बाब 26 , 27)

अब इस इबारत मर्क़ूमा से शक की गुंजाइश नहीं रहती । आयत ज़ेर-ए-बहस के अल्फ़ाज़ कहने वाला युहन्ना बपतिस्मा देने वाला है और इस ने सय्यदना ईसा मसीह के लिए इन अल्फ़ाज़ को इस्तिमाल किया और किसी सूरत में भी हज़रत मुहम्मद साहिब की तरफ़ इस में इशारा नहीं पाया जाता और मुसलमान मुसन्निफ़ से अगर यह दरयाफ्त किया जाये कि हज़रत मुहम्मद साहिब ने रूहुल-क़ुद्दुस से लोगों को क्योंकर बपतिस्मा दिया तो उसे जवाब देना निहायत मुश्किल होगा I

(9) युहन्ना 1 बाब आयत 19 से 21 तक

एक और मुक़ाम जो अहले इस्लाम हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत की दलील में पेश करते हैं वो युहन्ना रसूल की इंजील के पहले बाब की 19 वीं आयत से 21 वीं आयत तक है चुनांचे वहां लिखा है :—

"और युहन्ना की गवाही यह है कि जब यहूदीयों ने यरूशलेम से काहिन और लावी यह पूछने को इस के पास भेजे कि तू कौन है ? तो उसने इक़रार किया और इन्कार ना किया बल्कि इक़रार किया कि मैं तो मसीह नहीं हूँ उन्होंने इस से पूछा फिर कौन है? क्या तू एलियाह है उसने कहा मैं नहीं हूँ किया तू वह नबी है ? इस ने जवाब दिया कि नहीं।"

मुसलमान आम तौर पर इस की तशरीह यूं करते हैं कि यहां तीन नबियों का ज़िक्र है यानी मसीह , एलियाह और एक तीसरा ग़ैर-मारूफ़ नबी जिसके लिए "वह नबी" किया गया है और बड़े वसूक़ के साथ वो बताते हैं कि इस से मुराद नबी आख़िर-ऊज़-ज़मा हज़रत मुहम्मद हैं। वो कहते हैं कि यहूदी मसीह के इलावा एक और बड़े नबी के मुंतज़िर थे और जब युहन्ना ने इन्कार किया कि ना में मसीह हूँ और एलियाह तो उन्हों ने यह नतीजा निकाला कि यह ज़रूर वह नबी होगा दूसरे लफ़्ज़ों में वो हज़रत मुहम्मद के मुंतज़िर थे (बाइबले मुहम्मद सफ़ा 28-32)

बदक़िस्मती से ज़ी फ़हम लोगों को इस तावील मज़कूरा के क़बूल करने में चंद मुश्किलात पेश आती हैं । अव्वल तो यह ग़लत है कि यहूदी किसी एसे नबी के मुंतज़िर थे जो मसीह के बाद आएगा और ना उस एतिक़ाद का किताब मुक़द्दस में कहीं नामोनिशान है।

यहूदी मसीह के एक पशिरू के मुंतज़िर थे उनको उस के किसी जांनशीन का इंतिज़ार ना था

अलावा-बरें यह बयान कि वो मसीह के बाद किसी नबी के मुंतज़िर थे इस सवाल के ख़िलाफ़ है जो उन्हों ने युहन्ना से किया क्योंकि यह याद रखना चाहिए कि युहन्ना से सवाल करने वालों की राय में मसीह ख़ुद उस वक़्त तक नहीं आया था इस लिए यहूदीयों का युहन्ना से यह पूछना कि क्या तू वह नबी है जो मसीह के बाद आने वाला है बड़ी बेवक़ूफ़ी है। यह सही है कि यहूदी मसीह की आमद से पेशतर नबियों का इंतिज़ार कर रहे थे बहुत से लोग यह नहीं समझते थे कि इस्तसना के अठारहवें बाब में जिस नबी की बशारत है इस से ख़ुद मसीह मुराद है। बल्कि उनका ख़्याल यह था कि युहन्ना बपतिस्मा देने वाले की मानिंद वो भी मसीह के नक़ीबों में से कोई है चुनांचे यह बात इंजील के इस बयान से साफ़ ज़ाहिर है " पस भीड़ में से बाअज़ ने यह बातें सुनकर कहा बेशक वह नबी है औरों ने कहा यह मसीह है" (युहन्ना 7 बाब 40)

ग़रज़ कि यहूदीयों के पेशेनज़र जो सवाल था वो यह था कि युहन्ना मसीह है या मसीह के नक़ीबों में से एक नक़ीब । मसीह के बाद किसी नबी के आने का सवाल उस वक़्त तक नहीं उठ सकता जब तक मसीह ख़ुद ना आ जाए। एक दूसरे मुक़ाम से पता लगता है कि बाज़ों का ख़्याल था कि यर्मियाह या कोई और नबी मसीह के पेशरू की हैसियत से फिर ज़ाहिर होगा चुनांचे लिखा है

"जब येसु केसरिया फिलिप्पी के इलाक़े में आया । तो उसने अपने शागिर्दों से ये पूछा कि लोग इब्न-ए-आदम को क्या कहते हैं ? उन्होंने कहा बाअज़ युहन्ना बपतिस्मा देने वाला कहते हैं । बाअज़ एलयाह यिर्मियाह या नबियों में से कोई” (मत्ती 16 बाब 13, 14)

इन तमाम बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि इस सारे मसले पर यहूदीयों का ख़्याल किस क़दर ग़ैर वाज़ेह और ग़ैर क़ाबिल-ए-एतबार था और इस लिए यह बात मद्द-ए-नज़र रखकर कि इऩ्ही यहूदीयों ने येसु को ना पहचाना और उसे मसीह तस्लीम करना तो दरकिनार ख़ुदा का नबी भी इस को नहीं माना बल्कि उस का इन्कार किया और आख़िरकार उसे मार डाला कोई ताज्जुब नहीं कि उन्होंने सहीफ़े समझने में ग़लती की और यह भी समझे कि वह नबी जिसकी बशारत मूसा ने दी वो मसीह के सिवा कोई और है ।

किताब मुक़द्दस से पता लगता है कि बाअज़ यहूदी ज़्यादा साफ़-दिल थे और बाद में जब उन्होंने सय्यदना मसीह के मोजज़े देखे तो उनको मजबूरन अपनी ग़लती का एतराफ़ करना पड़ा और उन को मानना पड़ा कि "वह नबी" यही है । चुनांचे लिखा है कि :—

"पस जो मोजिज़ा उसने दिखाया वो लोग उसे देखकर कहने लगे जो नबी दुनिया में आने वाला था फ़िल-हक़ीक़त यही है" (युहन्ना 6 बाब 14)

मसीह और वह नबी से एक ही शख़्स मुराद है ।

अगर इस बात के सबूत की और ज़रूरत है कि मसीह और वह नबी से एक ही शख़्स मुराद है तो यह पतरस रसूल के इन अल्फ़ाज़ से बिलकुल वाज़ेह है जो इस ने ख़ुदा की तरफ़ से कहे और जिन से उसने उनका एक ही शख़्स के लिए होना ज़ाहिर किया और वो अल्फ़ाज़ ये हैं :—

"चुनांचे मूसा ने कहा कि ख़ुदावंद ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए मुझसा एक नबी पैदा करेगा। जो कुछ वो तुमसे कहे उस की सुनना और यूं होगा कि जो शख़्स इस नबी की ना सुनेगा वो उम्मत में से नेस्त व नाबूद कर दिया जाएगा । बल्कि सामूएल से लेकर पिछलों तक जितने नबियों ने कलाम किया इन सबने इन दिनों की ख़बरदी है.........ख़ुदा ने अपने ख़ादिम को उठाकर पहले तुम्हारे पास भेजा ताकि तुम में से हर एक को इस की बदियों से हटा कर बरकत दे" ( आमाल 3 बाब 32 आयत से 36)

अब इन मज़कूरा बाला बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि मसीह के ज़माने के यहूदीयों की तरह आजकल के मुसलमान भी मसीह और मूसा की बशारत के इस नबी से दो मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास मुराद लेकर बड़ी ग़लती पर हैं। पाक सहीफ़ों से साफ़ ज़ाहिर है कि उनसे एक ही शख़्स की ज़ात मुराद है। इस लिए यह इख़तिरा कि इस में हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत है बिलकुल लायानी है।

(10) युहन्ना का 14, 15, और 16 बाब

अब हम किताब मुक़द्दस की उन इबारतों पर पहुंचे हैं जो पैरोवाने इस्लाम बहुत ही ज़्यादा हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत की सनद में पेश करते हैं। हमारी मुराद युहन्ना 14, 15, 16 बाब की इन आयतों से है जिनमें "पारक़लीत" का लफ़्ज़ आया है जिसका तर्जुमा तसल्ली देने वाला है। वकील और मददगार है । जो आयतें मुसलमान हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत में पेश करते हैं वो हस्ब-ए-ज़ैल हैं:—

"और मैं बाप से दरख़ास्त करूंगा तो वो तुम्हें दूसरा मददगार बख़्शेगा कि अबद तक तुम्हारे साथ रहे यानी रूह-ए-हक़ जिसे दुनिया हासिल नहीं कर सकती क्योंकि ना उसे देखती है और ना जानती है। तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहता है और तुम्हारे अन्दर होगा" (युहन्ना 14 बाब आयत 16 से 17) लेकिन मददगार यानी रूहुल-क़ुद्दुस जिसे बाप मेरे नाम से भेजगा वही तुम्हें सब बातें सिखाएगा और जो कुछ मैंने तुमसे कहा है वह सब तुम्हें याद दिलाएगा (युहन्ना बाब 14 आयत 26) "लेकिन जब वो मददगार आएगा जिसको मैं तुम्हारे पास बाप की तरफ़ से भेजूँगा यानी रूह-ए-हक़ जो बाप से सादिर होता है तो वो मेरी गवाही देगा" (युहन्ना 15 बाब आयत 26)" लेकिन जब वो यानी रूह हक़ आएगा तो तुमको तमाम सच्चाई की राह दिखाईगा । इस लिए कि वो अपनी तरफ़ से ना कहेगा लेकिन जो कुछ सुनेगा वही कहेगा और तुम्हें आइन्दा की ख़बरें देगा" (युहन्ना 16 बाब आयत 13)

इंजील की मज़कूरा बाला आयतें मुसलमान मुसन्निफ़ों के बयान के मुताबिक़ पैग़ंबर आखिरुज्ज़मा नबी आज़म हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए बशारतें हैं जो ख़ुदा के अर्श के हुज़ूर लोगों के लिए शफ़ाअत करने के सबब से तसल्ली देने वाला या सुलह कराने वाला हो गया है । सिर्फ उन्ही की ज़ात में सय्यदना मसीह की यह बशारतें पूरी होती हैं और उनका नाम यूनानी लफ़्ज़ पाराक़लितास से मिलता-जुलता है।

यह दाअवा बार-बार ऐसे ज़ोर से पेश किया गया है कि बाअज़ कम फ़ह्म लोगों ने यक़ीन कर लिया है कि इस दाअवा की बुनियाद वाक़ई पाक नविश्तों की तहरीर है। इस सवाल पर हम दीगर आयात से ज़्यादा तफ्सील के साथ ग़ौर करेंगे । "बाइबले मुहम्मद" का मुसन्निफ़ यह हुज्जत पेश करता है कि युहन्ना के इन मुक़ामात की मसीही तफ़सीर अगर दरुस्त है और अगर वाक़ई मसीही कलीसिया की तालीम के लिए रूहे पाक दी गई है तो मसीहीयों में फिर जंग का नाम तक ना होता और उन में फ़िर्काबंदी ना पाई जाती और फिर बिला किसी शक़ व शुबहा के यह मुसन्निफ़ बताता है कि यह पाराक़लीत माअहूद ख़ुद मुहम्मद साहिब ही हैं। लेकिन अब वो नहीं बताता कि फिर मुसलमान आपस में क्यों जंग करते हैं और शीया और सुन्नी आपस में एक दूसरे पर क्यों तबर्रा कहते और लानत भेजते हैं ? अगर इस मुसन्निफ़ के बयान के मुताबिक़ पाराक़लीत माअहूद का यह मन्सब है कि इन बातों से अपने लोगों को बचाए तो आँहज़रत क्यों इस में नाकामयाब रहे ? और ख़ुद उन्होंने क्यों पेशनगोई की कि इस्लाम में तिहत्तर फ़िरक़े हो जाएंगे जिनमें एक के सिवा तमाम दोज़ख़ी होंगे। इस का जवाब सिर्फ यही है कि मोअतरिज़ की दलील बिलकुल ग़लत है ।

ख़ुदा ने ज़बरदस्ती लोगों को एक ही अक़ीदे पर रखने का वाअदा नहीं किया और ना उसने यह कहा है कि मेरी रूह मसीही कलीसिया के नाम निहाद मसीहीयों की ख़ाहिशात को दूर कर देगी सवाल वाक़ई यह है कि क्या मज़कूरा बाला आयतों की सही और रास्त तावील करने से हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत उनमें पाई जाती है या नहीं और अब हम इस सवाल के जवाब की तरफ़ रुजू करते हैं ।

(1) पाराक़लीत इलाही रूह है

पहली बात जो हम दिखाना चाहते हैं इस में तावील की कोई ज़रूरत नहीं सिर्फ आयत को पढ़ने से ही ये मतलब साफ़ हो जाता है । चुनांचे लिखा है कि यह पाराक़लीते माअहूद "रूह-ए-हक़" (युहन्ना 14 बाब 17) और "रूहुल-क़ुद्दुस" (युहन्ना 14 बाब 26 आयत) है।

अब इन अल्फ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर है कि जिसका वाअदा किया गया है वो कोई बशर नहीं बल्कि इलाही रूह है और हज़रत मुहम्मद साहिब ने कभी इलाही रूह होने का दाअवा नहीं किया बल्कि वो अपनी इन्सानियत का हमेशा बार-बार एतराफ़ करते रहे चुनांचे इस किस्म का फ़िक़रा अक्सर क़ुरआन में मिलता है ھل کنت الابشر यानी में कौन हूँ मगर एक इन्सान।

(2) पाराक़लीत अबद तक रहेगा

इन अल्फ़ाज़ से यह बात और भी तक़वियत पाती है कि यह पाराक़लीत जिसका वाअदा है इन्सान से कहीं अफ़ज़ल है "वो तुम्हें दूसरा मददगार बख़्शेगा कि अबद तक तुम्हारे साथ रहे" (युहन्ना 14 बाब 16)

अब सवाल यह है कि यह बात हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए क्योंकर सच्ची हो सकती है जो मदीना में मदफ़ून हैं। क्या हज़रत मुहम्मद साहिब ने उहद के मैदान में अपने लोगों को यह कह कर तंबीह नहीं की :—

وَمَا مُحَمَّدٌ إِلاَّ رَسُولٌ قَدْ خَلَتْ مِن قَبْلِهِ الرُّسُلُ أَفَإِن مَّاتَ أَوْ قُتِلَ انقَلَبْتُمْ عَلَى أَعْقَابِكُمْ   यानी मुहम्मद तो एक रसूल है। हो चुके इस से पहले बहुत से रसूल तो फिर क्या अगर वो मर गया या मारा गया तो उल्टे पांव फिर जाओगे ? (आल-ए-इमरान आयत 144)

(3) पाराक़लीत दिखाई नहीं देगा

अब एक और बात इस रूह माअहूद के मुताल्लिक़ यह है कि वो लोगों की आँखों से निहां होगा चुनांचे लिखा है कि वो एक रूह है " जिसे दुनिया हासिल नहीं कर सकती । क्योंकि ना उसे देखती और जानती है" (युहन्ना 14 बाब 17) इस किस्म के अल्फ़ाज़ हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए इस्तिमाल नहीं हो सकते और ना ही किसी इन्सान की निस्बत यह बातें कही जा सकती हैं। यह सिर्फ इस रूह-ए- इलाही पर है सादिक़ आती हैं जिसके मुताल्लिक़ कलाम-ए-इलाही सिखाता है कि सय्यदना ईसा मसीह के वाअदा के मुताबिक़ वो भेजा गया।

(4) पाराक़लीत लोगों के दिलों में सुकूनत करेगा

फिर यूं मर्क़ूम है कि पाराक़लीत रुहानी तौर से लोगों के दिलों में रहेगा। चुनांचे लिखा है कि :— "वो तुम्हारे साथ रहता है और तुम्हारे अन्दर होगा" (युहन्ना 14 बाब 17)

अब यह बताने की कोई ज़रूरत नहीं कि मैं किस्म के अल्फ़ाज़ हज़रत मुहम्मद साहिब के लिए इस्तिमाल करना बिलकुल ग़ैर-मुमकिन है।

(5) पाराक़लीत मसीह के रसूलों के ज़माना-ए-हयात
में नाज़िल हुआ

आमाल की किताब के पहले बाब की चौथी और पांचवी आयतों में लिखा है कि पाराक़लीत माअहूद छः सौ बरस बाद दूर मुल्क अरबिस्तान में नहीं बल्कि ख़ुद उन्ही शागिर्दों पर जिनसे वाअदा किया गया था। थोड़े दिनों के बाद यरूशलेम में नाज़िल होगा। "चुनांचे लिखा है" :—

उनसे मिलकर उनको हुक्म दिया कि यरूशलेम से बाहर ना जाओ बल्कि बाप के इस वाअदा के पूरा होने के मुंतज़िर रहो जिसका ज़िक्र तुम मुझसे सन चुके हो क्योंकि युहन्ना ने तो पानी से बपतिस्मा दिया। मगर तुम थोड़े दिनों के बाद रूहुल-क़ुद्दुस से बपतिस्मा पाओगे ।

इस से साफ़ ज़ाहिर है कि शागिर्दों को मसीह के वाअदा के पूरा होने का इंतिज़ार करना था और इस के पूरा होने के बाद ही वो तमाम दुनिया में इंजील की मुनादी के बड़े हुक्म की तामील कर सकते थे। यह भी लिखा है कि सय्यदना मसीह ने दुनिया छोड़ने से पेशतर शागिर्दों को इकट्ठे करके कहा। "देखो जिसका मेरे बाप ने वाअदा किया है में इस को तुम पर नाज़िल करूंगा लेकिन जब तक आलम-ए-बाला पर से तुमको क़ुव्वत का लिबास ना मिले इस शहर में ठहरे रहो" (लूका 24 बाब 49) मसीह के इन अल्फ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर है कि पाराक़लीत उनके ज़माना हयात में नाज़िल होने को था जिनसे मसीह मुख़ातब हुआ और यह सबसे पहले यरूशलेम में हुआ। इंजील के अल्फ़ाज़ से यह बिलकुल वाज़ेह है और सिर्फ वही जिनको तास्सुब ने अंधा कर रखा है यह कह सकते हैं कि उनमें हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत है।

(6) पाराक़लीत आइन्दा की ख़बरें देगा

युहन्ना की इंजील के 16 बाब की 13 आयत से साफ़ ज़ाहिर है कि सय्यदना ईसा मसीह ने अपने शागिर्दों को बताया कि वो रूह-ए-माअहूद "तुम को आइन्दा की ख़बरें देगा" लेकिन हर शख़्स जो क़ुरआन से वाक़िफ़ है जानता है कि हज़रत मुहम्मद साहिब आइन्दा की बातों से बिलकुल बे-ख़बर थे। चुनांचे सुरह अल-अह्क़ाफ की दसवीं आयत में लिखा है :—

وَمَا أَدْرِي مَا يُفْعَلُ بِي وَلَا بِكُمْ

यानी में यह नहीं जानता कि क्या किया जाएगा मेरे और तुम्हारे साथ ।

फिर सुरह अलअनआम की 50 आयत में है :—

قُل لاَّ أَقُولُ لَكُمْ عِندِي خَزَآئِنُ اللّهِ وَلا أَعْلَمُ الْغَيْبَ

यानी मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास खज़ाने हैं अल्लाह के और

ना यह कि मैं जानता हूँ छिपी हुई बातें।

अब इस रूह का बयान जो मसीही कलीसिया की तालीम के लिए बख़्शा गया था कैसा मुख़्तलिफ़ है इस रूह की बाबत हम पढ़ते हैं कि पौलुस रसूल इफ़सस की कलीसिया के बुज़ुर्गों से ख़िताब करके कहता है :—

"रूहुल-क़ुद्दुस" हर शहर में गवाही दे दे कर मुझसे कहता है कि क़ैद और मुसीबतें
मेरे लिए तैयार हैं।"

फिर दूसरे मुक़ाम पर लिखा है "अगबस नाम एक नबी यहूदया से आया इस ने हमारे पास आकर पौलुस का कमरबंद लिया और अपने हाथ पांव बांध कर कहा कि रूहुल-क़ुद्दुस यूं फ़रमाता है कि जिस शख़्स का यह कमरबंद है इस को यहूदी यरूशलेम में इसी तरह बाँधेंगे और ग़ैर क़ौमों के हाथ में हवाले करेंगे " (आमाल 21 बाब 10, 11)

यह पेशनगोइयाँ चंद दिनों बाद हर्फ़ बहरफ़ पूरी हुईं और यूं सफ़ाई से ज़ाहिर किया कि सय्यदना ईसा मसीह ने जिस "रूह" का वाअदा अपने शागिर्दों से किया था नाज़िल हुआ और वाअदा के मुताबिक़ उसने आने वाली बातों की ख़बर दी ।

(7) पाराक़लीत के आने का वाक़िया आमाल के दूसरे बाब में मर्क़ूम है

आमाल के दूसरे बाब में हम पढ़ते हैं कि मसीह के वाअदा के मुताबिक़ रूहुल-क़ुद्दुस के नुज़ूल का वाक़िया वहां मर्क़ूम है । हम देख चुके हैं कि ख़ास मसीह के शागिर्दों पर रूह का नुज़ूल होने को था और फिर आमाल के पहले बाब में लिखा है कि रूह पाक की यह आमद बड़ी ताक़त और क़ुदरत के साथ होने को थी। मसीह ही ने उनसे कहा था :—

"जब रूहुल-क़ुद्दुस तुम पर नाज़िल होगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे" (8 आयत)

इस पेशनगोई के मुताबिक़ चंद दिनों के बाद जब शागिर्द एक ख़ास मुक़ाम पर जमा थे तो यकायक "सब रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए और ग़ैर ज़बानें बोलने लगे जिस तरह रूह ने उन्हें बोलने की ताक़त बख़शी" (आमाल 2 बाब 4) और यूं यह बड़ा वाअदा पूरा हुआ और शागिर्द इस नई ताक़त से मामूर हो कर हर जगह ज़िंदगी के कलाम की मुनादी करने को निकले और "हर शख़्स पर ख़ौफ़ छा गया और बहुत से अजीब काम और निशान रसूलों के ज़रीये से ज़ाहिर होते थे" (आमाल 2 बाब 43)

पस अयाँ है कि यह था रूहुल-क़ुद्दुस का वाअदा जिसे युहन्ना ने ज़ाहिर किया और यूं यह वाअदा पूरा हुआ जिसे लूका ने तहरीर किया । अब नाज़रीन ख़ुद ही फ़ैसला कर लें कि इस पेशनगोई को हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत बताना जो जिस्म और ख़ून में एक इन्सान थे और जिन को हज़ारों ने देखा और जो मुल़्क अरब में वक़्त माअहूद से छः सौ बरस बाद पैदा हुए बिलकुल नामुम्किन है।

(8) युहन्ना चौदह बाब 30 आयत

इस रिसाला को ख़त्म करने से पेशतर एक और बशारत पर हम ग़ौर करेंगे । यह युहन्ना के चौदह बाब की 30 वीं आयत में है जहां पर लिखा है :—

"दुनिया का सरदार आता है और मुझ में इस का कुछ नहीं"

बहोतेरे मुसलमान मुसन्निफ़ों ने यह हवाला हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत में पेश किया है। किसी ने किया ख़ूब कहा है कि किताब मुक़द्दस की सबसे उम्दा तफ़सीर ख़ुद किताब मुक़द्दस है और इस आयत ज़ेर-ए-बहस पर यह बात ख़ूब सादिक़ आती है अगर हम नाज़रीन को किताब मुक़द्दस के वो मुक़ामात बता दें जहां दुनिया के सरदार का ज़िक्र आया है उन को को फ़ौरन मालूम हो जाएगा कि यह ख़िताब पैग़ंबर अरब मुहम्मद साहिब के लिए इस्तिमाल नहीं हुआ बल्कि शैतान के लिए इस्तिमाल हुआ है । चुनांचे युहन्ना के बारहवें बाब की 31 आयत में लिखा है :—

"अब दुनिया का सरदार निकाल दिया जाएगा"

और फिर युहन्ना के 16 बाब के 11 आयत में है "दुनिया का सरदार मुजरिम ठहराया गया है" और दूसरे कुरंथियों के 4 बाब की 4 आयत में मर्क़ूम है "इन बेईमानों के वास्ते जिनकी अक़्लों को इस जहान के सरदार ने अंधा कर दिया है ताकि मसीह जो ख़ुदा की सूरत है इस के जलाल की ख़ुशख़बरी की रोशनी उन पर ना पड़े" और फिर इफसियों के दूसरे बाब की पहली दूसरी आयतों में यूं आया है "उसने तुम्हें भी ज़िंदा किया। जब अपने क़ुसूरों और गुनाहों के सबब से मुर्दा थे जिनमें तुम पेशतर दुनिया की रवीश पर चलते थे और हवा की अमलदारी के हाकिम यानी इस रूह की पैरवी करते थे जो अब ना-फ़रमानी के फ़रज़न्दों में तासीर करती है" अब इन मुक़ामात पर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं और बिला कसी शक व शुबहा के इनसे साफ़ ज़ाहिर है कि जहान के सरदार से शैतान के सिवा और कोई मुराद नहीं है। यूं इस आयत मज़कूरा को हज़रत मुहम्मद साहिब की बशारत की सनद में पेश करके मुसलमान निहायत ही सख़्त ग़लती में पड़े और बड़ी सफ़ाई के साथ यह साबित किया है कि किताब मुक़द्दस की किसी एक इबारत को इस के सिलसिला से अलग लेकर इस से मुताबिक़त रखने वाली आयतों से क़त-ए-नज़र करके किसी किस्म की तावील करना फ़हीम लोगों में मुज़हका उड़ाना है।

सय्यदना ईसा मसीह आख़िरी पैगम्बर हैं

हक़ीक़त यह है कि जो शख़्स किताब मुक़द्दस का मुताअला ग़ौर से करेगा इस पर निहायत सफ़ाई से वाज़ेह हो जाएगा कि मसीह के बाद कोई नबी नहीं आएगा। उसने ख़ुद फ़रमाया है :—

"आसमान और ज़मीन टल जाएंगे लेकिन मेरी बातें ना टलेंगी।" (मरकुस बाब 13:31)

उसने अपने शागिर्दों से कहा :—

"और बादशाही की इस ख़ुशख़बरी की मुनादी तमाम दुनिया में होगी ताकि सब क़ौमों के लिए गवाही हो और तब ख़ातमा होगा (मत्ती बाब 24:14 आयत)

इस लिए जब तक इंजील यानी मसीही मज़हब की मुनादी वाक़ई तमाम दुनिया में ना हौले उस वक़्त तक ख़ुदा की तरफ़ से कोई और तरीक़ मसीहीयत को मंसूख़ करने के लिए नहीं आएगा। अलावा-बरें जिब्राईल फ़रिश्ता ने जब कुँवारी मर्यम को सय्यदना ईसा मसीह की पैदाइश की ख़बर दी तो ख़ुदा का यह पैग़ाम पहुंचाया :—

"उस की (यानी मसीह की ) बादशाही का आख़िर ना होगा" (लूका बाब 1 आयत 33)

मुसलमानों को चाहिए कि इन बातों पर ग़ौर करें और उन को पता लग जाएगा कि सय्यदना ईसा मसीह आख़िरी नबी हैं।

और यह कि उनके सिवा "आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से हम नजात पा सकें "(आमाल बाब 4 आयत 12)

God in Islam by William Goldsack

ख़ुदा ए इस्लाम

यानी

अहले-इस्लाम के ईलाही एतेक़ाद की तहक़ीक़

अज़

पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहिब

اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ  ۚ اَلْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ

(अल्लाह हय्युल-क़य्यूम के सिवा कोई और खुदा नहीं है)

William Goldsack

GOD IN ISLAM

BY

Rev William Goldsack

Australian Baptist Missionary and Apologist

1871–1957

क्रिश्चियन लिट्रेचर सोसाईटी फॉर इंडिया

ने शाया किया

1919 ईस्वी

CHRISTIAN LITERATURE SOCIETY FOR INDIA

PUNJAB BARANOH LUDHIANA 1919.

फ़हरिस्त-ए-मज़ामीन

  शुमार मज़मून  
     
1. तम्हीद  
2. वहदत-ए-ख़ुदा  
3. सिफ़ात-ए-ख़ुदा  
4. अक़ाइद-ए-तजस्सुम ख़ुदा  
5. ख़ुदा और इन्सान का बाहमी रिश्ता  
6. ख़ुदा बलिहाज़-ए-गुनाह व नजात  

तम्हीद

किसी मज़हब की फ़ज़ीलत इस बात में नहीं हो सकती कि वो बहुत से ममालिक का मज़हब है या उस के मानने वाले ज़्यादा हैं बल्कि सिर्फ उसी एक बात में कि ख़ुदा की ज़ात और उस के कैरक्टर के बारे में दीगर मज़ाहिब के मुक़ाबले में आला और अफ़्ज़ल तालीम दे क्योंकि तमाम अख़्लाक़ी शरीयत का दार-ओ-मदार इसी बात पर है।

ख्वाह कोई मज़हब ख़ुदा की तौहीद की तालीम दे ख्वाह इस में इलाहों की कसरत पाई जाये लेकिन ज़्यादा तर काबिल-ए-ग़ौर ये बात है कि ख़ुदा के कैरक्टर और ख़ुदा की सिफ़ात की तारीफ़ इस में मौजूद है या नहीं। क्योंकि कैरक्टर और सिफ़ात को छोड़कर ख़ालिस तौहीद की तालीम उफ़तादा इन्सान को उठाने और उस के दिल में अज़मत एज़दी क़ायम करने के लिए बिल्कुल नाकाफ़ी है । ख़ुदा के लिए कैरक्टर अज़बस बुनियादी और लाबुदी उसूल में से है।

अगर कोई मुहक़्क़िक़ ये दर्याफ़त करना चाहे कि ख़ुदा के हक़ में अहले-इस्लाम का क्या एतिक़ाद है तो आम तौर पर उस के लिए मालूमात के सिर्फ चार वसीले हैं :—

अव्वल: क़ुरआन जो मुजमल व पुरमाअनी कलिमा ( لا الہ الا اللہ) ला-इलाहा इल्लल्लाह (अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है) सिखाता है।

दोम: अहादीस जिनमें हज़रत मुहम्मद की ज़बानी तालीम का ज़ख़ीरा मिलता है और बाद के ज़माने के बाअज़ ख़्यालात भी पाए जाते हैं ।

सोम: इज्माअ यानी उलमा-ए-इस्लाम की मुत्तफ़िक़ अलैह राय।

चहारुम: क़ियास यानी तालीम इस्लाम के मुताल्लिक़ उलमा-ए-इस्लाम के अख़ज़ कर्दाह नताइज ।

पस अब ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा के हक़ में अहले-इस्लाम का एतिक़ाद मालूम करने के लिए हर चार शवाहिद मज़कूरा की तहक़ीक़ व तदक़ीक़ निहायत ज़रूरी है।

लिहाज़ा हम इस किताब में इन चार वसीलों यानी क़ुरआन, अहादीस, इज्माअ, क़ियास को दिखला देंगे ताकि पढ़ने वाला उन्हीं से दर्याफ़त करके फ़ैसला कर सके कि ख़ुदा की निस्बत अहले-इस्लाम का एतिक़ाद कहाँ तक काफ़ी और काबिल-ए-क़बूल है।

हज़रत मुहम्मद के ईलाही एतिक़ाद के माख़ज़ ज़रूर बहुत से थे। ग़ालिबन नेचर आपका सबसे बड़ा मुअल्लिम था। चुनांचे क़ुरआन के बाअज़ निहायत फ़सीह मुक़ामात में ख़ुदा की खालिक़ाना अज़मत व बुज़ुर्गी का बयान पाया जाता है ।

जब आप आलम-ए-शबाब में भेड़ बकरीयों की गल्लाबानी करते थे तब भी ज़रूर उस ख़ालिक़ बुलंदी व पस्ती की बुज़ुर्ग हस्ती का ख़्याल आपके दिलो-दिमाग में समा गया होगा। आपको ज़रूर ये ख़्याल आया होगा कि कोई आला हस्ती आपके हर चहार तरफ़ अपने वजूद के मुज़ाहिरे के वसीले से जलवागर है।

चुनांचे बाद के ज़माने में जो ख़्यालात आपने निहायत ख़ूबी व ख़ोश उसलूबी के साथ अपनी बुत-परस्त क़ौम के सामने पेश किए वोह इस ज़माने में आपने सय्यारों, सितारों और तमाम अजराम-ए-फल्की की हरकात और ईलाही दानाई व हिकमत की बय्यन आयात से हासिल किए थे।

फिर कोह-ए-हिरा की ग़ार में आपके मराक़बे ने इस्लामी इमारत का ख़ाका तैयार करने में आपको ज़रूर बहुत मदद दी । हज़रत मुहम्मद की ज़की तबईत और दिलो-दिमाग पर बसा-औक़ात ये हक़ीक़त नक़्श हो गई होगी कि :—

ख़ुदाए तआला अह्कम-उल-हाकिमीन हमेशा अलानिया शानो-शौकत और क़र्रोफ़र के साथ और रादोबरक़ के शूर व शाब से बातनद और तूफान-ए-अज़ीम के रुअब के साथ ही अपनी क़ादिर हस्ती का इज़्हार नहीं करता बल्कि बख़िलाफ़ इस के बसा-औक़ात आलिम ख़ामोशी में निहायत धीमी आवाज़ से नेचर के ज़रीये से अपने आपको तमाम कौन व मकान का ख़ालिक़ व मालिक और क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदावंद साबित करता है।

पस ज़ाहिर है कि ख़ुदा की निस्बत हज़रत मुहम्मद के इब्तिदाई ख़्यालात की बुनियाद उन्हीं हैरतख़ेज़ नेचरी नज़ारों पर थी जो आप के हर चहार तरफ़ थे। चुनांचे बार-बार क़ुरआन की निहायत शुस्ता और फ़सीह नज़म में आप अहले-अरब को इस इल्लत-उल-इलल की याद व इबादत की तरफ़ बुलाते हैं। क़ुरआन की इन इब्तदाई सूरतों में ख़ुदाए क़ादिर की क़ुदरत वही का निहायत उम्दा नमूना यूं मुंदरज है :—

هُوَ الَّذِيْ يُرِيْكُمُ الْبَرْقَ خَوْفًا وَّطَمَعًا وَّيُنْشِئُ السَّحَابَ الثِّقَالَ    12۝ۚ وَيُسَبِّحُ الرَّعْدُ بِحَمْدِهٖ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ مِنْ خِيْفَتِهٖ ۚ وَيُرْسِلُ الصَّوَاعِقَ فَيُصِيْبُ بِهَا مَنْ يَّشَاۗءُ وَهُمْ يُجَادِلُوْنَ فِي اللّٰهِ ۚ وَهُوَ شَدِيْدُ الْمِحَالِ   13۝ۭ

वही है ख़ौफ़ व उम्मीद के लिए तुम्हें बिजली दिखलाता है और वही भारी बादलों को लाता है। रअद उस की हम्द बयान करता है और फ़रिश्तगान भी डरते हुए उस की तौसीफ़ करते हैं। वो रअद को भेजता है और उस के वसीले से जिसे चाहता है पकड़ लेता है । फिर भी वो ख़ुदा की बाबत झगड़ते हैं लेकिन वो सख़्त क़ुव्वत वाला है I

फिर सूरह बक़रा की 164, 165 वीं आयात में यूं मर्क़ूम है :—

وَإِلَـهُكُمْ إِلَهٌ وَاحِدٌ لاَّ إِلَهَ إِلاَّ هُوَ الرَّحْمَنُ الرَّحِيمُ إِنَّ فِي خَلْقِ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَاخْتِلاَفِ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِي تَجْرِي فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنفَعُ النَّاسَ وَمَا أَنزَلَ اللّهُ مِنَ السَّمَاء مِن مَّاء فَأَحْيَا بِهِ الأرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَآبَّةٍ وَتَصْرِيفِ الرِّيَاحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخِّرِ بَيْنَ السَّمَاء وَالأَرْضِ لآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَعْقِلُونَ

