November 2016

बाब हफ़तुम

"देखो ख़ुदा का बर्रा !"

वस्त एशिया से मसीह की एक जिला-वतन ख़ादिमा जिसने अहले-ए-इस्लाम के दरम्यान निहायत तन वही से तवील ख़िदमत की है यूं कहती है:—

"हम यहां इब्तिदाई बातों को सबसे आगे रखना सीखते हैं और फिर बतदरीज निहायत अक्लमंदी और इस्तिक़लाल के साथ अपने वाहिद मक़्सद तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। मेरी राय ये है कि हमें बैरूनी दुनिया को दिखाये बग़ैर ख़ामोशी के साथ ऐसा करना चाहिए। ताकि हम उस अंदरूनी दुनिया में जहां हमारे ख़ुदावंद ने हमें रखा है वाक़ई कुछ ख़िदमत अंजाम दे सकें। आजकल मसीह के नाम की गवाही देने के लिए हमें आज़ादी हासिल है लेकिन अंदेशा ये है कि किसी वक़्त भी ये आज़ादी हमसे छिन ना जाये। लिहाज़ा हमें निहायत दानिशमंदी के साथ वक़्त को ग़नीमतजान कर इसका मुनासिब व वाजिब इस्तिमाल करना चाहिए"

क्या हम मसीह के गवाह होने की हैसियत में ये सवाल नहीं पूछ सकते कि ये मक़्सद किया है? हमारे पैग़ाम का मर्कज़ किया है ? वो कौनसी हक़ीक़त है जिसे हमें ज़रूर ज़ाहिर करना है ? वो कौनसा ऐसा सरीह, आला व बरतर और मुतहर्रिक पैग़ाम है जो हमें ग़ैर-मसीही दुनिया को पहुंचाना है ? क्या वो पैग़ाम यूहन्ना इस्तबाग़ी के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर नहीं होता जो बनी इस्राइल के लिए एक नए पैग़ाम का पहुंचाने वाला था ? बनी इस्राइल और अहले इस्लाम में बहुत सी बातें मुशतर्का हैं । ब्याबान में पुकारने वाली एक आवाज़ ही पैग़ाम सुना रही है:—

"यानी देखो ख़ुदा का बर्रा !"

हेरोदेस की तेग़े आबदार ने यूहन्ना को जल्द जाम-ए-शहादत पिलाया और यूं उस से मसीह के पाक नाम की शहादत देने की आज़ादी ले ली गई । लेकिन जब तक उसे ये आज़ादी हासिल थी उसने इब्तिदाई बातों को पेश रखा।

ये क़ैसर तबरयास के अह्द का पंद्रहवां साल था। पिन्तुस पिलातुस यहुदियाह का हाकिम था। हेरोदेस गलील पर हुकमरान था और फिलिप्स और लाईसीयस (Lysias) चौथाई मुल्क के हाकिम थे। हन्ना और काइफ़ा के सपुर्द हैकल की इबादत और क़ुर्बानीयों का इंतिज़ाम था।

रूमी सल्तनत में बग़ावत के आसार नमूदार थे। बहुत नए फ़िरक़े और जमातें बन गई थीं जो अपने अपने फ़लसफ़े पेश कर रही थीं। लेकिन उनमें से एक में भी कोई ज़िंदा जावेद उम्मीद ना थी। लिहाज़ा ख़ुदा का कलाम ब्याबान में यूहन्ना पर ज़ाहिर हुआ और उसने जो कुछ सुना उस की मुनादी की यानी "देखो ख़ुदा का बर्रा !"

ये अल्फ़ाज़ यानी "ख़ुदा का बर्रा" हमारे ख़ुदावंद के लक़ब की सूरत में दो मर्तबा मुक़द्दस यूहन्ना और एक मर्तबा पतरस के पहले ख़त में मज़कूर हैं। मुक़द्दस यूहन्ना इस लक़ब को तसग़ीर की सूरत में मुकाशफ़ा की किताब में अट्ठाईस मर्तबा इस्तिमाल करता है । अगर हम इन मुक़ामात का मुताला करें तो हमें मालूम हो जाएगा कि उस शागिर्द के नज़दीक जो ख़ुदावंद मसीह के सीने पर सर रखकर तकिया करता था और जो दीगर शागिर्दों की निस्बत उसकी नजात बख़्श मुहब्बत के राज़ से बेशतर वाक़िफ़ था इन अल्फ़ाज़ को किस क़दर एहमीयत हासिल थी। ये अल्फ़ाज़ सबसे पेशतर यूहन्ना इस्तबाग़ी की गवाही में मज़कूर हैं जो उसने मसीह की निस्बत दी। "दूसरे दिन उसने येसु को अपनी तरफ़ आते देखकर कहा देखो ये ख़ुदा का बर्रा है जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है" उसके अगले दिन फिर यरदन के उस पार शायद बैत- अन्या बैत उबारा में यूहन्ना और उस के शागिर्दों में से दो शख़्स खड़े थे उसने खुदावंद मसीह पर जो जा रहा था निगाह करके कहा "देखो ये ख़ुदा का बर्रा है।"

पतरस इस लक़ब को बिल्कुल इसी तरह तो नहीं इस्तिमाल करता लेकिन गुनाहों से ख़लासी हासिल करने के मुताल्लिक़ ज़िक्र करते हुए यूं कहता है कि:—

"ये फ़ानी सोने और चांदी के ज़रीया से नहीं हो सकती बल्कि एक बेऐब और बेदाग़ बर्रे यानी येसु के बेशक़ीमत ख़ून से।"

पतमस के जज़ीरे में यूहन्ना के मुकाशफ़ा के ज़रीया से दफअतन हमारी मुलाक़ात यहुदाह के क़बीले के इस बब्बर से होती है जो "ख़ुदा का बर्रा भी है" और मैंने उस तख़्त और चारों जानदारों और उन बुज़ुर्गों के बीच में गोया ज़बह किया हुआ एक बर्रा देखा" चौबीस बुज़ुर्ग उस बर्रे के सामने गिर पड़े (मुकाशफ़ा 5:8) और एक नया गीत गाने लगे और फ़रिश्ते जो शुमार में लाखों करोड़ों थे बुलंद आवाज़ से ये कहते सुनाई दिए "ज़बह किया हुआ बर्रा ही क़ुदरत और दौलत और हिक्मत और ताक़त और इज़्ज़त और तम्जीद के लायक़ है" तमाम मख़्लूक़ात भी जवाब में बर्रा की हम्दो इज़्ज़त के गीत गाती है।

फिर हम पढ़ते हैं कि बर्रा ख़ुदा की सात मुहरों में से एक को खौलता है और ख़ुदा का ग़ज़ब पे-दर-पे ज़ाहिर होता है। यहां तक कि लोग ख़ौफ़-ज़दा हो कर चिल्ला कर "पहाड़ों और चटानों से कहने लगे कि हम पर गिर पड़ो और हमें उस की नज़र से जो तख़्त पर बैठा हुआ है और बर्रा के ग़ज़ब से छिपा लो" (मुकाशफ़ा 6: 16)

नजात याफताह लोगों की एक बड़ी जमात सफ़ैद जामे पहने तख़्त और बर्रा के आगे खड़ी बड़ी आवाज़ से चिल्ला चिल्ला कर उस की तम्जीद के गीत गाती है। क्योंकि बर्रा जो तख़्त के बीच में है वो उन की गल्लाबानी करेगा और ख़ुदा उनकी आँखों के सब आँसू पोंछ देगा (मुकाशफ़ा 7: 10 व 17)

आगे चल कर हम देखते हैं कि किस तरह वो बर्रे के ख़ून के बाईस भाईयों पर इल्ज़ाम लगाने वाले पर ग़ालिब आए (12:11) और इसलिए भी कि इनके नाम बर्रे की किताब हयात में लिखे गए थे (13:8) फिर हम बर्रे को कोहे सिय्योन पर खड़ा देखते हैं (14:1) और वो जो औरतों के साथ आलूदा नहीं हुए बर्रे के पीछे पीछे चलते हैं क्योंकि वो ख़ुदा और बर्रे के लिए पहले फल होने के वास्ते आदमीयों में से ख़रीद लिए गए (14:4)

लेकिन वो जो उस हैवान की परस्तिस करते हैं बर्रे के सामने आगे और गंधक के अज़ाब में मुब्तला होते हैं (14:10) वो जो ग़ालिब आए थे बर्रे का गीत गाते हैं (15:3) वो जो उस हैवान के साथ हैं बर्रे से लड़ते हैं। लेकिन बर्रा उन पर ग़ालिब आता है क्योंकि वो ख़ुदावन्दों का ख़ुदावंद और बादशाहों का बादशाह है (17:13) इसके बाद आस्मान पर एक बड़ी भेड़ की आवाज़ ये कहते हुए सुनाई दी "हल्लेलुयाह इसलिए कि बर्रे की शादी आ पहुंची (19:7) "मुबारक हैं वो जो बर्रे की शादी में बुलाए गए हैं।" आख़िरी अबवाब में तमाम जलाल और बुजु़र्गी ख़ुदा के बर्रे को दी गई है जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है । मुक़द्दस शहर बर्रे की दुल्हन है।

कुल रसूल बर्रे के रसूल हैं उस में कोई मुक़द्दस नहीं क्योंकि ख़ुदावंद ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ और बर्रा उसका मुक़द्दस में (21:22) उस शहर में सूरज और चांद की कोई हाजत नहीं। क्योंकि ख़ुदा के जलाल ने उसे रोशन कर रखा है और बर्रा उस का चिराग़ है (21:23) उसमें कोई दाख़िल नहीं हो सकता मगर वो जिसके नाम बर्रे की किताब-ए-हयात में लिखे हैं (21:27) आब-ए-हयात का दरिया बर्रे के तख़्त से निकल कर सड़क के बीच में बहता है क्योंकि ख़ुदा का तख़्त बर्रे का तख़्त है और उस के बंदे उस का मुँह देखेंगे और उस का नाम (यानी येसु का नाम) उन के हाथों पर लिखा हुआ होगा (22: 1-3) "तू उसका नाम येसु रखना, क्योंकि वही अपने लोगों को उनके गुनाहों से नजात देगा।”

पस कौन इन मुतअद्दिद मुक़ामात की दलायल और उनके बेशुमार सबूतों के बावजूद कह सकता है कि येसु मसीह ख़ुदा का बर्रा हो कर गुनाहगारों का नजातदिहंदा, दुनिया का बचाने वाला, जलाल का बादशाह, आदिल मुंसिफ़ और क़ौमों का एक ही जोहर है और बाप की और उसकी एक ही सिफ़ात हैं और उसकी और बाप की एक ही शान, बुजु़र्गी और इख़्तियार है।

यह तमाम बातें यूहन्ना इस्तबाग़ी के अल्फ़ाज़ में मख़्फ़ी थीं जो उसने उस बेऐब येसु नासरी को देखकर यरदन के किनारे कहीं हालाँकि येसु अपने बपतिस्मा के वक़्त गुनाहगारों के साथ शुमार किया गया था। लेकिन बादअज़ां आस्मान पर से उस आवाज़ के आने के ज़रिये से कि "ये मेरा प्यार बेटा है जिससे में ख़ुश हूँ।” उस को जलाल बख़्शा गया (मत्ती 3:17)

यक़ीनन यूहन्ना ने यह अल्फ़ाज़ इस ख़्याल से कहे होंगे कि लोगों के उनके हक़ीक़ी मआनी समझ में आ जाऐं। उसने यह अल्फ़ाज़ चीसतान के तौर पर ना कहे बल्कि उसकी मुराद इन अल्फ़ाज़ से मसीह मौऊद को ज़ाहिर करना था। ग़ालिबन उसका मतलब यशायाह के 53 तिरेपनवें बाब के यहोवाह के सादिक़ बंदे से होगा जो हमारी बदकारीयाँ उठाता है और बर्रे की मानिंद ज़बह करने को ले जाया जाता है।

