शेरअफ़गन

फ़स्ल अव़्वल

मौलवी सना-उल्लाह साहिब और इस्लाम में नजात

चल मेरे ख़ामा बिस्मिल्लाह


 

Three Crosses
तीन पार

 

क़ब्ल इस के कि मैं इस अम्र को ज़ाहिर कर दूँ कि मौलवी सना-उल्लाह साहब इस्लाम में नजात साबित करने से किस तरह क़ासिर और आजिज़ रह गए ये मुनासिब मालूम होता है कि नाज़रीन रिसाला से आपका तआरुफ़ कराया जाये ताकि इस अम्र की सदाक़त कि इस्लाम में मुतलक़ नजात नहीं है आपकी शिकस्त से कामिल तौर पर यक़ीन हो जाए।

आपका इस्म गिरामी सना-उल्लाह है। जिसको बक़ौल मुसन्निफ़ निशानात मिर्ज़ा बजवाब इल्हामात मिर्ज़ा" लोग किसी क़दर तग़य्युर व तब्दील के साथ मुख़्तलिफ़ तौर पर लेकिन एक ही वज़न पर अदा करते हैं इल्मीयत के लिहाज़ से आप मौलवी फ़ाज़िल हैं और अहले हदीस के ऐडीटर और मालिक। बह्स व मुबाहसा में आप काफ़ी शौहरत के इलावा काफ़ी सर्वत भी हासिल कर चुके हैं और नज़र बुदूर बावजूद पीराना-साली के अब तक आप जवानी की धुन में ख़िज़ाब इस्तिमाल करते हैं और पैर चौदह साला बने फिरते हैं। ना मालूम आपको इस से क्योंकर तसल्ली मिलती है। और दूसरों को क्योंकर एतबार होता है। ताहम आपको इस से एक गोना दिलचस्पी ज़रूर है। आपके अहबाब ने आपको फ़ातिह क़ादियान और शेर पंजाब का ख़ाना-साज़ या ख़ानाबरअंदाज़ ख़िताब भी दे दिया है। लेकिन निशानात मिर्ज़ा बजवाब इल्हामात मिर्ज़ा में आपके चंद और निहायत दरख़शां खिताबों का भी ज़िक्र है जिनको हम इस मज़्मून के आख़िरी हिस्से में हद्या नाज़रीन करेंगे।

आप असलन कश्मीरी हैं लेकिन अमृतसर से आपको ख़ास उन्स है। इसलिए आप अमृतसर में मुक़ीम हैं। असलन आप मुसलमानों के उस फ़िर्क़े से ताल्लुक़ रखते हैं जिसको वहाबी, नज्दी और ग़ैर-मुक़ल्लिद कहते हैं ग़ैर-मुक़ल्लिद किसको कहते हैं। इस बारे में हम एक मुसलमान की तस्नीफ़ से एक इक़्तिबास हद्या नाज़रीन करते हैं।

"फ़िर्क़ा ग़ैर-मुक़ल्लिद हमेशा से बे-अदबी, गालियों और नाशाइस्ता अल्फ़ाज़ का मश्शाक़ है। इब्तिदाई ग़ैर-मुक़ल्लिदों में से बाअज़ मर्दुदों ने अम्बिया औलिया और बुज़ुर्गान दीन को रहबानों और बुतों से तशबीया दी है। जब अम्बिया और बुज़ुर्गान-दीन इन शयातीन की ज़बान दराज़ी से नहीं बचे तो हम क्या रंज कर सकते हैं" (निशानात मिर्ज़ा बजवाब इल्हामात मिर्ज़ा सफ़ा 14)

शायाद यही वजह है कि मेरे रिसाला का जवाब लिखते लिखते आप इस ख़ुसूसी इम्तियाज़ के इज़्हार पर मज्बूर हो गए। और एक और वहाबी के साथ मिलकर वो ज़हर उगला 1 है जिससे हम भी ये नतीजा निकालने पर मज्बूर हो गए कि एं ख़ाना हमा आफ़्ताब अस्त I