तुम्हारा ख़ुदा ख़ुदाए वाहिद है । इस के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है । वो रहमान और रहीम है। ज़मीन व आस्मान की पैदाइश में और शब-ओ-रोज़ के इख़्तिलाफ़ में दरिया में चलने वाली कश्ती में जिससे लोगों को नफ़ा पहुंचता है और बारिश में जो ख़ुदा आस्मान से नाज़िल फ़रमाता है जिससे ज़मीन को इस की मौत के बाद ज़िंदा करता है और चौपायों को इस पर मुंतशिर करता है और ज़मीन व आस्मान के दर्मियान हवाओं और बादलों की तसख़ीर मैं समझदार लोगों के लिए निशानीयां हैं I

फिर ख़ुदा के बारे में हज़रत मुहम्मद के एतिक़ाद का दूसरा माख़ज़ आपके हम-असर फ़िर्क़ा हनीफ़ था। फ़िर्क़ा हनीफ़ के लोगों ने हर तरह की बुत-परस्ती को तर्क करके तमाम दीगर अहले-अरब के ख़िलाफ़ सिर्फ़ ख़ुदाए वाहिद की परस्तिश व इबादत इख़्तियार की थी।

हज़रत मुहम्मद का उन लोगों से ज़रूर मेल-जोल था। अगर ख़ुदा की बाबत आपकी तालीमात का अक़ाइद व मसाइल हनीफ़ से मुक़ाबला किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि ख़ुदाए तआला के बारे में आपके ख़्यालात ज़्यादातर इसी फ़िरक़े से अख़ज़ किए गए हैं।

सिवोम : ख़ुदा के हक़ में हज़रत मुहम्मद के ख़्यालात और अक़ाइद ज़्यादा उन में यहूदीयों और ईसाईयों की सोहबत से मोअस्सर हैं जो आपके ज़माने में मुल्क अरब में आबाद थे अगर कोई इन तमाम यहूदी कहानीयों को पढ़े जो क़ुरआन में बार-बार दुहराई गई हैं और हज़रत मुहम्मद के दावा के मनाने के लिए इबादत में शामिल की गई हैं तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि ख़ुदा और दुनिया में ख़ुदा की हुकूमत के ख़्यालात में हज़रत मुहम्मद कहाँ तक यहूदीयों के कर्ज़दार हैं फिर उस के साथ ही अगर आप के तसव्वुरात का जोश और शायराना तबीयत भी मद्द-ए-नज़र हो तो बख़ूबी समझ में आ जाएगा कि अहले-इस्लाम का ईलाही एतिक़ाद किन किन तासीरात से पैदा हुआ हैं।

तमाम मुहक़्क़िक़ीन-ए-इस्लाम इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस्लाम का सारा ज़ोर ख़ुदा की तौहीद पर है। जो मुशरिक अपने बुतों को छोड़कर ला-इलाह इल्लल्लाह (لا الہ الا اللہ) कहना सीख लेता है वो फ़ौरन शख़्सी इज़्ज़त बल्कि दीवानगी हासिल करता है जिसके वसीले से वो तमाम मुश्किलात पर ग़ालिब आने के लायक़ ख़्याल किया जाता है लेकिन जैसा कि हम इस से पेशतर कह चुके कि ख़ुदा की ख़ालिस तौहीद की तालीम इन्सान की इस्लाह करने और उस के लिए पाकीज़गी का ख़ास ख़्याल करने के काबिल नहीं है क्योंकि इन सारी बातों का दार-ओ-मदार ख़ुदा के कैरक्टर और उस की सिफ़ात पर है।

अब मुसलमान पढ़ने वाला तमाम तास्सुबाना ख़्यालात से ख़ाली हो कर हमारे साथ इस अम्र की तहक़ीक़ में मशग़ूल हुए कि कुतुब इस्लाम में ख़ुदा के बारे में क्या तालीम पाई जाती है। साथ ही ये भी ख़्याल रहे कि अगर कहीं ज़बान सख़्त मालूम हो तो वो उस के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि उन अक़ाइद के ख़िलाफ़ है जो ख़ुदा ए पाक की शान के शायां नहीं हैं जिनको ख़ुदा का हर एक मुख़लिस बंदा वाजिबी ग़ैरत से रद्द करेगा।

अब हम अहले-इस्लाम के इब्तिदाई और बाद के तक्मील याफताह ईलाही एतिक़ाद की तहक़ीक़ करते वक़्त अक्सर औक़ात उस का मसीही एतिक़ाद से जिसकी बुनियाद तौरेत व इंजील के इल्हाम पर है मुक़ाबला करेंगे और हमारी दुआ है कि वो “वहदहू लाशरीक इलाह” (وحدہ لاشریک الہ) राह-ए-रास्त पर हमारी हिदायत व रहबरी करे

ख़ुदाए-ए-इस्लाम

बाब अव़्वल

वहदत-ए-ख़ुदा

क़ुरआन में वहदत-ए-ख़ुदा पर बकसरत इबारात पाई जाती हैं और उन में से बाअज़ फ़साहत ओ बलाग़त से पुर हैं। मसलन सूरह इख़्लास में यूं मर्क़ूम है :—

قُلْ هُوَ اللَّهُ أَحَدٌاللَّهُ الصَّمَدُلَمْ يَلِدْ وَلَمْ يُولَدْوَلَمْ يَكُن لَّهُ كُفُوًا أَحَدٌ

कह अल्लाह एक है और अल्लाह अज़ली है, वो जनता नहीं और ना जना गया है और ना कोई उस की मानिंद है I

हज़रत मुहम्मद मुतवातिर नेचर को ख़ुदा की वहदत की दलील के तौर पर पेश करते थे । चुनांचे ऐसी इबारात के नमूने के तौर पर हम इस जगह आयतल-कुर्सी दर्ज करते हैं जो कि सूरह बक़रा में यूं मुंदरज है :—

اللّهُ لاَ إِلَـهَ إِلاَّ هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ لاَ تَأْخُذُهُ سِنَةٌ وَلاَ نَوْمٌ لَّهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ مَن ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِنْدَهُ إِلاَّ بِإِذْنِهِ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ وَلاَ يُحِيطُونَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهِ إِلاَّ بِمَا شَاء وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضَ وَلاَ يَؤُودُهُ حِفْظُهُمَا وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ

सूरह बक़रा 255 : अल्लाह हय्युल-क़य्यूम के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है। ना वो उन्गता है और ना सोता है आस्मान व ज़मीन की सब मामूरी उसी की है। कौन उस के पास शफ़ाअत कर सकता है सिवाए उस के जिसको वो इजाज़त दे ? जो कुछ उन के आगे और पीछे है वो सब जानता है और वह उस के इल्म के किसी हिस्से पर हावी नहीं सिवाए इस पर जो उसे पसंद आता है। इस की सल्तनत तमाम ज़मीन वा आस्मान पर है और वो इन दोनों की हिफ़ाज़त से मांदा नहीं होता क्योंकि वो बुज़ुर्ग व बरतर हैI

क़ुरआन में बार-बार तौहीद ईलाही के सबूत में शिर्क की नामाअक़ूली पेश की गई है । चुनांचे सूरह मोमिन की 92 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

مَا اتَّخَذَ اللّٰهُ مِنْ وَّلَدٍ وَّمَا كَانَ مَعَهٗ مِنْ اِلٰهٍ اِذًا لَّذَهَبَ كُلُّ اِلٰهٍۢ بِمَا خَلَقَ وَلَعَلَا بَعْضُهُمْ عَلٰي بَعْضٍ ۭ سُبْحٰنَ اللّٰهِ عَمَّا يَصِفُوْنَ ؀ۙ

ख़ुदा का कभी कोई बेटा नहीं हुआ ना कभी उस के साथ कोई ख़ुदा था। क्योंकि इस हाल में हर एक ख़ुदा अपनी मख़्लूक़ ले भागता और बाअज़ अपने आपको दूसरों पर बरतरी देते अल्लाह इन सब बातों से पाक है जो वो उस के हक़ में कहते हैं I

फिर सूरह अम्बिया की 22 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

لَوْ كَانَ فِيهِمَا آلِهَةٌ إِلَّا اللَّهُ لَفَسَدَتَا

अगर ज़मीन व आस्मान में ख़ुदा के सिवा और माबूद होते तो ज़रूर वो दोनों (ज़मीन व आस्मान) ख़राब हो जाते यानी उन माबूदों के बाहमी मुक़ाबला और नाइत्तिफ़ाक़ी के सबब से तमाम मख़्लूक़ात दरहम-बरहम और तबाह हो जाती।

हज़रत मुहम्मद ने बदरजा ग़ायत बुत-परस्ती की तर्दीद की और सिवाए एक मुख़्तसर और आरिज़ी वफ़क़ा के हमेशा तर्दीद करते रहे । बुतों को "शर शैतानी" के नाम से नामज़द किया और मुतवातिर मकरूह व मर्दूद ठहराया।

साफ़ बयान किया कि बुत हमारे नफ़ा व नुक़्सान की क़ुदरत नहीं रखते और बुत-परस्तों की सज़ा को निहायत होलनाक सूरत में पेश किया।

आपने सिर्फ लामज़हब अरबों ही की बुत-परस्ती को मलऊन व मज़मुम क़रार नहीं दिया बल्कि एक और एतिक़ाद को जिसके मुताबिक़ फ़रिश्तगान को बीवीयों और बेटीयों के तौर पर ख़ुदा से मंसूब किया जाता था । निहायत हजुयह अल्फ़ाज़ में मज़मूम बयान किया। चुनांचे सूरह बनी- इस्राईल की 42 आयत में मर्क़ूम है :—

أَفَأَصْفَاكُمْ رَبُّكُم بِالْبَنِينَ وَاتَّخَذَ مِنَ الْمَلآئِكَةِ إِنَاثًا

क्या तुमको तुम्हारे रब ने बेटे चुन दिए और अपने लिए फ़रिश्तों से बेटियां लें?

इसी तरह से ईलाही इंतिज़ाम में ख़ुदा के साथ किसी को शरीक मानने के ख़्याल की भी क़ुरआन ने तर्दीद की चुनांचे सूरह इनआम की एक सौ पहली आयत में यूं मुंदरज है :—

तो भी वो जिन्नों को उस का शरीक बनाते हैं हालाँकि उस ने उन्हें पैदा किया है।

लेकिन हज़रत मुहम्मद ने सिर्फ बुत-परस्ती की तर्दीद नहीं की बल्कि मसीहीयों को मुशरिक ठहराया और उन पर तीन ख़ुदा मानने का इल्ज़ाम लगाया। इस इल्ज़ाम की बुनियाद तालीम तस्लीस पर थी जिसमें मसीह की ईलाही अम्बियत शामिल है।

यहूदीयों पर भी ये इल्ज़ाम लगाया कि वो उज़ैर को ख़ुदा का बेटा कहते हैं हालाँकि ना उन किताबों में इस का ज़िक्र है और ना उन की रिवायात ही में इस का कुछ पता मिलता है कि उन्होंने कभी उज़ैर को इब्नुल्लाह या ख़ुदा का बेटा कहा।

तस्लीस की निस्बत जो बेशुमार हवालेजात क़ुरआन में पाए जाते हैं उन से साफ़ ज़ाहिर होता है कि रासिख़-उल-एतक़ाद मसीहीयों में तस्लीस की जो तालीम मानी और सिखाई जाती है आप उसे मुतलक़ नहीं समझे। एक से ज़्यादा मर्तबा ग़लती से बाप, बेटे और मर्यम को तस्लीस के अक़ानीम सलासा के तौर पर पेश किया है । चुनांचे सूरह माइदा की 77 वीं आयत से 79 वीं आयत तक यूं मर्क़ूम है :—

لَّقَدْ كَفَرَ الَّذِينَ قَالُواْ إِنَّ اللّهَ ثَالِثُ ثَلاَثَةٍ وَمَا مِنْ إِلَـهٍ إِلاَّ إِلَـهٌ وَاحِدٌ وَإِن لَّمْ يَنتَهُواْ عَمَّا يَقُولُونَ لَيَمَسَّنَّ الَّذِينَ كَفَرُواْ مِنْهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ أَفَلاَ يَتُوبُونَ إِلَى اللّهِ وَيَسْتَغْفِرُونَهُ وَاللّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ مَّا الْمَسِيحُ ابْنُ مَرْيَمَ إِلاَّ رَسُولٌ قَدْ خَلَتْ مِن قَبْلِهِ الرُّسُلُ وَأُمُّهُ صِدِّيقَةٌ كَانَا يَأْكُلاَنِ الطَّعَامَ

काफ़िर कहते हैं यक़ीनन अल्लाह तीन में का तीसरा है। मसीह इब्ने मर्यम महिज़ एक रसूल है। उस से पेशतर रसूल हो चुके हैं और उस की माँ मोमिना थी। वो दोनों खाना खाते थे I

पस अब क़ुरआन ही के बयान से अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि तस्लीस की जिस तालीम को मसीही मानते और सिखाते हैं हज़रत मुहम्मद ने इस की तर्दीद नहीं की बल्कि लाइल्मी के सबब से एक ख़्याली और वहमी तीन ख़ुदाओं के ईमान की मुख़ालिफ़त करते रहे। चुनांचे सूरह माइदा की 116 वीं आयत में मुंदरज है :—

وَإِذْ قَالَ اللّهُ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ أَأَنتَ قُلتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَـهَيْنِ مِن دُونِ اللّهِ

और जब ख़ुदा ने कहा ए ईसा मर्यम के बेटे क्या तूने लोगों से कहा कि मुझको और मेरी माँ को अल्लाह के सिवा दो माबूद मानो ?

हज़रत मुहम्मद की ग़लती मफ़ाअफ़ थी एक तो आप ने अक़ानीम तस्लीस में रूहुल-क़ुद्दुस की जगह मर्यम को शामिल किया और दूसरे ये ख़्याल किया कि मसीही लोग अक़ानीम सलासा तस्लीस को जुदा जुदा तीन ख़ुदा मान कर उन की इबादत करते हैं । पस जिस बात की क़ुरआन बड़े ज़ोर-ओ-शोर से तर्दीद करता है वो इलाहों की कसरत है।

मसीही लोग भी ऐसे मुशरिकाना ख़्याल व एतक़ाद की तर्दीद करने में मुसलामानों से कम ग़ैरत मंद नहीं हैं। हम नहीं समझ सकते कि नेक नीयत व हक़ पसंद मुसलमान हज़रत मुहम्मद कि इन ग़लतीयों की मौजूदगी में किस तरह कह सकते हैं कि क़ुरआन कलाम-उल्लाह है जो जिब्राईल फ़रिश्ता की मार्फ़त हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल हुआ।

इस मुक़ाम पर ये अम्र निहायत ही काबिल-ए-ग़ौर है कि अरब में इल्म अल-अशया-ए-क़दीमा की मालूमात ज़बान और तवारीख़ के फ़तवा की पूरे तौर से तस्दीक़ कर रही हैं और उन से साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो मसीही अरब में आबाद थे वो अक़ानीम सलासा तस्लीस में बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस ही को शामिल करते थे क्योंकि यमन में डाक्टर ऐडवर्ड गलीसर साहिब ने मसीही लोगों की यादगारों को दर्याफ़त किया तो उन पर 542 ईस्वी का ये लिखा पाया कि :—

"ख़ुदा ए रहीम और उस के मसीह और रूह-उल-क़ूद्दूस की क़ुदरत से"

मसीहीयों के ईलाही एतिक़ाद की बुनियाद इन अल्फ़ाज़ पर है जो सय्यदना मसीह ने इस्तिमाल किए जैसा कि इंजील मरकुस के 12 वें बाब की 29 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

“ए इस्राईल सुन ख़ुदावंद हमारा ख़ुदा एक ही ख़ुदावंद है”

मसीही एतिक़ाद में तस्लीस-फ़ील-तौहीद है ना कि जुदा जुदा तीन ख़ुदाओं की तालीम। लेकिन हज़रत मुहम्मद ने ग़लतफ़हमी की और इस ग़लतफ़हमी में आपके मोमिनीन भी इस वक़्त से आज तक शरीक होते चले आए हैं। आपने मसीह की ईलाही इब्नीयत को ना समझा और यह ख़्याल करके कि मसीही लोग मसीह को ख़ुदा का जिस्मानी बेटा मानते हैं इस की तर्दीद की। आपकी ये ग़लतफ़हमी क़ुरआन से बख़ूबी ज़ाहिर है चुनांचे मिसाल के तौर पर हम एक दो आयतें नक़ल करते हैं। सूरह इन्आम की एक सौ पहली आयत में मुंदरज है :—

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ أَنَّى يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُن لَّهُ صَاحِبَةٌ

वो ज़मीन व आस्मान का ख़ालिक़ है। उस का बेटा कहाँ से होगा जबकि उस की कोई बीवी नहीं है ।

फिर सूरह मोमिन की 92 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

مَا اتَّخَذَ اللہُ مِنْ وَّلَدٍ

ख़ुदा का कोई बेटा नहीं है।

मुफ़स्सिर ज़मख़शरी की तफ़्सीर के मुताले से किसी क़दर मालूम हो सकता है कि इब्नीयते-मसीह के बारे में मुसलामानों के क्या ख़्यालात हैं । चुनांचे मुफ़स्सिर मज़कूर सूरह निसा की 169 वीं आयत की तफ़्सीर में लिखता है कि :—

“इस मुक़ाम पर क़ुरआन उन्ही के (मसीहीयों के) अल्फ़ाज़ को पेश करता है कि ख़ुदा और मसीह और मर्यम तीन ख़ुदा हैं और मसीह ख़ुदा और मर्यम का बेटा है”

जब मुसलामानों के ज़हन में तस्लीस के बारे में ऐसे ख़्यालात हैं तो कुछ ताज्जुब नहीं कि अक़ीदा तस्लीस को तौहीद का मुनाफ़ी समझते हैं लेकिन अगर ठीक तौर से समझ लिया जाये तो मसला तस्लीस हरगिज़ हरगिज़ मुनाफ़ी तौहीद नहीं हो सकता। मसीही भी ख़ुदा की वहदत व तौहीद पर बहुत ज़ोर देते हैं और मुसलामानों की तरह मानते हैं कि सिर्फ एक ही ख़ुदा है। मर्यम को ख़ुदा मानना और उस की ख़ुदा की सी इबादत करना और मसीह को ख़ुदा के सिवा एक और ख़ुदा मानना तमाम मसीहीयों के नज़्दीक कुफ़्र अज़ीम है। लेकिन ये कहना कि "एक ज़िंदा व अज़ली ख़ुदा की ज़ात-ए-पाक में या उस क़ुद्दूस की वाहिद ज़ात व हस्ती के अंदर अंदर “अक़ानीम सलासा” हैं हरगिज़ हरगिज़ तौहीद ईलाही के ख़िलाफ़ नहीं है। बल्कि बख़िलाफ़ उस के ये हक़ीक़त दीन और फ़ल्सफ़ा में बहुत सी बातों के समझने में मदद करती है और "कलिमतुल्लाह" और “रूह-अल्लाह” वग़ैरा मसीह के अलक़ाब पर जोकि किसी महिज़ इन्सान के हक़ में इस्तिमाल नहीं हो सकते बख़ूबी रोशनी डालती है।

हमें यक़ीन है कि अगर बिरादरान अहले-इस्लाम अपने पुराने ख़्यालात को छोड़कर और मसीह की इब्नीयत के जिस्मानी ख़्याल को तर्क करके उसे रुहानी तालीम के तौर पर समझने की कोशिश करें तो उन को मसीही तालीम तस्लीस में कोई ऐसी बात नहीं आऐगी जिससे ख़ुदा की वहदत की मुख़ालिफ़त हो।

पहले तमाम मख़्लूक़ात से ख़ुदा के वजूद का जुदा तसव्वुर करें और उसे उसकी बेनज़ीर व पुर-जलाल तौहीद के तख़्त पर देखें और फिर ज़हन की आँखें खोल कर वाहिद-ए-ख़ुदा की ज़ात पर ग़ौर करें। जैसा कि ख़ुदा की सिफ़ात में कसरत देखते हैं मुम्किन है कि इस की वाहिद ज़ात में भी कसरत का मुशाहिदा करें। लेकिन इस ज़ाती व सिफ़ाती कसरत से इस की वहदत में कुछ फ़र्क़ नहीं आता। वो वैसा ही लासानी और वहिदहु लाशरीक-ला रहता है।

पस मसीहीयों और मुहम्मदियों में अम्र मुतनाज़ा ये नहीं कि आया ख़ुदा एक है या एक से ज़्यादा हैं बल्कि असल मबहस ये है कि वाहिद-ए-ख़ुदा की ज़ात कैसी है और उस ज़ात में कौनसे राज़ मख़फ़ी व सरबस्ता हैं।

अगर अहले इस्लाम ख़ुदा की ज़ात पर इस तरह से ग़ौर करना शुरू करें तो हमें पुख़्ता यक़ीन है कि इन की बहुत सी मुश्किलात काफ़ूर हो जाएगी । इस मुक़ाम पर ये अम्र मलहूज़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा की तस्लीस फ़ील तौहीद ज़ात-ए-ईलाही का मुकाशफ़ा है और मसीहीयों के ईमान की बुनियाद इसी हक़ीक़त पर है। ये मुम्किन है कि इस के मुताल्लिक़ बहुत सी मुश्किलात हों लेकिन ये मुश्किलात उन मुश्किलात से हरगिज़ हरगिज़ बड़ी ख़्याल नहीं की जा सकतीं जो उस ख़ुश्क तौहीद से इलाक़ा रखती हैं जिसके लिहाज़ से ख़ुदा हमेशा से एक सुनसान तन्हाई में मौजूद है। या यूं कहें कि मुहिब बे-महबूब है या आलम बिला-मालूम है।

हम हर चहार तरफ़ से राज़ रमूज़ से महसूर हैं और उन इसरार से तस्लीस फ़ील तौहीद की निस्बत बहुत से इशारात मिलते हैं। मसलन आफ़्ताब में क़ुव्वत, गर्मी, और रोशनी या हर इन्सान फ़र्द-ए-वाहिद में जिस्म, ज़हन और रूह पर है। पस अगर ख़ुदा की ज़ात-ए-वाहिद में हस्तीयों की कसरत पाई जाये तो कुछ ताज्जुब की बात नहीं है बहर-ए-हाल जबकि हम मख़्लूक़ात के इसरार को समझने से आजिज़ व क़ासीर हैं तो क्या “ये छोटा मुँह और बड़ी बात” का मिस्दाक़ बनना नहीं है कि हम ईलाही ज़ात के इसरार को समझने का दावा करें और ख़ुद राय बन कर उस की ज़ात में तस्लीस के इम्कान के मुन्किर हों।

बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनके लिहाज़ से ईलाही वहदत में किसी ना किसी तरह की कसरत माननी पड़ती है। मसलन इन्सानियत का एक आला व पाक तरीन तक़ाज़ा "मुहब्बत" है । इन्सान मुहब्बत करता है और यह भी आरज़ू रखता है कि इस के हम रुत्बा हम-जीन्स इस से मुहब्बत रखें क्या हम ये कह सकते हैं कि ख़ुदा ख़ुद इन्सान का ख़ालिक़ किसी वक़्त इस वस्फ़ "मुहब्बत" से ख़ाली था? क्या वो दुनिया और फ़रिश्तगान की पैदाइश से पेशतर ख़ाली अज़ मुहब्बत ख़ुश्क वहदत में मौजूद था ?

इस किस्म के ख़ुदा की शख़्सियत बमुश्किल ही मुतसव्वर हो सकती है। क्योंकि शख़्सियत का मफ़्हूम ऐसी ज़ात है जिसको अपनी और अपने ख़वास की हस्ती का इल्म व एहसास हो यानी उस के लिए आलम व माअलोम होना ज़रूर है । हमा औसत वालों ने भी इस हक़ीक़त का इक़रार किया है और एक तरह की तस्लीस क़ायम की है जिस का दार-ओ-मदार कायनात ही पर रखा है। इन के ख़्यालात के मुताबिक़ ख़ुदा अपने आपको कायनात से तमीज़ करता है और इस तरह अपनी हस्ती के एहसास की सिफ़त से मुत्तसिफ़ है। चुनांचे लिखा है कि :—

"चूँकि ख़ुदा अज़ली है वो हमेशा अपनी ज़ात के एहसास के लिए अपने मुक़ाबले में फ़ित्रत को क़ायम रखता है"

मसीही उलमा इस ईलाही ज़ात के एहसास का ज़रीया सय्यदना मसीह ख़ुदा के अज़ली बेटे में पाते हैं । लिहाज़ा मसीही फ़ल्सफ़ा ईलाही इल्हाम से पूरी पूरी मुताबिक़त रखता है। अगर अहले इस्लाम मुंदरजा बाला बयान को सय्यदना मसीह के बयान के साथ मिला कर देखें तो साफ़ मालूम हो जाएगा। कि इस्लामी ख़ुश्क तौहीद के मुक़ाबले में तस्लीस फ़ील तौहीद की तालीम निहायत ही आला व तसल्ली बख़्श है ।

सय्यदना मसीह के दुआइया अल्फ़ाज़ कैसे पुरमानी हैं चुनांचे वो फ़रमाता है :— "ए बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेशतर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना दे" फिर फ़रमाया "तूने बनाए आलम से पेशतर मुझसे मुहब्बत रखी"(युहन्ना 17:5, 24)

असमा-ए ईलाही मुंदरजा क़ुरआन में से एक "अल-क़य्यूम" है लेकिन क्या अल-क़य्यूम का ये तक़ाज़ा नहीं कि किसी तरह की कसरत उस ज़ात वाहिद के अंदर अंदर पाई जाये ताकि उस ज़ात का कामिल इज़्हार हो? शहर-ए-लाहौर की पुरानी मस्जिदों में से एक की दीवार पर "अल्लाह काफ़ी" कुंदा है जिससे ये ज़ाहिर होता है कि ख़ुदाए तआला की ज़ात में वो सब कुछ मौजूद है जो उस के कामिल इज़्हार के लिए ज़रूर है।

फिर "अल-वदूद" कहलाता है । इस से भी अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि वो मुहब्बत व महबूब और मुहब्बत के तमाम लवाज़म अपनी ज़ात-ए-वाहिद में रखता है और किसी बैरूनी चीज़ का मुहताज नहीं है। अगर ख़ुदा वाजिब-उल-वजूद और अल-क़य्यूम है तो ज़रूर उस की अज़ली मुहब्बत के लवाज़म उस की ज़ात-ए-पाक में मौजूद हैं।

इस्लामी ख़ुश्क उलूहियत के ख़्याल के मुताबिक़ तो ख़ुदा सिफ़त-ए-मुहब्बत से आरी ठहरता है दरहालीका उस के मख़्लूक़ इन्सान में मुहब्बत का जज़्बा मौजूद है। लेकिन ये बात तो ग़ैर मुतसव्वर है क्योंकि ख़ालिक़ अपनी ज़ात व सिफ़ात में मख़्लूक़ सा अदना नहीं हो सकता।

अल-ग़र्ज़ चूँकि तस्लीस की तालीम में मुश्किलात पेश आती हैं इस लिए ये इन्सानी इख़तिरा नहीं है और यह भी याद रहे कि ये तालीम मुवह्हिद यहूदीयों से राइज हुई जिनका मैलान-ए-ख़ातिर उस के ख़िलाफ़ होना चाहिए था। जो कुछ कहा जा सकता है वो सब कहने के बाद इन्सान को लाज़िम है कि ख़ुदा की ज़ात का इर्फ़ान हासिल करने के लिए ईलाही इल्हाम को अपना रहनुमा बनाए । क्योंकि इन्सान अपनी जुस्तजू से ख़ुदा को नहीं पा सकता और अपने नाक़िस इल्म के वसीले से इस की लामहदूद ज़ात की गहराई तक नहीं पहुंच सकता । ख़ुदा को पूरे तौर से जानने के लिए ज़रूर है कि हम ख़ुद ख़ुदा हों या बरअक्स उस के यूं कहें कि जिसको इन्सान पूरे तौर से जान सके वो ख़ुदा भी नहीं हो सकता ।

मज़कूरा बाला बयानात के मुताबिक़ जबकि ख़ुदा की ज़ात-ए-वाहिद में किसी तरह की कसरत का होना ज़रूर है और कलाम-उल्लाह से इस की ज़ात के बारे में तस्लीस फ़ील तौहीद की तालीम मिलती है तो ईमान मज़बूत होता है और उम्मीद ताज़ा होती है। जब सय्यदना मसीह अपने मुतहय्यर शागिर्दों के सामने आस्मान पर सऊद फ़र्मा रहे थे इसने उन्हें फ़रमाया :—

"जाओ और क़ौमों को बाप बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस के नाम से (ना कि नामों से) बपतिस्मा देकर शागिर्द बनाओ"

मसीही लोग इसी नाम की मुनादी करते हैं। बाप तमाम चीज़ों का मंबा व सर-चशमा है । बेटा अज़ल से बाप के साथ है और रूहुल-क़ुद्दुस बाप और बेटे से सादीर है और एक ही ख़ुदा है।

इस्लाम में ख़ुदा अपनी ख़ुश्क तौहीद और बेगानावार बुज़ुर्गों में ऐसा नज़र आता है कि इस की ज़ात सिफ़ात जो बयान की जाती है इस में क़ायम नहीं होतीं। लिहाज़ा इस्लाम ख़ुदा की तारीफ़ में क़ासिर है और तौरेत व इंजील की ईलाही तालीम और मुकाशफ़ात का मुख़ालिफ़ है।

बाब दोम

सिफ़ात-ए-ख़ुदा

क़ुरआन और अहादीस में जो सिफ़ातें ख़ुदा से मंसूब की गई हैं उन को उमूमन अज़ली बयान किया है वह निनान्वे (99) असमा-ए ईलाही के नाम से मशहूर हैं। लिहाज़ा ख़ुदा की सिफ़ात पर ग़ौरो-फ़िक्र करते वक़्त उन निनान्वे असमा-ए सिफ़ात पर ग़ौर करना अज़-बस ज़रूरी है।

ख़ुदा का इस्म-उल-ज़ात या ज़ाती नाम अल्लाह है। ताज्जुब की बात है कि ये नाम निनान्वे नामों की फ़हरिस्त में शामिल नहीं है। असमा-ए सिफ़ात की दो किस्में हैं :—

اسماء الجلالیہ دوم اسماء الجمالیہ

अव़्वल अस्मा-ए-अल-जलालीयह दोम अस्मा-ए-अलजमालिया ।

ये सब नाम आप ही अपनी शरह करते हैं । मसलन अल-रहमान पहली किस्म की फ़हरिस्त में आता है लेकिन अल-मुंतक़िम दूसरी किस्म की फ़हरिस्त में आएगा। इस्लाम के इल्म ईलाही में इन नामों की एहमीयत का ज़िक्र करते वक़्त मुबालग़ा करना मुश्किल है क्योंकि उनके वसीले से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ मालूम हो जाता है कि ख़ुदा की सिफ़ात और कैरक्टर के बारे में अहले-इस्लाम का ख़्याल व एतक़ाद क्या है। इन नामों के विर्द का बहुत ही बड़ा सवाब है। चुनांचे मिश्कात में यूं मर्क़ूम है :—

من احصاھادخل الجنہ

जो कोई इनका विर्द करता है बहिश्त में जाएगा

इस में ज़रा भी शक नहीं कि बहुत से दीनी मुअल्लिमों की ग़लती इस में नहीं जो कुछ वो ख़ुदा से मंसूब करते हैं बल्कि इस बात में है कि वो बहुत से ऐसे उमूर को नज़र-अंदाज करते हैं जिन्हें ख़ुदा से मंसूब करना चाहिए।

इन निनान्वे वस्फ़ी नामों में से ज़्यादा तर ख़ुदा के कहारी व जब्बारी का इज़्हार करते हैं और उस के जलाल का बयान करने वाले बहुत ही थोड़े हैं। बेशक ये सच्च है कि क़ुरआन में  एक सूरह के सिवा सब के शुरू में ख़ुदा को "रहीम व रहमान" लिखा है और बार बार उस को ग़ाफ़िर-अलज़नोब बयान किया है लेकिन ये हक़ीक़त फिर भी क़ायम रहती है कि क़ुरआन ख़ुदा को ज़्यादा तर साहिबे क़ुदरत और मुतलक़-उल-अनान हाकिम ही बयान करता है और ख़ुदा की फ़रमांबर्दारी की बुनियाद उस का ख़ौफ़ और मुहब्बत बिल्कुल मफ़क़ूद है।

ख़ुदा के अख़्लाक़ के मुताल्लिक़ सिर्फ चार अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए गए हैं और अगरचे हम तस्लीम करते हैं कि एक तरह से ये अख़्लाक़ी सिफ़ात हैं तो भी क़ुरआन में सिर्फ दोही अल्फ़ाज़ मिलते हैं और इस्लामी इल्मे ईलाही में उन के भी मआनी मुश्तबा व मशकूक हैं।

ख़ुदा की कहारी व जब्बारी की सिफ़ात क़ुरआन में बार-बार ज़िक्र की गई हैं। ख़ुदा कि अख़्लाक़ी सिफ़ात का ख़ुलासा या माहसल इन दो आयतों में पाया जाता है जिनमें मुंदरज है कि अल्लाह पाक और सादिक़-उल-क़ोल है। क़ुरआन बताता है और अहादीस से इस की तशरीह की जाती है कि हज़रत मुहम्मद को किसी हद तक ख़ुदा की जिस्मानी सिफ़ात का ख़्याल तो था लेकिन इस की अख़्लाक़ी सिफ़ात का ख़्याल या तो था ही नहीं या बिल्कुल ग़लत था।

आपने फ़ित्रत में ख़ुदा की क़ुदरत को देखा लेकिन इस की पाकीज़गी और उस के अदल व इन्साफ़ की झलक आपको नसीब ना हुई।

जब ख़ुदा के निनान्वे नामों की फ़हरिस्त में "बाप" नज़र नहीं आता तो मसीही आदमी को इस से सख़्त हैरत होती है। अगर क़ुरआन व अहादीस का बग़ौर मुतआला किया जाये तो बाइबल के मुकर्रर ऐलान "ख़ुदा जहान को प्यार करता है" का ना पाया जाना अज़हद परेशानी पैदा करता है जिस दीन में इब्तदाए आलम से पेशतर ही से ख़ुदा जहान को प्यार करने वाला नहीं इस में ये तालीम कहाँ पाई जा सकती है कि कायनात की तख़्लीक़ के बाद से खुदा अपनी मख़्लूक़ात को प्यार करता है।

लफ़्ज़ "इस्लाम" इस अम्र के इज़्हार के लिए काफ़ी है कि ख़ुदा और इन्सान में बजाय बाप और बेटे के आक़ा और ग़ुलाम का रिश्ता है। और इन्सान का रुत्बा सिर्फ यही है कि क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की मर्ज़ी का महिज़ मग़्लूब ही हो।

अहले-इस्लाम बहैसियत-ए-मजमूई इन निनान्वे असमा-ए-सिफ़ात से बहुत ही मुतास्सिर हुए हैं । कलिमा तौहीद “ला-इलाहा-इल्लल्लाह” के बाद सबसे ज़्यादा "अल्लाहु-अकबर" मुसलामानों दर्द ज़बान है। पस अहले-इस्लाम का तसव्वुर जो ख़ुदा के बारे में है इस में कुछ मुहब्बत नहीं जो आबिद को माबूद की तरफ़ तबअन माइल करके फ़रमांबर्दार बनाए ताकि वो मुहब्बत और दिली रग़बत से ख़ुदा की मर्ज़ी का मुतीअ बने।

ख़ुदा का इस्लामी तसव्वुर ये तक़ाज़ा करता है कि ख़ुदा की एक जाबिर हुक्म की मानिंद ग़ुलामाना फ़रमांबर्दारी की जाये और इस का नतीजा ये है कि फ़र्ज़ंदाना मुहब्बत में बहुत कमी वाक़्य हुई है।

हज़रत मुहम्मद ने मसीह की इब्नीयत की तर्दीद की और इस का अस्बाब ये था कि आप उस को रुहानी पैराया में ना बयान कर सके और ना समझ सके लेकिन ख़ुदा को आपने ऐसा जिस्मानी तसव्वुर कर लिया कि गोया वो तख़्त पर बैठा अपने हाथ से तक़्दीर हाय नेक व बद लिख रहा था।

अब क्या हम नहीं कह सकते कि हज़रत मुहम्मद का ख़याल-ए-ख़ुदा की शख़्सियत के बारे में बिल्कुल ग़लत था और इसी वास्ते आप इस ख़्याल में उलझ गए कि मसीह की इब्नीयत की निस्बत मसीही तालीम को यूं तसव्वुर किया कि इस के मुताबिक़ गोया वो मर्यम ताहिरा से जिस्मानी तौर पर पैदा हुआ।

 

बाब सोम

अक़ाइद-ए-तजस्सुम-ए-ख़ुदा

क़ुरआन को बग़ौर पढ़ने से मालूम होता है कि बहिश्त व दोज़ख़ के मुताल्लिक़ बयानात माद्दी है I क्योंकि हज़रत मुहम्मद ने ज़्यादा-तर अहले-बहिश्त की नफ़्सानी ऐश व इशरत और हाल-ए-दोज़ख़ के जिस्मानी अज़ाब ही के बयान में अपने तमाम तसव्वुरात को सर्फ किया है I

क़ुरआन और अहादीस में ईमानदारों को बहिश्त में बहुत सी नफ़्सानी ख़ुशीयों के वाअदे दीए गए हैं। इन ख़ुशीयों के बयान निहायत मुफ़स्सिल और मुशर्रेह तौर पर मुंदरज हैं। चुनांचे लिखा है कि शराब तुहूर की नहरें जारी होंगी और मोटी मोटी स्याह आँखों वली हूरें अहले-जन्नत की ख़ुशी को कामिल करेंगी।

बख़िलाफ़ उस के दोज़ख़ निहायत ही हैबतनाक जगह है। वहां अहले-दोज़ख़ को आतिशी लिबास पहनाया जाएगा और उबलता हुआ पानी उन के सरों पर डला जाएगा । जिसकी गर्मी से उन की आँतें पिघल कर निकल जाएगी और लोहे के गुर्ज़ों से उन को मारेंगे। ख़ून और पीप का मुरक्कब उन्हें खाने को मिलेगा और उन बदबख़्तों को साँप और बिच्छू मुतवातिर डंक मारते रहेंगे ।

हज़रत मुहम्मद का ख़्याल उस जिस्मानी सोज़िश के अज़ाब से आगे नहीं बढ़ सका। इस किस्म की सज़ा को बहुत से शहीदों ने मुस्कुराते हुए बर्दाश्त किया। ताज्जुब की बात ये है कि आपके जहन्नुम में ज़हनी और अक्ली सज़ा का नाम तक नहीं पाया जाता।

पस कुछ ताज्जुब का मुक़ाम नहीं कि जब हज़रत मुहम्मद का दिमाग़ ऐसे माद्दी बहिश्त व दोज़ख़ के ख़्याल से पूर था तो आप ने ख़ुदा को भी ऐसा ही माद्दी बयान फ़रमाया।

चुनांचे क़ुरआन में बहुत से मुक़ामात पर ख़ुदा के चेहरे उस के हाथों और उस की आँखों का ज़िक्र है और उसे एक तख़्त पर बैठा हुआ तसव्वुर किया है। मुफ़स्सिर हुसैन लिखता है कि इस तख़्त के आठ हज़ार पाए हैं और हर दो पाइयों का दर्मयानी फ़ासिला तीस लाख मील है !