अगर इन अल्फ़ाज़ से महज़ येसु के हलीम और उसकी फ़िरोतनी की जानिब इशारा हो (जैसा कि जदीद-इलाहिय्यात के बाअज़ मोअतक़िद अपनी तहरीरों में दिखाने की कोशिश करते हैं) और उन में उस के कफ़्फ़ारा और क़ुर्बानी का अंसर शामिल ना किया जाये तो उससे इसी क़िस्म के दीगर मुक़ामात का ख़ून होता है।

गोडेट (Godet) अपनी राय ज़ाहिर करते हुए कहता है:—

"इसमें कुछ शक नहीं कि यूहन्ना को उस फ़र्क़ ने जो उसने येसु और अपने दरमियान देख लिया था राग़िब किया हो कि अह्दे-अतीक़ के जुमला अलक़ाब पर इस लक़ब को तर्जीह दे यानी "ख़ुदा का बर्रा" जो जहान के गुनाह उठाले जाता है।”

ये हैरानी की बात है कि ये लक़ब "बर्रा" जिससे उस मुबश्शिर ने येसु को सबसे पहले जाना वही है जिसको किताब-ए-मुकाशफ़ात में तर्जीह दी गई है। वो उस सुर को जो एक मर्तबा उसके सुर में समा गया तादमे-मर्ग अलापता रहा।"

ये शीरीं राग ख़ुद मसीह की अपनी और अव्वलीन तालीम में सुनाई देता है यानी उसने फ़रमाया कि वो इसलिए आया कि अपनी जान औरों के लिए फ़िद्या में दे और जिस तरह मूसा ने पीतल का साँप ब्याबान में लकड़ी पर उठाया इसी तरह इब्ने आदम भी हमारी नजात की ख़ातिर सलीब पर चढ़ाया जाएगा।

मसीह का कोई लक़ब या नाम मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं की नमाज़ की किताब में इतनी मर्तबा नहीं आया जितनी दफ़ा ये नाम:—

"ऐ ख़ुदा के बर्रे जो जहान के गुनाह उठा ले जाता है अपना इत्मीनान हमें बख़्श।
ऐ ख़ुदा के बर्रे जो जहान के गुनाह उठाले जाता है हम पर रहम कर"

डेंटे (Dante) की तस्नीफ़ परगटूरियो (Purgatorio) में भी आवाज़ें यक ज़बाँ हो कर माफ़ी के लिए यही दुआ माँगती हुई सुनाई देती हैं "ख़ुदा का बर्रा" यही उन की तम्हीद है और फ़क़त इसी नाम को वो हम-आवाज़ हो कर गाती हैं।"

यूहन्ना इस्तबाग़ी मसीह की शख़्सियत पर अपनी तवज्जा मर्कूज़ रखता है। वो सीग़ा वाहिद इस्तिमाल करता है और कहता है "देख" हालाँकि मसीह तमाम दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है तो भी हम में से हर एक को अपने ज़ाती गुनाह के दूर करने के लिए शख़्सी तौर पर मसीह को देखना है। "वही हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है और ना सिर्फ हमारे गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी।"

येसु नासरी कोई शाहाना लिबास और शाही ताज पहने हुए ना था। वो नज्जार का बेटा था। लेकिन यूहन्ना रसूल ने उसमें वो जलाल देखा जो बाप के इकलौते का था। उसने उसे फ़ज़्ल व सच्चाई से मामूर देखा। वो ख़ुदा का बर्रा है। उसके वसीले से सब चीज़ें बनीं और कुल पर उस का इख़्तियार है। ख़ुदा ने अपने बेटे को दुनिया में भेजा और वो उसे प्यार करता है। उस क़ुर्बानी में इन्सान का कुछ ख़र्च नहीं होता। क्योंकि ख़ुदा ही अपनी सबसे बेहतरीन चीज़ देता है।

"देखो उस मर्द को !" ये अल्फ़ाज़ पिलातुस ने येसु की जानिब इशारा करते हुए कहे जब उसने उसे कांटों का ताज सर पर रखे हुए ज़ख़्मी और घायल और अर्ग़वानी चोग़ा पहने हुए देखा। यूहन्ना इस्तबाग़ी ने मसीह की ख़िदमत के आग़ाज़ ही में उसके बपतिस्मा के बाद कहा "देखो ख़ुदा का बर्रा ।"

दुनिया उस वक़्त से लेकर अब तक उसे देख रही है। क्योंकि वो तमाम तारीख़ उफ़ुक़ पर मुहीत है। वो छुप नहीं सकता। लोग तो उस पर नज़र करते और कन्नी कतरा कर गुज़र जाते हैं या उसे देख कर आख़िर दम तक उस की पैरवी करते हैं। सटडरट कैंडी (Studdert Kennedy) येसु का बयान करते हुए उस का नक़्शा बईना वैसे खींचता है जैसे मौजूदा दुनिया उसे देखती है। और कहता है:—

“वह अब भी अपनी ख़स्ता-हाल कलीसिया के साथ इसी तरह ज़लील व ख़्वार नज़र आता है जो सब्त के रोज़ तो होशाना के नारे बुलंद करती है लेकिन जुमा के दिन बाग़ गतसमनी में उसे अकेला छोड़कर फ़रार हो जाती है जो बड़े होने के मुताल्लिक़ बेहस तो करती है लेकिन थे मांदों के पांव धोने से अहितराज़ करती है जो पतरस की मानिंद पहले इक़रार तो करती है। लेकिन बाद में उसे पकड़वा देती है यानी अपने बेकस व लाचार ख़ादिमान-ए-दीन के एक गिरोह अज़ीम के साथ जिसमें मेरे जैसे कम अक़्ल बेवक़ूफ़ लोग शामिल हैं। जो इंजील की मुनादी तो करते हैं लेकिन उस की तालीम का असर अपनी ज़िंदगीयों में दिखाने से क़ासिर हैं। जो मुहब्बत करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन दरअसल अवाम के दिल पसंद नहीं हो सकते। वो अब भी वैसा ही काबिल-ए-तज़हीक मालूम होता है जैसा उस वक़्त था कि जब उस के सर पर कांटों का ताज धरा था और उस की ज़ख़्मी पीठ पर जिससे सेल ख़ून जारी था एक ग़लीज़ अर्ग़वानी चोग़ा पहनाया गया था जब उस के हाथ में तम्सख़र के तौर पर असा के बजाय लाठी पकड़ाई गई थी। और उस के मुबारक चेहरे पर एक शराबी सिपाही का थूक बह रहा था। हाँ बईना वही मसीह जो तब था अब भी है। लेकिन मैं उससे ख़ौफ़ खाता हूँ क्योंकि मुझे ख़्याल है कि नई रोशनी का इन्सान अपने इंतिहाई वहशीपन और बरबरीयत के बावजूद अपने दिल में उस से डरता है इसलिए येसु इन्सान के दिल में एक क़िस्म की बेचैनी और इज़तिराब पैदा करता है वो इन्सान की ख़ुद-एतिमादी को दूर करता और उस के ग़रूर और तकब्बुर की बेख़कुनी करता है उसमें कुछ ऐसी क़ुदरत है कि साहिबे इक़तिदार भी उसे सज्दा करने को अपने तईं मजबूर पाते हैं हालाँकि सज्दा का सज़ावार फ़क़त ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ है।"

मसीह वो बर्रा है जो ख़ुदा कफ़्फ़ारे के लिए मुहय्या करता है ताकि वो कफ़्फ़ारे की क़ुर्बानी ठहरे। इब्रानियों के ख़त की सरीह तालीम के मुताबिक़ हम मसीह में अह्देअतीक़ की तमाम तालीम की तक्मील देखते हैं। जो गुनाह के कफ़्फ़ारे के लिए ख़ून की क़ुर्बानी को लाज़िम क़रार देती है यहां पर तमाम इन्सानी रसूम और क़ुर्बानी से मुताल्लिक़ जुमला अहकाम का बुज़ुर्ग वाज़े और बानी मौजूद है यानी ख़ुदा का बर्रा जो तमाम अक़्वाम की आरज़ू और तमन्ना है।

इब्रानियों के ख़त का राक़िम कोह-ए-सीना के जलाल और कोह-ए-सिय्योन पर अख़्लाक़ी उसूल और क़वाइद देते वक़्त मज़ीद जलाल का मुक़ाबला करते हुए एक हैरत-अंगेज़ मेराज को पहुंचता है और यूं फ़रमाता है:—

"तुम ज़िंदा ख़ुदा के शहर यानी यरूशलेम के पास और लाखों फ़रिश्तों और उन पहलोठों की आम जमात यानी कलीसिया जिनके नाम आस्मान पर लिखे हैं और सब के मुंसिफ़ ख़ुदा और कामिल किए हुए रास्तबाज़ों की रूहों और नए अह्द के दर्मयानी येसु और छिड़काओ के उस ख़ून के पास आए हो जो हाबील की निस्बत बेहतर बातें करता है।”

ख़ून के बहाए जाने से गुनाहों की माफ़ी किस तरह होती है? क़ुर्बानी की रस्म शुरू क्योंकर हुई ? इसके आलमगीर होने की क्या वजह है ? ना फ़क़त मुल्क-ए-शाम के मज़्हब में बल्कि तमाम अक़्वाम की क़ुर्बानी से मुताल्लिक़ रसूमात में हम कफ़्फ़ारे के तीन बुनियादी उसूल पाते हैं यानी फ़िद्या इत्मीनान व दिल जमुई और आसूदगी व कफ़ाएत । ये सब सलीब पर मसीह की क़ुर्बानी में मौजूद हैं। मसीह इन ही मआनी में हमारे लिए मरा जिस तरह कोह-ए-मौर्या पर बेल इज़्हाक़ के इव्ज़ क़ुर्बानी चढ़ा मसीह की मौत से कामिल तसल्ली और ख़ातिर जमुई हो गई यानी अदल व इन्साफ़ का तक़ाज़ा पूरा हुआ माफ़ी हासिल हुई । उससे भी कहीं ज़्यादा जितनी चौखट पर ख़ून का निशान लगाने से हुई जब कि मलक-उल-मौत के मिस्र के पहलोठों को मारता हुआ गुज़र रहा था। मसीह की मौत काफ़ी है। वो दुबारा नहीं मरने का । उसने एक बार सलीब पर क़ुर्बान होने से "एक कामिल और काफ़ी क़ुर्बानी गुज़रानी और तमाम दुनिया के गुनाहों के लिए तसल्ली बख़्श ज़बीहा पेश कर दिया।”

टरमबल (Trumbull) "ख़ून के अह्द" के दिलचस्प मुताअले के दौरान में मुल्क-ए-शाम व रोम की इब्तिदाई तालीम का एक निहायत उम्दा ख़ुलासा पेश करता है जो अहद-ए-अतीक़ की तालीम से बहुत कुछ मुताबिक़त रखता है और वो कहता है कि "इन लोगों के नज़दीक ख़ून बहाए जाने के बग़ैर गुनाहों की माफ़ी और ख़ुदा से रिफ़ाक़त और इत्मीनान कलबी हासिल करना मुम्किन नहीं" यूहन्ना इस्तबाग़ी के मसीह को ख़ुदा का बर्रा कहने के मअनी को समझने के लिए हमें चाहिए कि अहद-ए-अतीक़ के सहाइफ़ का बग़ौर मुताला करें क्योंकि यही अहद-ए-जदीद के मौज़ू की बिना और असल हैं।

मुल्क-ए-शाम के इस वसीअ मज़हबी तसव्वुर को हम इस्लाम की क़दीम रस्म यानी अक़ीक़ा की क़ुर्बानी में पाते हैं। जिसको आँहज़रत ने जायज़ क़रार दिया। वो अनक़रीब आलमगीर रस्म है जो रासिख़-उल-एतक़ाद व रिवायात पर मबनी है और मराको से लेकर मुल्क-ए-चीन तक राइज है। रिवायात से मालूम होता है कि आँहज़रत ने ना फ़क़त अपने दोनो नवासों इमाम हसन और इमाम हुसैन के लिए ही अक़ीक़ा की क़ुर्बानी गुज़रानी बल्कि ख़ुद अपने लिए भी (इन नफ्सिही) वो दुआ जो सात दिन के बच्चे के गुनाहों की मग़फ़िरत के लिए बर्रा या बक्री के बच्चे कि क़ुर्बानी चढ़ाए जाने के मौक़ा पर मांगी जाती है मुंदरजा ज़ैल है:—