इस क़दर मुख़्तसर तआरुफ़ कराने के बाद अब मैं असल मज़्मून की तरफ़ मुतवज्जा होता हूँ गुज़शता 3 सितंबर 1928 ई में हाफ़िज़ा-आबाद में मुसलमानों और ईसाईयों के दर्मियान एक फ़ैसला कुन मुबाहिसा हुआ। जिसका मुफ़स्सिल और पोस्तकंदा बयान रिसाला "मुबाहिसा हाफ़िज़ा-आबाद" में छप चुका है (जो मिस्टर मूसा ख़ान महां सिंह बाग़ लाहौर से निहायत कम क़ीमत पर मिल सकता है) उसी मुबाहिसा में एक वाक़िया के दौरान मैंने मौलवी साहब से ये कहा था कि आप में अगर कुछ ग़ैरत और हमीय्यत बाक़ी है तो आप मेरे रिसाले का जवाब लिखें। अगर आप उसका ऐसा माक़ूल जवाब दें जिसका जवाब-उल-जवाब मैं ना दे सकूँ तो मैं मुसलमान हो जाऊँगा जिसका साफ़ मतलब ये था कि मुझको कामिल यक़ीन है कि ना तो इस्लाम में नजात है और ना आप उस का जवाब लिख सकेंगे। चुनांचे जब आप अमृतसर पहुंच गए तो मेरे रिसाला मज़्कूर का बज़अमे-ख़ुद जवाब लिखना शुरू किया। चुनान्चे वही हुआ जो हम कह चुके थे यानी मौलवी साहब ने ना सिर्फ तस्लीम किया कि इस्लाम में नजात नहीं है। बल्कि अपनी इल्मीयत पर भी एक बड़ा दाग़ लगाया है। ख़ैर जो कुछ आपने लिखा है हम इसको अपने मुख़्तसर रेमार्क के साथ हद्या नाज़रीन करते हैं और जब ये मज़्मून मुकम्मल हो जाए तो बग़रज़ तस्फ़ीया हम इस को अहले हदीस के दलाईल के साथ पण्डित राम चन्द्र देहलवी के पास भेज देंगे। क्योंकि हम दोनों के नज़्दीक आप मुंसिफ़ मुक़र्रर हो चुके हैं।

लेकिन पहले इस से कि मैं मौलवी साहब के जवाब की तर्दीद लिखूँ मुनासिब मालूम होता है कि मैं अपने रिसाला मज़्कूर का ख़ुलासा हद्या नाज़रीन करूँ ताकि इस बह्स के समझने में कोई दिक़्क़त बाक़ी ना रहे। मेरे रिसाला मज़्कूर का ख़ुलासा हस्ब-ज़ैल है :—


  1. क़ुरआन शरीफ़ के रु से नजात आमाल सालहे पर मौक़ूफ़ है।
  2. فَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ خَيْرًا يَّرَہٗ وَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ شَرًّا يَّرَہٗ   फ़मययअमल मिस्क़ाल ज़र्रतिन खैरय्यरह व मय्यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन शर्रयरह के रू से कोई फ़र्द बशर
    आमाल सालेहा से नजात हासिल नहीं कर सकता है।
  3. तमाम बनी-आदम गुनहगार हैं।
  4. अहादीस सहीहा के रू से आमाल सालेहा कोई चीज़ नहीं है। हत्ता कि ख़ुद आँहज़रत को उनके आमाल नजात नहीं दिला सकते हैं।
  5. अहादीस के रू से नजात सिर्फ़ ख़ुदा के रहम से हासिल हो सकती है लेकिन रहम बलामबादला कोई चीज़ नहीं है।

अब मौलवी साहब की गुल-अफ़्शानी मुलाहिज़ा हो


1. इसका जवाब इसी रिसाले के तमिमा में देखो (मन्ह)