क़ुरआन व अहादीस के इन मुक़ामात की शरअ में मुफ़स्सिरीन को बड़ी मुश्किल पेश आती है और उन्होंने सिर्फ ये तरीक़ा पसंद किया है कि इन बातों को बे-तफ़्सीर और बे-दलील ही तस्लीम किया है।

मिसाल के तौर पर हम मालिक इब्ने अनस के बयान को पेश करते हैं। वो ख़ुदा के तख़्त पर बैठने की निस्बत यूं लिखता है :—

ख़ुदा का तख़्त पर बैठना तो मालूम है लेकिन ये नहीं मालूम कि वो किस तरह बैठा हुआ है। इस को मानना फ़र्ज़ है और किसी तरह की चोन व चरा करना बिद्दत है।

इस मुक़ाम पर ये कहना मुनासिब मालूम होता है कि इस्लाम की तालीम के मुताबिक़ माद्दी लौह-ए-महफ़ूज़ से नक़ल हो कर माद्दी किताब आस्मान से नाज़िल हुई लिहाज़ा उसका मुक़ाम यानी तख्त-ए-ख़ुदा भी माद्दी होना चाहिए।

पस जब माद्दी तख़्त तस्लीम कर लिया तो ख़ुदा को माद्दी मानने में एक ही क़दम बाक़ी रह जाता है। ऐसा मालूम होता है कि इस्लाम ने ये क़दम बाक़ी नहीं रख छोड़ा और ख़ुदा को माद्दी जिस्म व सूरत के साथ तसव्वुर किया है लेकिन फिर भी जैसा कि तिर्मिज़ी के बयान से ज़ाहिर है उलमा-ए-इस्लाम इस अम्र के बाब में निहायत ही शशदर व हैरान हैं।

हज़रत मुहम्मद ने कहा था "ख़ुदा सातों आसमानों के सबसे निचले पर उतर आया" जब तिर्मिज़ी से इस की निस्बत पूछा गया तो उस ने जवाब दिया कि :—

ख़ुदा का उतर आना तो क़रीन-ए-क़ियास और माक़ूल बात है लेकिन ये नहीं मालूम कि किस तरह से उतर आया । इस पर ईमान लाना फ़र्ज़ है लेकिन इस के मुताल्लिक़ तहक़ीक़ात करना मज़मूम व बिदअत है।

बेशक फ़िर्क़ा मोतज़िला और दीगर बिद्दती फ़िर्क़ों के उलमा ने इस किस्म के तमाम माद्दी ख़्यालात की तर्दीद की और तजस्सुम के अल्फ़ाज़ के रुहानी मआनी बयान किए लेकिन रासिख़-उल-एतक़ाद फ़िर्क़ों के उलमा ने उन्हें ख़ूब सरज़निश की और उन में से बहुत से इस जुरआत व तहोर के सबब से मार डाले गए । फिर जब उन को मुक़द्दरत नसीब हुई तो उन्होंने बगदादी सल्तनत के ज़माने में रासिख़ फ़िर्क़ों से वही सुलूक किया।

जलाल-उद्दीन-अल-सिवती उनके ज़ुल्म व तशद्दुद के बाब में बयान करता है कि ख़लीफ़ा अल-वासक ने अहमद (बिन नस्र-अल-कफ़ाई) मुहद्दिस को बग़दाद में तलब किया और इस से क़ुरआन के ख़ल्क़ किए जाने और क़ियामत के दिन दीदारे ईलाही के बारे में सवाल किया ख़लीफ़ा मज़कूरा ख़ुद इन दोनों का मुन्किर था। अहमद ने जवाब दिया :—

ستروں ربکم یوم القیامتہ کما ترون القمر

रोज़ क़ियामत में तुम अपने रब को इस तरह देखोगे जिस तरह चांद को देखते हो अल-वासक ने कहा "तू झोट बोलता है", अहमद ने जवाब दिया नहीं मैं झूट नहीं बोलता बल्कि तू झूट बोलता है इस पर ख़लीफ़ा ने कहा "क्या ख़ुदा एक दायरे में इस माद्दी चीज़ की मानिंद नज़र आएगा जिस को जगह मुक़य्यद कर सकती है और आँखें देख सकती हैं? ये कहकर मोतज़िला पेशवा ने उठकर अपने हाथ से अहमद को क़त्ल किया । ताहम आख़िर-ए-कार रासिख़-उल-एतक़ाद फ़िरक़े के लोग ग़ालिब आए और नतीजतन हर एक पक्के मुसलमान को ये मानना पड़ता है कि क़ियामत के रोज़ ख़ुदा माद्दी तौर पर नज़र आएगा और इस अक़ीदे की बुनियाद क़ुरआन व अहादीस के साफ़ व सरीह अल्फ़ाज़ पर है।

चुनांचे सूरह क़ियामत की 22 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :—

وُجُوهٌ يَوْمَئِذٍ نَّاضِرَةٌإِلَى رَبِّهَا نَاظِرَةٌ

कितने मुँह उस दिन अपने रब की तरफ़ देखते हुए ताज़ा होंगे।

हज़रत मुहम्मद की बहुत सी अहादीस ख़ुदा के माद्दी दीदार के मुताल्लिक़ मौजूद हैं और उन से साफ़ मालूम हो जाता है कि इस अम्र के बारे में आँहज़रत के ख़्यालात कैसे थे यहां तक कि शक व शुबहा की मुतलक़ गुंजाइश नहीं रहती। चुनांचे मिश्कात-अल-मसाबीह में मर्क़ूम है :—

اذا رخل اہل الجنتہ الجنتہ یقول اللہ تعالیٰ تریدون شیئا اریدکمہ فیقولون الم تبیض  وجوھنا الم تدخلنا الجنتہ وتنجنا من النارقال فیر فع الحجاب فینظرون الی وجہ اللہ تعالیٰ فما اعطوا اشیئا احبالھمہ من النظرالی ربھم

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि जब अहले-जन्नत जन्नत में दाख़िल होंगे तो अल्लाह तआला उन से कहेगा क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें और दूँ ? तब वो कहेंगे क्या तू ने हमारे चेहरों को रोशन नहीं किया और क्या तूने हमको जन्नत में दाख़िल नहीं किया और आतिश-ए-दोज़ख़ से नहीं बचाया? तब ख़ुदा पर्दा उठाएगा और वो अल्लाह तआला के चेहरे पर नज़र करेंगे । उन को दीदार ए ईलाही से ज़्यादा मर्ग़ूब कोई चीज़ नहीं दी जाएगी।

अगर कोई मेराज का बयान पढ़े तो उस पर बख़ूबी ज़ाहिर हो जाएगा । कि उलमा-ए-इस्लाम ने कहाँ तक हज़रत मुहम्मद की शान में मुबालग़ा व गु़लू से काम लिया है। चुनांचे लिखा है कि :—

ख़ुदावंद मुझसे मुलाक़ात करने को आया और मुझ को मर्हबा कहने के लिए अपना हाथ बढ़ाया और मेरे चेहरे पर नज़र की और मेरे कंधे पर हाथ रखा यहां तक कि मैंने उस की उंगलीयों के सरों की ठंडक महसूस किया I

फिर एक और मौक़ा पर जब आप सो रहे थे ख़ुदा मुलाक़ात को आया। चुनांचे मिश्कात अल-मसाबीह में यूं मुंदरज है :—

وضع کفہ بین کنفی حتی وجدت بردملہ بین ثدبی

इस ने अपनी हथेलियों को मेरे कंधों के दर्मियान रखा यहां तक कि मैंने उस की उंगलीयों की ठंडक को अपने सीने में मसहूस किया।

इस बात के सबूत में कि मुंदरजा बाला बयान रासिख़-उल-एतक़ाद मुसलामानों की तालीम है हम जे़ल का बयान जोहराह से नक़ल करते हैं। 107 से 112 सफ़हे तक यूं मर्क़ूम है :—

ख़ुदा को देखना इस दुनिया में भी और आलम-ए-आख़िरत में भी मुम्किन है। इस दुनिया में तो सिर्फ हज़रत मुहम्मद ही को ख़ुदा का दीदार नसीब हुआ है और आलम-ए-आख़िरत में तमाम मोमिनीन उसको देखेंगे बाअज़ का ख़्याल है कि सिर्फ आँखों से देखेंगे। बाअज़ के नज़्दीक तमाम चेहरे से और बाअज़ कहते हैं कि तमाम जिस्म से या जिस्म के तमाम आज़ा से देखेंगे।

मोमिनीन के अज्र के बारे में क़ुरआन में एक मशहूर आयत है और सही अहादीस की सनद से मुफ़स्सिरीन इस आयत से दीदार ईलाही की तरफ़ इशारा पाते हैं। चुनांचे सूरह यूनुस की 27 वीं आयत में मुंदरज है :—

لِلَّذِيْنَ اَحْسَـنُوا الْحُسْنٰى وَزِيَادَۃٌ۝۰ۭ

जिन्होंने भलाई की इन के लिए भलाई और ज़्यादती है I

मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि "भलाई" से बहिश्त और गुनाहों की माफ़ी मुराद है और "ज़्यादती" का मफहूम फ़र्हत अफ़्ज़ा दीदार-ए-ख़ुदा है।

चुनांचे खुलासतुल तफासीर का मुसन्निफ़ इस आयत की तफ़्सीर में यूं लिखता है "हुसना से जन्नत और मग़फ़िरत....और ज़्यादती से दीदारे ईलाही मुराद है।

इसी आयत की तफ़्सीर में अब्बास यूं लिखता है :—

الحسنیٰ الجنتہ وزیادہ یعنی النظرالی وجدہ اللہ

हुसना से जन्नत और "ज़्यादती" से ख़ुदा के चेहरे पर नज़र करना मुराद है।

अब मुम्किन है कि कोई यूं कहे कि मुंदरजा बाला हवालजात में जिन मुक़ामात का ज़िक्र हुआ है उन्ही की मानिंद बाइबल में भी ख़ुदा के चेहरे और हाथ वग़ैरा का ज़िक्र पाया जाता है। एक तरह से ये बिल्कुल सच्च है लेकिन बाइबल से माद्दी ख़ुदा की तालीम क़ायम नहीं होती । क्योंकि बाइबल में इस किस्म के जितने मुक़ामात हैं उन के मआनी सिवाए बिल्कुल रुहानी और तश्बीही के और कुछ हो ही नहीं सकते। मसलन साफ़ लिखा है कि :—

"ख़ुदा रूह है" (युहन्ना 4:24)

"कभी किसी आदमी ने ख़ुदा को नहीं देखा" (युहन्ना 1:18)

"ख़ुदाए नादीदाह" (कुलुसियों 1:15)

पुराने अह्दनामे में भी जहां-जहां ख़ुदा के ज़ाहिर होने का ज़िक्र है वहां साफ़ साफ़ बताया गया है कि ख़ुदावंद का "फ़रिश्ता" लोगों के साथ चलता है और उन से हम-कलाम होता था।

मुसलमान मुफ़स्सिरीन के मुबालग़ों से पुर बेठिकाना बयानात और बाइबल के बयान में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है मुफ़स्सिरीन इस्लाम के इन बयानात की बुनियाद हज़रत मुहम्मद के साफ़ व सरीह अल्फ़ाज़ पर है।

हज़रत मुहम्मद ने ख़ुदा को और शैतान को माद्दी वजूद के साथ मुतसव्वर किया है। चुनांचे मिश्कात अल-मसाबीह में शैतान के बारे में यूं मुंदरज है :—

وقت صلوات الصبح من طلوع الفجر مالمہ نظلع  الشمس فاذا اطلعت الشمس  نامسیک عن الصلوات فاتھا تطلع بین قرنی الشیطان

नमाज़-ए-सुबह का वक़्त-ए-सुब्ह सादिक़ से तूलूअ आफ़्ताब तक है लेकिन जब आफ़्ताब बुलंद होता है नमाज़ से बाज़ रहो क्योंकि यक़ीनन वो शैतान के दोनों सींगों के दर्मियान से बुलंद होता है ।

मिश्कात में एक और हदीस मर्क़ूम है जो ख़ुदा के मुजस्सम होने और तक़्दीर की ख़ौफ़नाक तालीम देती है। चुनांचे लिखा है :—

قال ان خلق اللہ ادم ثمہ مسخ ظہرہ بیمینہ فاستخرج منہ ذریعہ فقال خلقت ھولا للجنہ وبعمل اہل الجنتہ یعملون ثم مسح ظھرہ بیدہ فاستخرج ذریتہ فقال خلقت ھوالاء اللنار وبعمل  اہل الناریعلمون

(कहा मुहम्मद ने) बेशक अल्लाह ने आदम को ख़ल्क़ किया और उसकी पीठ ठोकी अपने दाएं हाथ से और इस से औलाद निकाल कर कहा कि मैंने उनको बहिश्त के लिए पैदा किया है और ये अहले-बहिश्त के काम करेंगे। फिर दुबारा अपने हाथ से इस की पीठ ठोक कर उस की औलाद निकाली और कहा कि इन को मैंने दोज़ख़ के लिए पैदा किया है और यह अहले- दोज़ख़ के काम करेंगे ।

मुंदरजा बाला मक़तबसात से जिनकी मानिंद और भी बहुत से मिल सकते हैं साफ़ ज़ाहिर है कि इस्लाम ख़ुदा को माद्दी जिस्म देने के इल्ज़ाम से बरी नहीं हो सकता। क़ुरआन व अहादीस में जो बहिश्त व दोज़ख़ के माद्दी बयानात पाए जाते हैं ये भी उन्हीं से अख़ज़ किया हुआ ख़्याल है। इस में भी शक नहीं कि ये बयानात जिनको तमाम पक्के मुसलमान लफ़्ज़ी तौर पर सच्च मानते हैं मुजस्सम ख़ुदा के ख़्याल की ताईद करते हैं। फिर इलावा बरीं हज़रत मुहम्मद ने साफ़- साफ़ ये बयान किया है कि शब-ए-मेराज में आप आस्मान पर गए। वहां आदम, मूसा, ईसा और दीगर अम्बिया से मुलाक़ात की और आख़िरकार उम्मत की नमाज़ें कम कराने की दरख़्वास्त लेकर ख़ुदा के हुज़ूर में पहुंचे।

ये बयान निहायत साफ़ और तशबीया व इस्तआरे से बिल्कुल ख़ाली है। इस से भी ये बख़ूबी ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा अपनी तमाम मख़्लूक़ से दूर और सब से ऊंचे आस्मान पर एक माद्दी तख़्त पर बैठा है।

ख़ुदा के हक़ में ऐसे ख़्याल व एतक़ाद का अमली नतीजा इस्लामी इबादत के ख़्याल में साफ़ नज़र आता है "रब-उल-अर्श" ने दिन-भर में पाँच मर्तबा नमाज़ पढ़ने का हुक्म दे दिया है और हर एक मोमिन पर इस की बजा आवरी फ़र्ज़ है ख्वाह कैसा ही बे-लज़्ज़त व तकलीफ़दह मालूम हो। बरकत हासिल करने का ज़रीया सिवाए फ़रमांबर्दारी के और कुछ नहीं।

नमाज़ें समझ में आएं या ना आएं लेकिन आँहज़रत ने इन को कलीद-ए-दर-ए-जन्नत बयान फ़रमाया है । पस जो दाना है वही दाख़िल होगा। ख़ुदा के साथ सोहबत रखने का ख़्याल बिल्कुल मफ़क़ूद है। हम ये कहने की जुरआत कर सकते हैं कि क़ुरआन व अहादीस में कहीं एक फ़िक़रा भी नज़र नहीं आता जो युहन्ना रसूल के अल्फ़ाज़ जे़ल के मुक़ाबले में पेश किया जा सके।

हम ख़ुदा के साथ सोहबत रखते हैं “ख़ुदा मुहब्बत है” और जो मुहब्बत में रहता है और ख़ुदा इस में सुकूनत करता है बाइबल की तालीम के बमूजब ख़ुदा हम से दूर नहीं बल्कि हर एक के नज़्दीक है और वो हाथ के बनाए हुए ज़मीनी या आस्मानी मकानों में नहीं रहता क्योंकि हम इसी में चलते फिरते और ज़िंदा हैं जब बिरादरान-ए-अहले-इस्लाम सय्यदना मसीह से ये सीख लेंगे कि “ख़ुदा रूह है” और उसके परसतारों को वाजिब है कि रूह व रास्ती से इस की परस्तिश करें। तब ही रस्म परस्ती की जगह हक़ीक़ी रुहानी इबादत होगी और दूर के आस्मानी तख़्त पर के मुहीब ख़ुदा के ख़्याल के इव्ज़ में ख़ुदा के साथ दिली ताल्लुक़ नसीब होगा ।

तब ही अहले-मसीह की इब्नीयत की रुहानी तालीम को समझ सकेंगे और पाक तस्लीस में ज़ात-ए-बारी के मुताल्लिक़ बहुत से मुश्किल मसाइल हल हो जाएंगे।

 

बाब चहारुम

ख़ुदा और इन्सान का बाहमी रिश्ता

गुज़शता अबवाब में हम वाज़िह कर चुके हैं कि क़ुरआन व अहादीस ने कैसे नालायक़ व नामुनासिब पीराए में वजूद-ए-ख़ुदा का तसव्वुर पेश किया है। क़ुरआन व अहादीस ख़ुदा तआला को ख़ुश्क वाहिद और मुहब्बत से ख़ाली पेश करते हैं। वो अपनी ज़ात में बेनियाज़ी और वाजिब-उल-वजूद होने की सिफ़ात रखता हुआ नज़र नहीं आता बल्कि बैरूनी अस्बाब का मुहताज है यानी अपनी शख़्सियत के इज़्हार व एहसास के लिए मख़्लूक़ात का हाजत-मंद है।

इलावा बरीं क़ुरआन और अहादीस की ये तालीम कि ख़ुदा माद्दी वजूद या जिस्म रखता है और भी उस की ज़ात-ए-पाक पर धब्बा लगाने वाली है और रूह विरासती की इबादत के लिए सद्द-ए-राह है।

जब हम ख़ालिक़ और मख़्लूक़ और ख़ुसूसन ख़ुदा व इन्सान के बाहमी रिश्ते के पहलू से इस्लाम की तालीम पर नज़र करते हैं तो ज़ात-ए-बारी का तसव्वुर और भी नाक़िस व अदना नज़र आता है और अक़्वाम इस्लाम का तरक़्क़ी ना करना और ख़तरे के वक़्त मायूस व नाउम्मीद होना मुक़ाम-ए-ताज्जुब नहीं रहता ।

इस्लामी ख़ुदा वो आस्मानी बाप नहीं है जो अपने बच्चों पर तरस खाता और ये बात याद रखता है कि वो ख़ाक हैं बल्कि वो एक दूर रहने वाला बिल्कुल बेगाना मुतलक़ अल-अनान बादशाह है जो अपने ग़ुलामों पर अपनी जाबिर मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ हुकूमत करता है और उस के लिए कोई किसी तरह का क़ानून या अख़्लाक़ी हद नहीं है।

इन्सान उस के हाथ में एक ऐसी पूतली है जिसका हर एक नेक व बद फे़अल अज़ल ही से मुक़द्दर और इब्तदाए आलम से पेशतर ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम है।

इस तक़्दीर व क़िस्मत की सरीह तालीम का अगर सही नतीजा अख़ज़ किया जाये तो ख़ुदा बदी का बानी ठहरता है। जो लोग इस तालीम को मानते हैं वो सब के सब तिब्बी तौर पर काहिल-उल-वजूद और पस्त हिम्मत हो जाते हैं और इस्लामी ममालिक की मौजूदा हालत उसकी ख़ल्क़ तबाहकुन और बेकार करने वाली तासीर पर शाहिद अदल का हुक्म रखती है।

अब हम इस बात का सबूत इस्लाम ही से पेश करेंगे कि हमने मुंदरजा बाला बयान में कुछ मुबालग़ा नहीं किया।

क़ुरआन व अहादीस में क़िस्मत की तालीम बार-बार पाई जाती है और दोनों इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इन्सान नेकी या बदी की मुतलक़ ताक़त नहीं रखता बल्कि बहर-ए-हाल मक़ुयद क़िस्मत है चुनांचे मिश्कात में मर्क़ूम है :—

قال ان اول ما خلق اللہ القام فقال لہ الکتب قال مااکتب قال الکتب القدر فکتب  ماکان وما ھوکا ئن الی  بد

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि यक़ीनन ख़ुदा ने सबसे पहले क़लम को पैदा किया और उसे कहा लिख। पस इस ने जो कुछ था और जो कुछ अबद तक होने वाल था सब लिखा I

फिर उसी किताब की एक और हदीस में यूं मुंदरज है :—

قال رسول اللہ صلع کتب اللہ مقاد دیر اخلائق قبل ان یخلق السموات  والارض لنجمسین الفاسنتہ قال وکان عرشہ علیٰ الماء

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि ज़मीन व आस्मान की पैदाइश से पच्चास हज़ार साल पेशतर अल्लाह ने तमाम मख़्लूक़ात की मुक़ादीर को लिखा और उस का तख़्त पानी पर था।

क़ुरआन भी इन अहादीस के साथ बिल्कुल मुत्तफ़िक़ और हमज़बाँ व हम-आवाज़ है। चुनांचे सूरह अल-क़मर में 52, 53 आयत तक यूं मर्क़ूम है :—

إِنَّا كُلَّ شَيْءٍ خَلَقْنَاهُ بِقَدَرٍ وَمَا أَمْرُنَا إِلَّا وَاحِدَةٌ كَلَمْحٍ بِالْبَصَرِ وَلَقَدْ أَهْلَكْنَا أَشْيَاعَكُمْ فَهَلْ مِن مُّدَّكِرٍوَكُلُّ شَيْءٍ فَعَلُوهُ فِي الزُّبُرِ وَكُلُّ صَغِيرٍ وَكَبِيرٍ مُسْتَطَرٌ

हमने हर एक चीज़ पहले ठहराकर ख़ल्क़ की....और जो कुछ उन्होंने किया वो वर्क़ों में लिखा गया और सब छोटे बड़े लिखने में आ चुके।

फिर सूरह बनी-इस्राईल की चौधवीं आयत में लिखा है :—

إِنسَانٍ أَلْزَمْنَاهُ طَآئِرَهُ فِي عُنُقِهِ

हर एक इन्सान की बड़ी क़िस्मत हमने उस की गर्दन से लगा दी है।

नीज़ आदम और मूसा के बहिश्त में बेहस करने का एक क़िस्सा मशहूर है जिससे मालूम होता है कि क़िस्मत के मुताबिक़ इन्सान के सब नेक व बद अफ़्आल अज़ल ही से ख़ुदा ने ठहरा रखे हैं। चुनांचे ये क़िस्सा मिश्कात में यूं मुंदरज है कि :—

एक मर्तबा आदम और मूसा अपने रब के हुज़ूर में बेहस कर रहे थे और मूसा ने कहा तू वो आदम है जिसे ख़ुदा ने अपने हाथ से ख़ल्क़ किया। जिसमें इस ने अपनी रूह फूंकी, जिसको फ़रिश्तों ने सज्दा किया और ख़ुदा ने तुझको बहिश्त में बसाया। बावजूद इस सब के तूने गुनाह किया और तमाम बनी-आदम को ज़लील किया। आदम ने कहा तू वो मूसा है जिसको ख़ुदा ने अपना पैग़ाम और अपनी किताब देकर भेजने का शरफ़ बख़्शा और ख़ुदा ने तुझको वो लौहें दीं जिन पर सब कुछ मर्क़ूम है। तू मुझे बता कि ख़ुदा ने मुझको ख़ल्क़ करने से कितने साल पेशतर तौरेत को लिखा था? मूसा ने कहा चालीस साल। तब आदम ने पूछा क्या तूने इस में ये लिखा देखा कि आदम ने अपने रब के ख़िलाफ़ गुनाह किया! मूसा ने कहा हाँ इस पर आदम ने कहा फिर तू मुझे इस फे़अल पर क्यों मलामत करता है जो ख़ुदा ने मुझे ख़ल्क़ करने से चालीस बरस पहले ही ठहरा रखा था ?

एक और हदीस बाअज़ के बहिश्त को जाने और बाअज़ के जहन्नुमी होने की तक़्दीर की तालीम देती है। चुनांचे हज़रत अली की रिवायत से मिश्कात में यूं मुंदरज है :—

مامنکمہ احد الا وقد کتب مقعدہ ومن النارو مقعدہ من الجنتہ

तुम में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसके लिए ख़ुदा ने बहिश्त या दोज़ख़ में जगह ना लिख रखी हो ।

फिर आँहज़रत की एक और हदीस इसी अंधा धुंद मायूसी ख़ेज़ क़िस्मत की तालीम देती है । आपने फ़रमाया :—

ان للہ عزوجل فرغ الیٰ کل عبدمن خلقہ من خمس من اجلہ وعملہ ومضجعہ واثرہ ورزقہ

बेशक अल्लाह अज़्ज़-ओ-जल ने अपने तमाम बंदगान के लिए पाँच बातें पैदाइश से ठहरा रखी हैं (1) मौत (2) जाये सुकूनत (3) अफ़्आल (4) सफ़रात (5) रिज़्क़ पस कुछ ताज्जुब नहीं कि आपके सहाबा ने ऐसे अक़ीदा को सुनकर हैरानगी से पूछा" तो फिर इन्सान की सई व कोशीश से क्या फ़ायदा है? जिसका आपने क़तई जवाब दिया। "जब ख़ुदा किसी बंदे को बहिश्त के लिए पैदा करता है तो उस के मरते दम तक उसे अहले-बहिश्त की राह पर चलाता है और उस के बाद उसे बहिश्त में ले जाता है और जब वो किसी बंदे को दोज़ख़ के लिए पैदा करता है तो उस के मरते दम तक उसे अहले-दोज़ख़ की राह पर चलाता है और उस के बाद उसे दोज़ख़ में ले जाता है" (देखो मिश्कात अल-मसाबीह किताब अल-ईमान बाब अलक़द्र)

इसी तरह से क़ुरआन में भी शुरू से आख़िर तक क़िस्मत की ऐसी ही अंधा धुंद तालीम पाई जाती है और ख़ुदा बिल्कुल बे क़ानून और अपनी मर्ज़ी का मग़्लूब जाबिर बादशाह बयान किया जाता है । चुनांचे सूरह अल-नहल की 95 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :—

يُضِلُّ مَن يَشَاء وَيَهْدِي مَن يَشَاء

जिस को चाहता है गुमराह करता है और जिस को चाहता है हिदायत करता है।

फिर जैसा अहादीस में है वैसा ही क़ुरआन में भी लिखा है कि ख़ुदा ने बाअज़ लोगों को ख़ास दोज़ख़ के लिए पैदा किया है । मसलन सूरह आराफ़ की 180 वीं आयत में मुंदरज है :—

وَلَقَدْ ذَرَاْنَا لِجَــہَنَّمَ كَثِيْرًا مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ

बहुत से जिन्नों और इन्सानों को हम ने दोज़ख़ के लिए पैदा किया है I

सूरह सज्दा की 13 वीं आयत में इस फे़अल का जो कि ख़ुदा की शान के शायान नहीं है सबब बयान किया गया है :—

وَلَوْ شِئْنَا لَآتَيْنَا كُلَّ نَفْسٍ هُدَاهَا وَلَكِنْ حَقَّ الْقَوْلُ مِنِّي لَأَمْلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ

अगर हम चाहते तो सब को हिदायत करते लेकिन मेरा ये क़ौल हक़ है कि मैं जिन्नों और आदमीयों से दोज़ख़ को भर दूंगा ।

ये क़तई तक़्दीर ईलाही ना सिर्फ हर फ़र्दबशर के लिए उस का अंजाम मुक़र्रर करती है बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू पर इस की तासीर होती है और इन्सान ख़ुदा के हाथ में एक परखा सा बन जाता है जो अज़खु़द हरकत नहीं कर सकता बल्कि जिधर उल्टा सीधा ख़ुदा चलाता है चलता रहता है जैसा कि सूरह हदीद की 22 वीं आयत में मज़कूर :—

مَا أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي أَنفُسِكُمْ إِلَّا فِي كِتَابٍ مِّن قَبْلِ أَن نَّبْرَأَهَا

ज़मीन पर या तुम में कोई ऐसी बात हादीस नहीं होती जो इस से पेशतर कि हमने उन को ख़ल्क़ क्या किताब में ना थी I

पस् इस से साफ़ साबित होता है कि इन्सान को नेकी या बदी इख़्तियार करने का कुछ इख़्तियार नहीं है, यहां तक कि इस का चाहना या किसी बात को पसंद करना भी ख़ुदा की मर्ज़ी या तक़्दीर में आ चुका है।

चुनांचे एक मुक़ाम निहायत ही मशहूर है जोकि रासिख़-उल-एतक़ाद उलमा-ए-इस्लाम अपने मुबाहिसों में बग़दाद के मोतज़िला और दीगर मुल्हिद फ़िर्क़ों के ख़िलाफ़ पेश किया करते थे और आज़ाद ख़्याल मुसलामानों के तमाम दलायल को जो वो आज़ाद मर्ज़ी की ताईद में पेश कर सकते थे रद्द करने वाला समझा जाता था I सूरह दहर की आख़िरी आयात में यूं मर्क़ूम है:—

فَمَن شَاء اتَّخَذَ إِلَى رَبِّهِ سَبِيلًا وَمَا تَشَاؤُونَ إِلَّا أَن يَشَاء اللَّهُ

पस जो कोई चाहे अपने रब की तरफ़ राह इख़्तियार करे और तुम ना चाहोगे जो अल्लाह चाहे I

क़ुरआन व अहादीस की मुक़र्ररा शहादत से साबित हुआ कि इस्लामी ख़ुदा कैसा है। ख़ुदा की कैसी बुरी तस्वीर दिखाई गई है ! इस किस्म के अक़ीदे से इन्सान मायूसी के बहरे बेपायाँ में गिर जाता है और इस की अपनी तमाम सई व कोशिश बेफ़ाइदा बेसूद ठहरती है और किसी तरह से ख़ुदा की मर्ज़ी ढूँढने और बजा लाने से इस तक़्दीर को नहीं बदल सकता जो उस की पैदाइश से हज़ारों साल पेशतर ही लिखी जा चुकी थी। क्या शैतान अपनी होशयारी से इस से बढ़कर कोई ऐसी राह तजवीज़ कर सकता है जिसके वसीले से इन्सान का दिल ज़्यादा सख़्त हो जावे और नतीजतन शिकम परस्ती और शहवत परस्ती की ज़िंदगी बसर करे?