"ऐ ख़ुदा मेरे बच्चे फ़ुलां फ़ुलां नामी के लिए ये अक़ीक़ा की क़ुर्बानी गुज़रानी जाती है। उसका ख़ून उसके ख़ून के इव्ज़, उसका गोश्त उसके गोश्त के इव्ज़, उसकी हड्डी उसकी हड्डी के इव्ज़, उस का चमड़ा उसके चमड़े के इव्ज़ और उसके बाल उसके बाल के इव्ज़ ऐ ख़ुदा इसे मेरे बच्चे को दोज़ख़ की आग से बचाने का फ़िद्या बना क्योंकि फ़िल-हक़ीक़त मैंने उस की तरफ़ जिसने आस्मान व ज़मीन पैदा किए रुजू किया और मैं तुझ पर ईमान रखता हूँ। मैं इनमें से नहीं जो तेरी ज़ात वाहिद में दूसरों को तेरा शरीक ठहराते हैं। वाक़ई मेरी नमाज़ और मेरा नज़राना बल्कि मेरी ज़िंदगी और मौत ख़ुदा के लिए है जो मालिक-ए-हर दो-जहाँ है और लाशरीक है। मैंने यही तालीम पाई और मैं अहले इस्लाम में से हूँ।"

अहले  इस्लाम में भी फ़सह की मानिंद उस ज़बीहा की कोई हड्डी नहीं तोड़ी जाती। मुक़द्दस यूहन्ना इस ख़ास अम्र पर इशारा करता है जो नबुव्वत के तौर पर लफ़्ज़ बह लफ़्ज़ पूरा हुआ (यूहन्ना 19:36) क्योंकि उस ने कलवरी पर ख़ुदा के बर्रे को देखा जो जहान के गुनाह उठा ले जाता है।"

अहले-इस्लाम और दीगर ग़ैर-मसीही अक़्वाम के लिए इंजील का पैग़ाम इसी मुख़्तसर से जुमला में पाया जाता है। मसीह की सलीब इस्लामी अक़ीदे की ज़ंजीर की ग़ाईबी कड़ी है। मसीह की सलीबी मौत, उसकी ज़रूरत, उसके तारीख़ी वाक़या होने की हक़ीक़त उसके मआनी व मक़ासद, उसके नताइज, उसकी क़ुदरत और उसकी रिक़्क़त व दिलसोज़ी ये तमाम हक़ायक़ इस्लाम के अरबाब-ए-फ़िक्र व दानिश की चश्म-ए-बसीरत से पोशीदा रहे हैं। लेकिन ख़ुदा उन्हें बच्चों पर ज़ाहिर करता है।

जिस वक़्त मुतलाशी हक़ मसीह की सलीब के पास जाकर मस्लूब मसीह पर नज़र करता है तो उस वक़्त उस की तमाम मुश्किलात हल हो जाती हैं। इस्लाम में अफ्आल तसव्वुफ़ भी बावजूद अपनी कमालियत के सलीब के राज़ को ज़ाहिर करने में क़ासिर रहे हैं। बहुत सी रूहों के होलनाक अंजाम का यही सबब है जो मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुंचे बग़ैर मुतवातिर भटकती रहती हैं। ग़ज़ाली, शोअरानी, जलाल उद्दीन अलरोमी, इब्न अलअरबी और इसी क़िस्म के बहुत से मुतलाश्यान-ए-हक़ एक तवील और ख़तरनाक राह पर सफ़र करते रहे हैं। गुनाह और तौबा मग़फ़िरत और ख़ुदा का दीदार हासिल करने के मुताल्लिक़ उनकी जो तालीम है अज़बस कि वो इंजील की तैयारी के लिए मुफ़ीद तो है । ताहम वो कलवरी की बुलंदीयों तक हरगिज़ हरगिज़ नहीं पहुँचती । यही वो मुक़ाम है जहां मुल्क अरब का "मुस्रिफ़ बेटा" ख़ुद भी राह से बिल्कुल गुमराह हो गया और बहुत से लोगों को गुमराह कर गया। अगर हम पैदाइश की किताब के अह्द से लेकर कोह कलवरी के दामन तक तमाम राह ख़ून के निशानों की पैरवी ना करेंगे तो ज़रूर गुमराह हो जाएंगे।

प्रिंसिपल फोरसिथ कहता है कि "रसूलों ने ख़ुदा से दुबारा मेल और सुलह का इन्हिसार हमेशा सलीब और येसु मसीह के ख़ून पर रखा है। अगर कभी हम ऐसा नहीं करते (जैसा कि मौजूदा ज़माना में बहुत से लोग कर रहे हैं) तो अहद-ए-जदीद की ख़ौफ़नाक तौहीन का इर्तिकाब करते हैं । ज़माना हाज़रा के बहुत से क़बीह और मज़मूम ख़्यालात और उनके हज़रत रसां असर की वजह ये है कि वो असल रुहानी मज़्हब होने का दावा करते हुए फ़क़त अहद-ए-जदीद ही को सिरे से नज़र-अंदाज करते हैं बल्कि उस के साथ ही तारीख़ी मसीहीयत को भी वो नाम निहाद नक़्क़ाद आला कि जिनका इन्हिसार एक उसूल या अंसर पर है या अपनी ज़ात माक़ूलात पर है या रुहानी तास्सुरात पर । हाँ यही वो हैं जो अहद-ए-जदीद को उस की मुकम्मल सूरत में तो नहीं मानते लेकिन उसके बाअज़ मुक़ामात की बहुत क़दरो एहतिराम करते हैं।

जब लोग मसीह की "सलीब के बग़ैर" इन्सानी जमात या इन्सानी ज़िंदगी की नजासत को पाकीज़गी में तब्दील करना चाहते हैं तो वो एक लाहासिल शैय के दर पे होते हैं । जब हम दुनिया के हक़ में ख़ुदा के फ़ज़्ल को पूरा होते हुए देखते हैं तो हम फ़ौरन ये कह सकते हैं कि तमाम हवादिस-ए-ज़माना बेहतरी के लिए हैं। ख़ुसूसन जब हम नए ख़्यालात और नए मवाक़े से दो-चार होते हैं । लेकिन जब यूहन्ना तौबा की मुनादी करता हुआ आया तो उस वक़्त पेशीन- गोइयों की तक्मील का वक़्त था। रूमी सल्तनत और यहूदी कलीसिया में बग़ावत के आसार नुमायां थे। बहुत तैयारीयां हो चुकी थीं। निहायत इंतिज़ार की साअत थी। साबिक़ नज़म व नसक़ के मुताल्लिक़ निहायत ना-उम्मीदी थी तो भी यूहन्ना ने उस नए ज़माना को एक जदीद तरीक़ नजात की मुनादी से शुरू किया। यानी "देखो ख़ुदा का बर्रा जो जहान के गुनाह उठाले जाता है।"

हम साबिक़ा निज़ाम की नजात के आर्ज़ूमंद हैं। लेकिन निहायत लाज़िम है कि ये नजात मसीह के ख़ून के ज़रीये से हो।

मसीह की सलीब ही दुनिया की उम्मीद है लेकिन मुतवातिर ख़तरा जो हमें दरपेश है ये है कि हम अपनी तजावीज़ पर बेशतर एतिमाद करते हैं और निहायत तकुब्बुराना अंदाज़ में उनका ज़िक्र किया करते हैं लोगों से हम ये कहना तो भूल जाते हैं । "देखो ख़ुदा का बर्रा !" पर दिखाते क्या हैं? अपनी बर्दारी ! नई तदबीरें ! नया मौक़ा !

एक अजीबो-गरीब तस्वीर जिसमें मसीह सलीब पर लटक रहा है और जो ये ज़ाहिर करती है कि उम्मीद फ़क़त इसी में है ऐसे हैरत-अंगेज़ तरीक़ पर और ख़ूबसूरत रंगों में कफ़्फ़ारा की आलमगीरी और उस की क़ुदरत का इज़्हार करती है कि मुम्किन नहीं कि उसका नक़्श ज़हन से मिट जाये । उस तस्वीर का क़िस्सा यूं है कि बलटीर हिरोनी (Blater Heroni) जो मुल़्क अबीसीनिया के शहर अदीस अबाबा मैं दरबार-ए-ख़ास व आम का सदर था उस ने सवीटज़रलेंड के एक मिशन स्कूल में तालीम पाई थी और अहदे जदीद का तर्जुमा भी अमहरी ज़बान में किया था दौरान जंग उसने बड़ी इज़्ज़त व मर्तबा हासिल किया था। अक़्वाम-ए-आलम के बाहमी अमन व सुलह के मुताल्लिक़ ग़ौर करते हुए उसे ख़्याल गुज़रा कि ये महिज़ मसीह की क़ुर्बानी के ज़रीये से मुम्किन है। फिर उसने चाहा कि अपनी अक़्ल के मुताबिक़ अपने तसव्वुर को ख़त व खाल की सूरत में ज़ाहिर करे चुनांचे उसने अपने ख़्यालात शहर पैरिस के एक मशहूर मुसव्विर के सपुर्द कर दिए जिसका नतीजा वो मशहूर-ओ-मारूफ़ सलीब की तस्वीर है जो ख़्यालात के एतबार से तो निहायत मुहीब है। लेकिन उस के मआनी बिल्कुल साफ़ व रोशन हैं।

तस्वीर मज़कूर निहायत दिलफ़रेब है और उसका पैग़ाम भी एक क़ाइल करने वाला पैग़ाम है हमारा नजात-दिहंदा दुनिया के मशरिक़ी व मग़रबी नसफ़ कुर्राह-ए-अर्ज़ के दरमियान सलीब पर लटक रहा है। उस की पाईन में बादलों से घिरा हुआ धुँदला आस्मान है। मुसीबतज़दा मस्लूब के सर पर ताज ख़ारदार के चौगिर्द आने वाली फ़तह का हाला है। और वो दुनिया के दोनों हिस्सों पर नज़र कर रहा है जिनकी ख़ातिर उसने अपनी जान दी। उस के ज़ख़्मी हाथों से ख़ून बह रहा है जिससे दुनिया के तमाम बर्र-ए-आज़म और जज़ीरे सुर्ख़ हो रहे हैं ये मसीह के ख़ून के वसीले से तमाम दुनिया की नजात की तस्वीर है जिसके नीचे तीन ज़बानों में ये आयत मर्क़ूम है:—

"ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।"

"सबसे आला और उम्दा ख़िदमत ये है कि हम मसीह मस्लूब की मुनादी करें। ख़्वाह वो मुनादी ख़ामोश मजमा में की जाये या मुनाज़राना रंग में। मगर वो इस यक़ीन के साथ कि फ़क़त यही ज़ख़्मी व फ़गारदिलों को शिफ़ा और ईमानदार को उसके रहे-सहे गुनाहों से मख़लिसी देने की एक राह है और फ़तह उसी कलीसिया की है चाहे वो दुनिया के किसी गोशा पर हो या उन घरों में हो जो जहां मसीहीयत अपने उरूज व कमाल पर है। हत्ता कि हमारी मिशनों के दूर-दराज़ और पुरतार यक ख़तों में ही क्यों ना हो जो निहायत संजीदगी और अक़ीदत के साथ उस क़दीम एतिक़ाद की तजदीद करे कि "ख़ुदा ने हम सबकी बदकारीयाँ उस पर लाद दीं" और वो ख़ुद उन अल्फ़ाज़ को ख़ुशी और ख़ुर्रमी के उस नग़मा में कि जिसकी सदाए बाज़गश्त से ज़मीन वा आस्मान गूंज उठेंगे । तब्दील कर देगा ।