चुनांचे उमर खय्याम लिखता है :—

क्लिक तक़्दीर ने जो लिखना चाहा लिख दिया। अब किसी की नेकी परहेज़गारी और आह व नाला से उस का एक नुक़्ता व शोशा भी टल नहीं सकता I

अहले-इस्लाम जानते हैं कि इन के आमाल नेक हों या बद तो भी मुम्किन है कि ख़ुदा उन को अहले-बहिश्त में शुमार करे ।

वोह बख़ूबी अपना मक़ूला बना सकते हैं कि :—

आओ खाएं पियें और ऐश करें क्योंकि मौत सर पर खड़ी है I

मिश्कात अल-मसाबीह मैं ख़ुद हज़रत मुहम्मद की हदीस मौजूद है :—

ان العبد لیعمل اھل النامی دانہ من اہل الجنتہ ویعمل عمل اھل الجنتہ وانہ من اہل الناس

बेशक मुम्किन है कि इन्सान के आमाल अहले- दोज़ख़ के हों और वह अहले-बहिश्त में से हो और या उस के काम अहले- जन्नत के हों और वह अहले-दोज़ख़ में से हो।

ऐसे मज़हब ऐसे एतक़ाद-ए-ख़ुदा और ख़ुदा के ऐसे इंतज़ाम-ए-आलम का वाजिबी नतीजा ज़रूर लापरवाई और मुर्दा दिली होगा। क्योंकि अगर इन्सान अटल तक़्दीर या क़िस्मत के क़ब्ज़े में है और इस के नेक व बद-अमाल का कुछ लिहाज़ नहीं किया जाता बल्कि अज़ली फ़ैसले के मुताबिक़ उस को जन्नती या जहन्नुमी क़रार दिया जाता है तो इन्सान की तरफ़ से दीनी और अख़्लाक़ी उमूर में हर तरह की कोशिश लाहासिल व बे-सूद है।

क़िस्मत और तक़्दीर की तालीम को देख कर अगर हम हज़रत मुहम्मद को यह कहते पावें कि हर हालत में तक़्दीर पर शाकिर रहो, ताऊन से मत भागो और बीमारी के दफ़ीअह के सामान बहम पहुंचाने की कोशिश ना करो तो कुछ ताज्जुब नहीं होगा ।

मिश्कात-अल-मसाबीह में आँहज़रत की एक हदीस में यूं मुंदरज है :—

الطاعون جن ۔۔۔واذا وقع بارض وانتمہ بھا فلاتخرجوافرارمنہ

ताऊन सज़ा है जब किसी मुल्क में फैले और तुम इस मुल्क में हो तो उस के सामने से मत भागो I

हाल के इल्म हिफ़्ज़ान-ए-सेहत और तजुर्बात से ये बात पाया सबूत को पहुंच चुकी है कि अगर ताऊन ज़दा मुक़ामात को छोड़ दिया जाये और मुनासिब-ए-तदाबीर हिफ़्ज़-ए-तक़द्दुम और ईलाज व मआलज के तौर पर काम में लाई जाएं तो ताऊन का ज़ोर बहुत कम हो जाता है और उस से नजात मुम्किन हो जाती है लेकिन इस्लाम की तालीम ये है कि अपनी जगह से मत हिलो बल्कि वहीं जमे रहो। जो तक़्दीर में लिखा है बहर-ए-हाल वही होगा।

हमने यहां पर फ़िर्क़ा मोतज़िला की आज़ाद मर्ज़ी की तालीम पर बेहस नहीं की और उस का सबब ये है कि पक्के मुसलामानों के नज़्दीक ये फ़िर्क़ा मुल्हिद है और उस की तालीम भी मर्दूद है। इस मुख़्तसर बयान से हमारी ग़रज़ ये है कि रासिख़-उल-एतक़ाद अहले-इस्लाम के अक़ीदे के मुताबिक़ ख़ुदाए तआला की ज़ात व सिफ़ात को पेश करें।

हमने इस्लामी तालीमात के समझने में ग़लतफ़हमी नहीं की और ना हमने कोई ख़िलाफ़ बयान की है चुनांचे हम इस बात के सबूत में इल्म-ए-ईलाही के वो मुसलमान उस्तादों के बयान पेश करते हैं जिनसे मालूम हो जाएगा कि इस्लामी तालीम मुख़्तसर इन बयानात में मौजूद है और क़ुरआन व अहादीस के साफ़ व सरीह अल्फ़ाज़ पर मबनी है ।

चुनांचे पहले हम मुहम्मद बरकवी का बयान पेश करते हैं :—

इस बात का इक़रार करना वाजिब है कि नेकी और बदी ख़ुदा की अज़ली तक़्दीर और अज़ली इरादे से वक़ूअ में आती है। जो कुछ हुआ है और जो कुछ होगा सब मुक़द्दर है और अज़ल ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम है। मोमिन का ईमान और दीनदार की दीनदारी व नेक आमाल ईलाही पेश-बीनी और मर्ज़ी के मुताबिक़ तक़्दीर में आकर ख़ुदा की मंज़ूरी से लौह-ए-महफ़ूज़ पर लिखे गए हैं बेईमान की बेईमानी और बेदीन की बे-दीनी और बद-आमाल खु़दा के अज़ली इल्म और उसकी मर्ज़ी व तक़्दीर के मुताबिक़ वक़ूअ में आते हैं लेकिन इस में उस की ख़ुशी नहीं है। अगर कोई ये पूछे कि ख़ुदा बदी को क्यों चाहता है और पैदा करता है? तो हम सिर्फ ये जवाब दे सकते हैं कि ज़रूर कोई नेक अंजाम जिन को हम नहीं समझ सकते मद्द-ए-नज़र होंगे I

इमाम ग़ज़ाली इस तालीम को मशहूर मक़सूद लाअसना में यूं बयान फ़रमाते हैं :—

हक़ सुब्हानहू इन चीज़ों को जो हैं अपनी मर्ज़ी से मुक़र्रर करता है और तमाम हादिसात व वाकेयात को वक़ूअ में लाता है । तमाम कायनात में कमो-बेश छोटी बड़ी, नेक व बद, मुफ़ीद व मज़र, ईमान व बे-ईमानी इल्म व जहालत, ख़ुशहाली व तनक हाली I तवान्ग्री व इफ़लास, इताअत व बग़ावत ग़रज़ सब कुछ ख़ुदा की तक़्दीर और उस की मर्ज़ी के क़तई (इरादे) के मुताबिक़ ज़हूर में आता है.....उस की तक़्दीर टल नहीं सकती और जो कुछ उस ने ठहरा दिया है इसके वक़ूअ में आने में ताख़ीर नहीं होती ।

इस्लाम ने ख़ुदा को ऐसा ही अन होना तसव्वुर किया है जिससे तमाम अख़्लाक़ी एहसास नेस्त व नाबूद हो जाते हैं और इन्सानी ज़िम्मेदारी का कुल्ली तौर पर इस्तीसाल हो जाता है क्योंकि जब इन्सान का हर एक फे़अल क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की मर्ज़ी और तक़्दीर के क़ब्ज़े में है तो अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि तमाम इन्सानी अफ़्आल का फाइ्ल दर-हक़ीक़त ख़ुदा ख़ुद ही है।

पस ऐसी हालत में सज़ा देना और दोज़ख़ में डालना अव्वल दर्जे की बे-इंसाफ़ी व बे-रहमी होगी। मोतज़िलों का ये कहना बिल्कुल सच्च है कि अगर ख़ुदा बेदीनी सिखाता है और कुफ़्र के काम करवाता है तो वो ख़ुद बेदीन व काफिर है ! ये तक़्दीर की तालीम इन्सान को इस दर्जे तक कुफ़्र बकने पर आमादा करती है।

ये सच्च है कि बाइबल में ऐसी इबारात पाई जाती हैं जिनसे बर्गुज़ीदगी की तालीम मिलती है लेकिन इस के साथ ही ये साफ़ तालीम मिलती है कि ख़ुदा सबकी भलाई चाहता है वो चाहता है सब उस की नज़दीकी व बरक़त हासिल करें।

नजात हासिल करना भी इन्सान की आज़ादमर्ज़ी पर छोड़ा जाता है और इस तरह से क़िस्मत का फंदा और बंधन बाइबल की तालीम से बिल्कुल ख़ारिज है । बाइबल में बहुत से मुक़ामात पर मर्क़ूम है कि ख़ुदा चाहता है कि तमाम बनी-आदम इर्फ़ान हक़ को पाएं और नजात को हासिल करें लेकिन हम सिर्फ चंद मुक़ामात के इक़तिबास पर इकतिफ़ा करेंगे :—

वो चाहता है कि सारे आदमी नजात पावें और सच्चाई की पहचान तक पहुंचें (1 तमताउस 2:4) वो किसी की हलाकत नहीं चाहता बल्कि ये चाहता है कि सबकी तौबा तक नौबत पहुंचे (2 पतरस 3:9) ख़ुदावंद यहोवाह फ़रमाता है कि मुझे अपनी हयात की क़सम है कि शरीर के मरने में मुझ कुछ ख़ुशी नहीं बल्कि इस में है कि शरीर अपनी राह से बाज़ आए और जिए (हज़क़ीयल 33:11) बाइबल में ख़ुदा पराज़ शफ़क़त व महब्बत बाप की मानिंद है जो अपने बच्चों पर बदरजा कमाल शफ़क़त दिखाता है और उन की नजात के काम को पूरा करने के लिए अपने इकलौते बेटे को भेजता है लेकिन इस्लाम में वो आदम को इसकी औलाद की पैदाइश से पेशतर उन की रूहें दिखाता है और उन को दो हिस्सों में तक़सीम करता है और बाअज़ को इस की दाएं तरफ़ और बाअज़ को बाएं तरफ़ खड़ा कर के फ़रमाता है :—

ھوالافی الجنتہ والابالی دھوالا المناروبالی

ये बहिश्त के लिए हैं और मुझे कुछ परवाह नहीं ये दोज़ख़ के लिए हैं और मुझे कुछ परवाह नहीं ।

मुंदरजा बाला हवाला ऐसे ख़ुदा को पेशा करता है जो एशाई बादशाह की मानिंद चलते चले किसी को इन्आम व इकराम देता है और किसी के नाम पर ये बेसबब अपनी जाबिर तबीयत से मौत का फ़तवा जारी करता है ।

अगर इस्लामी तक़्दीर व क़िस्मत मुंदरजा क़ुरआन व अहादीस को मानें तो नमाज़ रोज़ा और दुआ बंदगी बिल्कुल बेकार व बे-सूद हैं। क्योंकि इन्सान अपने तमाम अफ़्आल व अक़्वाल बल्कि ख़्यालात में भी तक़्दीर की ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ है और किसी तरह से नेकी बदी का ज़िम्मेदार और जवाब-देह नहीं ठहर सकता लेकिन इन्सानी ज़मीर शख़्सी ज़िम्मेदारी का एहसास रखती है और इस हक़ीक़त पर निहायत सफ़ाई व सराहत से पुर ज़ोर गवाही देती है।

 

बाब पंजुम

ख़ुदा बलिहाज़-ए-गुनाह व नजात

इस्लामी तक़्दीर के मुताले से ख़ुदा का इन्सान से रिश्ता मालूम करके और यह जान कर कि इन्सान के तमाम अफ़्आल अज़ल ही से तक़्दीर के बस में हैं ये ख़्याल पैदा होता है कि इस्लाम में गुनाह की तालीम और नजात की तदबीर दोनों नामुमकिन हैं क्योंकि मंतक़ी तौर पर तक़्दीर की तालीम से ये साफ़ नतीजा निकलता है कि नेकी और बदी में कुछ फ़र्क़ नहीं है और सज़ा व जज़ा के भी कुछ मअनी नहीं हैं।

लेकिन इस्लाम की मतनाक़स तालीमात के सबब से गुनाह का मुफ़स्सिल बयान पाया जाता है और सज़ा व जज़ा की बड़ी तदबीर मौजूद है । क़ुरआन की तालीमात से बहुत ही मुतग़ाइर व मतबाईन हैं और ख़ास कर गुनाह और नजात के बाब में तो क़ुरआन बिल्कुल गड-मड और तनाक़िस से पूर है।

हज़रत मुहम्मद ने एक तरफ़ तो तक़्दीर की ऐसी तालीम दी कि इन्सान बिल्कुल बेकस व बे-बस हो गया। आज़ाद मर्ज़ी हाथ से दे बैठा और ऐसे बे-इख़्तियार हो गया जैसे कुम्हार के हाथ मिट्टी । लेकिन इस के साथ ही आँहज़रत ख़ुदा से मेल हासिल करने की इन्सानी आरज़ू को दबा ना सके और शख़्सी आज़ादी व ज़मादारी की हक़ीक़त को नज़र-अंदाज ना कर सके।

तक़्दीर व क़िस्मत को इस मुतग़ाइर तालीम को हकीम उमर खय्याम अपनी रबाईआत में निहायत सफ़ाई से यूं बयान किया है :—

ए तू जिस ने मेरी राह को तरह तरह के ख़तरों से भर दिया और अज़ल ही से मेरे तमाम अफ़आल ठहरा रखे हैं। मुझको मेरी गुनहगारी के लिए सरज़निश नहीं करेगा।

अगर गुनाह के ताल्लुक़ में इस्लाम के ईलाही तसव्वुर पर ग़ौर किया जाए तो ये हक़ीक़त बिल्कुल आश्कारा हो जाती है कि अख़्लाक़ और दीन में कोई बाहमी रिश्ता बाक़ी नहीं रहता। हक़ीक़ी रास्ती व पाकीज़गी के मुक़ाबले में ख़ुदा रस्म परस्ती और ज़ाहिरी दिखावे की दीनदारी को ज़्यादा चाहता है।

अंदरूनी तक़दीस की चंदाँ परवाह नहीं करता लेकिन ज़ाहिरी रसूम की बजा आवरी बहुत ज़रूरी है। पस गुनाह कोई अज़ली अख़्लाक़ी शरीयत की ख़िलाफ़वरज़ी नहीं है बल्कि महिज़ एक जाबिराना हुक्म की अदमे तामील का नाम है और मुसलमान ताजिरों की अमली ज़िंदगी से इस अम्र की बख़ूबी तशरीह होती है। वो रोज़ाना नमाज़ों के बाब में तो बड़े होशयार और मुहतात हैं लेकिन लेन-देन में बेखटके झूट और फ़रेब से काम लेते हैं।

आम तौर पर ये देखा जाता है कि यूरोप के बाशिंदे झूट बोलते और धोका व फ़रेब करते हैं वो दीनदारी का दावा ही नहीं करते । उन में कम से कम ये ख़ूबी पाई जाती है कि उनका ज़ाहिर व बातिन यकसाँ है।

अगर हज़रत मुहम्मद की अहादीस और दीगर इस्लामी कुतुब फ़िक़्ह मसलन फतावी आलमगीरी वग़ैरा का मुतआला किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि अंदरूनी पाकीज़गी और दीनदारी के इव्ज़ में ज़ाहिरी रसूम की बजा आवरी पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है और रस्म परस्ती के अहकाम रुहानी तालीम के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा हैं।

अहले-इस्लाम पर ऐसी तालीम की बड़ी तासीर हुई है चुनांचे वो ख़ुदा के बारे में ग़लत ख़्याल और ग़लत एतिक़ाद रखने की वजह से हक़ीक़ी इबादत से बहुत दूर जा पड़े हैं और रुहानी इबादत की जगह रस्म परस्ती पर ज़ोर देते हैं ।

हमारे इस बयान की तशरीह व तस्दीक़ के लिए इस्लामी नमाज़ को देखिए और ख़्याल कीजिए कि अहले-इस्लाम किस तरह बिना समझे यूंही तोते की तरह अल्फ़ाज़ को दोहराते हैं ।

हम बेताम्मुल कह सकते हैं कि इस नमाज़ में उठने बैठने की तफ़्सील और क़िरात अल्फ़ाज़ ही का ज़्यादा तर्ज ख़्याल किया जाता है । नमाज़ गुज़ार की नीयत कैसी ही ख़ालिस हो और वो कितनी ही साफ़ दिली से इबादत करे तो भी नमाज़ अजनबी ज़बान में है (क्योंकि अरबों के सिवा बहुत ही कम मुसलमान अरबी ज़बान समझते हैं) और फिर तरफ़ा तुरीय बात है कि अगर उठने बैठने में कहीं ज़रा सी ग़लती हो गई तो नमाज़ टूट गई ।

नमाज़ का सही होना नमाज़ गुज़ार की दिली हालत पर नहीं बल्कि ज़ाहिरी क़वाइद पर मौक़ूफ़ है । चुनांचे हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया :—

ان اللہ لا یقبل لوتہ بغیر طھور

तहक़ीक़ अल्लाह बग़ैर वुज़ू के नमाज़ क़बूल नहीं करता ।

फिर फ़रमाया :—

من ترک موضع شعرتہ من جنتہ لمہ یغسلھا فعل بھا کذا اوکذ امن النار

जिसने बाल बराबर जगह नापाक छोड़ दी और उसे नहीं धोया उस के साथ दोज़ख़ की आग से ऐसा किया जाएगा ।

ये अम्र निहायत ही हैरत-ख़ेज़ है कि अख़्लाक़ी पाकीज़गी की तरफ़ बमुश्किल ही कहीं इशारा मिलता है हालाँकि वुज़ू वग़ैरा के क़वाइद व तशरीहात से किताबें भर पड़ी हैं । फ़िल-जुमला नमाज़ बजाय दिली इबादत के उठने बैठने और चंद ज़ाहिरी क़वाइद की बजा आवरी है।

चुनांचे मिश्कात में ऐसी अहादीस भरी पड़ी हैं जिनसे साबित होता है कि पानी गुनाहों को धो डालता है लेकिन हम इस जगह सिर्फ एक हदीस पेश करेंगे किताब-उल-तहारत में ग़ुस्ल के बयान में ऐसी बहुत सी अहादीस मिलेंगी । आँहज़रत ने फ़रमाया :—

ازا توضا العبد المسلمہ والمومن فغسل وجھد خرج  من وجھہ کل خطیبتہ نظر الیھا بعینہ مع الماء عراد مع اخر قطر الماء فاذ اغسل یدیہ خرج  من یدیہ کل خطیتہ کان بطشتھا یدہ مع الماء مع اخر فطر الماء فاذا غسل رجیلتہ خرج کل خطیبتہ  مشتھار  جلاہ مع الماء و مع اخوفٰر الماء حتی یخرج نقتیاس من الذنوب

जब मुसलमान या मोमिन बंदा वुज़ू करता है और अपना मुँह धोता है तो वो तमाम गुनाह जिन पर इस ने अपनी दोनों आँखों से निगाह की है इसके चेहरे से पानी के साथ या पानी के आख़िरी क़तरे के साथ ख़ारिज हो जाते हैं और जब वो अपने दोनों हाथ धोता है तो वो तमाम गुनाह जो उस के दोनों हाथों ने किए हैं उस के हाथों से पानी के साथ या पानी के आख़िरी क़तरे के साथ ख़ारिज हो जाते हैं और जब वो अपने दोनों पांव धोता है तो वो तमाम गुनाह जिनकी तरफ़ उस के पांव चल कर गए हैं उस के पांव से पानी के साथ या पानी के आख़िरी क़तरे के साथ ख़ारिज हो जाते हैं यहां तक कि वो अपने गुनाहों से बिल्कुल पाक हो जाता है।

इस्लाम की ज़ाहिरदारी और क़ानून जवाज़ की सूरत ज़्यादातर गुनाह के बयान में निहायत सफ़ाई से नज़र आती है। इस्लाम गुनाह की असली मकरूह सूरत देखने में बिल्कुल ना बीना है और इस्लामी इल्म ईलाही के मुताले से ये बात साफ़ मालूम हो सकती है कि इस का सबब ख़ुदा के बारे में ग़लत तसव्वुर और ग़लत एतिक़ाद रखता है।

इस्लाम ख़ुदा को रास्तकार और इन्साफ़-दोस्त हाकिम की सूरत में पेश नहीं करता बल्कि बखिलाफ इस के एक मुतलव्विन मिज़ाज-उल-अनान हुक्मरान की हैसियत में दिखाता है जिसकी ख़ुशनुदी उस के चंद अहकाम की बजा आवरी से हासिल हो सकती है बल्कि जैसा हम पेशतर ज़िक्र कर आए हैं महिज़ उस के निनान्वे (99) नामों के विर्द ही के वसीले से नजात हासिल हो सकती है।

तिर्मिज़ी और निसाई के मुताबिक़ आँहज़रत की एक हदीस ये भी है :—

من قمر کل یوم مانی مرقہ قل ھواللہ احد فحی عنہ ذنوب خمسین سنہ

जिसने हर-रोज़ दो सौ बार "क़ुल हूवल्लाह अहद" पढ़ा उस के पच्चास बरस के

गुनाह मिट जाएंगे I

किताब फ़ज़ायल-उल-क़ुरआन में बार-बार ये मुज़िर तालीम दी गई है कि चंद ज़ाहिरी रसूम की पाबंदी से गुनाह माफ़ हो जाएंगे और मक्का का हज तो बहिश्त में जाने के लिए राबदारी का यक़ीनी परवाना समझाता है।

मुस्लिम व बुख़ारी के मुताबिक़ आँहज़रत की एक और हदीस मिश्कात में अस्मा-ए-ईलाही के बाब में मुंदरज है । इस से बहुत ही अच्छी तरह ये बात ज़ाहिर होती है कि हज़रत मुहम्मद के ख़्यालात गुनाह और मग़फ़िरत के बारे में बहुत ही गड़-बड़ और बे ठिकाना थे। चुनांचे मर्क़ूम है:—

قال رسول اللہ صلی ان عبد اذنب ذبنا فقال رب اذنبت فاغفر فقال ربہ اعلمہ عبدی ان لہ رباً یغفر الذنوب دیا خذبہ غفرت لعبدی ثمہ ملث مشاء اللہ ثما اذنب ذنباً قال رب اذنبت ذباء اغفر فقال اعلمہ عبدی ان لہ ریا یغفر الذنوب دیا خذیم غفرت العبدی ثمہ مکث ماشا ء اللہ ثم اذنب زنبا قال رب اذنبت ذبنا اخر فاعفر ہ لی فقال اعلمہ عبدی ان لہ ر بالیغفر الذنب ویا حذبہ غفرت لعبد فلیفعل  مشاء

रसूल अल्लाह ने फ़रमाया कि ख़ुदा के एक बंदे ने कोई सख़्त गुनाह किया और कहा ए मेरे रब मैंने गुनाह किया है उसे माफ़ कर दे। इस के रब ने कहा । क्या मेरा बंदा जानता है कि इस का रब है जो गुनाह माफ़ करता है और उन के लिए सज़ा भी देता है। मैंने अपने बंदे को माफ़ किया। फिर वो ठहरा रहा। जैसा ख़ुदा ने चाहा । फिर इस ने एक सख़्त गुनाह किया और कहा ए मेरे रब । मैंने सख़्त गुनाह किया है। उसे माफ़ कर दे। इस ने कहा क्या मेरा बंदा जानता है कि इस का रब है जो गुनाह माफ़ करता है और सज़ा भी देता है। मैंने अपने बंदे को माफ़ किया। फिर वो ठहरा रहा जैसा ख़ुदा ने चाहा । फिर इस ने सख़्त गुनाह किया और कहा ए रब मैंने फिर सख़्त गुनाह किया है । मुझे माफ़ कर दे। तब ख़ुदा ने कहा क्या मेरा बंदा जानता है कि इस का रब है जो गुनाह माफ़ करता है और सज़ा भी देता है। मैंने अपने बंदे को माफ़ किया है पस अब वो जो चाहे सो करे !

ऐसी तालीम सरीहन गुनाह की तरफ़ माइल करती है लिहाज़ा कुछ ताज्जुब नहीं कि अहले-इस्लाम ने कफ़्फ़ारा की ज़रूरत को महसूस नहीं किया और गुनाह की कराहीयत को नहीं पहचाना। जब गुनाह आसानी से माफ़ हो सकता है तो उस का इर्तिकाब भी ताम्मुल व बेख़ौफ़ होता है लेकिन अगर इन्सान मसीहीयों के साथ इस बात को मालूम कर ले कि गुनाह की माफ़ी के लिए सय्यदना मसीह को मस्लूब होना पड़ा तो वो गुनाह से नफ़रत व परहेज़ करना सीखेगा।

हक़ीक़त तो ये है कि इस्लाम में नजात के बारे में कोई माक़ूल और काबिल-ए-क़बूल ख़्याल या तालीम नहीं है और इसकी तलाश में कतुब-ए-इस्लाम का मुतआला बिल्कुल बेसूद ठहरता है।

इन्सानी ज़मीर अपनी गुनहगारी को महसूस कर के पुकारती है :—

“मैं क्या करूँ कि नजात पाऊं ?”

लेकिन इस्लाम से इस का कोई तसल्ली बख़्श जवाब बन नहीं आता। और जो जवाब इस्लाम देता है वो बिल्कुल नाक़िस है और इस से ये भी ज़ाहिर होता है कि अहले-इस्लाम ख़ुदा की ज़ात के बारे में कैसे नावाक़िफ़ और ग़लत ख़्याल रखने वाले हैं।

जब बुनियाद ही ऐसी खोखली है और ख़ुदा के हक़ में दुरुस्त एतिक़ाद ही नहीं तो फिर कुछ ताज्जुब की बात नहीं कि हज़रत मुहम्मद को नजात की कोई ऐसी सूरत नहीं सूझी जो ख़ुदा की शान के शायां होती।

"मैं क्या करूँ कि नजात पाऊं ?" के जवाब में हज़रत मुहम्मद के अक़्वाल बेशुमार और बाहम मुतज़ाद हैं।

अगर गुंजाइश होती तो हम बहुत से ऐसे मुक़ामात को नक़ल करते जिनसे ये साबित होता है कि आँहज़रत के ख़्याल कि मुताबिक़ क़ियामत के रोज़ कुल बनी-आदम के नेक व बद-आमाल तोले जाएंगे और उन की कमी या बेशी के मुताबिक़ जज़ा व सज़ा के फतावे सुना कर बाअज़ को बहिश्त में दाख़िल किया जाएगा और बाक़ी सब जहन्नुम वअसिल होंगे ।

फिर ये भी आपने फ़रमाया कि हज़रत मुहम्मद समेत तमाम बनी-आदम को नजात का दार-ओ-मदार ख़ुदा की रहमत पर है। इलावा बरीं बाअज़ अहादीस क़ुरआन के बरख़िलाफ़ ये तालीम देती हैं कि गुनहगार इन्सान नजात हासिल करने के लिए ज़्यादा तर हज़रत मुहम्मद की शफ़ाअत ही पर भरोसा रख सकते हैं।

लेकिन सबसे बढ़कर ये कि हर एक इन्सान पैदाइश से पेशतर ही से जन्नत या जहन्नुम के लिए मुक़र्रर हो चुका है। ये एतिक़ाद कैसा ना उम्मीदी और मायूसी से पुर है।

कतुब इस्लाम में ख़ुदा का एक नाम अल-आदील भी है। और वो अल-रहीम भी कहलाता है लेकिन इस्लाम ये बात समझाने से बिल्कुल क़ासिर व आजिज़ है कि वो आदिल व रहीम दोनों क्योंकर हो सकता है इन्साफ़ और अदल का तक़ाज़ा ये है कि गुनाह के लिए सज़ा दी जाये और नजात की कोई तदबीर जो उसकी चाराजोई ना करे नामाक़ूल व बातिल ठहरेगी।

साथ ही ख़ुदा के रहम के इज़्हार की भी कोई सूरत होनी चाहिए ताकि ख़ुदा की इन हर दो सिफ़ात यानी अदल व रहम का कामिल इज़्हार होवे।

इस्लाम की इस नाक़िस व ग़ैर-तसल्ली बख़्श तालीम के नताइज की शहादत तवारीख़ से मिलती है बड़े बड़े पक्के मुसलमान बल्कि आँहज़रत के बाअज़ सहाबा किराम भी अव्वल दर्जे की मायूसी व ना उम्मीदी की हालत में क़ब्र में गए।

चुनांचे लिखा है कि ख़लीफ़ा अली के यहाँ कोई मेहमान वारिद हुआ और पूछा कि कैसे गुज़रती है ? आपने जवाब दिया कि एक लाचार गुनहगार की मानिंद नविश्ता तक़्दीर के मुताबिक़ दिन पूरे कर रहा हूँ और हैबतनाक अंजाम का मुंतज़िर हूँ।

फिर आँहज़रत के सहाबा में से उमर इब्ने अब्दुल्लाह की बाबत लिखता है कि वो दिन-भर रोज़ा रखता था और सारी सारी रात इबादत में खड़ा रहता था।

ऐसे मौक़े पर उस के हम-साए अक्सर उस को चिल्लाते और यूं कहते सुनते थे :—

ए मेरे ख़ुदा! आतिश व दोज़ख़ का ख़्याल मुझे बेचैन कर रहा है मुझे नींद नहीं आती । मेरे गुनाह माफ़ कर दे, इस दुनिया में इन्सान के लिए फ़िक्रें और ग़म हैं। दूसरे जहान सज़ा का हुक्म और आतिश दोज़ख़ मौजूद है। हाय हाय ! रूह को आराम व राहत की कहाँ से उम्मीद हो सकती है?

इस्लाम नजात का कुछ यक़ीन नहीं दिलाता क्योंकि वो न गुनाह का कोई ईलाज बहम पहुँचाता है और ना गुनहगार का कोई इव्ज़ मुहय्या करता है ताहम इन्सान की रूह कफ़्फ़ारा के लिए चिल्लाती है और इस बात की अज़बस आर्ज़ूमंद है कि किसी तरह से मग़फ़िरत का यक़ीन हासिल हो जावे ।

बाइबल की ये तालीम कि "बिन ख़ून बहाए माफ़ी नहीं" इन्सान फ़ौरन क़बूल करता है और शीया लोगों को इमाम हसन और इमाम हुसैन की मौत को कफ़्फ़ारा की मौत क़रार देना साफ़ ज़ाहिर करता है कि कफ़्फ़ारा की ज़रूरत का यक़ीन इन्सान के दिल में निहायत ही पुख़्ता व बीख़ गिरिफ़ता है।

जब इस्लाम इस अज़ीम हक़ीक़त को समझेगा कि "ख़ुदा मुहब्बत है" तब ही अहले-इस्लाम मसीह के कफ़्फ़ारे की अज़ीम माक़ूलीयत को समझ सकेंगे I

इस्लाम इब्तिदाई गुनाह को तस्लीम करता है और मानता है कि आदम के वसीले से तमाम बनी-आदम गुनहगार ठहरे। पस अब अहले-इस्लाम इस बात को क्यों माक़ूल और काबिल-ए-क़बूल ख़्याल नहीं करते एक ही येसु मसीह की फ़रमाबर्दारी के सबब से तमाम बनी-आदम रास्तबाज़ ठहर सकते हैं ?

इंजील शरीफ़ में ये एक निहायत अज़ीम अज़ली हक़ीक़त मुनकशिफ़ की गई है बल्कि इंजील यही है और लाखों ने इसी से हक़ीक़ी राहत हासिल की है ।

ए बिरादरान-ए-अहले-इस्लाम बाइबल को पढ़ो। इस में आपको ख़ुदाए तआला की ज़ात-ए-पाक का मुकाशफ़ा नसीब होगा। वो मुतलक़ अल-अनान व जाबिर हाकिम नहीं जो बंदों को उन गुनाहों की सज़ा देता है जिनके इर्तिकाब पर इस ने ख़ुद ही उन को मजबूर किया बल्कि मेहरबान और रहीम बाप है जो अपनी मख़्लूक़ बनी-आदम में से किसी की हलाकत नहीं चाहता बल्कि ये आरज़ू रखता है कि वो सब उस की तरफ़ रुजू लावें और हयात-ए-अबदी के वारिस हों ।

वो निहायत मुहब्बत भरे अल्फ़ाज़ से सबको बुलाता है । ये ख़ुदा सय्यदना मसीह में हो कर तमाम जहान को अपने आपसे मिलाता है और सिर्फ सय्यदना मसीह की सलीब के वसीले से ही गुनहगार इन्सान ख़ुदा-ए-पाक तक रसाई हासिल कर सकता है। सलीब पर अदल का तक़ाज़ा पूरा हो गया और रहम के इज़्हार की भी सूरत निकल आई । बस अब जो कोई चाहे आए और आब-ए-हयात मुफ़्त ले जो कोई ख़ुदा को जानना चाहे उसे मसीह "कलिमतुल्लाह" को जानना ज़रूर है क्योंकि :—

"ख़ुदा को किसी ने कभी नहीं देखा इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया" (युहन्ना 1:18)

सय्यदना मसीह फ़रमाते हैं :—

"जिसने मुझे देखा उस ने बाप को देखा (युहन्ना 14:9)"

"राह-ए-हक़ और ज़िंदगी में हूँ। कोई मेरे वसीले के बग़ैर बाप के पास नहीं आता" (युहन्ना 14:6)

यनाबि-उल-क़ुरआन

बाब-ए-अव़्वल

बदवी अक़ाइद व रसूम का क़ुरआन में इंदिराज

तमाम दुनिया में इस्लाम मन माना मज़हब कहला सकता है हज़रत मुहम्मद बानी-ए-इस्लाम ने इन तमाम मुख़्तलिफ़ और मतलब की बातों को जिन तक आपकी रसाई हुई इस्लाम में दाख़िल कर लिया है।

उमूमन यही ख़्याल किया जाता है कि इब्तिदा में हज़रत मुहम्मद ने अपने अह्ले वतन के सामने ये बड़ी हक़ीक़त पेश की कि वो ख़ुदा वाहिद है। आपका ये दावा था कि तौहीद ईलाही वही के वसीले से आप को सिखाई गई। चुनांचे सूरह अनआम की एक सौ छठी आयत में यूं मर्कुम है:—

اتَّبِعْ مَا أُوحِيَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ لا إِلَـهَ إِلاَّ هُوَ

तू चल उसी पर जो हुक्म आवे तुझको तेरे रब से कोई माबूद नहीं सिवाए उस के

अरब में यहूदी और मसीही मौजूद थे जिनसे हज़रत मुहम्मद ख़ुदा की तौहीद की तालीम पा सकते थे इलावा इस के तवारीख़-ए-अरब की थोड़ी से वाक़्फ़ीयत बतला देगी कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने से मुद्दतों पेशतर अहले-अरब ख़ुदाए ताअला को जानते और उस की इबादत करते थे। इस्लाम से पेशतर के अरबी इल्म-ए-अदब में "इलाह" आम तौर पर माबूद के माअनों में इस्तिमाल होता था लेकिन “अल-इलाह” जिसका मुख़फ़्फ़फ़ "अल्लाह" है हमेशा ख़ुदा-ए-अज़्ज़ओ-जल वह्दहू लाशरीक ला के लिए इस्तिमाल किया जाता था चुनांचे नाबिग़ा और लबीद बुत-परस्त शायर लफ़्ज़ "अल्लाह" इन्ही माअनों में बार-बार इस्तिमाल करते हैं। और मशहूर मोअल्लक़ात में भी यही लफ़्ज़ इन्ही माअनों में इस्तिमाल किया गया है। फिर इब्न हिशाम लिखता है कि "क़बीला क़ुरैश के लोग "अहलाल" की रस्म अदा करते वक़्त कहा करते थे :—

"ऐ ख़ुदा हम तेरी ख़िदमत में हाज़िर हैं । तेरे ख़ौफ़ के सिवाए तेरा कोई शरीक नहीं है। वो तेरा है और जो कुछ उस का है वो भी तेरा है"

इलावा-बरीं यही अम्र भी काबिल-ए-याद है कि काअबा हज़रत मुहम्मद से सदहा साल पेशतर ही से बैतुल्लाह यानी ख़ाना ख़ुदा के नाम से मशहूर था और फिर हज़रत मुहम्मद के बाप के नाम अब्दुल्लाह से भी ज़ाहिर होता है कि अल्लाह का बहुत इस्तिमाल होता था।

सर सय्यद अहमद ने अपनी किताब में जो क़ब्ल अज़-इस्लाम के अरबों के बयान में है इस बात को साफ़ माना है कि हज़रत मुहम्मद से पेशतर अरब में ख़ुदा-परस्त फ़िरक़े मौजूद थे। चुनांचे वो लिखते हैं कि :—

"ज़माना-ए-जाहिलीयत में ख़ुदा-परस्त अरबों की दो गिरोहें थीं। दूसरी गिरोह के लोग सच्चे ख़ुदा की इबादत करते थे और, रोज़ इन्साफ़ व क़यामत पर ईमान रखते थे। वो यह भी मानते थे कि रूह ग़ैर-फ़ानी है और इस ज़मीनी ज़िंदगी के नेक व बद आमाल के लिए जज़ा व सज़ा मिलेगी। लेकिन वो ना नबी को मानते थे और ना वही व इल्हाम के मोअतक़िद थे। इस्लाम से पेशतर अरब में चार ऐसे ख़ुदा-परस्त फ़िरक़े पाए जाते थे जो वही इल्हाम के मोतक़िद थे और जिन्हों ने वक़तन-फ़-वक़तन ख़ूब रिवाज पाया वो साइबीन,  हनीफ़, यहूदी और मसीही कहलाते थे"।

पस साफ़ ज़ाहिर है कि आँहज़रत के हमअसर अल्लाह अज़्ज़-ओ-जल से बे-ख़बर ना थे और आँहज़रत का ख़ुद भी क़बल अज़ दावा-ए-नुबूव्वत यही हाल था कि आपने ये दावा किया कि आपने वही आस्मानी से तौहीद की तालीम पाई। ऐसी हालत में कुछ ताज्जुब नहीं अगर अरबों ने कहा أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ 3 पहले लोगों के क़िस्से सुनाते हो। और जब आपने उन को इस्लाम की दावत दी और कहा कि मेरे वही आस्मानी पर ईमान लाओ तो उन्हों ने कहा "‏‏شَاعِرٌ‏‎‎" 4 यानी आप शायर हैं और यह वही आस्मानी नहीं बल्कि आपकी अपनी बनाई हुई बातें हैं।