"जिसने हमसे मुहब्बत रखी। जिसने अपने ख़ून के वसीले से हमको हमारे गुनाहों से मख़लिसी बख़्शी और हम को एक बादशाहत भी और अपने ख़ुदा और बाप के लिए काहिन भी बनाया। उसका जलाल और सल्तनत अबदलआबाद रहे" आमीन।

प्रिंसिपल जान कईरन्ज़। (John Cairns)


बाब हशतुम

"उन्होंने . . . . जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी"

हालाँकि मुक़द्दस पौलुस ने ये बात महसूस कर ली थी कि मसीह मस्लूब का पैग़ाम हलाक होने वालों के नज़दीक बेवक़ूफ़ी है (1 कुरन्थियो 1:17) यहूदीयों के नज़दीक ठोकर और ग़ैर क़ौमों के नज़दीक बेवक़ूफ़ी है। (1 कुरन्थियो 1:23) लेकिन तो भी उसने ये मुसम्मम इरादा कर लिया कि मसीह मस्लूब के सिवा और कोई पैग़ाम ना दे। गो इसके बाईस उसे बहुत कमज़वी ख़ौफ़ और तज़बज़ब की हालत में से गुज़रना पड़ा। (1 कुरन्थियो 2:3) सलीब का पैग़ाम एक राज़े अज़ीम है। हालाँकि पौलुस ने ख़ुदा की हिक्मत और उस की क़ुदरत को ज़ाहिर किया लेकिन ये फ़क़त रूह के ज़रीये से हुआ जो ख़ुदा की तह की बातें भी दर्याफ़्त कर लेता है (1 कुरन्थियो 4: 10) इसी ख़्याल के ज़िमन में पौलुस ने इस जहान के सरदारोँ की निस्बत जिन्होंने ख़ुदा की हिक्मत के भेद को ना समझा। निहायत बेबाकी से अपनी राय का इज़्हार किया है। यानी

"अगर समझते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते" (1 कुरन्थियो 2:8)

एफ़सस की कलीसिया के बुज़ुर्गों को ख़िताब करते हुए मुक़द्दस पौलुस उनसे भी बढ़कर दिलेराना और दिलकश अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है "पस अपनी और उस सारे गिला की ख़बरदारी करो। जिसका रूहुल-क़ुद्दुस ने तुम्हें निगहबान ठहराया ताकि ख़ुदा की कलीसिया की गल्लाबानी करो जिसे उसने अपने ख़ास ख़ून से मौल लिया" (आमाल 20:28) हम ऐसे दिलेराना इशारात यानी जलाल के ख़ुदावंद का सलीब दिया जाना और ख़ुदा का ख़ून वग़ैरा को सुनकर ज़रा झिझकते हैं। लेकिन जब हम इन अल्फ़ाज़ की सख़्ती को किसी क़दर दूर करने की कोशिश करते हैं तो हम देखते हैं कि यूनानी ज़बान की इस इबारत का बजुज़ उसके और कोई मतलब नहीं।

इस में कुछ शक नहीं कि अमरीका के नए तर्जुमा में (आमाल 20:28) बजाय ख़ुदा के लफ़्ज़ ख़ुदावंद आया है। जो बिल्कुल ग़ैर-ज़रूरी है । एक्सपोज़ीटरज़ बाइबल (Expositor’s Bible) में स्टोक्स कहता है "बाअज़ लोगों ने ख़ुदा के इव्ज़ उसको ख़ुदावंद बाअज़ ने उसके मसीह का लफ़्ज़ पढ़ा है। लेकिन नज़र-ए-सानी शूदा तर्जुमा में वीसटकट हार्ट (औरनील) के तराजिम को सही तस्लीम करते हुए महिज़ नक़्क़ादाना वजूह के पेश-ए-नज़र उस की ज़ोरदार सूरत को क़ायम रखा गया है।

अगनेशीएस (Ignatius) ने मुक़द्दस पौलुस के ख़त लिखे जाने के पच्चास साल बाद अहले इफ्सुस को यूं लिखा "ईमानदार ख़ुदा के ख़ून के बाईस एक ज़िंदा आग की मानिंद भड़क उठते हैं।" इसके सौ साल बाद तरतोलियान भी यही अल्फ़ाज़ यानी "ख़ुदा का ख़ून" इस्तिमाल करता है। दूसरे मुक़ाम में भी यूनानी मतन यक़ीनन सही है और यह अल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस ने इस वाक़ये के सत्ताईस साल बाद लिखे यानी अनाजील के राइज होने से भी पेशतर "अगर वो जानते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते।”

"ये जलाल का बादशाह कौन है ? लश्करों का ख़ुदावंद ही जलाल का बादशाह है" (ज़बूर 24:10)

अहद-ए-अतीक़ और अहद-ए-जदीद दोनो में जलाल के ख़ुदावंद से मुराद वही है जिसकी सिफ़ात में जलाल बादशाह है (ज़बूर 29:1+आमाल 7:2+इफ्सियों 1:17 और याक़ूब 2:1) यानी वो ख़ुदावंद जो अपने ज़ाती व तबई हक़ के मुताबिक़ जलाल का मालिक है ये ख़्याल इलाहिय्यत की रु से बड़ी एहमीयत रखता है क्योंकि ये हमारे ख़ुदावंद की उलूहियत पर इशारा करता है। इसी क़िस्म के दीगर मुक़ामात मसलन (1 कुरन्थियो 11:20 व 1 कुरन्थियो 11:27) जहां "ख़ुदावंद की मौत" और "ख़ुदा का ख़ून और उसका बदन" मज़कूर हैं एहमीयत तो वैसी ही रखते हैं । लेकिन उनके अल्फ़ाज़ इस क़दर मुहीब नहीं। अपनी ज़मीनी ज़िंदगी के अय्याम में भी हमारा नजातदिहंदा पौलुस रसूल के नज़दीक वही ख़ुदावंद था जो अपने ज़ाती और तिब्बी हक़ के मुताबिक़ कामिल जलाल का मालिक है जैसे यूहन्ना के नज़दीक वैसे ही पौलुस के नज़दीक भी कलाम जो मुजस्सम हुआ "इब्तिदा में ख़ुदा के साथ और कलाम ख़ुदा था।"

बिला-रैब एक ईलाही हस्ती एक क़ादिर-ए-मुतलक़ मुनज्जी का सलीब पर कीलों से जकड़ा जाना एक राज़ है जिससे बढ़कर ज़मीन व आस्मान पर और कोई राज़ नहीं। लेकिन इबारत माफ़ौक़ से यही मआनी निकलते हैं। सलीब पर ही हम मसीह में ख़ुदा की मुहब्बत व शफ़क़त को मुजस्सम सूरत में देखते हैं । उस मुक़ाम पर पहुंच कर और आख़िरी तदबीर को पूरा होते देखकर हम सूबादार की मानिंद उस की उलूहियत के क़ाइल हो जाते हैं । ये वो कार-ए-अज़ीम है जो फ़क़त ख़ुदा ही की शान के शायां है लेकिन मसीह ने उसे सलीब पर अंजाम दिया। और हर एक रूह जो उस के ज़रीये से जीत ली जाती है वो मसीह में हो कर ख़ुदा के लिए जीती जाती है।

मसीह अपनी मौत और ज़िंदा होने के ज़रीये से पौलुस पर आलम-ए-मौजूदात का ऐन मर्कज़ साबित होता है वो तमाम मख़्लूक़ात का मब्दा उनके बाहमी यगानगत व रफ़ाक़त का असल उसूल है। उनका अंजाम और उनके तमाम इसरार काहिल है (कुलुस्सियों 1:13 ता 18) इस मुक़ाम को पढ़ कर कोई शख़्स इस अम्र से इन्कार नहीं कर सकता कि मसीह ख़ुदा के जलाल में बराबर का हिस्सादार है।

इसी मुक़ाम के मुताल्लिक़ जहां ख़ुदा के बेटे की उलूहियत पर इशारा है कि जिसकी मुहब्बत में हमारी नजात है। जान कारडीलईर रोमन कैथोलिक सूफ़ी यूं गोया है "अगर सलीब की कुछ हक़ीक़त है तो ये कि वो दुनिया के वजूद की बुनियाद है वो आलम-ए-मौजूदात में एक हयूला से लेकर दूसरे हयूला तक जाती है और दुनिया की हदूद को बाहम मिलाती है और उन्हें अपनी ज़ख़्मी हाथ दिखाती है ज़िंदगी के शोबा जात में तमाम तरक़्क़ी मुहब्बत और रंज-वालम की उस बाहमी टक्कर से पैदा होती है जो उस की असलीयत का राज़ है।

मसीह की पुर-इसरार सऊबत हमारी मुसर्रत व ख़ुशी की बीना है। ये बात निहायत हैरत-अंगेज़ मालूम होती है कि किस तरह कोई माहिर इल्म-उल-हयात मसीही मज़्हब के बजाय किसी दूसरे मज़्हब का पैरौ हो। जिस हाल कि आलम-ए-मौजूदात के हर एक तबक़ा में मसीहीयत का ज़बरदस्त और गहिरा निशान यानी सलीब मौजूद पाता है और वो हर जगह देखता है कि दुख जद्द-ओ-जहद और क़ुर्बानी का उसूल नई पैदाइश के यौमिया अमल में भी वैसे ही कारफ़रमा है जैसे कि जिन्स के बतदरीज कमाल को पहुंचने के लिए उनका होना शर्त है।

बुलंदीयों और पस्तियों में, अंदर, बाहर जिधर नज़र दौड़ाओ हर जगह सलीब मौजूद है। हम मसीह की मौत में फ़क़त ख़ुदा की बेहद मुहब्बत ही को नहीं देखते बल्कि उसके बेहद रंज-वालम और उस की रहमत का भी मुलाहिज़ा करते हैं। एक सौ तीसरे ज़बूर में ये अल्फ़ाज़ मर्क़ूम हैं:—

"जिस तरह बाप बेटों पर तरस करता है ।" और ऐसी मुक़ाम में जे़ल के अल्फ़ाज़ भी दर्ज हैं "पूरब पच्छम से जितना दूर है। उतनी दूर तक उसने हमारी ख़ताओं को हमसे दूर किया।"

सलीब पर ग़म से और मुहब्बत बाहम मिलकर बहते हैं यानी ख़ुदा का रंज-वालम और उसकी की मुहब्बत।

मसीह की उलूहियत की तालीम की जड़ में कफ़्फ़ारा की तमाम मसीही तालीम मौजूद है । अव़्वल-उल-ज़िक्र के मुताल्लिक़ हमारे एतिक़ाद ही से आख़िर-उल-ज़िक्र के मुताल्लिक़ हमारे ईमान का अंदाज़ा लगाया जाता है । महिज़ इन्सान दूसरे इन्सान के गुनाह की सज़ा नहीं उठा सकता । मसीह की शख़्सियत की बुजु़र्गी व शान की अज़ीम हक़ीक़त के मुक़ाबले में उसके फ़िद्या कफ़्फ़ारा होने के मुताल्लिक़ तमाम एतराज़ात यक क़लम व माद्दुम हो जाते हैं।

डाक्टर ग्रेशिम मीचन रक़म तराज़ हैं कि "ये बात बिल्कुल सही है कि मौजूदा उलमाए तिब्बयात के तसव्वुर का मसीह हरगिज़ दूसरों के गुनाहों की सज़ा उठाने के काबिल नहीं हो सकता। लेकिन इसमें और जलाल के ख़ुदावंद में आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ ही अगर मौजूदा मुख़ालिफ़त के मुताबिक़ क़ाइम मक़ाम क़ुर्बानी का ख़्याल बिल्कुल फ़िज़ूल है तो मसीही तजुर्बा के क्या मअनी जो उस पर मबनी है ? मौजूदा आज़ाद ख़्याल कलीसिया के नज़दीक तजुर्बा की बहुत क़दर-ओ-मंज़िलत है।

फिर वो हक़ीक़ी मसीही तजुर्बा जो फ़क़त उस ईमान का नतीजा है। जो कलवरी के पास मिलता है कहाँ से मयस्सर होगा? वो इत्मीनान फ़क़त उस वक़्त हासिल होता है जब इन्सान ये महसूस कर लेता है कि ख़ुदा से मेल पैदा करने में उसकी तमाम कश्मकश और नजात हासिल करने से पेशतर शरीयत के अहकाम की तामील करने में उस की वसई व कोशिश बिल्कुल बेकार व बेसूद ठहरती है और यह जान लेता है कि ख़ुदावंद मसीह ने सलीब पर उस के इव्ज़ जान देकर उस दस्तावेज़ के नक़्श को जो उस के बरख़िलाफ़ सब्त हो चुकी थी मिटा दिया। कौन उस तसल्ली और ख़ुशी के उमुक़ का अंदाज़ा लगा सकता है जो उस मुबारक इल्म से हासिल होती है ! क्या कफ़्फ़ारा फ़क़त एक नज़रिया ही नज़रिया है या इन्सान के तसव्वुरात की फ़रेबख़ुर्दगी ? या क्या ये वाक़ई एक ईलाही सदाक़त है?"