आँहज़रत की विलादत से थोड़ा ही अरसा पेशतर फ़िर्क़ा हनीफ़ ने रिवाज पाया। इस फ़िर्क़ा के लोगों ने बड़ी सरगर्मी से इस्लाह शुरू की और बुत-परस्ती को बिल्कुल तर्क करके वाहिद सच्चे ख़ुदा की इबादत करने लगे। इन हक़ जो इस्लाह कननद-गान के पेशवा विस्र गिरोह वर्क़ा बिन नौफ़ल, उबैदुल्लाह इब्न हब्श, उस्मान इब्न अलहवीरस और जै़द बिन उमरू थे एक हदीस में मर्क़ूम है कि "जै़द ने लक़ब-ए-हनीफ़ यूं इख़्तियार किया कि एक मर्तबा एक मसीही और एक यहूदी उस को हनीफ़ होने की तरग़ीब दे रहे थे। जै़द उस वक़्त बुतपरस्ती को छोड़ चुका था और मसीही या यहूदी भी नहीं हो सकता था। इस ने पूछा कि हनीफ़ किस को कहते हैं ? इन दोनों ने कहा कि हनीफ़ इब्राहिम का मज़हब है जो सिवाए ख़ुदा के किसी और की परश्तिस नहीं करता था। इस पर जै़द ने कहा ऐ ख़ुदा मैं इक़रार करता हूँ कि मैं इब्राहिमी मज़हब की पैरवी करूंगा"।

इब्न हिशाम जो आँहज़रत के क़दीम तरीन और काबिल एतिमाद सवानिह निगारों में से है अपनी किताब सीरत अल-रसूल में यूं लिखता है:—

" فاما ورقہ بن نوفل فاستحکمہ فی النصرانیہ واتبع الکتاب من اھلما حتی علم علما من اھل الکتاب"

वर्क़ा बिन नौफ़ल ने नसरानी हो कर इस दीन की किताबों को ख़ूब पढ़ा यहां तक कि अहले-किताब के बड़े बड़े आलिमों में से हो गया।

मुस्लिम लिखता है कि यही वर्क़ा बीबी ख़दीजा का उम-ज़ाद भाई था और उस ने इंजील को अरबी ज़बान में तर्जुमा किया। इन दिलचस्प हक़ीक़तों से बाआसानी जे़ल के एक दौर नतीजे निकल सकते हैं। अव्वल ये कि हज़रत मुहम्मद को ज़रूर अक्सर औक़ात वर्क़ा से मुलाक़ात और गुफ़्तगु का मौक़ा मिला। दोम फ़िर्क़ा हनीफ़ के लोगों से सोहबत रखने से आप बाआसानी तमाम तौहीद ईलाही की तालीम पा सकते थे। लेकिन इस में ज़रा शक नहीं कि आपके जिस क़दर ख़्यालात ख़ुदा के मुताल्लिक़ थे वो ज़्यादातर इन्ही लोगों की सोहबत से हासिल हुए थे। यहां तक कि जब आप इस्लाम के मुनाद बने तो आप की तक़रीरों का मज़मून ज़्यादा-तर यही था कि मैं इब्राहिमी मज़हब हनीफ़ का मुनाद हो कर आया हूँ। क़ुरआन में इस का बार-बार ज़िक्र किया गया है लेकिन हम सिर्फ चंद मुक़ाम नक़ल करते हैं। सूरह अनआम की एक सौ बासठवीं आयत में मर्क़ूम है:—

قُلْ إِنَّنِي هَدَانِي رَبِّي إِلَى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ دِينًا قِيَمًا مِّلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا

तू कह मुझे तो मेरे रब ने मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ सच्चे दीन की राह-ए-रास्त की हिदायत फ़रमाई है।

फिर सूरह आल-ए-इमरान की 95 वीं आयत में लिखा है :—

فَاتَّبِعُواْ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا

अब इब्राहीम के दीन के ताबे हो जाओ।

ना सिर्फ वाहिद सच्चे ख़ुदा का ख़्याल ही आँहज़रत के हम-असरों में मौजूद था बल्कि इस में भी कलाम नहीं और किसी तरह के शक व शुबहा को जगह नहीं कि बहुत सी रसूम-ए-हज भी मुद्दतों से पेशतर बुतपरस्त अरबों में राइज थीं अगरचे आपने दावा कर दिया कि ये रसूम भी आपने वही आस्मानी से सीखीं।

मशहूर मुसलमान मुअर्रिख़ अबूल-फ़िदा इन हक़ीक़तों का निहायत सफ़ाई से मोअतरिफ़ है इस की मशहूर तवारीख़ में लिखा है :—

वो (इस्लाम से पेशतर के अरब) काअबा का हज किया करते थे और उमरा व एहराम की रसूम को बजा लाते थे और तवाफ़ भी करते थे। सफ़ा-ओ-मर्वा पर दौड़ते और पत्थर फेंकते थे और हर तीसरे साल के आख़िर में एक महीना उज़लत-ओ-ज़ावीया नशीनी में बसर करते थे....वो खतना करते और चोर का दायाँ हाथ काट डालते थे I

अबुल-फ़िदा की ये शहादत किसी तरह से शक की गुंजाइश नहीं छोड़ती कि आँहज़रत के ज़माना से पेशतर ही से ये तमाम रसूम और तहारत वूज़ू वग़ैरा के तरीक़े और दस्तूर जारी थे। आपने उन को लिया और हसबे मौक़ा बयान किया और फ़रमाया कि ये सब कुछ वही आस्मानी की मार्फ़त पहुंचा है। आपके सहाबा को भी आपके मुवह्हिदाना दीन और बुतपरस्ती की पुरानी रसूम को ततबीक़ देने में बड़ी मुश्किल पेश आई। चुनांचे मुस्लिम से रिवायत है :—

قبل عمر بن الخطاب رضی اللہ تعالیٰ عنہ الحجر ثمہ قال امہ واللہ لقد علمت انک حجر ولولہ انی رایت رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلیم یقبلک ماقبلتک

उमर इब्न खत्ताब ने संग-ए-असवद को चूमा और फ़रमाया। बख़ुदा मैं जानता हूँ कि तू महिज़ पारा संग है। अगर मेरे सामने रसूलअल्लाह ने तुझे ना चूमा होता तो मैं हरगिज़ हरगिज़ तुझको ना चूमता।

लेकिन हज़रत मुहम्मद का सरक़ा रसूम व रिवायात अहले-अरब तक ही महदूद नहीं था बल्कि आपको सीरिया और दीगर मुक़ामात के सफ़र का इत्तिफ़ाक़ हुआ और वहां अहले फ़ारस और दीगर अक़्वाम व मज़ाहीब के लोगों से आपको साबिक़ा पड़ा। इस से आप को जन्नत व जहनम और रोज़ इन्साफ़ और सज़ा व जज़ा के मुताल्लिक़ बहुत से ख़्यालात मिल गए जो आप ने बाद में कुछ रद्दो-बदल करके ख़ास क़ुरैशी अरबी में पेश किए और फ़रमाया कि ये सब कुछ जिब्राईल आस्मान से लाया है। चुनांचे आँहज़रत का सवानिह निगार इब्न हिशाम एक शख़्स सलमान नामी का ज़िक्र करता है जो आख़िर-कार आपके सहाबा किराम में शुमार किया गया। आपको अहले फ़ारस की हिकायात व रिवायात के सीखने का अरब ही में काफ़ी मौक़ा था क्योंकि अरब में अहले फ़ारस के अफ़्साने मुद्दत से जारी थे और उनके मोअतक़िदात बहुत अर्से से तासीर कर रहे थे । हज़रत मुहम्मद के ज़माना से थोड़ा ही अरसा पेशतर फ़ारसी हाकिम मुतवातिर-हिरा, इराक़ ,और यमन पर हुकूमत कर चुके थे। इस में शक नहीं कि इन मुहज़्ज़ब फ़ातिह, शाहज़ादों के अत्वार व अख़लाक़ और दीगर उमूर ने अहले-अरब पर बड़ी तासीर की होगी चुनांचे उस का सबूत इस बात में साफ़ नज़र आता है कि अहले-अरब पर मैं फ़ारसी रिवायात व हिकायात ख़ूब मुरव्वज थीं और फ़ारसी अशआर बहुत कसरत से जारी थे। इब्न हिशाम की तस्नीफ़ में इस एक निहायत साफ़ मिसाल मौजूद है। ये मुसन्निफ़ ये लिखता है कि इब्तदाए इस्लाम में ना सिर्फ फ़ारसी हिकायात मदीना में राइज ही थीं बल्कि अहले क़ुरैश क़ुरआनी क़िस्सों से उनका मुक़ाबला किया करते थे । एक दिन नाज़िर इब्न हारिस ने अहले क़ुरैश के सामने शाहान-ए-फ़ारस की चंद हिकायात पढ़ी और बाद में यूं कहा:—

واللہ مامحمد باحسن حدیثا منی وماحدیثہ الاساطریر الاولین اکتبہ کما اکتتبہ

बख़ुदा मुहम्मद की हिकायात मेरी हिकायात से कुछ बेहतर नहीं हैं। वो महिज़ गुज़शता लोगों की कहानियां हैं जिन को इस ने लिखा लिया है जैसे कि मैंने अपनी कहानियां लिख रखी हैं।

रोज़तुल-अहबाब के मुसन्निफ़ का बयान इस से भी ज़्यादा साफ़ है। चुनांचे वो लिखता है कि :—

नबी की ये आदत थी कि जो कोई मुलाक़ात को आता था इस से उसी की ज़बान में गुफ़्तगु करते थे। लिहाज़ा नतीजा अरबी ज़बान में बहुत से फ़ारसी  अल्फ़ाज़ पाए जाते हैं जो इस तरह से दाख़िल हो गए ।

इस तबाही ख़ेज़ एतराफ़ से क़ुरआन के बहुत से हिस्सों के लिए किलीद उल-क़ुरआन मिल जाती है। जिन हिस्सों को समझना बहुत मुश्किल था वो इस एतराफ़ से आसान हो जाते हैं क्योंकि बहुत से फ़ारसी  अल्फ़ाज़ व अक़ाइद जो क़ुरआन में पाए जाते हैं इन को समझने में बहुत सहूलत हो जाती है । क़ुरआन में जो बहिश्त दोज़ख़ और मौत व क़यामत और रोज़ इन्साफ़ वग़ैरा के बयान पाए जाते हैं अगर उन का ज़रतशती पैदाइश आलम से मुक़ाबला किया जाये तो अज़हर मिन अश्शम्स हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद ने ये सब कुछ उन फ़ारसियों से सीखा जिन से आप को रबत ज़बत नसीब हुआ और बाद में इन बयानात को क़ुरैशी अरबी में रंगा और वही आस्मानी के नाम से अपने जाहिल हम वतनों को सुनाया। इन ज़रतशती अक़ाइद व ख़यालात का सुराग़ उन फ़ारसी  अल्फ़ाज़ से मिल सकता है जो क़ुरआन में इस्तिमाल किए गए हैं। क्योंकि अगर कोई नया अक़ीदा ग़ैर ज़बान के  अल्फ़ाज़ में बयान किया है तो ज़रूर वो अक़ीदा इस ग़ैर ज़बान के बोलने वालों का है। अब ये बात निहायत ही ताज्जुबख़ेज़ है कि हज़रत मुहम्मद की तो क़ुरआन “अरबी" पुकारते हुए ज़बान-ए-ख़ुश्क हो जाती है लेकिन इस में बहुत से ग़ैर-अरबी अल्फ़ाज़ मौजूद हैं और जिन ज़बानों से वो  अल्फ़ाज़ लिए गए हैं उन्ही के बोलने वालों के अक़ाइद क़ुरआन में इन अल्फ़ाज़ के वसीला से मुंदर्ज कर लिए गए हैं। चुनांचे अब हम इस अम्र के सबूत में दो तीन मिसालें पेश करेंगे।

हर एक मुसलमान हज़रत मुहम्मद के मेराज के क़िस्सा से आगाह है। लेकिन ये अजीब बात है कि क़ुरआन में इस माजराए शगरफ़ की तरफ़ एक ही निहायत मुख़्तसर इशारा पाया जाता है । चुनांचे सूरह बनी-इस्राइल की पहली आयत में यूं मुंदर्ज है:—

سُبْحَانَ الَّذِي أَسْرَى بِعَبْدِهِ لَيْلاً مِّنَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ إِلَى الْمَسْجِدِ الأَقْصَى الَّذِي بَارَكْنَا حَوْلَهُ لِنُرِيَهُ مِنْ آيَاتِنَا

पाक है वो ज़ात जो अपने बंदे को रात के वक़्त मस्जिद उल-हराम से मस्जिद-उल-अक़्सा तक ले गया। जिसमें हमने खूबियां रखी हैं कि अपनी क़ुदरत के नमूने दिखावें I

फिर इसी सूरह की 62 वीं आयत में इसी वाक़िया की तरफ़ और मुख़्तसर सा इशारा मुंदर्ज है जैसा कि लिखा है :—

وَمَا جَعَلْنَا الرُّؤْيَا الَّتِي أَرَيْنَاكَ إِلاَّ فِتْنَةً لِّلنَّاسِ

और वह रोया जो हम ने तुझ को दिखाई। लोगों को आज़माने के लिए बहुत है।

इस आयत की तफ़्सीर में मुसलमान मुफ़स्सिरीन व मुहद्दीसीन ने इस क़दर तूल तवील बयानात लिखे हैं कि सिर्फ यही नहीं माना कि आँहज़रत रात के वक़्त मस्जिद-उल-हराम से मस्जिद-उल-अक़्सा तक गए बल्कि एक ख़्याली घोड़े बुराक़ पर सवार हो कर फ़लकुल-अफ़्लाक पर पहुंचे और तरक़्क़ी के ज़ीना पर चढ़ते चढ़ते और मदिराज मेराज तैय करते करते ख़ुदा की ख़ास हुज़ूरी में जा पहुंचे और आस्मानी राज़ व रामोज़ में दख़ल पाया ।

ये हिकायत हज़रत मुहम्मद ने ज़रूर फ़ारसियों से सीखी थी क्योंकि उन की एक किताब बनाम "रूसावीर अफ़नामक" में जो आँहज़रत से चार सौ बरस पेशतर की तस्नीफ़ शूदा है एक हिकायत मुंदर्ज है जो आप के मेराज के क़िस्सा से बिल्कुल मुताबिक़त रखती है। चुनांचे लिखा है कि :—

एक मजूसी मुअल्लिम जो कि निहायत ही आला दर्जा का आबिद व ज़ाहीद था एक फ़रिश्ते की रहबरी से आस्मान पर चढ़ गया और ख़ुदाए ताअला के हुज़ूर में पहुंच कर बेपर्दा मुलाक़ात की और फिर ज़मीन पर वापिस आ कर जो कुछ आस्मान पर देखा था ज़रतशतियों से बयान किया।

फिर हुरान-ए-बहिश्त का क़ुरआनी बयान भी फ़ारसी असल का है। जो लोग क़ुरआन को पढ़ते और समझते हैं वो जानते हैं कि क़ुरआन में जिस्मानी व नफ़सानी बहिश्त की बड़ी खुश-रंग तसावीर पेश की गई हैं । लिखा है कि बड़ी बड़ी स्याह आँखों वाली हूरें जन्नत में तकिये लगाए तख़्तों पर बैठी मोमिनीन का इंतिज़ार कर रही हैं। उनका बयान क़ुरआन में बार-बार लिखा है । लेकिन हम सिर्फ सूरह अल-रहमान से एक मुक़ाम पेश करेंगे। चुनांचे इस सूरह की 46 वीं आयत से 76 वीं तक यूं मर्क़ूम है:—

और जो कोई अपने रब के आगे खड़ा होने से डरा उस के वास्ते दो जन्नत हैं। जिनमें बहुत सी शाख़ें हैं। इन में दो चश्मे हैं। उनमें किस्म किस्म के सब मेवे हैं। इस्तबरक़ के आस्तर वाले बिछौनों पर तकिया लगाए बैठे होंगे। और उन बाग़ों का मेवा झुका हुआ। इन में औरतें हैं नीची निगाह वालियाँ । मोमिनों से पहले ना किसी आदमी ने और ना किसी जिन्न ने उन को अपने साथ सुलाया है। गोया कि वो याक़ूत व मरजान हैं। नेकी का बदला सिवाए नेकी के और कुछ नहीं है। और उन दो बाग़ों के इलावा दो बाग़ और हैं। गहरे सब्ज़ हैं सियाही माइल । उन में उबलते हुए दो चश्मे हैं। इन में मेवे और खजूरें और अनार हैं। इन में ख़ूबसूरत नेक औरतें हैं। ख़ेमों में रोकी हुई हूरें हैं जिन को किसी जिन्न व इन्स ने मोमिनों से पहले अपने साथ नहीं सुलाया। ख़ुशवज़ाअ व क़ीमती बिछौनों और चांदनियों पर तकिया लगाए बैठे होंगे।

बहुत से मुसन्निफ़ीन साबित कर चुके हैं कि हुरान-ए-बहिश्त के ये क़िस्से अहले फ़ारस की इन पुरानी रिवायात से लिए गए हैं जो उन में बहिश्त की ख़ूबसूरत और आदमीयों को लुभाने वाली औरतों की निसबत जारी थीं। हज़रत मुहम्मद ने बसा-औक़ात नज़म अफ़साना में उनका ज़िक्र सुना होगा। इलावा-बरीं लफ़्ज़ "हूर" फ़ारसी लफ़्ज़ है जोकि पहलवी "हूर" से मुश्तक़ है। इस से भी हुरान-ए-बहिश्त के बयान की असलीयत मालूम हो जाती है।

क़ुरआन में जिन्नों या बदरूहों के जो क़िस्से मुंदर्ज हैं उन की निसबत भी कहा जा सकता है कि वो फ़ारसी असल के हैं क्योंकि लफ़्ज़ जिन्न फ़ारसी जीना से मुश्तक़ है और फ़ारसी लोगों की ऐसी बहुत सी कहानियां भी राइज थीं लिहाज़ा ये ख़्याल भी इन ही से लिया गया है।

इलावा-बरीं ज़रतशती रिवायत और क़ुरआनी क़िस्सों में बाहम मुशाबहत की और बहुत सी बातें हैं। लेकिन इस बात के सबूत में बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि क़ुरआन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनका मंबा व चशमा फ़ारसी रिवायत हैं जो हज़रत मुहम्मद ने वक़तन-फ़-वक़तन उन फ़ारसियों से जिनसे आपका रब्त-ज़ब्त हुआ सुनी I

लफ़्ज़ "फ़िर्दोस" भी जो क़ुरआन में बार-बार इस्तिमाल किया गया है फ़ारसी है। क़ुरआन में "साइबीन" का अक्सर ज़िक्र आया है और मुअर्रिख़ अबुल-फ़िदा ने उन लोगों का बहुत ही दिलचस्प बयान लिखा है। जो बातें इस ने बयान की हैं इन में से एक ये भी है कि वो लोग दिन में सात मर्तबा नमाज़ पढ़ते थे और उन की सात नमाज़ों के औक़ात में से पाँच के औक़ात ऐन वही थे जो इस्लामी नमाज़ों के हैं। हज़रत मुहम्मद ने ख़ुद बार-बार साइबीन का ज़िक्र किया है। इस से साबित होता है कि आँहज़रत उन लोगों से बहुत मेल-जोल रखते थे और ग़ालिबन आपने ये नमाज़ें जो आज कल तमाम इस्लामी दुनिया में राइज हैं इन ही लोगों से सीखी थीं।

मज़कूरा बाला वाक़ियात ऐसे मुदल्लिल व मुबरहीन हैं कि बड़े बड़े उलमाए इस्लाम ने साफ़ तौर पर उनकी सदाक़त को तस्लीम कर लिया है और तरकीब व तकमील-ए-क़ुरआन के बारे में अहले-ज़माना के ख़्याल की तर्दीद की गुंजाइश नहीं पाई। चुनांचे सय्यद अमीर अली कहता है कि :—

इस में कलाम नहीं कि आँहज़रत की नबुव्वत के वसती ज़माना में जबकि अभी आपका ज़हन दीनी एहसास के कमाल को नहीं पहुंचा था और नीज़ इस अम्र की ज़रूरत थी कि बदवी गिरोहों के लिए उनकी समझ के मुताबिक़ बहिश्त व दोज़ख़ का बयान जिस्मानी और माद्दी सूरत में किया जाये ज़रतशती, साइबीनी ,तालमुदी और यहूदी मुरव्वजा ख़्यालात को ले कर पेश कर दिया गया और फ़िरोतनी व महब्बत के साथ ख़ुदा की इबादत की हक़ीक़ी और असली तालीम बाद में दी गई । चुनांचे हुरान-ए-बहिश्त और बहिश्त की बुनियाद ज़रतशती अक़ाइद व रिवायत पर है और जहन्नुम का माख़ज़ तालमुद है।

लेकिन अगर ये बातें जैसी कि बयान की गई हैं वैसी ही हक़ तस्लीम कर ली जाएं तो फिर ये क्योंकर तस्लीम करें कि क़ुरआन ख़ुदा का कलाम है और लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ जिब्राईल फ़रिश्ता की मार्फ़त हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल हुआ। बख़िलाफ़ उस के ये साबित-शूदा हक़ीक़त है कि आँहज़रत ने अपनी तालीमात व ख़यालात को फ़िर्क़ा हनीफ़, फ़िर्क़ा साइबीन और ज़रतशतियों से अख़ज़ किया। हमारा यही दावा है कि बाक़ी क़ुरआन भी इसी तरह इधर-उधर से लिया गया है। चुनांचे इस किताबचा के बाक़ी अबवाब में हम इस अम्र को पाया सबूत तक पहुंचा देंगे I


3. सुरह फुरकान आयत 4

4. सुरह तुर आयत 33

बाब दूओम

यहूदी अक़ाइद व रसूम का क़ुरआन में इंदिराज

अगरचे क़ुरआन के मुताअला से ये बात निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ ज़ाहिर हो जाती है कि हज़रत मुहम्मद ने अपने वक़्त के बुतपरस्त अरबों की बहुत सी रसूम को क़ुरआन में दर्ज कर लिया और मसीही दीन की बहुत सी बातों को ले कर उन पर क़ुरैशी अरबी में जिब्राइली पैग़ाम का हाशिया चढ़ा लिया ताहम क़ुरआन की असलीयत व माहीयत पर ग़ौर-व-फ़िक्र करने से मालूम हो जाएगा कि इस्लाम बहैसीयत मजमूई तालमुदी यहूदियत और रिसालत हज़रत मुहम्मद का मजमूआ है। चुनांचे इस बाब में हम इसी अम्र की सदाक़त के दलायल व सबूत बहम पहुंचाएंगे।

इस बात के बयान की तो ज़रूरत नहीं कि आँहज़रत को यहूदीयों से इस क़दर काफ़ी मेल-जोल का मौक़ा हासिल था कि आप उन से उन की मुरव्वजा हिकायात व रिवायत को बख़ूबी व बाआसानी सीख सकते थे। अगर क़ुरआनी हिकायात का बाइबल की मुहर्रिफ़ तालमुदी तवारीख़ से मुक़ाबला किया जाये तो साफ़ अयाँ हो जाएगा कि मक्का व मदीना के यहूदीयों ने अपनी रिवायत ज़रूर हज़रत मुहम्मद को सुनाई थीं जो आप ने अव्वल बदल करके बुतपरस्त, जाहिल अरबों के सामने वही आस्मानी के नाम से पेश कीं। ये भी ख़ूब याद रखना चाहिए कि आँहज़रत से एक सौ साल पेशतर तालमुद की तकमील हो चुकी थी और जो यहूदी अरब में बूद-ओ-बाश करते थे उन के दीन पर इस से बहुत कुछ तासीर हुई होगी। क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद ने एक यहूदी को अपनी रिसालत पर गवाह के तौर पर बयान किया है। बहुत से मुक़ामात में आँहज़रत के यहूदीयों के साथ मुबाहिसों और मुनाज़रों का ज़िक्र पाया जाता है और इस में कलाम नहीं कि किसी वक़्त आप उन से बहुत गहरा और दोस्ताना ताल्लुक़ रखते थे। पस अब ये बात बाआसानी समझ में आ सकती है कि हज़रत मुहम्मद ने बार-बार यहूदी रिवायत को सूना और फिर उन को ऐसी सूरत में बयान किया जो अरबों को पसंदीदा दिलचस्प मालूम हुई। इस में शक नहीं कि आप यहूदीयों से उन के दीन के बारे में अक्सर सवाल किया करते थे चुनांचे मुस्लिम की एक हदीस में यूं लिखा है:—

قال ابن عباس فلما سالھا النبی صلعمہ عن شئی من اھل کتب فلتموہ ایاہ واخبروہ بغیر ہ فخر جواقداروہ ان قدخبروہ بما سالھمہ عنہ

इब्न अब्बास कहता है जब नबी अहले-किताब से कुछ पूछते तो वो उसे पोशीदा रखते और कुछ और ही बता देते थे। और आँहज़रत को सिर्फ इस ख़्याल में छोड़ जाते थे कि जो कुछ पूछा था वही बताया गया है।

इलावा-बरीं ये एक निहायत ही बय्यन हक़ीक़त है कि जब आँहज़रत पर ये इल्ज़ाम लगा कि आप यहूद वग़ैरा से कहानियां सीख कर उनका नाम वही आस्मानी रखते हैं तो आप ने ये उज़्र पेश किया कि मुझे ख़ुदा का हुक्म है कि शक की हालत में अहले-ए-किताब से पूछूँ और अपने शकूक रफ़ा करूँ। चुनांचे सूरह यूनुस की 94 वीं आयत में यूं लिखा है :—

فَاسْأَلِ الَّذِينَ يَقْرَؤُونَ الْكِتَابَ مِن قَبْلِكَ

तू पूछ ले उन लोगों से जो तुझ से पहले किताब पढ़ते हैं I

मुसलमान मुअर्रिख़ तिबरी लिखता है :—

ख़दीजा( आँहज़रत की पहली ज़ौजा ) ने पुराने पाक नविश्तों को पढ़ा था और क़ससुल-अम्बिया से ख़ूब वाक़िफ़ थी I

अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है कि आँहज़रत दावा-ए-नुबूव्वत से पहले क़रीबन पंद्रह साल बीबी ख़दीजा के साथ बसर कर चुके थे और ख़दीजा के उम्म-ज़ाद भाई वर्क़ा से भी काफ़ी मेल-जोल रहा जो यहूदी और मसीही दोनों रह चुका था और जिस ने मसीही नविश्तों का अरबी ज़बान में तर्जुमा भी लिखा थाI इन हक़ीक़तों से साफ़ अयाँ हो जाता है कि आँहज़रत यहूदी रब्बियों की मुरव्वजा हिकायात व रिवायत से बख़ूबी वाक़िफ़ थे।

अब इस अम्र की चंद मिसालें पेश की जाएंगी कि आँहज़रत ने अपने हम-असर यहूदीयों की मुरव्वजा तवारीख़ी हिकायात को किस तरह अपने हसब दलख़वाह सूरत में पेश किया। लेकिन ऐसा करने से पेशतर ये बताना भी मुनासिब मालूम होता है कि इस मौक़ा पर अरब में यहूदीयों के ख़्यालात की क्या हालत थी। मदीना के गर्द-नवाह के यहूदी बेशुमार और साहिब इक़तिदार थे लेकिन बजाय अह्देअतीक़ के ज़्यादा तालमुद का मुताअला किया करते थे। तालमुद यहूदी रब्बियों की रायों कि तफ़ासीर और रिवायत वग़ैरा का निहायत बे-तरतीब मजमूआ है।

इस मख़ज़न-उल-उलूम में क़ौम यहूद की हज़ारों साल की अहादीस व रिवायत और उन के शराए व ख़यालात बड़ी शरह व बसत के साथ मुंदर्ज हैं। लेकिन फिर भी तालमुद एक  इल्मी बयान है।

इस के बयानात निहायत बे-तरतीब व बे-रब्त हैं। बहुत से क़िस्से ग़लत और महिज़ बच्चों के अफ़्साने हैं। और आँहज़रत के ज़माना के यहूदीयों की ज़हनी और अक़्ली ग़िज़ा बेशतर इन अफ़्सानों ही से बहम पहुंची थी। इन ही ग़ैर-मोअतबर तालमुदी कहानीयों को सुन कर यहूदी सामईन ख़ुश होते थे। और उन के मकतबों और मदरसों में उन्ही की तालीम व तदरीस का रिवाज था।

पस हज़रत मुहम्मद ने जो कुछ यहूदीयों से सीखा वो बजाय बाइबल के तालमुदी क़िस्से व अफ़्साने थे। चुनांचे जिन क़िस्सों और बुज़ुर्गों के हालात से क़ुरआन लबरेज़ हो रहा है वो बाइबल के तालमुदी व गमदाह की बे-बुनियाद रिवायत से मुताबिक़त रखते हैं।

मसलन सूरह माइदा में 30 वें आयत में से 35 आयत तक हाबील व काबील की अजीब हिकायात मुंदर्ज है । 34 वीं आयत से मालूम होता है कि जब क़ाबील अपने भाई को क़त्ल कर चुका तो ख़ुदा ने एक कूए को भेजा कि क़ाबील को दफ़न करना सिखाए । चुनांचे यूं मर्क़ूम है :—

فَبَعَثَ اللّهُ غُرَابًا يَبْحَثُ فِي الأَرْضِ لِيُرِيَهُ كَيْفَ يُوَارِي سَوْءةَ أَخِيهِ

ख़ुदा ने एक कव्वे को भेजा जिसने ज़मीन को खोदा ताकि वो (क़ाबील) देख ले कि अपने भाई की लाश को क्योंकर दफ़न करे ।

जिन्होंने तौरेत शरीफ़ को पढ़ा है वो जानते हैं कि ये क़िस्सा इल्हाम मूसा में इस तरह नहीं है लेकिन हम जानते यं कि हज़रत मुहम्मद ने इस को रिवायत से सीखा क्योंकि रबियाना किताब मौसूमा-बह-तागमथन पर के रब्बी अलीअज़र बाब 21 में यूं मुंदर्ज है:—

आदम और हवा बैठ कर हाबील पर मातम करने लगे और नहीं जानते थे कि इस की लाश से किया करें। क्योंकि वो दफ़न करना नहीं जानते थे। तब एक कव्वा जिसका साथी मर गया था आया और उन के सामने ज़मीन खोद कर उस को दफ़न कर दिया। तब आदम ने कहा में भी ऐसा ही करूंगा जैसा कि इस कव्वे ने किया है चुनांचे आदम ने उठ कर फ़ौरन एक क़ब्र खोदी और हाबील की लाश इस में दफ़न कर दिया।

इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि हज़रत मुहम्मद ने ये कहानी रब्बियों की तसानीफ़ से सुनी थी और यह जान कर कि ये बाइबल का बयान है थोड़े से रद्दो-बदल से काम लेकर उसे वही आस्मानी के नाम से पेश कर दिया।

हज़रत इब्राहिम के क़िस्सों से क़ुरआन भरा पड़ा है। ये क़िस्से बाअज़ उमूर में बाइबल के बयानात के बिल्कुल बरअक्स व मुतनाक़ज़ हैं लेकिन रब्बियों की रिवायत से उनका मुक़ाबला करें तो बिल्कुल अयाँ हो जाता है कि आँहज़रत ने ये क़िस्से उन्ही लोगों से सीखे थे। फिर क़ुरआन में बार-बार लिखा है कि एक बादशाह ने (जिसे मुफ़स्सिरीन नमरूद लिखते हैं) हज़रत इब्राहिम को आग में डाल दिया था और वजह ये थी कि आपने बुत-परस्ती से  किया था। चुनांचे सूरह अम्बिया की 69 वीं और 71 वीं आयत में मर्क़ूम है कि जब हज़रत इब्राहिम आग में डाले गए तो ख़ुदाए ताअला ने फ़र्मा दिया :—

يَا نَارُ كُونِي بَرْدًا وَسَلامًا عَلَى إِبْرَاهِيمَ  وَأَرَادُوا بِهِ كَيْدًا فَجَعَلْنَاهُمُ الأَخْسَرِينَ  وَنَجَّيْنَاهُ

तर्जुमा: ए आग इब्राहिम पर सर्द और सलामती हो जा...और हम ने उसको बचा लिया।

अब ये एक अजीब हक़ीक़त है कि इस अफ़्साने का बाइबल में तो नाम व निशान तक नहीं मिलता और इस की कोई बुनियाद पाई नहीं जाती लेकिन यहूदीयों की एक किताब मुसम्मा बह मिदराश रुबा में मुफ़स्सिल दर्ज है। तौरेत से मालूम होता है कि हज़रत इब्राहिम कनआन की ज़मीन में दाख़िल होने से पहले कस्दीयों के मुल्क में शहर ऊर में रहते थे। लेकिन ख़ुदा ने इन को वहां से निकाल कर मुल्क मौऊद में पहुंचाया। चुनांचे मर्क़ूम है :—

मैं ख़ुदावंद हूँ जो तुझे कस्दीयों को ऊर से निकाल लाया I (पैदाईश 15:4)

मिदराश का मुसन्निफ़ इस शहर से बिल्कुल नावाकिफ था और लफ्ज़ ऊर के लफ्ज़ी माअने आग के भी है इसलिए मुन्दर्जा-बाला आयत को यूँ समझा “मैं खुदावंद तुझको कस्दियों कि आग से निकाल लाया”

चुनांचे इस ग़लती के सबब से इस ने इस आयत की तफ़्सीर में इब्राहिम के आग में डाले जाने और फिर मोजज़ाना तौर पर बचाए जाने का क़िस्सा घड़ा। इब्राहिम का ये तमाम क़िस्सा मिदराश मज़कूर में मुंदर्ज है और हज़रत मुहम्मद के हम-असर यहूदी जो अरब में रहते थे इस क़िस्सा से ख़ूब वाक़िफ़ थे। मिदराश में लिखा है कि :—

जब बुतपरस्ती से इन्कार करने के बाइस से नमरूद ने इब्राहिम को आग में डाल दिया तो आग को इजाज़त ना मिली कि उसे कुछ नुक़्सान पहुंचाए।

अब हम बख़ूबी समझ सकते हैं कि हज़रत इब्राहिम के आग में डाले और निकाले जाने की क़ुरआनी हिकायत कहाँ से ली गई है।

मुसन्निफ़-ए-क़ुरआन भी मिदराश के मुसन्निफ़ की तरह लफ़्ज़ ऊर के हक़ीक़ी मतलब से नावाक़िफ़ व ला-इल्म मालूम होता है। इस क़िस्सा की तवारीख़ी बतालत के सबूत में इतना कहना काफ़ी होगा कि नमरूद हज़रत इब्राहिम का हम-असर नहीं था बल्कि इस से बहुत अरसा पेशतर हो गुज़रा था।

फिर सूरह ताहा में एक और हिकायत मुंदर्ज है जिसमें बयान किया गया है कि कोह-ए-सेना पर बनी-इस्राइल ने एक बिछड़े की परसतिश की। ये हिकायत भी यहूदी असल की है क्योंकि इस में मर्क़ूम है कि लोगों ने अपने सोने चांदी के जे़वरात जमा करके आग में डाले और फिर 90 वीं आयत यूं बयान करती है :—

فَكَذَلِكَ أَلْقَى السَّامِرِيُّ فَأَخْرَجَ لَهُمْ عِجْلا جَسَدًا لَهُ خُوَارٌ

फिर यह नक़्शा डाला सामरी ने पस बना निकाला उन के वास्ते एक बछड़ा। एक जिस्म गाय की आवाज़ के साथ I

तौरेत में इस बात का मुतलक़ ज़िक्र तक नहीं मिलता कि वो बिछड़ा बाआवाज़ था। लेकिन हज़रत मुहम्मद की हिकायत का माख़ज़ रब्बी अलीअज़र का लिखना है कि वो बछड़ा ज़ोर की आवाज़ करके निकला और बनी-इस्राइल ने उसे देखा I रब्बी यहुदाह एक और ही बयान पेश करता है। वो कहता है:—

एक शख़्स सामुएल नामी ने बछड़े के बुत में छिप कर बछड़े की आवाज़ निकाली ताकि बनी-इस्राइल को गुमराह करे।

हज़रत मुहम्मद के वक़्त यहूदीयों में जो अरब में सुकूनत पज़ीर थे ये कहानी मशहूर थी । अगर इस कहानी का क़ुरआनी क़िस्सा से मुक़ाबला किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद ने अपने हम-असर यहूदीयों की ज़बानी जो कुछ सुना उसे कुतुब आस्मानी का जुज़ ख़्याल करके अपने हसब-ए-मंशा लिख रखा और बाद में जाहिलों के सामने वही आस्मानी के नाम से पेश कर दिया।

बेचारे हज़रत मुहम्मद ठीक तौर से समुएल की बाबत कुछ ना समझ सके बल्कि उस की जगह सामरी लोगों के ख़्याल में जा उलझे। ग़ालिबन इसका सबब यही था कि आँहज़रत सामरियों को यहूदीयों के दुश्मन जानते थे । आपने सामरी को उस बुरे काम में हिस्सा लेने वाला बयान किया लेकिन हक़ तो यही है कि इस बयान में आपने बड़ी ग़लती की क्योंकि सामरी लोगों का तो उस वक़्त कहीं नामोनिशान भी ना था बल्कि सामरियों का वजूद इस वाक़िया के सदहा साल बाद से है। इस क़ुरआनी क़िस्सा को वही आस्मानी तस्लीम करने के लिए आला दर्जा की सादगी और सरीअ-उल-एतक़ादी की ज़रूरत है।

सूरह नमल में सुलेमान और सबा की मलिका की एक तवील हिकायत मुंदर्ज है। लिखा है कि सुलेमान ने मलिका मज़कूर को एक परिंदे के वसीले से एक ख़त भेजा और इस का नतीजा ये हुआ कि मलिका ने सुलेमान की मुलाक़ात का निहायत मुसम्मम इरादा कर लिया। आख़िर-ए-कार जब सुलेमान के महल के दरवाज़ा पर पहुंची तो 44 वीं आयत के  अल्फ़ाज़ यूं हैं :—

قِيلَ لَهَا ادْخُلِي الصَّرْحَ فَلَمَّا رَأَتْهُ حَسِبَتْهُ لُجَّةً وَكَشَفَتْ عَن سَاقَيْهَا قَالَ إِنَّهُ صَرْحٌ مُّمَرَّدٌ مِّن قَوَارِيرَ

किसी ने मलिका से कहा महल में दाख़िल हो पस इस ने महल के फ़र्श को देखकर ख़्याल किया कि वो गहिरा पानी है और अपना पाएजामा पिंडुलीयों से ऊंचा खींच लिया। इस ने कहा ये पानी नहीं महल का फ़र्श है। जिसमें शीशे लगे हैं, ये सुनकर मलिका ने एक पक्के मुसलमान की तरह जवाब दिया :—

ربِّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي وَأَسْلَمْتُ مَعَ سُلَيْمَانَ لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ

मैंने अपनी जान पर ज़ुल्म किया है और ए मेरे रब, और सुलेमान के साथ में अल्लाह रब-उल-आलमीन की फ़रमांबर्दार हूँ

किताब मुक़द्दस के पढ़ने वाले सब जानते हैं कि ये महिज़ अफ़साना है और कलाम-उल्लाह में इस का वजूद मादूम है। लिहाज़ा ये सवाल पेश आता है कि इस हिकायत का माख़ज़ किया है?

रब्बियों की एक किताब क़िस्सों कहानीयों से पुर है और ये अफ़साना जो हज़रत मुहम्मद ने सुनाया यह लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ इस में मौजूद है। चुनांचे इस किताब में लिखा है कि :—

जब सुलेमान को मालूम हुआ कि मलिका आई है तो उठा और आकर शीश-महल में बैठा। जब सबह की मलिका ने देखा तो शीशे के फ़र्श को पानी समझी और उस के उबूर करने के लिए कपड़े ऊपर खींच लिए"।

हम इस किताब से और बहुत कुछ नक़ल करके दिखा सकते हैं। जिसमें परिंदे को ख़त देकर भेजने वग़ैरा का मुफ़स्सिल ज़िक्र है लेकिन जो कुछ हम लिख चुके हैं इसी से बख़ूबी साबित होता है कि ये हिकायत जैसी कि क़ुरआन में पाई जाती है बिल्कुल हज़रत मुहम्मद ने यहूदीयों से सीखी थी इस मलिका और सुलेमान का सच्चा तवारीख़ी हाल बाइबल में मिलेगा। देखो 1 सलातीन 10 बाब और इस से अज़हर-मिन-अश्शम्स हो जाएगा कि हक़ीक़त और तसनाअ में कैसा ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है।

एक और ऐसी ही कहानी वहमी व ख़याली जो आँहज़रत ने यहूदीयों से सीखी और क़ुरआन में दर्ज कर ली है कि ख़ुदा ने बनी-इस्राइल को डराने के लिए एक पहाड़ उन के सिर पर लाक़ाइम किया गोया कि उन पर गिरने ही को था। चुनांचे सूरह आराफ़ की 170 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :—

وَإِذ نَتَقْنَا الْجَبَلَ فَوْقَهُمْ كَأَنَّهُ ظُلَّةٌ وَظَنُّواْ أَنَّهُ وَاقِعٌ بِهِمْ

और जिस वक़्त उठाया हमने पहाड़ उन के सिर पर जैसे सायाबान और डरे कि वो

गिरेगा उन पर I

ये हिकायत फ़िल-हक़ीक़त बिल्कुल बे-बुनियाद है लेकिन यहूदीयों के एक किताबचा अब्बू दाह साराह में पाई जाती है। तौरेत में इस किस्म का बयान कहीं नहीं मिलता। फ़क़त यही लिखा है कि जब ख़ुदा कोह-ए-सीना पर मूसा को शरीयत दे रहा था उस वक़्त तमाम बनी-इस्राइल दामन-ए-कोह में खड़े थे। थोड़े ही अरसा बाद यहूदी मुफ़स्सिरीन ने वही कहानी वज़ाअ कर ली कि ख़ुदा ने पहाड़ को बनी-इस्राइल पर उठाया अब्बू दाह सारा की मुंदरजा हिकायत में ख़ुदा बनी-इस्राइल से कहता है :—

मैंने पहाड़ को तुम पर सर-पोश की मानिंद रखा है

एक और किताब में यूं मुंदर्ज है :—

ख़ुदा ने पहाड़ को उन पर हंडिया की मानिंद रखा और फ़रमाया कि अगर तुम शरीयत को क़बूल कर लो तो बेहतर वर्ना यही तुम्हारी क़ब्र है।

ये अफ़साना भी आँहज़रत के हम-असर यहूदीयों में जो अरब में आबाद थे राइज थे। आपने उन से सुनकर क़ुरआन में दर्ज कर लिया और फिर तमाम मुसलमानों को ये हुक्म दिया कि हमेशा उसको कलाम-उल्लाह तस्लीम करें जो अज़ल से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम था और जिब्राईल फ़रिश्ता की मार्फ़त आँहज़रत पर नाज़िल हुआ।

मुंदरजा-बाला लगू अफ़्साने की मिसाल क़ुरआन से बाहर कहीं नहीं मिलती। चुनांचे ऐसा लगू अफ़साना फ़रिश्तों के गिरने के बारे में सूरह अल-हिज्र की 16 वीं आयत से 18 वीं आयत तक निहायत संजीदगी से मुंदर्ज है कि जो कुछ आस्मान पर कहा जाता है शयातिन उसे सुनने की कोशिश करते हैं और फ़रिश्ते उन पर शहाब फेंक कर उन्हें भगा देते हैं। मसलन यूं मर्क़ूम है :—

وَلَقَدْ جَعَلْنَا فِي السَّمَاء بُرُوجًا وَزَيَّنَّاهَا لِلنَّاظِرِينَ وَحَفِظْنَاهَا مِن كُلِّ شَيْطَانٍ رَّجِيمٍ إِلاَّ مَنِ اسْتَرَقَ السَّمْعَ فَأَتْبَعَهُ شِهَابٌ مُّبِينٌ

तर्जुमा: और हम ने आस्मान में बुरुज बनाए हैं और देखने वालों के लिए उसे ज़ीनत दी है और हर शैतान मर्दूद से उसे महफ़ूज़ रखा है लेकिन जो चोरी से सुन जाता है रोशन शहाब उस का तआक़ुब करता है।

और फिर सूरह अल-मुल्क में यूं मुंदर्ज है :—

وَجَعَلْنٰهَا رُجُوْمًا لِّلشَّـيٰطِيْنِ

तर्जुमा: और हम ने सितारों को शयातीन के लिए मार बनाया I

आँहज़रत ने शहाब-ए-साक़िब का ख़ूब बयान किया और कुल भेद बता दिया आँहज़रत ने ये भी ख़्याल किया कि शयातीन आस्मान पर जाकर ईलाही दरबार में फ़रिश्तों की मश्वरत और दीगर राज़ व रमोज़ की बातें सुन आते थे। ये आपकी जिद्दत पसंद तबीयत का नतीजा नहीं था बल्कि यहूदीयों की एक किताब में मर्क़ूम है कि :—

शयातीन पर्दे के पीछे से आइन्दा के मुताल्लिक़ बातें सुनते हैं।

इन अफ़्सानों पर कुछ और कहने की ज़रूरत मालूम नहीं होती। हमें पुख़्ता यक़ीन है कि कोई बाहोश मुसलमान उनको कलाम-उल्लाह तस्लीम नहीं करेगा। इन अफ़्सानों का क़ुरआन में पाया जाना ही बड़ा भारी सबूत है और इस अम्र की आला दलील है कि क़ुरआन इख़तिरा इन्सानी है।

इस मज़मून पर और बहुत कुछ लिखा जा सकता है और बख़ूबी तशरीहन साबित हो सकता है कि आँहज़रत के ख़्यालात किस क़दर यहूदीयों से लिए हुए थे जिनको बाद में अपने क़ुरआन में दर्ज करके वही आस्मानी के नाम से नामज़द किया लेकिन इस किताबचा में ऐसे तवील बयानात की गुंजाइश नहीं लिहाज़ा हम दो तीन और मिसालें पेश करके इस बात को ख़त्म करेंगे।

चूँकि यहूदी और साइबीन दोनों हर साल एक महीना रोज़ा रखते थे लिहाज़ा ये दर्याफ़्त करना आसान नहीं कि आँहज़रत ने क़ुरआनी रोज़े यहूदीयों से लिए या साइबीन से लेकिन रोज़ों के बारे में एक क़ायदा ऐसा मौजूद है जो बिल्कुल यहूदी असल का है। चुनांचे सूरह अलबक़रा की 186 वीं आयत में मुंदर्ज है :—

وَكُلُواْ وَاشْرَبُواْ حَتَّى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّواْ الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ

तर्जुमा: और खाओ पियो जब तक तुम फ़ज्र की सफ़ैद धारी से स्याह धारी साफ़ जद नज़र ना आए। फिर पूरा करो रोज़ा रात तक।

ये क़ायदा आँहज़रत को इल्हाम से हासिल नहीं था बल्कि मुद्दतों पेशतर से यहूदीयों में रोज़ा के मुताल्लिक़ ऐसे क़वाइद मौजूद थे और आप ने ये क़ायदा उन्ही से सीखा। चुनांचे यहूदीयों की एक किताब मुसम्मा-बह-मिसना-बैरा-खोथा में लिखा है कि :—

रोज़ा उस वक़्त से शुरू होता था जब नीले और सफ़ैद तार में तमीज़ हो सकती थी।

हर एक मुसलमान को इस बात पर ईमान लाना फ़र्ज़ है कि तस्नीफ़-ए-क़ुरआन में आँहज़रत को मुताल्लिक़ दख़ल नहीं बल्कि तमाम क़ुरआन लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ अज़ल ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम था और वहां से वही की मार्फ़त आप पर नाज़िल हुआ। लेकिन ब-खिलाफ उस के अब हम ये साबित करेंगे कि लौह-ए-महफ़ूज़ का ख़्याल तक भी आपने यहूदीयों ही से उड़ा लिया था। सूरह अल-बुरुज की 21 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

بَلْ هُوَ قُرْآنٌ مَّجِيدٌفِي لَوْحٍ مَّحْفُوظٍ

तर्जुमा: बल्कि ये क़ुरआन-ए-मजीद लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम था I

इस अजीब अफ़्साने का मुहम्मदी अहादीस में बहुत तवील बयान पाया जाता है। नमूना के तौर पर हम अहादीसी वहमी हिकायात की तशरीह की ग़रज़ से क़ससुल-अम्बिया से एक हिकायत जे़ल में दर्ज करते हैं । चुनांचे यूं मर्क़ूम है कि :—

इब्तिदा में ख़ुदा ने अपने तख़्त के नीचे एक मोती पैदा किया और इस मोती से इस ने लौह-ए-महफ़ूज़ पैदा की। इस की बुलंदी सात सौ बरस की राह थी और इस की चौड़ाई तीन सौ साल का सफ़र था।

फिर क़लम की पैदाइश का बयान करके मुसन्निफ़ लिखता है :—

चुनांचे क़लम ने ख़ुदाए ताअला की तमाम मख़लूक़ का इल्म लिखा I

यानी ख़ुदा का इल्म इस तमाम मख़लूक़ के बारे में जो वो पैदा करना चाहता था, हर एक चीज़ का इल्म जो रोज़ क़ियामत तक ख़ुदा के इरादे में थी। यहां तक कि हर एक दरख़्त के हर एक पत्ते का हिलना और गिरना भी ख़ुदाए ताअला की क़ुदरत से लिखा।

लौह पर कलाम-ए-ख़ुदा के लिखे जाने का ख़्याल तौरेत के इल्हामी बयान से लिया गया है। जहां ख़ुदा मूसा से फ़रमाता है :—

अपने लिए पत्थर की दो तख़्तियाँ पहलियों की मानिंद तराश के बिना और पहाड़ पर मुझ पास चढ़ आ और एक चोबी संदूक़ बना और मैं उन तख़्तीयों पर वही बातें लिखूंगा जो पहली तख़्तीयों पर जिन्हें तूने तोड़ डाला लिखी थीं। बाद उस के तमाम उनको संदूक़ में रखियो I (इस्तस्ना 10: 1से 2)

यही बात अज़हद काबिल-ए-ग़ौर है कि वही इब्रानी लफ़्ज़ "लोख़" जो तौरेत में इन तख़्तीयों के लिए इस्तिमाल हुआ है हज़रत मुहम्मद ने अपनी ख़्याली "लौह-ए-महफ़ूज़" के लिए अरबी सूरत "लौह" में इस्तिमाल किया है। आँहज़रत ने बसा-औक़ात यहूदीयों से उन तख़्तीयों का ज़िक्र सुना था जो संदूक़ में रखी गई थीं। फिर उस ख़्याल से कि क़ुरआन की असलीयत कुछ कम दर्जा की ना समझी जाये आपने ये क़िस्सा घड़ लिया कि क़ुरआन लिख कर आस्मान पर रखा गया और ता-वक़्त नुज़ूल लौह-ए-महफ़ूज़ पर महफ़ूज़ रहा। फिर आँहज़रत ने कोताहअंदेशी से ख़ुदा को यूं कहते हुए पेश किया कि :—

وَلَقَدْ كَتَبْنَا فِي الزَّبُوْرِ مِنْۢ بَعْدِ الذِّكْرِ اَنَّ الْاَرْضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ الصّٰلِحُوْنَ

और हम ने लिख दिया है ज़बूर में नसहीत के बाद कि आख़िर ज़मीन के वारिस होंगे मेरे नेक बंदे"।
इससे हमेशा इस्लाम के पांव उखड़ते चले आए हैं। क़ुरआन शरीफ़ का दावा तो ये है कि इस की तमाम इबारत अज़ल ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर लिखी थी और फिर ज़बूर से इक़तिबास करता है जिसका वजूद अभी दो हज़ार बरस का भी ना था । बहुत से ज़ी-होश अस्हाब के लिए यही इस बात का काफ़ी सबूत होगा कि क़ुरआन ज़रूर ज़बूर के बाद की तस्नीफ़ है।

अगर इस अम्र के मज़ीद सबूत की ज़रूरत हो कि क़ुरआन तालमुदी यहूदियत पर मबनी है तो जो बहुत से इब्रानी असल अल्फ़ाज़ क़ुरआन में मौजूद हैं इन में मिलेगा मसलन जे़ल के अल्फ़ाज़ सब के सब इब्रानी असल के हैं :—

ताबूत (تابوت) ‎, तौराह (توراہ) ‎, अदन (عدن) ‎, जहन्नुम (جھنم) ‎, अहबार (احبار) ‎, सब्त (سبت) ‎, सकीना (سکینہ) ‎, ताग़ूत (طاغوت) ‎, फुर्क़ान (فرقان) ‎, माउन (ماعون) ‎, मसानी (مثانی) ‎, और मलकूत (ملکوت) ‎,

अगर किसी को ऐसी तहक़ीक़ का और शौक़ हो तो डाक्टर इमाद-उद्दीन की किताब हिदायत-अलमुस्लिमीन में एक सौ चौदह ग़ैर अरबी  अल्फ़ाज़ की फ़हरिस्त देख ले जो कि क़ुरआन में पाए जाते हैं। डाक्टर इमाद-उद्दीन ने इन  अल्फ़ाज़ के पहले असली मआनी भी लिखे हैं।

बाब-ए-सिवुम

मसीही अक़ाइद व रसूम का क़ुरआन में इंदिराज

हम बयान कर चुके हैं कि हज़रत मुहम्मद के ख़्यालात का माख़ज़ ज़्यादा-तर या तो इस्लाम से पेशतर की अरबी बुत-परस्ती थी या तालमुदी यहूदियत I मसीहीयत के आप इस क़दर कर्ज़दार नहीं थे लेकिन फिर भी क़ुरआन शरीफ़ से ज़ाहिर होता है कि मसीहीयत ने भी आप पर बहुत कुछ तासीर की थी। चुनांचे सय्यदना ईसा मसीह का बार-बार निहायत ताज़ीम के साथ ज़िक्र हुआ है और लिखा है कि वो ख़ुदा की तरफ़ से नबी हो कर आए और ख़ुदा ने उन को इंजील दी। क़ुरआन शरीफ़ में मसीहीयों की तरफ़ इस क़दर इशारात हैं और उन का ऐसा बार-बार बयान हुआ है जिससे बे-शुबह ये मालूम होता है कि वो लोग इन अय्याम में अरब में बकसरत आबाद थे और आँहज़रत उन से बहुत दोस्ती रखते थे। चुनांचे आपने जो हिदायत अपने पैरुउन को दी इस से ये हक़ीक़त साफ़ खुल जाती है। आपने फ़रमाया :—

وَلَتَجِدَنَّ اَقْرَبَهُمْ مَّوَدَّةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰى

सूरह माइदा आयत 82 और तू पाएगा सबसे नज़दीक महब्बत में मुसलमानों की वो लोग जो कहते हैं कि हम नसारा हैं।

हज़रत मुहम्मद ने अल-मसीह के ईमानदारों की इस क़दर ताज़ीम व तकरीम और शुक्रगुज़ारी बेसबब नहीं की । जब अहले मक्का की सख़्ती मुसलमानों की बर्दाश्त के दर्जा से बहुत बढ़ गई तो एबीसिनिया की मसीही सलतनत ही थी जहां जाकर आँहज़रत के पैरु पनाह गजें हुए।

आँहज़रत को मुल्क-ए-अरब में भी और ख़ुसूसन सीरिया के सफरों में मसीही दीन की तालीम पाने का बहुत मौक़ा मिला। हम बयान कर चुके हैं कि वर्क़ा बीबी ख़दीजा का उम्म-ज़ाद भाई पहले मसीही था और मसीही दीन की तालीमात का आलिम था। फिर बाद में बहुत से मसीही मुहम्मदी हो गए और आप की लूट में आई हुई बीवी मर्यम भी आपके पास थी जिससे आप बाआसानी मसीही नविश्तों की बाबत कुछ सीख सकते थे। ख़ुसूसन ग़ैर-मोअतबर मुरव्वजा हकाइतीं तो ब-सहुलते तमाम आपके गोश गुज़ार हो सकती थीं। पस आँहज़रत के लिए इन मशरिक़ी मसीहीयों के मुरव्वजा अफ़्सानों को लेकर अपनी फ़सीह अरबी में सुनाना और इस पर वही आस्मानी का नाम चस्पाँ करना कुछ मुश्किल ना था। आँहज़रत के हम-असर ख़ूब जानते थे कि आपने ऐसा किया। चुनांचे उन्हों ने बसा-औक़ात बाअज़ मशहूर-ओ-मारूफ़ लोगों से मदद लेने का इल्ज़ाम भी आप पर लगाया। जैसा कि सूरह अल नहल की 103 और 105 आयत में यूं मुंदर्ज है :—

 يَقُولُونَ إِنَّمَا يُعَلِّمُهُ بَشَرٌ لِّسَانُ الَّذِي يُلْحِدُونَ إِلَيْهِ أَعْجَمِيٌّ وَهَذَا لِسَانٌ عَرَبِيٌّ مُّبِينٌ........ قَالُواْ إِنَّمَا أَنتَ مُفْتَرٍ

तर्जुमा: वो कहते हैं यक़ीनन उसको कोई सिखाता है। जिसकी तरफ़ वो इशारा करते हैं इस की ज़बान अरबी नहीं और ये (क़ुरआन) सरीह अरबी ज़बान है।

इस मशहूर आयत पर बैज़ावी की तफ़्सीर काबिल-ए-ग़ौर है। वो लिखता है :—

یعنون جبرالدومی غلام عامر ابن الحضرمی وقیل جبر اویسار کا نا لصنعان السیون بمکتہ ویقران التورات والانجیل وکان الرسول صلے اللہ علیہ وسلمہ یمہ علیھما ویسمع مایعر انہ

कहते हैं कि जिस शख़्स कि तरफ़ इशारा करते थे वो जबरा यूनानी आमिर इब्न हज़रमी का ग़ुलाम था। ये भी कहते हैं कि जबरा और एसारा दो शख़्स मक्का में तलवारें बनाया करते थे और तौरेत व इंजील पढ़ा करते थे और आँहज़रत की ये आदत हो गई थी कि उन के पास जाकर उनका पढ़ना सुनते थे।

फिर इमाम हुसैन यूं तफ़्सीर करता है :—

कहते हैं कि आमिर इब्न अल हज़रमी का एक जबरा नामी ग़ुलाम था (बाअज़ के नज़दीक दूसरे ग़ुलाम का नाम यसारा था) जो तौरेत व इंजील पढ़हा करता था और हज़रत मुहम्मद का कभी पास से गुज़र होता तो खड़ा हो कर सुनने लगता था।

अब ये बात निहाइत ही काबिल-ए-ग़ौर है कि जब आँहज़रत पर इल्ज़ाम लगाया गया तो आप ने साफ़ इन्कार करके अपनी बरीयत का इज़हार नहीं किया बल्कि आपका जवाब ये है कि जिनकी तरफ़ इशारा किया जाता है कि वो मेरी मदद करते हैं उन की तो ज़बान ही अजमी है और क़ुरआन ऐसी फ़सीह अरबी ज़बान में है कि वो ऐसी अरबी हरगिज़ नहीं लिख सकते । हम ये साबित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि वो क़ुरआन की अरबी से अरबी लिख सकते थे बल्कि हमारा कहना ये है कि आँहज़रत ने इन यहूदीयों और मसीहीयों से जिनसे आप को मेल मुलाक़ात का इत्तिफ़ाक़ होता था बाइबल के क़िस्सों और मुरव्वजा ग़ैर-मोअतबर अफ़्सानों को सीखा और अपनी शायराना तबीअ से क़ुरैश की फ़सीह अरबी में इन को बयान किया जैसे कि वो अब क़ुरआन में मौजूद हैं। हम ये तो साफ़ साबित कर चुके हैं कि आँहज़रत को ऐसा करने का काफ़ी मौक़ा था।
इस किताबचा के आख़िरी बाब में हम ये दखाईएंगे कि आँहज़रत के ज़माने में जो यहूदी अरब में आबाद थे उन में बजाय कलाम-उलल्लाह के तवारीख़ी और सच्चे बयानात के ज़्यादा तर तालमुदी ग़ैर-मोअतबर क़िस्से व अफ़्साने मशहूर व मुरुज थे। जो मसीहीयत अरब में पाई जाती थी जब तक कि इस की हक़ीक़त को ना समझ लिया जाये तब तक ये समझना निहायत मुश्किल बल्कि नामुम्किन है कि इस की आँहज़रत पर किया तासीर हुई।

ज़मीन-ए-अरब "कुफ़्र व इलहाद की माँ" कहलाती थी। इस में शक नहीं कि रूमी सल्तनत ने बहुत से मसीही फ़िर्क़ों को उन के कुफ़र-ओ-इलहाद के सबब से मुल्क से ख़ारिज कर दिया और वह आकर अरब में आबाद हो गए चुनांचे अरब में आँहज़रत के ज़माना के मसीही तुहमात और क़ाबिल शर्म खराबियों में गिरफ़्तार थे। सच्चे दीन के इव्ज़ में पीर-परस्ती और मर्यम परस्ती का ज़ोर था और कलाम-ए-ख़ुदा यानी बाइबल के इव्ज़ में वहमी हिकायात व रिवायत की किताबें बकसरत राइज थीं किसी ने सही कहा कि अगर हज़रत मुहम्मद को सच्ची मसीहीयत से साबिक़ा पड़ता तो ग़ालिबन दुनिया में एक झूटा मज़हब कम होता और एक मसीही मुसलेह ज़्यादा हक़ीक़त ये है कि मसीहीयों के बिद्दती और मुल्हिद फ़िर्क़ों ने आँहज़रत को बरआशफ़ीता कर दिया और आप ने मसीहीयत को कुफ्र व शिर्क तसव्वुर कर के रद्द कर दिया। हज़रत मुहम्मद की बदक़िस्मती इस में थी कि आपने इन वहमी और बिद्दती फ़िर्क़ों से सच्ची मसीहीयत का अंदाज़ा लगाया और एक ऐसे दीन की बुनियाद रखी जो पुरानी यहूदियत की तरफ़ वापिस खींचता है।

बाइबल की सच्ची तालीम की जगह इन बर्गशता मसीहीयों में जो हिकायात व रिवायत मुरव्वज थीं अगर उन का क़ुरआनी अफ़्सानों से मुक़ाबला जाये तो बख़ूबी समझ में आ जाएगा कि हज़रत मुहम्मद ने इन में अक्सर को सच जाना और कलाम ख़ुदा या इंजील का जुज़ तसव्वुर करके क़ुरआन में दर्ज कर लिया। चुनांचे जे़ल में हम इस अम्र पर नज़ाइर व दलाइल पेश करेंगे।

सूरह अल-कहफ़ में एक निहायत ही अजीब और बईद उल-फ़हम हिकायात मुंदर्ज है। लिखा है कि सात जवान एक ग़ार में जाकर सो गए और तीन सौ नौ (309) साल के बाद बेदार हुए चुनांचे आठवीं से बारहवीं आयत और फिर पच्चीसवी आयत में यूं मर्क़ूम है :—

क्या तू ख़्याल करता है कि ग़ारा और खोह वाले हमारी क़ुदरतों में से अचम्भा थे जब जा बैठे वोह जवान इस खोह में । फिर बोले ए रब दे हमको अपने पास से महर और हमारे काम का बनाओ। फिर थपक दिए हमने उन के कान उस खोह में कई बरस गिनती के फिर हम ने इन को उठाया कि मालूम करें कि दो फ़िर्क़ों में से किस ने याद रखी है जितनी मुद्दत वो रहे.... और वह रहे अपनी खोह में तीन सौ नौ (309) साल।

यह अफ़साना जो बिल्कुल बे-बुनियाद और महिज़ लगु है आँहज़रत के ज़माना से मुद्दतों पेशतर ही से अरब में मशहूर था और सीरिया के एक बाशिंदे याक़ूब नामी की तसानीफ़ में पाया जाता था। ये याक़ूब सारोग का रहने वाला था और 521-ई में इंतिक़ाल कर गया था। उसने अफ़सोस के साथ नौजवानों का हाल यूं लिखा है :—

कि वो डीसीस रूमी बादशाह के ज़ुल्म से भाग कर एक ग़ार में जा छिपे। इन पर नींद ग़ालिब आई, चुनांचे वो सो गए और एक सौ छयानवे साल के बाद बेदार हुए तो मसीही दीन को हर जगह ग़ालिब व मुसल्लत पाया।

आँहज़रत ने अरब और सीरिया के मसीहीयों से अक्सर ये अफ़साना सुना होगा। आपने उस को सच्च ख़्याल करके जिब्राईल के सिर पर थोप दिया और लौह-ए-महफ़ूज़ की तहरीर व कलाम-उल्लाह के नाम से नामज़द कर दिया।

हज़रत मर्यम के बचपन की क़ुरआनी हिकायत भी मसीही असल की है। अनाजील में तो सय्यदना मसीह की वालिदा का बचपन मज़कूर नहीं लेकिन जिन बिद्दती और मुल्हिद नाम के मसीहीयों में इंजील शरीफ़ की सही तालीमात के इव्ज़ में तुहमात और मस्नूई अफ़्सानों का ज़ोर था और ख़ुदा की इबादत के इव्ज़ में मर्यम परस्ती राइज थी उन में मर्यम ताहिरा की बाबत बहुत सी तूल-तवील हिकायात व रिवायत मशहूर थीं। ये ग़ैर-मोअतबर हिकायात अरब के मसीहीयों में आम थीं और आँहज़रत उनसे यक़ीनन बख़ूबी वाक़िफ़ थे। रसूल अरबी इंजील की सही तालीम से बे-ख़बर थे और उन में ये लियाक़त व क़ाबिलियत ना थी कि इन बिद्दती मसीहीयों की ग़लतीयों की इस्लाह करते। लिहाज़ा कुछ ताज्जुब की बात नहीं कि आपने इन शुनीदा अफ़्सानों को क़ुरआन में दर्ज किया और वही आस्मानी के नाम की मुहर उन पर भी लगा दी और कहा कि ये इल्हाम पहली किताबों की ताईद व तस्दिक़ करता है।

सूरह आल-ए-इमरान से मालूम होता है कि मर्यम ज़ाहिरा अपने बचपन ही में बैतुल-मुक़द्दस में लाई गई और मसीह की पैदाइश के वक़्त तक वहीं रही। क़ुरआन बताता है कि उस की वहां की रिहायश के अय्याम के लिए क़ुरआ डाल कर उस का मुरब्बी मुंतख़ब किया गया चुनांचे लिखा है :—

وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يُلْقُوْنَ اَقْلَامَھُمْ اَيُّھُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَ  ۠

और तू उन के पास ना था जब वो अपने क़लम डाल कर दर्याफ़्त करते थे कि मर्यम का मुतकफ़्फ़िल कौन हो I

जिन्होंने इंजील शरीफ़ को पढ़ा है वो सब ख़ूब जानते हैं कि ये हिकायत इल्हामी कलाम में नहीं पाई जाती । लेकिन आँहज़रत के ज़माने के बिद्दती अरबी मसीहीयों की ग़ैर-मोअतबर किताबों में मुफ़स्सिल मुंदर्ज है। ये किताबें परोटीवागलीयुम याक़ूब और क़पती तवारीख़ से कहलाती हैं। पस साफ़ मालूम हो गया कि इस अफ़साना का माख़ज़ किया और कहाँ है। इन बिदअतियों की रिवायत की किताबों में मर्यम के मुरब्बी या शौहर बनने के लिए क़ुरआ डालने का बयान तवालत व तफ़सील के साथ पाया जाता है एक किताब में लिखा है कि जब मर्यम बारह बरस की हुई तो उस की आइन्दा ज़िंदगी की बाबत फ़ैसला करने के लिए काहिनों ने एक जलसा किया। इस वक़्त ख़ुदा का एक फ़रिश्ता ज़करीया के पास आ खड़ा हुआ और कहने लगा :—

"ए ज़करीया जा और क़ौम के तमाम बे ज़नों को जमा कर। वोह सब एक एक असा लाए और जिसको ख़ुदावंद ख़ुदा कोई निशान दिखाएगा वही मर्यम का शौहर बनेगा।

मर्यम ताहिरा के मुताल्लिक़ एक और हिकायत जो आँहज़रत ने ग़ैर-मोअतबर अनाजील या अपने जान पहचान मसीहीयों से सीखी वो खजूर के दरख़्त की हिकायत है जोकि सूरह मर्यम की 22 वीं आयत से 25 वीं आयत यूं मर्क़ूम है:—

فَاَجَاۗءَهَا الْمَخَاضُ اِلٰى جِذْعِ النَّخْلَةِ  ۚ قَالَتْ يٰلَيْتَنِيْ مِتُّ قَبْلَ ھٰذَا وَكُنْتُ نَسْيًا مَّنْسِيًّا  23 فَنَادٰىهَا مِنْ تَحْتِهَآ اَلَّا تَحْزَنِيْ قَدْ جَعَلَ رَبُّكِ تَحْتَكِ سَرِيًّا 24 وَهُزِّيْٓ اِلَيْكِ بِجِذْعِ النَّخْلَةِ تُسٰقِطْ عَلَيْكِ رُطَبًا جَنِيًّا 25

फिर पेट में लिया उसको और किनारे हुए उसको लेकर एक दूर के मकान में। पस ले आया उस को दरदज़ा खजूर के दरख़्त के नीचे। बोली काश के में इससे पेशतर मर जाती और फ़रामोश हो गई होती। आवाज़ दी उसको नीचे से कि ग़म ना खा। तेरे रब ने तेरे नीचे एक चशमा बना दिया है। और हिलाले अपनी तरफ़ खजूर की जड़ । इस से तुझ पर पक्की खजूरें गिरेंगी। अब खा और पी और आँख ठंडी रख।

लेकिन अनाजील से साफ़ मालूम होता है कि मसीह की विलादत बैतूल-लहम की एक सराय के अन्दर या क़रीब हुई थी। हज़रत मुहम्मद की इस हिकायत मुंदरजा क़ुरआन का माख़ज़ भी दर्याफ़्त हो सकता है क्योंकि बाअज़ बिद्दती मसीहीयों की कुतुब की रिवायत में मसीह की पैदाइश के बाब में बहुत सी ग़ैर-मोअतबर हिकायात मर्क़ूम व मश्हूर हैं। ये हिकायात अरब के मसीहीयों में बहुत राइज थीं और आँहज़रत के कानों तक ज़रूर पहुंच होंगी। आपने इन को बे-गुमान सही इन्जीली तहरीर तसव्वुर किया। एक ग़ैर-मोअतबर किताब मिसमाई बह तवारीख़ बूद-ओ-बाशे मर्यम व तफुलियत-ए-मसीह में खजूर के दरख़्त की हिकायत मुफ़स्सिल मिलती है। इस ग़ैर-मोअतबर हिकायत और क़ुरआनी बयान में बाअज़ ख़फ़ीफ़ इख़्तिलाफ़ात पाए जाते हैं लेकिन बख़ूबी मुक़ाबला करने और सोचने से ये राज़ मुनकशिफ़ हो जाता है कि क़ुरआनी बयान इसी मस्नूई हिकायत की नक़ल है जो आँहज़रत ने वही आस्मानी के नाम से पेश किया। इस मस्नूई हिकायत और क़ुरआनी क़िस्सा की मुशाबहत की तशरीह की ग़रज़ से हम मस्नूई हिकायत से कुछ जे़ल में नक़ल करते हैं। यीसू तुफ़ैल शिर-ख्वार के साथ मर्यम और यूसुफ़ के भाग जाने के बयान के बाद यूं लिखा है :—

और यूसुफ़ जल्दी करके मर्यम को खजूर के दरख़्त पास लाया और सवारी के जानवर से नीचे उतारा । जब मर्यम ने ज़मीन पर बैठ कर दरख़्त की तरफ़ ऊपर नज़र की तो उसे फल से लदा हुआ पाया और यूसुफ़ से कहा मैं चाहती हूँ कि अगर किसी तरह से मुम्किन हो तो इस खजूर का फल तोड़ें....इस पर शीरख़वार यीसू ने जो निहायत ख़ुश व खुर्रम अपनी माँ मर्यम की गोद में था खजूर के दरख़्त से कहा ए दरख़्त अपनी शाख़ों को झुका दे और अपने फल से मेरी माँ को आसूदा कर फ़ील-फ़ौर दरख़्त की चोटी झुक कर मर्यम के पांव से आ लगी और उन्होंने इस का फल तोड़ा और आसूदा हुए,.....और वह खजूर का दरख़्त फिर सीधा खड़ा हो गया और इस की जड़ों से निहायती ठंडे और अज़हद शीरीं पानी का चशमा जारी हो गया।

क़ुरआन को पढ़ने वाले सब जानते हैं कि इस में सय्यदना मसीह का बार-बार ज़िक्र आता है और इस की विलादत की निसबत बहुत सी हिकायात मुंदर्ज हैं जिनमें से बाअज़ का वजूद इंजील शरीफ़ में बिल्कुल नहीं मिलता। ये हिकायात भी खजूर के दरख़्त की हिकायत की तरह ग़ैर-मोअतबर रिवायत वग़ैरा की किताबों में मिलती हैं और उन से निहायत सफ़ाई व सराहत से मालूम होता है कि हज़रत मुहम्मद ने ये अफ़्साने कहाँ से लिए जिनको हसब-ए-ख़्वाहिश नई सूरत में दाख़िल क़ुरआन कर लिया।