जब पौलुस रसूल मसीह के सलीबी दुख का बयान इस तौर पर करता है जिसका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं तो वो ऐसे बात करता है कि गोया वो आस्मानी हक़ीक़तों का बयान कर रहा है । और "ख़ुदा की तह की बातें" कहता है। (1 कुरन्थियो 2:10) ये इसरार इस क़दर अमीक़ हैं कि इन्सानी फ़लसफ़ा और हिक्मत की उस तक रसाई नहीं। ये इस क़दर बुलंद हैं कि इन्सान का इदराक और उसकी अक़्ल उस तक परवाअज़ नहीं कर सकती।

बहर-ए-काहइल के बाअज़ हिस्से इस क़दर गहरे हैं कि आला से आला आलात भी उसकी तह तक पहुंचने में क़ासिर रह गए। अजराम-ए-फल्की के दरमियान बाअज़ ऐसे सितारे और सय्यारे हैं जहां ज़बरदस्त तरीन दूरबीन के ज़रीये भी चशम इन्सानी की रसाई मुम्किन नहीं। यानी "ऐसी चीज़ें जो ना आँखों ने देखीं ना कानों ने सुनीं ना आदमी के दिल में आईं।"

लेकिन ख़ुदा उन्हें अपने रूह के वसीले से बच्चों पर ज़ाहिर करता है और हालाँकि हम उन्हें समझ नहीं सकते तो भी हम शुक्रगुज़ारी और ख़ाकसारी की रूह से मामूर हो कर ख़ुदा के हुज़ूर सज्दे में गिर पड़ते हैं। सलीब पर हमारे ख़ुदावंद की ज़ात की दोनो फ़ितरतें एक दूसरे से जुदा ना हुईं। उस की हक़ीक़ी इन्सानियत और उसकी ज़ाती उलूहियत बाहम मख़लूतना थीं बल्कि दोनो जुदा जुदा और सरीह तौर पर मौजूद थीं। "ख़ुदा ने मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर लिया।" उस क़ुर्बानी के ज़रीये से मसीह फ़क़त ख़ुदा की मर्ज़ी को ही नहीं बजा ला रहा था बल्कि ख़ुदा मसीह में हो कर इन्सान का अपने साथ मेल मिलाप कर रहा था ये बह अल्फ़ाज़ दीगर अपना मेल मिलाप इन्सान से कर रहा था।

मसीह की मौत ख़ुदा के हुक्म की तामील के मुताबिक़ किसी बहादुर की मौत ना थी बल्कि वो दुनिया के गुनाहों के लिए ख़ुदा के बेटे की मौत थी। इन्जीली बयान के बमूजब मसीह ने अपनी ज़िंदगी के उस मौक़े पर अपना जलाल साफ़ और बैयन तौर से ज़ाहिर किया। ऐसा जलाल जो बाप के इकलौते का जलाल था और जो फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर था। कफ़्फ़ारा कामिल उलूहियत का फे़अल है। क्योंकि बाप ने दुनिया से इस क़द्र मोहब्बत की कि अपने बेटे को बख़्श दिया। खुदा बेटे ने दूसरों की ख़ातिर अपनी जान फ़िद्या में दी। और ख़ुदा रूहुल-क़ुद्दुस ने मसीह को अपनी हुज़ूरी और अपनी क़ुदरत से मामूर कर दिया ताकि वो मौत की बर्दाश्त कर सके और अपनी मुबारक क़ियामत के ज़रीये से उस पर ग़ालिब आए (रोमीयों 1:4)

ना सिर्फ बैत-लहम में बल्कि कलवरी पर भी हम फ़रिश्तों के हम-नवा हो कर ये गा सकते हैं। "ख़ुदा को आस्मान पर तारीफ़ । ज़मीन पर सलामती और आदमीयों में रजामंदी हो।"

फोरसिथ कहता है पस इसलिए हम जे़ल की इबारत के अमीक़ मआनी को समझने की कोशिश करें।" ख़ुदा मसीह में हो कर मेल मिलाप कर रहा था।” मसीह के ज़रीये से नहीं बल्कि ख़ुद मसीह की सूरत में मौजूद हो कर वो अपने मेल मिलाप के काम को अंजाम दे रहा था। ये काम तीनों अक़ानीम बाहम मिलकर कर रहे थे ना फ़क़त उक़नूम सानी यानी बेटा, क़दीम उलमाए इल्म ईलाही का ख़्याल बिल्कुल दुर्रुस्त था कि नजात का फे़अल तीनों अक़ानीम का फे़अल है यानी बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस का जब हम तीनों अक़ानीम के नाम में बपतिस्मा के ज़रीया से किसी को ख़ुदा के साथ मेल मिलाप की अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी में दाख़िल करते हैं तो हम उस का इक़रार करते हैं।

अगर हम उस राज़ की तह तक पहुंचना चाहते हैं तो चाहिए कि उस पर और ज़्यादा ग़ौर-ओ-ख़ौज़ करें। चाहिए कि ये महिज़ हमारा अक़ीदा ही अक़ीदा ना रहे। बल्कि एक तजुर्बा बन जाये। हमने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी। हम ही उसके ख़ून से ख़रीदे गए।

मुक़द्दस एनसलम को रात के वक़्त सलीब के पास दुआ व मनाजात करते हुए सुनिये "ऐ मेरे महबूब ! ऐ मेरे मुशफ़िक़ मसीह ! तूने क्या किया है कि इस क़दर तेरी मिन्नत व सिमाजत की जाये?........मैं ही वो ज़र्ब हूँ जो तुझको लगी और जिस ने तुझे दुख पहुंचाया। तेरी मौत का सबब मैं हूँ। मैंने ही तुझे सख़्त ईज़ा पहुंचाने की कोशिश की।" फिर वो हमारी जानिब रुख़ करके वो अल्फ़ाज़ कहता है जिनकी सदा अब तक हमारे कानों में गूंज रही है" उसकी मौत पर कामिल भरोसा कर किसी और चीज़ पर तवक्कुल ना कर। उस की मौत पर कामिल एतिमाद व तकीया कर उस को अपना मजाद मादा बना और उसी में सुकूनत कर"

मुक़द्दस बरनर्ड जैसे आलिम शख़्स को भी सुनिए "आला तरीन फ़लसफ़ा और मेरी इंतिहाई हिक्मत ये है कि मैं मसीह मस्लूब को जानूं क्योंकि कलवरी आशिक़ों के विसाल का मुक़ाम है।"

ज़रा उस दुआ की तरफ़ भी मुतवज्जा हो जाए जो मुक़द्दस फ्रांसीस से मंसूब है "ऐ मेरे ख़ुदावंद येसु मसीह मैं तुझसे बमिन्नत अर्ज़ करता हूँ कि मुझे मेरे मरने से पेशतर दो बरकतें इनायत फ़र्मा। अव़्वल ये कि मैं अपने अय्याम ज़िंदगी में अपने जिस्म और अपनी रूह में तेरे तल्ख़ तरीं रंज वालम का एहसास कर सकूँ । दोम ये कि मैं अपने दिल में उस बेहद मुहब्बत को पाऊं जिसने तुझे इब्ने ख़ुदा को तरग़ीब दी कि इस क़दर तल्ख़ मुसीबत व अज़ाब को हम गुनाहगारों की ख़ातिर बर्दाश्त करे।"

हम जानते हैं कि मसीह कि मौत और अम्बिया महबूबान-ए-वतन और शहीदों की मौत में बहुत फ़र्क़ है। मसीह की मौत के मुताल्लिक़ पेशीनगोईआं की गईं वो गुनाह से ख़लासी बख़्शने के लिए थी जो उस वक़्त ज़हूर में आई उसके ज़रीये से मौत और क़ियामत पर फ़ौक़ उल-फ़ितरत फ़तह हुई । लेकिन असल फ़र्क़ उस शख़्स की ज़ात में पाया जाता है । जिसने अपनी जान दी क्योंकि "वो ख़ुदा का बेटा था ।" उस में कामिल उलूहियत मौजूद थी कलाम मुजस्सम हुआ और हमारी ख़ातिर मस्लूब हुआ।

कलवरी की सलीब पर दुनिया की सबसे अज़ीमुश्शान चीज़ यानी मुहब्बत ज़ाहिर होती है और दुनिया का सबसे तारीक तरीन राज़ यानी गुनाह और ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का सबसे आला इज़्हार यानी उस की क़ुददुसियतI" इसी को उसने हमारे वास्ते गुनाह ठहराया ताकि हम उसमें हो कर ख़ुदा की रास्तबाज़ी हो जाएं" यही इज़्हार कफ़्फ़ारा है।

डाक्टर काली चरण चैटर्जी जो अड़तालीस साल तक पंजाब में मशहूर-ओ-मारूफ़ मुबश्शिर की हैसियत में ख़िदमत करते रहे और जो कलीसिया ए हिंद में बक़दर शहज़ादा गुज़रे हैं। उनकी सवानिह उमरी में जो कुछ अरसा हुआ शाया हुई हम उनकी जे़ल की गवाही पढ़ते हैं:—

"अक्सर औक़ात मुझसे ये सवाल पूछा गया है कि मैं क्यों हिंदू धर्म को तर्क करके मसीह का शागिर्द हो गया। इसका जवाब ये है कि मसीह की पाक और बे ऐब ज़िंदगी की कशिश ने उसके ख़ुदा की मर्ज़ी के ताबे होने और उस के पुर-मुहब्बत और शफ़क़त आमेज़ आमाल ने मुझे ख़ुद बख़ुद अपनी जानिब खींच लिया। पहाड़ी वाअज़ में उसकी अजीब व गरीब नसीहतों ने और गुनाहगारों के लिए उसकी मुहब्बत ने मुझे उस का गरवीदा बना लिया। मैं उसका बड़ा मद्दाह था और उस से मुहब्बत करता था। राम, कृष्ण, और काली के अवतार जिनकी इज़्ज़त करना मुझे बचपन से सिखाया गया था। महिज़ ज़ोर और ताक़त के अवतार थे। वो बहादुर थे जो हमारी मानिंद गुनहगार थे और हमारे से जज़्बात रखते थे। फ़क़त मसीह ही मुझे पाक और ख़ुदा की मानिंद इज़्ज़त व तारीफ़ के लायक़ मालूम हुआ। वो तालीम जिसकी वजह से मैंने मसीही मज़्हब इख़्तियार करने का फ़ैसला किया मसीह की क़ाइम मक़ाम क़ुर्बानी की तालीम और उसकी अज़ीयत और मौत थी मैंने अपने गुनाहों का एहसास किया और मसीह में एक ऐसे शख़्स को पाया जिसने मेरे गुनाहों की ख़ातिर अपनी जान दी और वो सज़ा जो मेरा हक़ थी उसने ख़ुद उठाई ।"