इन अफ़्सानों में से एक में मसीह के बचपन के मोजज़ात का ज़िक्र है। चुनांचे सूरह अलमाइदा की एक सौं नों और दसवीं आयात में यूं  मुंदर्ज हैं :—

إِذْ قَالَ اللَّهُ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ اذْكُرْ نِعْمَتِي عَلَيْكَ وَعَلَى وَالِدَتِكَ إِذْ أَيَّدتُّكَ بِرُوحِ الْقُدُسِ تُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلاً وَإِذْ عَلَّمْتُكَ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرَاةَ وَالإِنجِيلَ وَإِذْ تَخْلُقُ مِنَ الطِّينِ كَهَيْئَةِ الطَّيْرِ بِإِذْنِي فَتَنفُخُ فِيهَا فَتَكُونُ طَيْرًا بِإِذْنِي

 तर्जुमा: जब कहेगा अल्लाह ए ईसा मर्यम के बेटे याद कर मेरा एहसान अपने ऊपर और अपनी माँ पर। जब मदद दी मैंने तुझको रूह पाक से तू कलाम करता था लोगों से गोद में और बड़ी उम्र में और जब सिखाई मैंने तुझको किताब और पक्की बातें और तौरेत और इंजील और जब तू बनाता था मिट्टी से जानवर की सूरत मेरे हुक्म से फिर दम फूँकता था इस में तो हो जाता था जानवर मेरे हुक्म से"

इस अफ़्साने का अनाजील में मुतलक़ ज़िक्र नहीं बल्कि बख़िलाफ़ उस के साफ़ यूं लिखा है कि सय्यदना ईसा का पहला मोअजिज़ा आम ख़िदमत के शुरू के बाद तीस बरस की उम्र में हुआ। चुनांचे यूहन्ना की इंजील के दूसरे बाब की ग्याहरवीं आयत में मर्क़ूम है :—

ये पहला मोअजिज़ा यीसू ने क़ाना-ए-गलील में दिखाकर अपना जलाल ज़ाहिर किया।

तामस इस्राइली ने जो मसीह के बचपन की इंजील लिखी और दीगर ऐसी ही चंद ग़ैर-मोअतबर झूटी तसानीफ़ से बख़ूबी मालूम होता है कि ये अफ़साना आँहज़रत के ज़माने के बिद्दती मसीहीयों में मशहूर था और आपने बसा-औक़ात उनसे सुना और सच्ची इंजील का जुज़ ख़्याल करके क़ुरआन में दर्ज कर लिया क्योंकि इन अफ़्सानों का क़ुरआनी क़िस्सों से मुशाबहत रखना इसी नतीजा पर पहुँचाता है। मुंदरजा-बाला क़ुरआनी अफ़्साने को याद रखिए और फिर तामस इस्राइली की झूटी इंजील को जिसे किसी मसीही फ़िर्क़े ने कभी इल्हामी नहीं माना पढ़िए। इस में लिखा है :—

यीसू जब पाँच साल का हुआ तो एक मर्तबा एक सड़क पर पानी के एक गंदे नाले के किनारे खेल रहा था। इस नाले के तमाम पानी को जमा करके सिर्फ एक लफ़्ज़ के फ़रमान से पाक व मसफ़ा कर दिया। फिर कुछ मिट्टी गूँध कर इस से बारह चिड़ियां बनाई और ताली बजाकर बुलंद आवाज़ से कहा उड़ जाओ। और चिड़ियां चहचहाती हुई परवाज़ कर गईं।

इसी झूटी इंजील में ये भी लिखा है कि सय्यदना मसीह ने गहवारे ही से अपनी माँ से कलाम किया और उसे अपनी नबुव्वत व रिसालत की ख़बर दी I

हज़रत मुहम्मद ने अपने वक़्त के बिद्दती और मुल्हिद मसीहीयों से बहुत से अफ़्साने सीखे और उन के अक़ाइद से आगाही हासिल की और वही अक़ाइद व हिकायात आपने क़ुरआन में दर्ज करके उन पर वही आस्मानी का नाम चस्पाँ कर दिया। इस के सबूत में और बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन चूँकि इस किताबचा में तवालत की गुंजाइश नहीं इस लिए हम सिर्फ एक ही और मिसाल पेश करेंगे। जो मज़ीद तहक़ीक़ात का मुश्ताक़ हो उसे चाहिए कि टसडल, सील और गाईगर साहिब की तसानीफ़ का मुताअला करे।

क़ुरआन में "मीज़ान" का बार-बार ज़िक्र आता है । लिखा है कि क़ियामत के दिन लोगों के आमाल तुलेंगे। जिनके आमाल का वज़न मीज़ान में ज़्यादा साबित होगा वो बहिश्त में दाख़िल होंगे और जिन के बदआमाल ज़्यादा निकलेंगे वो दोज़ख़ में जाएंगे । चुनांचे सूरह अलआराफ़ की सातवीं और आठवीं आयात में मर्क़ूम है :—

وَالْوَزْنُ يَوْمَئِذٍ الْحَقُّ فَمَن ثَقُلَتْ مَوَازِينُهُ فَأُولَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ وَمَنْ خَفَّتْ مَوَازِينُهُ فَأُولَئِكَ الَّذِينَ خَسِرُواْ أَنفُسَهُم بِمَا كَانُواْ بِآيَاتِنَا يَظْلِمُونَ

तर्जुमा: और तोल उस दिन ठीक है। सो जिनकी तौलें भारी पढ़ें वही हैं जिनका भला हुआ। और जिन की तौलें हल्की पढ़ें वही हैं जो हारे अपनी जान इस लिए कि हमारी आयतों से ज़बरदस्ती करते थे।

क़ुरआन का ये अक़ीदा "इब्राहिम की जाली इंजील" से लिया गया है जो कि ग़ालिबन दूसरी या तीसरी मसीही सदी में लिखी गई थी । इब्राहिम के आस्मान पर जाने की वहमी हिकायत मुंदर्ज है। लिखा है कि :—

इस ने वहां और अजाइबात के इलावा तख़्त अदालत को भी देखा । इस पर एक अजीब आदमी बैठा था। इस के आगे एक मेज़ थी जो बिल्कुल शफ़्फ़ाफ़ थी और उस की साख़त ख़ालिस सोने और बारीक कपड़े से थी। इस पर एक किताब रखी थी जिसकी मोटाई छः हाथ और चौड़ाई दस हाथ थी। इस की दाएं बाएं जानिब दो फ़रिश्ते काग़ज़ और क़लम दवात लिए खड़े थे। और मेज़ के सामने एक निहायत नूरानी फ़रिश्ता तराज़ू लिए बैठा था और वह अजीब आदमी जो तख़्त नशीन था ख़ुद रूहों का इन्साफ़ कर रहा था लेकिन दाएं बाएं के दोनो फ़रिश्ते लिखते जाते थे। दाएं जानिब का फ़रिश्ता नेक-आमाल लिखता था और बाएं तरफ़ का फ़रिश्ता गुनाह दर्ज करता था। और जो मेज़ के सामने तराज़ू लिए बैठा था रूहों को तोल रहा था।

क़ुरआन की और बहुत सी तालीमात मसलन मसीह की मौत की नफ़ी और मसीही तस्लीस को बाप बेटा और मर्यम तीन जुदा-जुदा ख़ुदा क़रार देना हज़रत मुहम्मद ने इन नास्तिक और बिद्दती मसीहीयों से सीखी थीं जो आप के ज़माना में मुल्क अरब में बकसरत आबाद थे अब इस अम्र के सबूत में बहुत कुछ कहा जा चुका है कि क़ुरआन के बहुत से अक़ाइद व क़सस ग़ैर-मोअतबर और जाली मसीही रिवायत की किताबों से लिए गए हैं और क़ुरआन का ये दावा कि मैं कुतुब-ए-पेशीन यानी  तौरात व ज़बूर और इंजील का मुसद्दिक़ हूँ बिल्कुल बे-बुनियाद बातिल है।

बाब चहारुम

क़ुरआन के वो हिस्से जो बरवक़्त हाजत वज़ाअ किए गए

हमें यक़ीन-ए-कामिल है कि अगर निहायत ग़ौरो-फ़िक्र और बे-तास्सुबी से क़ुरआन का मुताअला किया जाये तो इस अम्र में किसी किस्म के शक व शुबह की गुंजाइश नहीं रहती कि क़ुरआन के बहुत से हिस्से हज़रत मुहम्मद ने हसब-ए-ज़रूरत अपनी मतलब-बरारी के लिए वज़ाअ कर लिए थे। ये बड़ा भारी इल्ज़ाम है लेकिन हम उस की हक़ीक़त को अभी साबित करेंगे । इस मुक़ाम पर ये ख़ूब याद रखना चाहिए कि आँहज़रत की अमली ज़िंदगी की तफ़हीम-तामा के लिए अज़बस ज़रूरी है कि क़ुरआन के जिन हिसस से आपके हालात-ए-ज़िंदगी ताल्लुक़ रखते हैं उन के साथ उनका ख़ूब अच्छी तरह से मुक़ाबला किया जाये । इस मुक़ाबला से ये अम्र भी बख़ूबी मुनकशिफ़ हो जाता है कि क़ुरआन ने किस तरह बतदरीज तरक़्क़ी की और वही आस्मानी ने किस ख़ूबी और ख़ुश उसलूबी के साथ मौजूदा हालात ज़माना से नज़ाबक़ खाकर आँहज़रत के अक़्वाल व अफ़आल मतनाक़ज़ा को इज़्न-ए-ईलाही की सनदात व मवाहीर के साथ पेश किया क्योंकि सिर्फ ये एक वसीला था जिससे आँहज़रत की मुतबद्दल हिक्मत-ए-अमली पर हर्फ़ ना आता और ख़ुद बदौलत भी कोली व फ़अली तबाइन व मग़ाइरत के इल्ज़ाम से बरी ठहरते। सिर्फ इसी किस्म के मुताअला के ज़रीया से ये मसाइल और तब्दलात समझ में आ सकते हैं कि ये यरूशलेम की जगह मक्का क्यों क़िब्ला मुक़र्रर किया गया और ला इकराअह फ़ीद्दीन (لا اکراہ فی الدین) (दीन में ज़बरदस्ती नहीं है) की जगह واقتلو ھم حیث ثقفتموھم ‎ और क़तल करो उन को जहां कहीं पाओ क्यों फ़र्मा दिया ? और इलावा-बरीं आँहज़रत के ख़ानगी उमूर के बारे में बहुत से मुतज़ाद व मतनक़ीज़ अहकाम हैं। बड़े बड़े मुसलमान मुफ़स्सिरीन मसलन इब्न हिशाम, तिबरी, यहया और जलाल-उद्दीन वग़ैरा की ये शहादत है कि एक मर्तबा आँहज़रत पर ये बुरी ख़्वाहिश ग़ालिब आई कि ख़ुद ही एक इल्हाम या वही का बयान घड़ कर क़ुरैश को सुना दें और आप ने ऐसा ही किया। चुनांचे यूं मर्क़ूम है :—

एक रोज़ आँहज़रत हरम-ए-काअबा में दाख़िल हुए और सूरह अल-नजम पढ़ कर सुनाने लगे। क़ुरैश की देरीना मुतवातिर मुख़ालिफ़त से आप पस्त-हिम्मत हो गए और आप के दिल में बड़ी ज़बरदस्त ख़्वाहिश पैदा हुई कि किसी तरह से उन लोगों से सुलह हो जावे । ये मुख़ालिफ़ों को दोस्त बनाने की ख़्वाहिश इतनी ज़बरदस्त हुई कि आप मग़्लूब हो गए। चुनांचे जब इस आयत पर पहुंचे । जिसमें लात व उज्जा व मनात तीन बुतों का ज़िक्र है तो आप ने क़ुरैश को ख़ुश करने की ग़रज़ से ये जुमला ज़ाइद पढ़ दिया। ये बुज़ुर्ग देवियाँ हैं जिनसे शफ़ाअत की उम्मीद की जा सकती है, इस से क़ुरैशी बहुत ख़ुश हो गए और यह कहते हुए आपके साथ इबादत करने लगे कि, अब हमने जाना कि सिर्फ ख़ुदा ही है जो मुही व ममीत और ख़ालिक़ व राज़ीक़ है और यह हमारी देवियाँ सिर्फ उस के हुज़ूर में हमारी सिफ़ारिश व शफ़ाअत करती हैं। और जब तूने उन के लिए ये रुत्बा मुक़र्रर कर दिया है तो हम तेरी पैरवी करने पर राज़ी हैं।

लेकिन आँहज़रत ने बहुत जल्द अपनी इस कोताह-अंदेशी की सुलह से पीशमान हो कर अपने वो  अल्फ़ाज़ जो इन बुतों की तारीफ़ में इस्तिमाल किए थे। वापिस ले लिए और उन के इव्ज़ में जे़ल की इबारत जैसी अब मौजूदा क़ुरआन में पाई जाती है पढ़ सुनाई :—

أَلَكُمُ الذَّكَرُ وَلَهُ الأُنثَى تِلْكَ إِذًا قِسْمَةٌ ضِيزَى إِنْ هِيَ إِلاَّ أَسْمَاء سَمَّيْتُمُوهَا أَنتُمْ وَآبَاؤُكُم

सूरह अल-नजम 21 से 23 वीं आयत तक :—

क्या तुम्हारे बेटे और उस के लिए बेटियां? ये तो बहुत बेढंगी तक़्सीम है। ये सब नाम हैं जो तुम्हारे बाप दादों ने रख लिए हैं I

फिर अपनी इस ग़लती पर पर्दा डालने के लिए आपने एक और इल्हाम घड़ा जिसकी रु से गोया खुदा आपसे कहता है कि :—

ए मुहम्मद ख़ातिरजमा रख तेरा हाल अच्छा है। तुझसे पहले नबी भी इसी तरह आज़माऐ गए। शैतान ने इन को भी ऐसी तर्ग़ीबें दें। इस तमाम ग़लती का बानी शैतान है। चुनांचे सूरह अल-हज्ज में यूं मर्क़ूम है :—

وَمَا أَرْسَلْنَا مِن قَبْلِكَ مِن رَّسُولٍ وَلا نَبِيٍّ إِلاَّ إِذَا تَمَنَّى أَلْقَى الشَّيْطَانُ فِي أُمْنِيَّتِهِ فَيَنسَخُ اللَّهُ مَا يُلْقِي الشَّيْطَانُ

और जो रसूल या नबी हमने तुझसे पहले भेजा। जब ख़्याल बाँधने लगा शैतान ने कुछ मिला दिया उस के ख़्याल में। पस अल्लाह मंसूख़ करता है जो कुछ शैतान ने मिला दिया I

ये मुंदरजा-बाला वाक़िया ऐसा है और इस पर ऐसे शवाहिद मौजूद हैं कि इस से इन्कार नामुम्किन है। जब आँहज़रत इब्तिदा ही में ऐसी आरज़ू के सामने मग़्लूब हो गए और हसब-ए-मर्ज़ी और हसब-ए-मौक़ा वही आस्मानी घड़ लिया तो बाद में जब दुनियावी शानो-शौकत का दरिया मोजज़िन था और ऐसी आरज़ूओं के ग़लबा का ज़्यादा मौक़ा था क्या ताज्जुब कि आपने इसी तरह इफ़्तिरा व इख़तराअ से बार-बार काम लिया हो। मज़कूरा-बाला वाक़िये का बयान हम मुआलिम से नक़ल करते हैं :—

قال ابن عباس ومحمد ابن کعب القرظی وغیر ھمامن المفسرین لمارا ی رسول اللہ تولی قومہ عنہ ومشق علیہ مارای من مباحد تھمہ عما جاء ھم بہ من اللہ تمنی فی نفسہ ان یاتیہ عن اللہ مایقارب بینہ وبین قومہ یحرصہ علی ایمانھمہ فکان یوم فی مجلس قریش فانزل اللہ تعالیٰ سورہ النجم فقرا ھار سول اللہ وحتی بلغ قولہ افراتیم اللات والعزی ومناتہ الثالثتہ الاخری القیٰ الشیطان علی لسانہ بما کان یحدث بہ نفسہ ویتمنا ہ تلک الغرانیق العلیٰ  وان شفا عتھم لترتجی فلما سمعت  قریش ذلک فرحوبہ

इब्न अब्बास और मुहम्मद इब्न काअब अलक़रज़ी वग़ैरा मुफ़स्सिरीन ने बयान किया है कि जब रसूलअल्लाह ने देखा कि इस की क़ौम (क़ुरैश) इस से बर्गशता होती और मुख़ालिफ़त करती है और क़ुरआन को जो ख़ुदा की तरफ़ से आया है रद्द करती है तो उस के दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि ख़ुदा की तरफ़ से कोई ऐसे  अल्फ़ाज़ नाज़िल हों जिनके वसीले से इस की क़ौम के लोग इस से सुलह कर लें और उस की ये ख़्वाहिश बढ़ती गई कि वोह ईमान लावें। और एक दिन ऐसा हुआ कि वो क़ुरैश की मजलिस में था और इसी वक़्त ख़ुदा ने सूरह अल-नजम नाज़िल फ़रमाई । और रसूल ने इस को पढ़ा और जब इन  अल्फ़ाज़ पर पहुंचा :—

और क्या तुम देखते हो लात व उज्जा और मनात तो शैतान ने इस की दिली-ख़्वाहिश उस के लबों पर रख दी ये बुज़ुर्ग देवियाँ हैं और यक़ीनन उन से शफ़ाअत की उम्मीद की जा सकती हैI अहले क़ुरैश ये सुनकर बहुत ख़ुश हो गए।

यही हिकायत मुवाहिब अललदीना में यूं मुंदर्ज है :—

قرا رسول اللہ صلعمہ بمکتہ والنجم فلما بلغ افرایتم الات والغریٰ ومنات الثالثتہ  الاخری القی الشیطان علی لسانہ تلک الغرانیق العلیٰ وان شاعھتم لترتجی فقال المشرکون ماذکر الھتنا بخیر قبل الیوم فسجد وسجد وافنزلت ھذہ الایہ وما ارسلنا من قبلک من رسول ولا نبی الاذاتمنی القیٰ الشیطان فی امنیتہ

रसूलअल्लाह सलअम मक्का में सूरह अल-नजम पढ़ रहे थे और जब पहुंचे “क्या देखते हो तुम लात व उज्जा और मनात तीसरे को” तो शैतान ने ये  अल्फ़ाज़ उन के लबों पर रख दीए कि "ये बुज़ुर्ग देवियाँ हैं और उन से शफ़ाअत की उम्मीद की जा सकती है।“ और बुत परस्तों ने कहा “आज उसने हमारी देवियों के हक़ में ख़ूब कहा है।“ पस उसने सज्दा किया और उन्होंने भी सज्दा किया। फिर यह आयत नाज़िल हुई "हमने कोई रसूल या-नबी ऐसा नहीं भेजा जिसके पढ़ने में शैतान ने कोई ग़लती ना मिला दी हो।“

मुंदरजा-बाला ग़लती का इस कदर जल्दी एतराफ़ करके इस से तौबा करना आँहज़रत के हक़ में बहुत अच्छा है और बाद में आपने हमेशा हर सूरतों में बुत-परस्ती की तर्दीद की लेकिन इस से आपको बहुत ही कम फ़ायदा पहुंचा क्योंकि हम देखते हैं कि फिर भी आप अपनी मतलब-बरारी के लिए बेताम्मुल अपने अक़्वाल को बदलते रहे। चुनांचे जब आँहज़रत मदीना में हिज्रत फ़र्मा हुए तो बिल्कुल बे-यार व ग़मख़वार और बेकसी की हालत में थे। इन अय्याम में मदीना में बहुत से बाक़दरत यहूदी आबाद थे। आपने उन से दोस्ती व रसुख़ की ज़रूरत को फ़ौरन महसूस किया और इस से ग़रज़ से यरूशलेम को अपना क़िब्ला मुक़र्रर किया और मुद्दत मदीद तक इस शहर की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ते रहे लेकिन आख़िर-ए-कार जब यहूदीयों को अपना तरफ़दार बनाने में किसी तरह से कामयाबी नसीब ना हुई और आप की जमईयत बढ़ गई तो आप ने क़ौम क़ुरैश को हासिल करने की एक मर्तबा फिर कोशिश की और इस मक़सद के लिए वही आस्मानी का एक और पैग़ाम पेश किया जिसकी रु से फिर काअबा ही क़िब्ला मुक़र्रर किया गया । चुनांचे सूरह अलबक़र में यूं मुंदर्ज है :—

وَمَا جَعَلْنَا الْقِبْلَةَ الَّتِىْ كُنْتَ عَلَيْهَآ اِلَّا لِنَعْلَمَ مَنْ يَّتَّبِـــعُ الرَّسُوْلَ مِمَّنْ يَّنْقَلِبُ عَلٰي عَقِبَيْهِ ۭ وَاِنْ كَانَتْ لَكَبِيْرَةً اِلَّا عَلَي الَّذِيْنَ ھَدَى اللّٰهُ ۭ وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِـيُضِيْعَ اِيْمَانَكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ بِالنَّاسِ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ    ١٤٣ قَدْ نَرٰى تَـقَلُّبَ وَجْهِكَ فِي السَّمَاۗءِ ۚ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَةً تَرْضٰىھَا ۠فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭوَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَهٗ

और वह क़िब्ला जिस पर तू था हमने इस लिए ठहराया था कि मालूम करें कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उल्टे पांव फिर जाता है और यह बात मुश्किल थी सब पर सिवाए उनके जिनको अल्लाह ने हिदायत दी और अल्लाह ऐसा नहीं कि तुम्हारा यक़ीन लाना ज़ाए कर दे। अलबत्ता अल्लाह लोगों पर शफ़ीक़ व महरबान है । हम देखते हैं कि तेरे मुँह का फिरना आस्मान की तरफ़ सो अलबत्ता हम फेरेंगे तुझको जिस क़िब्ला की तरफ़ तू राज़ी है। अब फेर ले अपना मुँह मस्जिद-उल-हराम की तरफ़ और जिस जगह तुम हो उसी की तरफ़ अपना मुँह फेरा करो I

अब्दुल क़ादिर का बयान है कि आँहज़रत फिर मक्का को क़िब्ला बनाना चाहते थे। चुनांचे वो लिखता है "चाहते थे कि काअबा की तरफ़ नमाज़ पढ़ो" । ऐसी हालत में कुछ ताज्जुब नहीं कि आँहज़रत ने अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ तब्दीली कर ली और फिर उस तब्दीली की ताईद व तस्दीक़ में वही आस्मानी पेश कर दिया ।

आँहज़रत ने अपनी मदनी रिहाईश के अय्याम में एक जाबिराना हुक्म यहूदी रोज़ों के बारे में दिया था लेकिन बाद में क़िब्ला की मानिंद ये भी तब्दील हो गया। मौजूदा हाल की हाजात को देख कर आप हसब-ए-ख़्वाहिश अपनी मतलब-बरारी के लिए क़वानीन वज़ाअ कर लेते थे और फिर आप ही उन को मंसूख़ भी कर दिया करते थे । लेकिन तरफ़ा ये है कि इस किस्म की तमाम कार्यवाईयों पर वही आस्मानी की मुहर होती थी। काज़िम लिखता है :—

راوی ان رسول اللہ لما قدم المدینہ وجد یھودیا یصومون عاشورا فسا لھمہ عن ذلک فقا الوانہ الذی غرق فیہ فرعون وقومہ ونجی موسیٰ ومن معہ فقال انا الحق موسیٰ منھمہ فا مرصبوم عاشور

रिवायत की गई है कि जब आँहज़रत मदीना पहुंचे और देखा कि यहूदी आशूरा का रोज़ा रखते हैं तो उन से इस का सबब दर्याफ़्त किया। उन्हों ने जवाब दिया कि इस दिन पर फ़िरऔन अपनी क़ौम समेत ग़र्क़ हुआ था और मूसा को उस के हम-राहियों समेत नजात मिली थी। इस पर आँहज़रत ने फ़रमाया कि मेरा मूसा के साथ उन से ज़्यादा क़रीबी रिश्ता है और आशूरा के रोज़े का हुक्म सादीर फ़रमाया I

ये रोज़ा जो अब भी दसवीं मुहर्रम-उल-हराम को आला दर्जा का नेक काम ख़्याल करके रखा जाता है इस अम्र का निहायत साफ़ और सरीह सबूत है कि आँहज़रत दीगर मज़ाहिब की रसूम को इख़्तियार कर लेते थे और इसी हक़ीक़त से आपका ये दावा भी बिल्कुल बातिल ठहरता है कि ये सब कुछ बराह-ए-रास्त वही आस्मानी की मार्फ़त आपको पहुंचता था।

एक और बड़ी मशहूर हिकायत है जो क़ुरआन को इन्सानी तस्नीफ़ साबित करती है और ये हिकायत बहुत से बड़े-बड़े मशहूर मुसलमान मुफ़स्सिरीन के बयान के मुताबिक़ आँहज़रत के अपने मुतबन्ना बेटे जै़द की मतलूक़ा बीवी ज़ैनब से शादी रचाने का क़िस्सा है। जै़द आँहज़रत का बेटा मशहूर था और इस ने एक निहायत हसीन औरत ज़ैनब नामी से निकाह किया था। एक रोज़ आँहज़रत जै़द के घर तशरीफ़ फ़र्मा हुए और ज़ैनब को ऐसे लिबास में पाया जिससे उस का हुस्न व जमाल महरनीम रोज़ की तरह बे-हिजाब चमक रहा था। आँहज़रत देखते ही घायल हो गए और फ़रमाया:—

سبحان اللہ مقلب القلوب

"सुब्हान-अल्लाह मुक़ल्लिब-उल-कुलूब" (ख़ुदा-ए-पाक दिलों का फेरने वाला है) ज़ैनब ने ये  अल्फ़ाज़ सुन लिए और फ़ौरन अपने शौहर को इस माजरे से आगाह किया। जै़द ने ज़ैनब को तलाक़ दे दी और आँहज़रत से कहा कि आप इस से निकाह कर लें लेकिन आपने अपने मुतबन्ना बेटे की मतलूक़ा बीवी से निकाह करने में कुछ पसोपेश किया और फिर लोगों की लॉन तान से बचने के लिए आपने वही आस्मानी का फ़तवा सुना दिया और फ़ौरन ज़ैनब से निकाह कर लिया 5 । इस इश्क़ ख़ाना-ख़राब ने तेरी कैसी मिट्टी ख़राब की। चुनांचे वही आस्मानी का ये अजीबो-गरीब फ़तवा सूरह अल-अहज़ाब की 37 वीं और 38 वीं आयात में यूं मुंदर्ज है :—

فَلَمَّا قَضَى زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًا زَوَّجْنَاكَهَا لِكَيْ لا يَكُونَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ حَرَجٌ فِي أَزْوَاجِ أَدْعِيَائِهِمْ

फिर जब जै़द तमाम कर चुका इस औरत से अपनी ग़रज़ हमने वो तेरे निकाह में दी ता ना रहे मुसलमानों को गुनाह निकाह कर लेना अपने ले-पालकों की जौरूओं से I

क्या कोई ज़ी-होश और साहिब फ़हम मुसलमान ये ईमान रख सकता है कि मुंदरजा-बाला दो आयतें जो हम ने ज़ैनब के क़िस्से के बारे में क़ुरआन से नकल की हैं कलाम-ए-ख़ुदा हैं? क्या ये ख़ुद ही अयाँ नहीं कि ये दोनों आयतें बजाय वही आस्मानी होने के ख़ुद हज़रत मुहम्मद की घड़नत हैं जिसके आँहज़रत अपने आशिक़ाना जुर्म को छिपाने की ग़रज़ से मुर्तक़िब हुए ।

वही आस्मानी का एक और फ़तवा जो हज़रत मुहम्मद ने अपने ख़ानगी मुआमलात के तब्दीलात की ताईद व तस्दीक़ के बाब में पेश किया सूरह अल-तहरीम की पहली दो आयतों में पाया जाता है। इस फ़तवे की रु से आप को अपनी क़समें तोड़ने की इजाज़त दी गई है। मुफ़स्सिरीन इस क़िस्से को यूं बयान करते हैं कि :—

आँहज़रत अपनी एक लौंडी मर्यम नामी की बहुत क़दर करते थे और आप इस पर ऐसे फ़रेफ़्ता वलदादा हुए कि आपकी दीगर बहुत सी ज़ोजात हसद व रश्क़ से भर गईं और निहायत सख़्ती से सरज़निश करने लगीं इस पर आँहज़रत ने क़समिया वाअदा किया कि अब से मर्यम से कुछ सरोकार नहीं रखूंगा लेकिन कहना आसान और करना हमेशा मुश्किल है। आपने अपने नफ़सानी ग़लबात का मग़्लूब हो कर फिर रुजू कर लिया और सब क़समें काफ़ूर हो गईं और आप की इस कार्रवाई के जवाज़ पर आपका फ़रमांबर्दार वही आस्मानी फ़ौरन ये पैग़ाम लाया :—

يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ لِمَ تُحَرِّمُ مَآ اَحَلَّ اللّٰهُ لَكَ ۚ تَبْتَغِيْ مَرْضَاتَ اَزْوَاجِكَ   ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْ قَدْ فَرَضَ اللّٰهُ لَكُمْ تَحِلَّةَ اَيْمَانِكُمْ

"ए नबी तो क्यों हराम करता है जो हलाल किया अल्लाह ने तुझ पर ? तो अपनी औरतों की रजामंदी चाहता है और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है ठहरा दिया अल्लाह ने तुमको उतार डालना तुम्हारी किस्मों का I

इन आयात की मज़ीद तफ़्सीर व तहक़ीक़ के बाब में हम कुछ नहीं कहेंगे । ज़ी-होश मुसलमानों से दरख़्वास्त है कि इन आयतों पर ख़ूब सोचें । क्या क़ुरआन के ये  अल्फ़ाज़ अज़ल ही से अर्श ईलाही के पास लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम थे? इस क़िस्सा के मुताल्लिक़ मुस्लिम की एक हदीस काबिल-ए-ग़ौर है। इस से आँहज़रत के ख़ानगी मुआमलात व क़वानीन पर कुछ रोशनी पड़ती है। चुनांचे मिश्कात अल-मसाबिह बाब अल-अशारात-उन्निसा में यूं मर्क़ूम है :—

عائشہ قالت کنت اغار علی اللتی ووھبن  انفسھمن لرسول اللہ صلعمہ ۔ فقلت اتھب المراتہ نفسہا فلما انزل اللہ تعالیٰ ترجی 6 من تشاء منھمن وتووی الیک من تشاء من ابتغیت ممن عزلت فلا جناح علیک قلت مااری ربک الایسارع فی ھوالک متفق علیہ

आईशा ने कहा मैं इन औरतों की बाबत सोच रही थी जिन्हों ने अपने तेईं रसूल को दे दिया। पस बेटे ने कहा ये क्या बात है कि औरत अपने तेईं रसूल को दे दे और ख़ुदा ये पैग़ाम भेजे कि अपनी मौजूदा बीवीयों में से तू जिसे चाहे तर्क कर और तर्क कर्दा शूदा में से जिसे चाहे फिर अपनी हमख़वाबा बना ले इस में तेरे लिए कोई गुनाह नहीं है। मैंने कहा में तो सिवाए उसके और कुछ नहीं देखती कि तेरा ख़ुदा तेरी ख़्वाहिशें पूरी करने में जल्दी करता है।

जिहाद के बाब में भी क़ुरआन में बहुत से मुतज़ाद वि मतनाक़ीज़ अहकाम पाए जाते हैं जिनसे साबित होता है कि आँहज़रत हमेशा हसब-ए-मौक़ा व  ज़रूरत जैसा इल्हाम चाहते थे घड़ लेते थे। अगर क़ुरआन की तवारीख़ी हक़ीक़तों को मद्द-ए-नज़र रखकर उस का मुताअला किया जाये तो ख़ूब अयाँ हो जाएगा कि इब्तदाए इस्लाम में जब आप बेकस व लाचार और मज़लूम थे तो आप की तालीम अपने मोमिनीन को यह थी कि जो मुसलमान नहीं हैं इन से नरमी और बरुदबारी के साथ बरताव किया जाये। चुनांचे सूरह बक़रा में मर्क़ूम है :—

لَآ اِكْرَاهَ فِي الدِّيْنِ

तर्जुमा: दीन में कोई ज़बरदस्ती नहीं है

लेकिन जब आँहज़रत के दिन फिरे और बहुत से जंगजू और लूट मार के मुश्ताक़ अरब आपके झंडे तले जमा हो गए तो वही आस्मानी में भी अजीब तबदीली वाक़ेअ हुई और जिब्राईल ने ब-आवाज़-ए-बुलंद पुकार कह दिया 7:—

قٰتِلُوْھُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ لِلّٰهِ

तर्जुमा" काफ़िरों को क़तल करो हत्ता कि फ़ित्ना बाक़ी ना रहे और दीन ख़ुदा क़ायम हो जावे I

फिर जो सूरह सबसे पीछे नाज़िल हुई उस के  अल्फ़ाज़ अज़बस सख़्ती और तशद्दुद से पुर हैं और किसी तरह से सुलह व नेक सुलूक की गुंजाइश बाक़ी नहीं रही। चुनांचे यूं मर्क़ूम है 8:—

يٰٓاَيُّھَا النَّبِيُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَالْمُنٰفِقِيْنَ وَاغْلُظْ عَلَيْهِمْ ۭ وَمَاْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ

तर्जुमा: ए नबी तू काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों के साथ जिहाद कर और उन पर सख़्ती कर क्योंकि उनका मस्कन जहन्नुम है I

फिर इस सूरह की पांचवीं आयत भी काबिल-ए-ग़ौर है :—

فَاقْتُلُوا الْمُشْرِكِيْنَ حَيْثُ وَجَدْتُّمُــوْهُمْ وَخُذُوْهُمْ وَاحْصُرُوْهُمْ وَاقْعُدُوْا لَهُمْ كُلَّ مَرْصَدٍ

तर्जुमा : “मुशरिकों को क़त्ल करो जहां कहीं उन्हें पाओ और उन को पकड़ो और क़ैद करो और तमाम घात की जगहों में इन की घात में बैठो ।“

हज़रत मुहम्मद ने बसा-औक़ात क़ुरआन के तर्ज़ बयान और फ़साहत ओ बलाग़त को मिनजानिब अल्लाह होने की दलील और सबूत के तौर पर पेश किया लेकिन जब कभी कोई बरजस्ता फ़िक़रा आँहज़रत के कान तक पहुंचता था तो फ़ौरन उसे दाख़िल क़ुरआन कर लेते थे ताकि क़ुरआनी फ़साहत की क़द्रो-क़ीमत बढ़ जाये। इस किस्म के इंदिराज और सिरकों की बहुत सी मिसालें अरबी इल्म-ए-अदब से बहम पहुँचती हैं। चुनांचे बैज़ावी का बयान है कि :—

عبداللہ بن سعد ابن ابی سرج کان کاتب الرسول اللہ فلما نزلت ولقد خلقنا الانسان من سلالتہ من طین ولما بلغ قولہ ثمہ انشانا خلقنا اخرقال عبداللہ فتبار ک اللہ احسن الخالقین تعجبا من تفصیل خلق الانسان فقال علیہ السلام اکتبھا فکذلک نزلت فشک عبداللہ وقال لئن کان محمد صادقا لقدا وحی الی کما اوحی الیہ ولئن کان کاذبالقدوقلت کماقال

तर्जुमा" अब्दुल्लाह बिन साद बिन अबी सरह आँहज़रत का कातिब था। जब ये अल्फ़ाज़ नाज़िल हुए कि हमने इन्सान को सलाला ख़ाक से पैदा किया और जब ये अल्फ़ाज़ ख़त्म हुए और यह अल्फ़ाज़ आए कि हमने फिर उस को एक और मख़्लूक़ बनाया। इस पर अब्दुल्लाह जोश में आकर बोल उठा कि :—

اللہ احسن الخالقین

अल्लाह अहसन-उल-ख़ालीक़ीन मुबारक हो। इस ने इन्सान को अजीब तौर से पैदा किया है। इस पर आँहज़रत ने फ़रमाया कि ये भी लिख लो क्योंकि ऐसा ही नाज़िल हुआ है लेकिन अब्दुल्लाह ने शक किया और कहा कि अगर मुहम्मद सच्च कहता है तो मुझ पर भी वही का नुज़ूल हुआ है जैसा कि इस पर लेकिन अगर वह झूट बोलता है तो मैं ने वही बात कही है जो उस ने कही ।

बैज़ावी के इस बयान से अज़हर-मिन-श्शम्स है कि हज़रत मुहम्मद को अब्दुल्लाह का ये फ़िक़रा ऐसा पसंद आया कि फ़ौरन क़ुरआन में दर्ज करने का हुक्म दे दिया और फ़रमाया कि ऐसा ही नाज़िल हुआ है। अब्दुल्लाह इस से बहुत ख़ुश हुआ और अक्सर फ़ख़रियाह ये कहा करता था कि ख़ुदा मेरे पास भी वही भेजता है लेकिन आँहज़रत इस से बहुत नाख़ुश हुए और वही आस्मानी की ज़बानी अब्दुल्लाह पर अपने ग़ज़ब का यूं इज़हार किया 9:—

وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَى عَلَى اللَّهِ كَذِبًا أَوْ قَالَ أُوحِيَ إِلَيَّ وَلَمْ يُوحَ إِلَيْهِ شَيْءٌ

तर्जुमा: इस से बढ़कर ज़ालिम कौन है जिसने अल्लाह पर इफ़्तरा बाँधा या कहा कि ख़ुदा ने मेरी तरफ़ वही को भेजा दर-हालीका उस की तरफ़ वही को नहीं भेजा । (सूरह इनाम आयत 93)

ये हिकायत इमाम हुसैन ने भी बयान किया है और इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआन का तर्ज़ बयान या उस की फ़साहत ओ बलाग़त कोई मोजिज़ा नहीं क्योंकि अब्दुल्लाह बिन साद का कलाम भी क़ुरआन का हम-पाया मान कर क़ुरआन में दर्ज किया गया और किसी तरह से वो फ़साहत के लिहाज़ से कम दर्जा का नहीं समझा जाता। इलावा-बरीं जब आँहज़रत ने अपने एक पैरौ के कलाम को सुन कर पसंद फ़रमाया और क़ुरआन में दर्ज क़राने के लिए कह दिया कि वही आस्मानी यूंही है तो कुछ ताज्जुब नहीं बल्कि क़रीन-ए-क़ियास है जो कि हिकायत व अफ़्साने आपने वक़तन-फ़-वक़तन यहूदीयों और ईसाईयों से सुने उन को वही आस्मानी के नाम से दाख़िल क़ुरआन कर लिया।
मशहूर मुसलमान मुफ़स्सिर जलाल उद्दीन-अल-सीवती लिखता है कि आँहज़रत अपने पैरौओं के वो अल्फ़ाज़ व फ़क़रात जो आप को पसंद आते क़ुरआन में दर्ज कर लिया करते थे। चुनांचे इत्तिक़ान में यूं मर्क़ूम है :—

النوع العاشر فیما نزل من القرآن علیٰ لسان بعض  الصحابتہ

दसवीं क़िस्म वो है जिसमें क़ुरआन के वो हिस्से मुंदर्ज हैं जो आँहज़रत के बाअज़ अस्हाब की ज़बान पर नाज़िल हुए ।

एक और हदीस तिर्मिज़ी  ने इब्न उमर की रिवायत से लिखी है कि :—

رسول اللہ صلمہ قال ان اللہ جعل الحق علی لسان عمروقبلہ

रसूल सलअम ने फ़रमाया कि अल्लाह ने यक़ीनन सच्चाई को उमर के दिल व ज़बान पर रखा है।

आँहज़रत इस क़दर उमर के  अल्फ़ाज़ को इस्तिमाल किया करते थे कि आपके अस्हाब कहने लगे

نزل القرآن علے نحو ماقال عمر

क्या क़ुरआन ऐसा ही नाज़िल नहीं हुआ जैसा कि उमर बोलता है।

 मुजाहिद लिखता है :—

کان عمر یری الریٰ نزل بہ القرآن

क़ुरआन उमर की राय के मुताबिक़ नाज़िल होता था I

इन अहादीस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़राअ के बाअज़ हिस्सों का हक़ीक़ी मुसन्निफ़ उमर ही था। कुतुब इस्लाम में इस किस्म के बयानात बकसरत मिलते हैं चुनांचे क़ुरआन में लिखा है 10 :—

مَن كَانَ عَدُوًّا لِّلَّهِ وَمَلائِكَتِهِ وَرُسُلِهِ وَجِبْرِيلَ وَمِيكَالَ فَإِنَّ اللَّهَ عَدُوٌّ لِّلْكَافِرِينَ

तर्जुमा: जो कोई जिब्राईल या मीकाईल का दुश्मन है....यक़ीनन ख़ुदा काफ़िरों का दुश्मन है I

ये अल्फ़ाज़ पहले उमर ने किसी यहूदी से हमकलाम होते वक़्त इस्तिमाल किए थे लेकिन आँहज़रत को ऐसे पसंद आए कि आपने फ़ौरन उन्हें क़ुरआन का एक जुज़ु बयान फ़रमाया। ये तमाम क़िस्सा बैज़ावी ने यूं लिखा है :—

قیل دخل عمر رضی اللہ عنہ مدارس الیھود مافسا لھمہ عن جبریل فقالوذالک عدونا یطلع محمد علیٰ اسرارنا وانہ صاحب کل خسف وعذاب  ومیکائیل صاحب الخصب والسلام فقال ومامنز لتھما عن اللہ تعالیٰ قالو ا جبرایل عن یمینہ ومیکائل عن یسارہ وبینہا عداوتہ فقال لئن کان کماتقولون فیلسا بعدوین ولا نتم اکفرمن الحمیر ومن کان عدو ااحد ھما ھوعدواللہ تعالی ثمہ رجع عمر فوجد جبریل قد سبقتہ بالوحی فقال علیہ السلام لقدووافقک ربک یا عمر

कहते हैं कि एक बार उमर यहूदी मदरसे में गया और उन से जिब्रील की बाबत पूछा। उन्हों ने कहा वो हमारा दुश्मन है। वो हमारे भेद मुहम्मद को बताता है। नीज़ वो ग़ज़ब और अज़ाब का क़ासिद है। बख़िलाफ़ उस के मीकाईल आसूदगी और मुरफ़्फ़ा हाली का फ़रिश्ता है। तब उमर ने पूछा कि ख़ुदा के हुज़ूर में उनका क्या रुत्बा है? यहूदीयों ने जवाब दिया कि जिब्राईल ख़ुदा के दाएं तरफ़ और मीकाईल बाएं तरफ़ रहता है और उन दोनों में दुश्मनी है। लेकिन उम्र ने कहा ख़ुदा ना करे कि तुम्हारा कहना सच्च हो। वो दुश्मन नहीं हैं लेकिन तुम बनी हमीर से भी बढ़ कर काफ़िर हो। जो कोई इन दोनों फ़रिश्तों में से किसी का दुश्मन है वो ख़ुदा का दुश्मन है। तब उमर वहां से लौटा और देखा कि जिब्राइल इस से पहले पैग़ाम ला चूका है और आँहज़रत ने फ़रमाया ए उमर तेरे रब ने तुझसे इत्तिफ़ाक़ किया है।

एक और सही हदीस बुख़ारी से मिलती है जिससे क़ुरआन के और तीन मुक़ामात का पता मिलता है और उनकी असलीयत मालूम होती है। इस हदीस से ये बात बख़ूबी तमाम पाया सबूत को पहुँचती है कि हज़रत मुहम्मद ने ज़्यादा-तर अपने अस्हाब के अक़्वाल क़ुरआन में दर्ज किया है। अगर इन अहादीस का माक़ूल तौर से ठीक मतलब निकाला जाये तो वही आस्मानी की मार्फ़त क़ुरआन के नाज़िल होने का दावा बिल्कुल बातिल ठहरता है और जैसा कि इस किताबचा के शुरू में कहा गया ये बात साबित होती है कि क़ुरआन आँहज़रत की अपनी तबईयत के नताइज का मजमूआ है। बुख़ारी की मज़कूरा बाला हदीस में यूं दर्ज है :—

اخرج البخاری وغیرہ عن النحس قال عمر ابن خطاب ۔۔۔۔۔ ربی فی ثلاث قلت یارسول اللہ لواتخذ فامن مقام ابراہیم مصلی فنزلت  واتخذ وامن مقام ابراہیم مصلے وقلت یا رسول اللہ ان نسائک یدخل علیھن البروالفا جرفان مرتھن بجتجین  فنزلت ایتہ الحجاب  واجتمع علے رسول اللہ نساوہ فی الغیرتہ فقلت لھن عسیٰ ربہ طلقکن ان یبدلہ ازواجاخیر منکن فنزلت کذالک

बुख़ारी और बाअज़ औरों ने लिखा है कि उमर इब्न ख़त्ताब ने कहा तीन बातों में मैंने ख़ुदा से (यानी क़ुरआन से) इत्तिफ़ाक़ किया। अव्वल ये कि मैंने कहा ए रसूल अल्लाह अगर हम मुक़ाम इब्राहिम पर अपनी नमाज़ें अदा किया करते तो बेहतर होता। ख़ुदा ने नाज़िल फ़रमाया कि मुक़ाम इब्राहिम पर नमाज़ अदा करो। दोम मैंने कहा या रसूलअल्लाह अच्छे बुरे हर तरह के लोग आपके घर पर आते हैं अगर आप अपनी ज़ोजात को पर्दे में रखें तो बेहतर होगा। इस पर ख़ुदा ने आयता अल-अहजाब नाज़िल फ़र्मा दी। सोम जब आँहज़रत की ज़ोजात झगड़ती थीं तो मैं ने इन से कहा कि मुम्किन है कि ख़ुदा तुम को तलाक़ दिलवा दे और रसूल को तुम्हारे इव्ज़ मैं तुमसे बेहतर बीवीयां दे और तब बिल्कुल जैसा मैंने कहा था वैसा ही ख़ुदा की तरफ़ से वही पैग़ाम लाया।

चुनांचे ये तीनों आयात जिनका उमर ने ज़िक्र किया सूरह अल-बक़रा और सूरह अल-तहरीम में मौजूद हैं।

क़ुरआन के और बहुत से मुक़ामात पेश किए जा सकते हैं। जो आँहज़रत ने अपने अस्हाब से सुनकर दाख़िल क़ुरआन कर लिए लेकिन इस किताबचा में ज़्यादा की गुंजाइश नहीं। अगर कोई इस अम्र की मज़ीद तहक़ीक़ात का मुश्ताक़ हो तो डाक्टर इमाद-उद्दीन की किताब मुसम्मा बह हिदायत अल-मुस्लिमीन को पढ़हे जिसमें ये अम्र निहायत शरह व बसत के साथ मुफ़स्सिल मुंदर्ज है। ताहम हमने इस अम्र को बख़ूबी ज़ाहिर कर दिया है कि क़ुरआन को वही आस्मानी और जिब्राइली पैग़ामों का मजमूआ मानने का अक़ीदा बिल्कुल बातिल व बे-बुनियाद है। मुम्किन है कि आँहज़रत ने अपने इब्तदाए हाल में और ख़ुसूसन जब आपने तौहीद बारी की हक़ीक़त को महसूस किया ग़लती से ये ख़्याल कर लिया हो कि मेरे ख़्यालात ईलाही इल्हाम पर मबनी हैं लेकिन इस में बिल्कुल कलाम नहीं और क़ुरआन ख़ुद शाहिद है कि बाद में आपने दीदा व दानिस्ता अपने ज़मीर की आँखों पर पट्टी बांध कर बहुत से इल्हाम ख़ुद घड़ लिए और अपनी मतलब-बरारी की ग़रज़ से इस इख़्तिरा व इफ़्तरा का नाम वही आस्मानी रखा।

क़ुरआन की बहुत सी इबारात का वजूद तो उस वक़्त के दीगर मज़ाहिब के इन अक़ाइद व रसूम से है जिन तक आपकी रसाई हुई और आप के आस-पास के बुत परस्तों की बहुत सी बातें भी जिन को आप हसब मक़सद रद्दो-बदल करके कलाम में ला सके दाख़िल क़ुरआन कर ली गईं लेकिन आप बड़े दावे से यही कहे चले जाते हैं कि क़ुरआन का लफ़्ज़ और हर्फ़-हर्फ़ जिब्राईल आस्मान पर से लाया है और क़ुरआन पहली किताबों का मुसद्दिक़ है।

चुनांचे सूरह माइदा की 52 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتَابِ

तर्जुमा: तस्दीक़ करता हूँ पहली किताबों की।

यहूदीयों और ईसाईयों की किताबों की बाबत जैसा ख़ुद हज़रत ने तस्लीम किया सूरह अल-अनआम की एक 155 आयत में मुंदर्ज है :—

تَمَامًا عَلَى الَّذِيَ أَحْسَنَ وَتَفْصِيلاً لِّكُلِّ شَيْءٍ وَهُدًى وَرَحْمَةً

तर्जुमा: तमाम अच्छी बातों के लिहाज़ से कामिल और तफ़सील हर बात की और हिदायत व रहमत

पस जब यहूदीयों और ईसाईयों की किताबों को आँहज़रत भी ऐसा तस्लीम करते हैं तो हम पूछते हैं कि फिर क़ुरआन की ज़रूरत ही किया थी? अगर कोई बाइबल शरीफ़ को ग़ौर से और तास्सुब की ऐनक उतार कर पढ़े तो मालूम हो जाएगा और किसी तरह का शक व शुबह बाक़ी नहीं रहेगा। कि मसीही दीन की तालीमात उस वक़्त तक के लिए हैं जब मसीह दुबारा आकर जहान का इन्साफ़ करेगा। इंजील की मुनादी का तमाम अक़्वाम तक पहुंचना ज़रूर है और मसीह की बादशाहत वो बादशाहत है जिसका कभी ख़ात्मा नहीं होगा। इंजील शरीफ़ में कफ़्फ़ारा का काम पूरा हो चुका और अब सिर्फ ये मसीहीयों का काम है कि तमाम जहान को उस नजात की ख़ुशख़बरी सुना दें जो मसीह के ख़ून के वसीला से हासिल होती है। पस अब और इल्हाम या क़ुरआन की ना गुंजाइश है और ना ज़रूरत। मसीही ही “अव्वल” 11 व आख़िर” है और "आस्मान 12 के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से हम नजात पा सकें ।“

मुसलमान मुहक़्क़िक़ीन से दरख़ास्त है कि इन हक़ीक़तों पर ग़ौर करें और अगर ऐसा करें तो उन पर ये बात रोज़-ए-रौशन की तरह ज़ाहिर हो जाएगी कि क़ुरआन का वही आस्मानी और ख़ुदा की तरफ़ से होना बिल्कुल नामुम्किन है। अगरचे क़ुरआन में लिखा है कि इंजील पर ईमान लाना ज़रूरी है या यूं कहें कि क़ुरआन हर एक मुसलमान को इंजील पर ईमान लाने का हुक्म देता है तो भी इंजील पर ईमान लाने का नतीजा क़ुरआन का रद्द करना होगा क्योंकि क़ुरआन बहुत से इन्जीली हक़ायक़ का मुन्किर है। हासिल-ए-कलाम मुसलमान अजीब मुश्किल में मुब्तला हैं। उनकी दीनी किताब उनको इस किताब पर ईमान लाने का हुक्म देती है जिससे उन के दीन का पोल बख़ूबी खुल जाता है। इन को हुक्म है कि दो नक़ीज़ों पर ईमान लावें । इन को हुक्म है कि ईसा को नबी क़बूल करें और साथ ही हज़रत मुहम्मद पर भी ईमान लावें । इन को ये भी हुक्म है कि पहली किताबों को कलाम-उल्लाह मानें अगरचे इन किताबों में साफ़ बयान है कि यहूदी तवारीख़ मसीहीयत में आकर कामिल होती है फिर उन को इंजील पर ईमान लाने का हुक्म है अगरचे इंजील से साफ़ मालूम होता है कि इंजील ही आख़िरी इल्हामी कलाम है और मुहम्मद के लिए ये दावा करने का कोई मौक़ा बाक़ी नहीं है कि मैं ख़ातिम-उन-नबिय्यिन हूँ । इस किताबचा के पढ़ने वाले से इल्तिमास है कि इन पहली मुक़द्दस किताबों को ग़ौर से पढ़ें जिनकी हज़रत मुहम्मद ने बहुत तारीफ़ तौसीफ़ की है और उन में हयात की राह मिलेगी I


5. सुरह अहज़ाब आयत 51

6. सुरह अहज़ाब आयत 51

7. सुरह बक़र आयत 184

8. सुरह तौबा आयत 47

9. सुरह अनआम आयत 93

10. सुरह बक़रह आयत 91 और 92

11. इंजील मुक़ाश्फा पहला बाब 17 वी आयत

12. इंजील आमाल 4 बाब 12 वी आयत

इस्लाम में मसीह

पहला बाब

मसीह इस्राइली

पहले हम ये देखते हैं कि यहूदी क़ौम जिसमें ईसा मसीह पैदा हुआ अज़रूए क़ुरआन रुए ज़मीन की तमाम दीगर अक़्वाम पर फ़ज़ीलत रखती है । चुनांचे सूरह बक़रा की 46 आयत में मर्क़ूम :—

يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُواْ نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ

यानी ए बनी-इस्राइल मेरी नेअमत को याद करो जो मैं ने तुम पर भेजी और तहक़ीक़ मैंने तुमको तमाम आलमीन पर फ़ज़ीलत बख़्शी I

इस आयत से साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरवर अम्बिया के लक़ब का हक़दार ज़रूर बनी-इस्राइल में से होना चाहिए ।

क्योंकि इमाम राज़ी साहिब फ़रमाते हैं कि "लफ़्ज़ आलमीन" के मफ़हूम में ख़ुदा की ज़ात के सिवा तमाम मख़्लूक़ात शामिल है पस अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है कि ईसा इब्ने मर्यम इस्राइल की मानिंद उस लक़ब का मुस्तहिक़ कौन है ?

क़ुरआन सिर्फ उसी को कलिमतुल्लाह और रूहुम्मिन्हू कहता है।

फिर सूरह अन्कबूत की 26 आयत में मर्क़ूम है :—

وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَقَ وَيَعْقُوبَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ النُّبُوَّةَ وَالْكِتَابَ

यानी हमने उस को इस्हाक़ व याकूब दीए और नबुव्वत व किताब का इनाम हमने उस की नसल में रखा I

इस में तो ज़रा भी शक नहीं कि क़ुरआन में अम्बिया की जिस जमात की तरफ़ इशारा है । वो ज़्यादा तर इस्हाक़ की औलाद में से थे। इस्माईल की औलाद में से एक भी नहीं था और इस का सबब भी साफ़ ज़ाहिर है क्योंकि बाइबल और क़ुरआन दोनों के बयान के मुताबिक़ ख़ुदा के इनाम और वाअदे का फ़रज़न्द इस्हाक़ ही था इस्माईल तो इब्राहीम की कनीज़ा हाजिरा का बेटा था और क़ुरआन उस को इनाम ईलाही बयान नहीं करता बल्कि बख़िलाफ़ उस के मुंदरजा बाला आयात निहायत सफ़ाई और सराहत से साबित करती है कि ख़ुदा ने नबुव्वत व किताब के इनाम को इस्हाक़ की नसल के लिए मख़सूस किया। लिहाज़ा क़ुरआन तौरेत के बयान से बिल्कुल मुताबिक़त रखता है। पैदाइश की किताब के 26 वें बाब की चौथी आयत में मर्क़ूम है कि:—

तेरी नसल से ज़मीन की सारी क़ौमें बरकत पाएंगी ।

हम अपने मुसलमान अहबाब से पूछते हैं कि क्या वो बाइबल या क़ुरआन में कहीं ये लिखा दिखा सकते हैं कि ख़ुदा ने इस्माईल की नसल की तरफ़ इशारा करके इब्राहीम से कहा कि मैं नबुव्वत व किताब का इनाम तेरी औलाद को दूँगा?

क्या क़ुरआन की मज़कूरा बाला आयात से मालूम नहीं होता कि बनी-इस्राइल इस्हाक़ की नसल से हैं और क्या ये अज़हर-मिनश्शम्स नहीं कि ईसा मसीह इब्ने मर्यम बनी-इस्राइल में से है ? पस मसीह की क़ौमीयत ही उसे हज़रत मुहम्मद या इस्माईल के किसी और फ़रज़न्द से कहीं बुज़ुर्ग व बरतर क़रार देती है। इस के साथ ही जब हम मसीह के इन अल्क़ाब का जो क़ुरआन में मुंदरज हैं ख़्याल करते हैं तो इस की शान दीगर अंबिया से निहायत ही आला व अरफ़ा नज़र आती है।

दूसरा बाब

मसीह की पैदाइश

अब हम दूसरी बात ये देखते हैं कि क़ुरआन में मसीह का सबसे आम नाम "ईसा इब्ने मर्यम" है। देखो सूरह इमरान आयत 46:5 अगर क़ुरआन का बग़ौर मुताअला किया जाये तो ना सिर्फ यही साबित होता है कि क़ौम बनी-इस्राइल जिसमें मसीह पैदा हुआ रुए ज़मीन की तमाम दीगर अक़्वाम पर फ़ज़ीलत रखती है बल्कि ये भी कि ख़ुदा ए ताअला ने ईसा की माँ मर्यम मुतह्हरा को भी तमाम खातून-ए-जहान से बर्गुज़ीदा किया और उन पर फ़ज़ीलत बख़्शी चुनांचे सूरह इमरान की 42 आयत में मर्क़ूम है :—

يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللّهَ اصْطَفَاكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفَاكِ عَلَى نِسَاء الْعَالَمِينَ

यानी ए मर्यम बेशक अल्लाह ने तुझे बर्गुज़ीदा किया और पाक किया और तुझे तमाम जहान की मस्तूरात में से चुन लिया I

क्या इस से ये बात बख़ूबी ज़ाहिर नहीं होती कि इस का बेटा ईसा सबसे बड़ा नबी होने वाला था? कैसी ख़ूबसूरती से इस की इस वाअदा से ततबीक़ होती है जो ख़ुदा ने इस्हाक़ से किया कि "तेरी नसल से दुनिया की सारी क़ौमें बरकत पाएँगी" जैसा कि हमारे मुसलमान अहबाब अक्सर कहा करते हैं कि अगर आख़िरी और सब से बड़े नबी हज़रत मुहम्मद है तो क्या “ख़ुदा ने तुझको तमाम जहान की मस्तूरात में से चुन लिया"। का जुमला बजाय मर्यम के हज़रत मुहम्मद की माँ आमना के हक़ में नहीं होना चाहिए?

अब हम पूछते हैं कि क़ुरआन में लफ़्ज़ ईसा क्या माअनी रखता है ? इस सवाल का जवाब इंजील शरीफ़ में तो मिल सकता है । क्योंकि इंजील मत्ती के पहले बाब की इक्कीसवीं आयत में ईसा का तर्जुमा "बचाने वाला" है। चुनांचे मर्क़ूम है:—

“तू इस का नाम येसु (ईसा) रखेगा क्योंकि वो अपने लोगों को उन के गुनाहों से बचाएगा”

जब मुसलमान भाईयों के सामने मसीह के दाअवे को ज़ोर से पेश किया जाता है तो अक्सर यूँ कहते हैं कि "हम भी मसीह पर ईमान रखते हैं" लेकिन क्या वो कभी उस के इस नाम के माअनी पर ग़ौर करते हैं ? जब मुसलमान क़ुरआन में मसीह की मोजज़ाना पैदाइश का बयान पढ़ते हैं कि वो क्योंकि ख़ुदा की क़ुदरत कामिला से कुँवारी मर्यम से पैदा हुआ तो क्या उन्हें कभी ख़्याल नहीं आता कि इस मोजज़ाना पैदाइश का क्या मतलब है? सूरह मर्यम की 19 आयत से 22 आयत तक यूं मर्क़ूम है :—

قَالَ إِنَّمَا أَنَا رَسُولُ رَبِّكِ لِأَهَبَ لَكِ غُلَامًا زَكِيًّا قَالَتْ أَنَّى يَكُونُ لِي غُلَامٌ وَلَمْ يَمْسَسْنِي بَشَرٌ وَلَمْ أَكُ بَغِيًّا قَالَ كَذَلِكِ قَالَ رَبُّكِ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٌ وَلِنَجْعَلَهُ آيَةً لِلنَّاسِ وَرَحْمَةً مِّنَّا وَكَانَ أَمْرًا مَّقْضِيًّافَحَمَلَتْهُ

यानी जिब्राईल ने कहा मैं यक़ीनन तेरे ख़ुदा की तरफ़ से तुझे एक पाकीज़ा बेटा बख़्शने के लिए भेजा गया हूँ। मर्यम ने कहा मेरे हाँ बेटा क्योंकर हो सकता है जबकि किसी मर्द ने मुझे नहीं जाना और मैं बदकार नहीं हूँ? फ़रिश्ते ने कहा तेरा ख़ुदा ऐसा फ़रमाता है कि ये बात मुझ पर आसान है हम उसको लोगों के लिए निशान और अपनी तरफ़ से रहमत बनायेंगे ये बात मुक़द्दर हो चुकी है । (पस वो हामिला हो गई)।

तमाम जहान में कोई और नबी ऐसे मोजज़ाना तौर से पैदा नहीं हुआ। बेशक हज़रत-ए-आदम को ख़ुदा ने बे-माँ बाप पैदा किया लेकिन इबतिदा में ऐसा करना ज़रूरी था। ईसा की पैदाइश हम देखते हैं कि ख़ुदा ने अपने मुक़र्रर करदा कानून-ए-क़ुदरत के बर-ख़िलाफ़ और इस से बढ़कर अमल किया ताकि मसीह कुँवारी से पैदा हो।

ख़ुदा का ये फे़अल हरगिज़ बेमानी नहीं हो सकता। बल्कि हम जानते हैं कि इस से मसीह के इस ख़ास रिश्ता की तरफ़ इशारा होता है जो उस के सिवा कोई दूसरा नबी ख़ुदा से नहीं रखता। इंजील शरीफ़ में जो मसीह की पैदाइश का बयान मुंदरज है इस के मुताअला से इस रिश्ता की हक़ीक़त साफ़ मालूम हो जाती है। चुनांचे इंजील लूका के पहले बाब की 31, 32 आयत में मर्क़ूम है कि :—

जिब्राईल फ़रिश्ता ने आकर मर्यम से कहा देख तू हामिला होगी और बेटा जनेगी उस का नाम येसु (ईसा) रखना वो बुज़ुर्ग होगा और ख़ुदा ताअला का बेटा कहलाएगा

इस मुक़ाम से मालूम होता है कि ईसा को इस की मोजज़ाना पैदाइश के सबब से "इब्नुल्लाह" का बड़ा लक़ब मिला है। ये एक माक़ूल इस्तिलाह है जिससे एक ख़ास रिश्ता ज़ाहिर होता है और कलिमतुल्लाह भी ऐसी ही इस्तिलाह है जो क़ुरआन में ईसा के हक़ में इस्तिमाल की गई है। इन दोनों इस्तलाहों में से एक भी महिज़ लफ़्ज़ी व लूग़वी माअनों में नहीं ली जा सकती जिस्मानी इब्नीयत के ख़्याल के लिए हरगिज़ गुंजाइश नहीं है लेकिन हज़रत मुहम्मद ख़ुद और बहुत से उनकी पैरवी करने वाले इस सख़्त ग़लती के गढ़े में गिरते हैं अगर ग़ौर से क़ुरआन का मुताअला किया जाये तो मालूम हो जाएगी कि हज़रत मुहम्मद ने मसीह की ईलाही इब्नीयत की मसीही तालीम को जिस्मानी रिश्ते पर महमूल किया चुनांचे सूरह अनआम की 101 आयत में लिखा है :—

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ أَنَّى يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُن لَّهُ صَاحِبَةٌ

यानी वो ज़मीन व आस्मान का ख़ालिक़ है इस की औलाद क्योंकर हो सकती है जबकि उस की कोई बीवी ही नहीं ?

और फिर सूरह मोअमीन की बानवीं आयत में मुंदरज है :—

مااتخذ اللہ من ولد

ख़ुदा के लिए कोई बेटा बेटी नहीं

एक बंगाली मुसलमान ने इसी किस्म की ग़लत-फ़हमी की बुनियाद पर एक किताब लिखी और इस में बड़ी कोशिश से साबित करना चाहा है कि मसीह ख़ुदा का (जिस्मानी ) बेटा नहीं हो सकता। लेकिन कोई मसीही भी इस को जिस्मानी बेटा नहीं कहता क्योंकि जिस्मानी इब्नियत की तालीम मसीहीयों के नज़दीक भी ऐसी ही घिनौनी और नफ़रत-अंगेज़ व कुफ्र-आमेज़ है । जैसे कि किसी अहले इस्लाम के लिए हो सकती है ।

मसीह की इब्नीयत पर हज़रत मुहम्मद का एतराज़ यक़ीनन इस बिना पर था कि इब्नीयत का इक़रार ख़ुदा की तौहीद की तालीम के बर-ख़िलाफ़ है लेकिन अगर इस मसले को ठीक तौर से समझ लिया जाये तो इस से तौहीद पर मुतलक़ हर्फ़ नहीं आता। अहले इस्लाम की तरह मसीही भी ख़ुदा को वह्दहू-ला-शरीक-ला मानते हैं ख़ुदा के बेटे बेटियां मानना जाहिलों और बे-दीनों का एतिक़ाद है क़ुरआन में इसका इस मौक़ा पर ज़िक्र है जहां लिखा है कि बाअज़ अहले-अरब ख़ुदा से बेटियां मंसूब करते थे।

ये एक अजीब हक़ीक़त है कि मसीह की इब्नीयत पर लिखते वक़्त मसीही मुसन्निफ़ीन ने कहीं भी लफ़्ज़ "वलद" का इस्तिमाल नहीं किया क्योंकि "वलद" जिस्मानी रिश्ते की तरफ़ इशारा करता है। बल्कि उन्हों ने हर जगह लफ़्ज़ "इब्न" लिखा है जो अरबी ज़बान में ग़ैर-जिस्मानी और रुहानी माअनों में भी अक्सर इस्तिमाल किया जाता है । हज़रत मुहम्मद ने मुंदरजा बाला आयात में इस बात पर-ज़ोर दिया है कि ख़ुदा का कोई बेटा यानी "वलद" नहीं हो सकता है लेकिन मसीही एतिक़ाद को पेश करते वक़्त ख़ास मुस्तसना दियानतदारी से लफ़्ज़ "इब्न" इस्तिमाल किया है। चुनांचे सूरह तौबा की 30 आयत में मर्क़ूम है :—

وَقَالَتْ النَّصَارَى الْمَسِيحُ ابْنُ

कहते हैं इस मुक़ाम पर मसीहीयों को ये सवाल करने का हक़ हासिल है कि अगर उसे “रूहुल्लाह” कहना जायज़ है तो "इब्नुल्लाह" कहना क्यों गुनाह है?

क़ुरआन ना सिर्फ मसीह की पैदाइश को मोजज़ाना बयान करता है बल्कि मसीह को तमाम मख़्लूक़ात के लिए एक निशान क़रार देता है। चुनांचे सूरह अम्बिया की 91 वीं आयत में मुंदरज है :—

وَجَعَلْنَاهَا وَابْنَهَا آيَةً لِّلْعَالَمِينَ

हमने उस को (मर्यम को) और इस के बेटे को तमाम मख़्लूक़ात के लिए निशान बनाया I

अगर हमारे मुसलमान भाई मसीह के बारे में जिस्मानी इब्नीयत का ख़्याल अपने दिलों से दूर कर दें तो इस्तिलाह "इब्नुल्लाह" के मुताल्लिक़ उनकी मुश्किल बहुत कुछ आसान हो जाएगी।जो मुसलमान क़ुरआन और अहादीस को अच्छी तरह से पढ़ते और बख़ूबी समझते हैं वो इतना तो ज़रूर मानेंगे कि इन किताबों में मसीह और ख़ुदा बाप के एक ऐसे बाहमी ख़ास रिश्ते की तरफ़ इशारात पाए जाते हैं जो किसी और नबी और ख़ुदा के दर्मियान पाया नहीं जाता मसलन मिश्कात अल-मसाबीह में लिखा है कि :—

हर एक इन्सान को उस की पैदाइश के वक़्त शैतान छू लेता है । लेकिन मर्यम और उस का बेटा इस से महफ़ूज़ हैं I

क्या इस हदीस से मसीह का मर्तबा दीगर तमाम अम्बिया से आला नहीं ठहरता ? और अगर ये हदीस सच्ची है तो क्या इस से इस अम्र की बख़ूबी तशरीह नहीं होती कि मर्यम और इस का बेटा क्यों तमाम मख़्लूक़ात के  निशान मुक़र्रर किए गए ?

बाअज़ मुसलमान मसीह को "इब्नुल्लाह" मानते हैं लेकिन साथ ही ये भी कहते हैं कि तमाम मुक़द्दस लोग "इब्नुल्लाह" या ख़ुदा के बेटे हैं। इस में बेशक कुछ सच्चाई पाई जाती है लेकिन ये सच्चाई पूरी नहीं है। क्योंकि बाइबल निहायत सफ़ाई और सराहत से बताती है कि मसीह की इब्नीयत दीगर मोमिनीन की सी नहीं है चुनांचे इंजील शरीफ़ में ईसा ख़ुदा का इकलौता बेटा कहलाता है। इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा बाप के साथ उस का ऐसा ख़ास रिश्ता है जो किसी और का नहीं है। अगर कोई तास्सुब से ख़ाली हो कर इंजील शरीफ़ को पढ़े तो ज़रूर इस हक़ीक़त का क़ाइल हो जाएगा।

चुनांचे ईसा मसीह ने अपने हवारियों से पूछा तुम मुझे क्या कहते हो ? शमाउन पतरस ने जवाब में कहा "तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है" ईसा ने जवाब में इस से कहा "मुबारक है तू शमाउन बर्युंस क्योंकि ये बात जिस्म और ख़ून से नहीं बल्कि मेरे बाप ने जो आस्मान पर है तुझ पर ज़ाहिर की है" (इंजील मत्ती 16: 15 ता 17)।

अगर मसीह भी ऐसा ही "इब्नुल्लाह" होता और मोमिनीन "इब्नुल्लाह" हैं तो फिर हम पूछते हैं कि मसीह के इस जवाब का क्या मतलब हो सकता है? इलावा-बरें हम जानते हैं कि यहूदी लोग ईसा को इसी लिए क़त्ल करना चाहते थे कि "वो ख़ुदा को ख़ास अपना बाप कह कर अपने आपको ख़ुदा के बराबर बनाता था" (युहन्ना 5:18)।

पस अज़हर-मिनश्शम्स है कि "इकलौते बेटे" की इस्तिलाह ईसा की इब्नीयत को दीगर मोमिनीन की इब्नीयत से मुख़्तलिफ़ और बालातर क़रार देती है कैसी अजीब बात है कि बावजूद इंजील शरीफ़ की साफ़ शहादत के बहुत से मुसलमान मुसन्निफ़ीन ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि मसीह की इब्नीयत दीगर मोमिनीन की इब्नीयत की सी है लेकिन मसीह की मोजज़ाना पैदाइश का बयान जो क़ुरआन में मुंदरज है क्या इस से ये ज़ाहिर नहीं होता कि मसीह का ख़ुदा बाप से ऐसा रिश्ता है जो किसी और का नहीं हो सकता ! इस हक़ीक़त पर क़ुरआन में तो सिर्फ इशारात पाए जाते हैं लेकिन इंजील शरीफ़ में इस की तालीम बिल्कुल साफ़ है जहां मसीह ख़ुदा का "इकलौता बेटा" कहलाता है। क़ुरआन किसी और की ऐसी मोजज़ाना पैदाइश का ज़िक्र नहीं करता। लिहाज़ा बलिहाज़-ए-पैदाइश क़ुरआन भी मसीह को तमाम दीगर अम्बिया-अल्लाह पर फ़ज़ीलत और बरतरी देने में इंजील शरीफ़ से मुत्तफ़िक़ है I

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