क्योंकि तुमको ईमान ही के वसीले से फ़ज़्ल और नजात मिली है और यह तुम्हारी तरफ़ से नहीं। ख़ुदा की बख़्शिश ना आमाल के सबब से है ताकि कोई फ़ख़्र ना करे।" मेरे दिल में ये ख़्याल समा गया कि मसीह ने अपनी जान दी और ऐसा करने से वो क़र्ज़ अदा किया जो और कोई शख़्स अदा ना कर सकता था। ये यक़ीन मेरी मसीही ज़िंदगी और तजुर्बा के साथ तरक़्क़ी करता और क़ुव्वत पकड़ता गया और अब मेरी ज़िंदगी का जुज़ु बन गया है । यही मसीहीयत और दीगर मज़ाहिब के दरमियान माबाह-अल-इम्तयाज़ है। जिस वक़्त मैं मसीही हुआ मैंने इस हक़ीक़त को महसूस किया और अब ये मेरे दिल में और भी ज़्यादा पुख़्ता और मुहकम हो गई है।"

गुनाह की ख़ातिर फ़क़त एक नजातदिहंदा का क़ाइम मक़ाम हो कर क़ुर्बान होना ही मसीहीयत और दीगर मज़ाहिब के दरमियान ख़त इम्त्तीयाज़ नहीं बल्कि एक ऐसे नजातदिहंदा की मौत, सब कुछ उस शख़्स की ज़ात व सिफ़ात पर मुनहसिर है जिसने क़ाइम मक़ाम ठहर कर उस सज़ा को कामिल तौर पर उठा लिया।

एनसलम ग्यारहवीं सदी की उस आलिमाना और मनतक़याना रिसाला कर डेविस होमो (Cur Deus Homo) में कहता है:—

"उस ईलाही शख़्स मसीह की ज़िंदगी ऐसी आला अफ़्ज़ल और बीशबहा है कि वो इन गुनाहों से कहीं ज़्यादा वज़नदार है जो उस को सलीब देने के जुर्म से इस क़दर बढ़ गए हैं कि इन्सानी अक़्ल व अंदाज़ा के दायरा से बईद हो गए हैं। मैं तो दुनिया के तमाम गुज़शता, हाल मुस्तक़बिल के मकरूह से मकरूह गुनाहों बल्कि और गुनाहों का भी जो इन्सान की अक़्ल व ख़याल में आ सकते हैं मुर्तक़िब होना कहीं ज़्यादा पसंद करूँ बनिस्बत उस के जलाल के ख़ुदा को सलीब देकर उस एक ख़ौफ़नाक गुनाह-ए-अज़ीम के लिए मुजरिम ठहराया जाऊं" उस की तालीम के मुताबिक़ सिर्फ उलूहियत ही इस काबिल है कि उलूहियत के तक़ाज़ा को कामिल तौर से पूरा कर सके। लेकिन चूँकि इन्सान ने गुनाह किया है इसलिए इन्सान ही को इन्सान के गुनाह की सज़ा उठानी है। लिहाज़ा ये वाजिब बजा और पूरी सज़ा सिर्फ वही उठा सकता है जिसमें उलूहियत और इन्सानियत दोनो पाई जाएं। शायद कोई कहे कि ये तर्ज़-ए-इस्तिदलाल तो अज़्मिना वुसता के उल्मा का है लेकिन आजकल भी हम नमाज़ की किताब में जो आम तौर पर राइज है इन्ही हक़ायक़ का अक़ाइद की सूरत में मुलाहिज़ा करते हैं बल्कि ग़लतीयों से भी उस अक़ीदे का इज़्हार होता है।

औसत दर्जा की अक़्ल का शख़्स। इस क़िस्म के बयानात को सुनकर बड़ा ब्रहम होता है लेकिन फ़क़त उन हक़ीक़तों पर ग़ौर करने ही से हमारी उबूदीयत की रूह को तक़वियत पहुँचती है और हम नमाज़-ओ-याज़त के वक़्त ज़ाहिरदारी के गुनाह से बाज़ रह सकते हैं । अक़ीदों और मतबदीयों के सवाल जवाब की किताबों के मआरिफ़ जब हम पर ख़ूब वाज़िह हो जाते हैं तो ना सिर्फ निहायत पुरलतीफ़ मालूम देते बल्कि हमारे दिलो-दिमाग को फ़र्हत बख़्शते हैं और हमारी अक़्ल व क़यास में भी आ जाते हैं।

कुतुब मुक़द्दसा की "ख़ुदा कि तह की बातों" पर ग़ौर करना अज़-हद मुश्किल है बल्कि शुरू में बाज़-औक़ात उनका मुताला बे-लुत्फ़ सा मालूम होता है। लेकिन ये मौसीक़ी के सुरों के सीखने के मुतरादिफ़ है। कुछ अरसा के बाद अक़ाइद के सुरबाहम मिलकर एक निहायत शीरीं रुहानी राग बन जाते हैं और वो जो इस्तिक़लाल के साथ बराबर उस में मुनहमिक रहता है। आख़िर-कार ख़ुदा की उस दौलत व हिकमत और मुताल्लिक़ मज़ीद तजस्सुस और तफ़तीश में कामयाब होता है जो अज़बस अमीक़ है।

पस हम फिर मुक़द्दस पौलुस के अल्फ़ाज़ की जानिब मुतवज्जा होते हैं । बल्कि उन अल्फ़ाज़ की तरफ़..................जो ख़ुदा की रूह की हिदायत से लिखे गए यानी उन्होंने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी" ख़ुदा की कलीसिया............जिसे उस ने ख़ास अपने ख़ून से मोल लिया।"

मसीह की शख़्सियत में दो फ़ितरतें मौजूद हैं असली व हक़ीक़ी उलूहियत व इंसानियत उसकी ज़ात में मौजूद हैं लेकिन ये दोनों फ़ितरतें बाहम दीगर मख़लूत नहीं। ख़ुदा ने सलीब पर दुख उठाया। लेकिन अपनी ईलाही फ़ित्रत व ज़ात के एतबार से नहीं बल्कि इन्सान होने की हैसियत में I हुकर (Hooker) कहता है कि जब रसूल फ़रमाता है कि "यहूदीयों ने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी" (1 कुरन्थियो 2:8) तो हमें जलाल के ख़ुदावंद से मसीह की कामिल ज़ात मुराद लेनी चाहिए । जो जलाल का ख़ुदावंद होते हुए हक़ीक़त में सलीब पर मारा गया। लेकिन इस लिहाज़ से नहीं जिसके एतबार से वो जलाल का ख़ुदावंद कहलाता है। बईना जब इब्ने आदम ज़मीन पर होते हुए ये दावा करता है कि इब्ने आदम उसी वक़्त आस्मान पर भी मौजूद था (यूहन्ना 3:13) तो इब्ने आदम से मसीह की कामिल शख़्सियत मुराद है जो मुजस्सम हो कर ज़मीन पर मौजूद होते हुए आस्मान पर भी जल्वा-अफ़रोज़ था। लेकिन उस एतबार से नहीं जिसकी रु से उसे इन्सान कहा गया है ।

मौत का फ़तवा लगाए जाने से पेशतर मसीह ने ख़ुद सरदार काहिन के सामने अपनी अटल इन्सानियत और उलूहियत का जिस क़दर ज़बरदस्त इक़रार मुम्किन था किया। ये बयान तमाम इजमाली अनाजील में दर्ज है (मत्ती 26:64, मरकुस 14:62+लूक़ा 22:7) "मगर येसु चुप ही रहा। सरदार काहिन ने खड़े हो कर उस से कहा तू जवाब नहीं देता?.......मैं तुझे ज़िंदा ख़ुदा की क़सम देता हूँ कि अगर तू ख़ुदा का बेटा मसीह है तो हम से कह दे येसु ने उससे कहा तूने ख़ुद कह दिया (मरकुस के बयान के मुताबिक़ "मैं हूँ") बल्कि मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि इसके बाद तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दाहिनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादलों पर आते देखोगेI इस पर सरदार काहिन ने अपने कपड़े फाड़े कि उस ने कुफ़्र बका है। अब हमें गवाहों की क्या हाजत रही? देखो तुमने अभी ये कुफ़्र सुना है। वो क़त्ल के लायक़ है। इस पर उन्होंने उसके मुँह पर थूका।"

मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है कि इनमें से किसी ने ना जाना "क्योंकि अगर जानते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते।" लियोअ आज़म जो एक ज़बरदस्त आलिम इलाहियात गुज़रा है कहता है कि "हमारे नजातदिहंदा की ज़ात में दो फ़ितरतें मौजूद थीं। हालाँकि दोनों की ख़ुसूसीयतें जुदागाना बराबर क़रार रहें तो भी दोनो के जवाहर में ऐसी अज़ीम यगानगी थी कि जिस वक़्त से कलाम मुजस्सम हो कर कुँवारी के बतन में आया हम उस की उलूहियत का बग़ैर उसकी इन्सानियत के और उस की इन्सानियत का बग़ैर उस की उलूहियत के ज़िक्र नहीं कर सकते। दोनो फ़ितरतें अपनी असलीयत के अपने मख़्सूस आमाल के ज़रीया से जुदागाना ज़ाहिर करती हैं। लेकिन ऐसा करने से अपना बाहमी रिश्ता व ताल्लुक़ तोड़ती नहीं। दोनो एक दूसरे के तक़ाज़ों को कामिल तौर से पूरा करती हैं। अज़मत व बुज़ुर्गी के साथ कामिल अदनापन मौजूद है और अदनापन के साथ ही कामिल अज़मत व बुज़ुर्गी मौजूद है। यगानगी बे-तरतीबी पर मुंतिज नहीं। ना मौज़ूनियत निफ़ाक़ पैदा करती है एक चीज़ काबिल-ए-गुज़र है।

दूसरी नाक़ाबिल-ए-गुज़र और जलाल का हक़दार है इसी के हिस्से में हक़ारत व रुसवाई भी है जो तवानाई व ताक़त का मालिक है उस के हिस्सा में कमज़ोरी भी है यही शख़्स लायक़ व क़ाबिल और मौत पर ग़ालिब आने वाला है। ख़ुदा ने कामिल इन्सान की सूरत इख़्तियार की और ख़ुद इन्सान की ज़ात में ऐसा मिल गया और उस को अपनी शफ़क़त व ज़ोर में ऐसा मिला लिया कि दोनो ज़ातें एक दूसरे में आ गईं। लेकिन दोनो ने बाहम मिल जाने के बावजूद भी अपनी ख़ासतयों को बरक़रार रखा।

पस मसीह की सलीबी मौत में इन्सानी अज़ीयत व बेहुरमती उलूहियत के बाईस हक़ीक़ी ईलाही मुसीबत में तब्दील हो गई । क्योंकि उलूहियत इन्सानी रूह और जिस्म के साथ ज़ाती एहसास की यगानगी के सबब एक हो गई। चूँकि मुसीबत उठाने वाला शख़्स लामहदूद है । इसलिए मुसीबत भी लामहदूद है। ख़ुदा के बेटे ने मुझसे मुहब्बत रखी और अपने आप को मेरे इव्ज़ फ़िद्या में दे दिया। ख़ुदा ने कलीसिया को अपने ख़ून से ख़रीद लिया।


ख़ुदावंदा थकामाँदा हूँ मैं जब
मुझे तक्लीफ़-दह हूँ तेरे अहकाम
ज़बां बार-ए-गराँ से जब होशा की
दिखा हाथ अपने तब अनेक फ़रख़ाम
दिखादे हाथ ख़ून-आलूदा अपने
जड़े थे काठ पर जूए नकोनाम

कभी जो पांव मेरे लड़खड़ाएं
करूँ आगे को जाने से मैं इन्कार
अगर हो आबला पाए से दहश्त
हो मेरी राह सुनसान और पुरख़ार
तू अपने पांव वो मुझको दिखादे
कि जिनमें कीलों के अब तक हैं आसार

ख़ुदावंदा नहीं ये मुझमें जुरात
दिखाऊँ अपने दस्त वपा की हालत
(बिशप बीडली साहिब की नज़म का तर्जुमा)


बाब नहम

"उसने अपने हाथ उन्हें दिखाए"

(यूहन्ना 20:19-29)

फिलिप्पियों के ख़त में मुक़द्दस पौलुस मसीह के साथ अपनी रिफ़ाक़त और दोस्ती पैदा करने में तीन मनाज़िल का ज़िक्र करता है। अव़्वल मसीह का इल्म जो दोस्त व दुश्मन से निहायत तक्लीफ़-दह ज़राए से उसे हासिल हुआ। दोम उसने दमिशक़ को जाते हुए राह में ख़ुद मसीह को देखा और "उसके ज़िंदा होने की क़ुदरत" तजुर्बा किया। क्योंकि ज़िंदगी उसके लिए मसीह थी।

आख़िरकार वो मसीह की मुसीबत में शरीक होने का ज़िक्र करता है और उसको अपनी दोस्ती की आख़िरी मंज़िल कहता है। यानी मसीह के साथ क़ुर्बान होने की ज़िंदगी में शरीक होना और मसीह के सलीबी दुख के पियाले को औरों की ख़ातिर पीना बल्कि उनकी ख़ातिर मौत तक गवारा करना।

मसीह के आशिक़ के नज़दीक सलीब का अक्स एक हमागीर अक्स है जो ज़मानों और दुनिया के ममालिक पर हावी है हत्ता कि रोज़ मह्शर तक पहुंचता है। "तुम्हारी सलामती हो और ये कह कर उस ने अपने हाथ और पसली उन्हें दिखाई।" मसीह ने अपने शागिर्दों को जीत लेने के लिए ज़ख़्मों के दाग़ों को मुतल्लिक़न ना छुपाया। उसके जलाली बदन पर उसके ईज़ा उठाने के निशान मौजूद हैं। वो उसकी शनाख़्त के सबूत हैं। उस के ग़ालिब आने का ऐलान करते हैं और उस के शाहाना इख़्तियार और उसकी नजात बख़्श क़ुदरत की अलामत हैं "पस शागिर्द ख़ुदावंद को देख कर ख़ुश हुए येसु ने फिर उनसे कहा कि तुम्हारी सलामती हो। जिस तरह बाप ने मुझे भेजा है इसी तरह में भी तुम्हें भेजता हूँ।"

थौरवाल्डसन (Thorwaldsen) ने जो मुल़्क हॉलैंड का एक मशहूर संग तराश गुज़रा है इस नज़ारा को संग मरमर में तराशा है। कोपनहेगीन के एक गिर्जाघर में उस का तराशा हुआ ज़िंदा मसीह का बुत खड़ा है। वो अपने हाथ फैलाए अपने शागिर्दों को सुलह व सलामती के पैग़ाम की इशाअत के लिए रवाना कर रहा है । गिरजा के दोनो जानिब बारह शागिर्दों के छः बुत खड़े हैं। यहूदा इस्क्रियुती की जगह पौलुस लिए हुए है ये नज़ारा दिलो-दिमाग पर एक अजीब कैफ़ीयत पैदा करता है । मसीह सलीब पर नहीं बल्कि तख़्त-नशीन होने को तैयार है लेकिन ज़ख़्मों के दाग़ लिए हुए है। मुसव्वर की कारीगरी मसीह के लबों से उस दो गोना पैग़ाम की भी मज़हर है कि जिसका ज़िक्र इंजील यूहन्ना में आया है यानी तुम्हारी हो और जिस तरह बाप ने मुझे भेजा है इसी तरह मैं भी तुम्हें भेजता हूँ ।"

सलीब ना फ़क़त कफ़्फ़ारे की मज़हर है बल्कि वो एक निहायत आला नमूना भी पेश करती है वो हमारी "रूह के लिए इत्मीनान और सलामती का पैग़ाम है और हमें इज्तिहाद की दावत देती है। वो गुनहगार के लिए एक ख़ास मक़्सद के इलावा एक पैग़ाम भी रखती है। वो जिन्होंने एक मर्तबा मसीह के दाग़ों में सलीब का नज़ारा देख लिया है उनमें ज़रूर तब्दीली वाक़े होती है।"

मसीह सब के वास्ते मुआ कि जो जीते हैं वो आगे को अपने लिए ना जिएँ बल्कि उसके लिए जो उन के वास्ते मुआ और फिर जी उठा।" हमको उसी के ख़ून के वसीले से सलामती हासिल होती है और उसके नमूने से रिसालत ।

ये निहायत अजीब बात है कि मसीह ने अपने जी उठने के बाद अपने दाग़ अपने शागिर्दों को दिखाए। उन्होंने अमाउस में से रोटी तोड़ते वक़्त पहचान लिया। हालाँकि वो उसकी शक्ल व शबहात और उस की तर्ज़-ए-गुफ़्तगु से उसे ना पहचान सके। उसने अपने दाग़ दिखाकर अपने दस शागिर्दों को अपनी शनाख़्त कराई और अपने दुबारा ज़िंदा होने का क़ाइल किया उसके दाग़ों की वजह ही से एक हफ़्ता के बाद तोमा अपनी कम एतिक़ादी का क़ाइल हो कर बोल उठा। "ऐ मेरे ख़ुदावंद ऐ मेरा ख़ुदा" उसके हाथ और उस की पसली के दाग़ ही ख़ुदा के साथ हमारे मेल मिलाप की मुहर और निशान हैं और हमें ख़िदमत करने और क़ुर्बान होने की दावत देते हैं।

हेईन (Heine) नामी एक जर्मन शायर क़दीम दुनिया के देवताओं को अपने ज़ियाफ़त के कमरे में दुनिया को तस्ख़ीर और फ़तह किए हुए तख़्त नशीन तसव्वुर करता है । इन के सामने एक मुफ़लिस व ग़रीब दहक़ान सलीब के बोझ से दबा हुआ दाख़िल होता है और सलीब को मेज़ पर दे मारता है। शहवत और जफ़ा के देवता मायूस हो कर फ़ौरन मर जाते हैं। क़दीम दुनिया के देवता मौजूदा दुनिया की बातिल और फ़ानी खूबियां हैं। जब मसीह की सलीब का अक्स किसी शख़्स की ज़िंदगी पर पड़ता है तो उसी वक़्त वो पुरानी बातिल और फ़ानी खूबियां मादूम हो जाती हैं और उनके इव्ज़ एक अजीब नई ज़िंदगी मारज़-ए-वजूद में आती है जो ग़ैर-फ़ानी ख़ूबीयों पर मबनी होती है।

इन्जीली बयानात से मालूम होता है कि हमारे खुदावंद ने अपनी ज़बान-ए-मुबारक से दुनिया के मुताल्लिक़ चार फ़रमान दीए। मुक़द्दस मत्ती दुनिया की तमाम अक़्वाम को शागिर्द बनाने का सबब बताता है। "आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तयार मुझे दिया गया है। पस तुम जाकर" . . . . . मुक़द्दस मरकुस की जगह के मुताल्लिक़ हमारे ख़ुदावंद के ये अल्फ़ाज़ लिखता है "तुम दुनिया में जाकर सारी ख़ल्क़ के सामने इंजील की मुनादी करो।" मुक़द्दस लूक़ा उस ख़िदमत की तर्तीब पर ज़ोर देते हुए मसीह के अल्फ़ाज़ दोहराता है। "और यरूशलेम से शुरू करके सारी क़ौमों में तौबा और गुनाहों की माफ़ी उसके नाम से की जाएगी।" मुक़द्दस यूहन्ना सबसे अहम- तरीन बात पर ज़ोर देता है और उस रूह को ज़ाहिर करता है जो उस ख़िदमत में हमारी हिदायत करती और हम पर हुकूमत और इख़्तियार रखती है "जिस तरह बाप ने मुझे भेजा है। उसी तरह मैं तुम्हें भेजता हूँ।" नौकर अपने मालिक से बड़ा नहीं होता। हमें उसका हम ख़िदमत होना और उसी इख़्तियार के मातहत रहना है।

हमारा पैग़ाम भी वही है और इसी क़िस्म की तक्लीफ़ व मुसीबत हमें भी बर्दाश्त करनी है। यूहन्ना निहायत सादा अल्फ़ाज़ में बाद ताम्मुल ये कहता है। "उसने हमारे वास्ते अपनी जान दी और हम पर भी भाईयों के वास्ते जान देनी फ़र्ज़ है।"

सलीब ख़िदमत के लिए एक ज़बरदस्त मुहर्रिक है। येसु मसीह को अपने मिशन की ख़ातिर शहीदा पैदा करने के लिए फ़क़त अपने दाग़ दिखाने की ज़रूरत है "जब वो जिन्होंने उसे छेदा है उस पर नज़र करेंगे।" तो ख़ुदा हर एक पर क़ुर्बानी की रूह नाज़िल करेगा। और हर एक उससे पूछेगा कि तेरे हाथों पर क्या ज़ख़्म हैं तो वो जवाब देगा ये वो ज़ख़्म हैं जो मुझे अपने दोस्तों के घर से लगे (ज़करीया 12:10 व 13:16) जब येसु मसीह दमिशक़ की राह में साऊल पर ज़ाहिर हुआ तो ज़रूर उसने भी आस्मानी नूर की रोशनी में मेख़ों के निशान उस के हाथों में और भाले के निशान उसकी पसली में देखे होंगे। तू मुझे क्यों सताता है? "मसीह हूँ जिसे तू सताता है" . . . . . मैं उसे जता दूंगा कि उसे मेरे नाम की ख़ातिर किस क़दर दुख उठाना पड़ेगा।"

ये कोई ताज्जुब की बात नहीं कि मुक़द्दस पौलुस अपनी रसुली ख़िदमत और मसीह के दुख उठाने का बयान करते हुए एक अजीब लफ़्ज़ का इस्तिमाल करता है। ये लफ़्ज़ उस मुक़ाम के इलावा एक मर्तबा और इस्तिमाल हुआ है। ये एक यूनानी लफ़्ज़ है जिसके मअनी लूक़ा की इंजील में "नादारी किया गया है और कुलुस्सियों के ख़त में "कमी" मुक़द्दस लूक़ा की इंजील में हम उस बेवा का हाल पढ़ते हैं जिसने अपनी नादारी की हालत में जितनी पूँजी उस के पास थी खज़ाने में डाल दी। पौलुस रसूल भी इसी यूनानी लफ़्ज़ का इस्तिमाल करता है जिसके मअनी उस ख़त में "कमी किए गए हैं।" अब में इन दुखों के सबब से ख़ुश हूँ "जो तुम्हारी ख़ातिर उठाता हूँ और मसीह की मुसीबतों की कमी उसके बदन यानी कलीसिया की ख़ातिर अपने जिस्म में पूरी किए देता हूँ" कलवरी की नादारी या कमी !

अहले यहूद के नज़दीक दुख उठाना एक ऐसा मसला था जिसका हल करना मुश्किल था। लेकिन मसीही के लिए ये एक ख़ास मन्सब बन गया जिसमें वो अपने मौला का हिस्सादार हो सकता है। शाऊल यहूदी ने दुख उठाने के मसले को अय्यूब और उस के तीन दोस्तों की रूह से हल करना चाहा और वो लाएख़ल साबित हुआ। लेकिन पौलुस मसीही ने मसीह के दाग़ देखे और उस ने महसूस कर लिया कि यहोवाह का सादिक़ बंदा हमारे गुनाहों के लिए घायल किया गया और हमारी ही बदकारियों के बाईस कुचला गया। लिहाज़ा वो फ़रमाता है "इसलिए मसीह की ख़ातिर कमज़ोरीयों में बे अज़िय्यतों में, इहितयाजों में, सताए जाने में और तंगियों में ख़ुश हूँ।"

ज़िंदा मसीह का जलाल ये है कि हम उस के दाग़ों को पहचान लें और तोमा के साथ मिलकर मेख़ों के निशानों में अपनी उंगलियां डालें और कहें "बस काफ़ी है अब तू अपने ग़ुलाम को अपने कलाम के मुवाफ़िक़ सलामती से रुख़स्त देता है क्योंकि मेरी आँखों ने तेरी नजात देख ली है"

"ऐ मेरे ख़ुदावंद ऐ मेरे ख़ुदा ! पुर जलाल मुक़द्दसिन के लिए इससे बढ़कर और क्या ख़ुशी व मसर्रत हो सकती है और इस तजुर्बे से बेहतर तजुर्बा और कौनसा हो सकता है कि मसीह के दाग़ों को देखें और उस के हुज़ूर सरबसजूद हों। मर्यम मगदलेनी को भी मसीह के सर पर तेल मलते वक़्त ये नसीब ना हुआ कि उस के दाग़ों को चूमे, फ़लक पर मलाइक आर्ज़ूमंद हैं कि उनको देखें लेकिन जब वो उस नजात बख़्श मुहब्बत का मुलाहिज़ा करते हैं तो अपने चेहरों को छुपा लेते हैं।

"उस ने अपने हाथ......उन्हें दिखाए" क्या उसने अपने हाथ कभी आपको भी दिखाए! एसीसी के मुक़द्दस फ्रांसीस ने मसीह के दाग़ों पर ग़ौर करते वक़्त इस क़दर वक़्त सर्फ़ किया कि आख़िरकार उसके बदन पर नजातदिहंदा के निशान ज़ाहिर हो गए। लेकिन मसीह के दाग़ों से कहीं ज़्यादा मसीह की सलीब बर्दारी के सबूत उस की रोज़ाना ज़िंदगी में नुमायां थे।

जब एसीसी के बरनरड ने मुक़द्दस फ्रांसीस की पैरवी करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो ये फ़ैसला हुआ कि वो बिशप साहिब के मकान पर जाएं। और वहां मास 1 में शामिल हों । फिर मुक़द्दस फ्रांसीस ने कहा "बाद अज़ नमाज़ हम दुआ में मशग़ूल रहेंगे और ख़ुदा की मिन्नत करेंगे कि तीन मर्तबा नमाज़ की किताब खोलने के ज़रीया से वो अपनी मर्ज़ी हम पर ज़ाहिर करे और हमें बताए कि हम कौनसा राह इख़्तियार करें "पहली मर्तबा किताब खोलने पर वो अल्फ़ाज़ निकले जो हमारे ख़ुदावंद ने उस नौजवान को जो उस से कामलीयत का दर्स लेने आया था फ़रमाए यानी "अगर तू कामिल होना चाहता है तो जा अपना माल व असबाब बेच कर ग़रीबों को दे . . . . . और आकर मेरे पीछे हो ले" (मत्ती 19:21) दूसरी मर्तबा किताब खोलने पर वो अल्फ़ाज़ निकले जो मसीह ने अपने शागिर्दों को मुनादी के लिए रवाना करते वक़्त फ़रमाए यानी "राह के लिए कुछ ना लेना ना लाठी ना झोली ना रुपया ना दो-दो कुर्ते रखना" (लूक़ा 9:3) तीसरी मर्तबा मरकुस 8:34 आयत निकली "अगर कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपनी ख़ुदी से इन्कार करे और अपनी सलीब उठाए और मेरे पीछे हो ले" फिर मुक़द्दस फ्रांसीस बरनर्ड से मुख़ातब हो कर कहने लगा "मसीह की सलाह को सुनो और उस पर अमल करो। हमारे ख़ुदावंद येसु मसीह का नाम मुबारक हो। जिसने अपनी मर्ज़ी हम पर ज़ाहिर की कि हम उस की मुक़द्दस इंजील के मुताबिक़ ज़िंदगी बसर करें।"

बादअज़ां उस ने और साथ के बाक़ी दरवेशों ने इंतिहाई दरवेशाना ज़िंदगी बसर करनी शुरू की और एक वीरान जज़ाम ख़ाना में सुकूनत इख़्तियार की बीमारों, मुफ़लिसों और बेकसों की इमदाद करते और वसीअ पैमाना पर इंजील जलील की बशारत का काम करते थे और हलक़ा रोज़ बरोज़ बढ़ता गया हत्ता कि उसमें मुल्हिद और अहले इस्लाम भी शामिल होने लगे। मिस्र में सुल्तान कामिल के रूबरू फ्रांसीस ने अपने ईमान की ख़ातिर मुसीबत बर्दाश्त करने के लिए मुस्तइद और रज़ामंद होने का सबूत दिया। दुनयावी फ़िक्रों से बेनयाज़, ख़िदमत में ख़ुश, उस का हुलुम , इसकी फ़िरोतनी और उसका बच्चों का सा ईमान मुनाज़िर क़ुदरत के लिए उसका शौक़, आम्मतुन्नास के लिए उस की बेहद मुहब्बत, यही उसके दाग़ थे यानी उसके जिस्म पर मसीह के ज़ख़्मों के निशान ।

एक मर्तबा एक मुस्लिम सूफ़ी से मेरी मुलाक़ात हुई । वो अहले-तसव्वुफ़ में से था और निहायत मुफ़लिसाना ज़िंदगी बसर करता था। जब में दाख़िल हुआ तो वो तस्बीह पढ़ रहा था जिसके निनानवे दानों से अल्लाह के निनानवे ख़ूबसूरत नाम मुराद हैं जब हम इन निनानवे नामों के ख़वास और एक तालिब-ए-ख़ुदा के नज़दीक इन नामों के मुतालिब पर गुफ़्तगु कर रहे थे और कह रहे थे कि अल-ग़ज़ाली और दीगर सुफ़याए किराम ने तालीम दी है कि हमें हक़  तआला की सिफ़ात पर ख़ूब ग़ौर करना चाहिए ताकि हम उसकी रहमत व शफ़क़त व महरबानी की नक़ल कर सकें । तो उस ने मेरी तरफ़ मुतवज्जा हो कर कहा "ये ज़रूर नहीं कि हम ख़ुदा के नामों को याद करने के लिए तस्बीह करें क्योंकि वो तो हमारे हाथों पर कुंदा हैं" फिर उसने अपने हाथ फैला कर अपनी हथेलियाँ मुझे दिखाई जिनमें अरबी आदाद 81 और 18 बाएं और दाएं हाथों में ख़ूब गहरे खुदे हुए हैं और जिन का मजमूआ निनानवे है। उस ने कहा "यही वजह है कि हम दुआ व इल्तिज़ा करते वक़्त अपने हाथ फैला कर ख़ुदा को उस की पुर-शफ़क़त सिफ़ात याद दिलाते हैं और उस से उस के फ़ज़्ल की इलतिमास करते हैं।"

मैंने मसीह के दाग़ों के मुताल्लिक़ उससे गुफ़्तगु की और उसे बताया कि उसने हमारे गुनाहों को सलीब पर उठा लिया "मैं तुझे ना भूलूँगा . . . . . देख मैंने तेरी तस्वीर अपनी हथेलियों पर खोदी हुई है।"

उन्होंने उसके हाथ और पांव को छेदा वो दाग़ उस के जलाली बदन पर अब तक मौजूद हैं और उन्हें जो उस के नाम से कहलाते हैं उस की शागिर्दी इख़्तियार करने की दावत देते।

उनकी रिसालत के लिए कसौटी का काम देते हैं। मसीह का पैरौ होना कोई आसान काम नहीं। उसके मुतालिबात निहायत सख़्त हैं जब तक कोई सब कुछ तर्क ना कर दे वो उसका शागिर्द नहीं हो सकता। ताज बग़ैर सलीब के हासिल करना ग़ैर-मुमकिन है।

मसीह ने अपने आपको हक़ीक़ी दीवार ज़ैतून या बलूत का दरख़्त नहीं कहा बल्कि हक़ीक़ी अंगूर की बेल कहा है। फ़क़त यही एक बेल है जो खन्बे से बाँधी जाती और दूसरों की ख़ातिर बाग़बान की मिक़राज़ का तख़्ता मश्क़ बना रहता है। हर एक शाख़ तराशी जाती है और जहां शिगाफ़ ज़्यादा गहरे आते हैं वहीं फल ज़्यादा लगने की उम्मीद भी ज़्यादा होती है।

हम मसीह की शराकत में शरीक होने के लिए बुलाए गए हैं। लेकिन ये शराकत तक्लीफ़ व मुसीबत की शराकत है। रोज़ अव़्वल ही से लेकर ये ज़मीन ज़ुल्मत और नूर की ताक़तों की आख़िरी ज़ोर-आज़माई के लिए एक मैदान मुक़र्रर हो चुकी है।

मसीह की शराकत ही असल रसूली तसलसुल है। शहीदों का ख़ून हर एक मुल्क और ज़माने में कलीसिया की बीच रहा है। पौलुस रसूल फ़रमाता है "आगे को कोई मुझे तक्लीफ़ ना दे क्योंकि मैं अपने जिस्म पर मसीह के दाग़ लिए फिरता हूँ।"

डेविड लोन्गसटन, हैनरी मार्टिन, मेरी सलीसर, जेम्स गिलमोर और कैथ फ़ाकज़ की सवानिह उम्रियाँ मेख़ों के दाग़ लिए हुए हैं। हमारी तजावीज़ का मलिया-मेट होना। हमारी उम्मीदों का नाउम्मीदी में तब्दील हो जाना हमारे तसव्वुरात का माज़ोम हो जाना हमारे फ़ैसलों का तक्लीफ़-दह साबित होना। हमारी ख़ुशीयों का रंज-वालम बन जाना और बाग़ गतसमनी में हमारा जांकनी की हालत में रहना ये सब अगर मसीह की सलीब उठाना नहीं तो और क्या हैं? दुआ का जवाब ना पाने पर सब्र करना। पोशीदगी में ख़ुद इंकारी करना। पेशवाई में तन्हा रहना ये सब तंबीहीं हैं और उनका हिस्सा हैं। जो हक़ीक़ी फ़र्ज़ंद हैं और हरामज़ादे नहीं। “हम हर वक़्त अपने बदन में मसीह की मौत लिए फिरते हैं । ख़ुदा के खादिमों की तरह हर बात से अपनी ख़ूबी ज़ाहिर करते हैं । बड़े सब्र से मुसीबतों से, इहितयाजों से, तंगियों से कोड़े खाने से क़ैद से, हंगामों से मेहनतों से बेदारियों से और फ़ाक़ों से ।"

आस्मान के बारह दर हैं और वो जिनके नाम शहर मुक़द्दस की बुनियाद पर कनुंदा हैं सब के सब अपने मालिक के दाग़ लिए हुए हैं। हर एक दर एक गौहर है। यानी गौहर क़ुर्बानी ।

कश्मीर के एक मिशनरी ने उस बदन के लिए जो सरापा ख़ुदा के आगे नज़र किया जा चुका है एक दुआ लिखी है । क्या ये हमारी दुआ नहीं हो सकती? "ऐ मालिक ! हम अपना गोश्त, अपनी हड्डियां, अपने आज़ो अपना बंद तेरी ख़िदमत के लिए पेश करते हैं । हमें उसे अपने जलाल के लिए इस्तिमाल करना सिखा। हमारी हिदायत कर कि हम उसे एक कल की तरह दरुस्त रख सकें जो बतौर एक अमानत किसी ख़ास मक़्सद के लिए हमारे सपुर्द की गई है। हमें सिखा कि हम उसे बलापस व पीश, सख़्ती और इस्तिक़लाल के साथ इस्तिमाल करें लेकिन बजा तौर पर नहीं और जब ये रफ़्ता-रफ़्ता फ़र्सूदा हो जाएगी तो ये बख़्श कि हम उस यक़ीन से ख़ुश हों कि ये तेरे लिए सर्फ़ हो रहा है - आमीन।"

"मसीह हमारा पशीर व मौत पर ग़ालिब आकर अज़लियत के दरवाज़े खोलता है जो हमारे लिए बंद थे और हमारी रूह को उन के अंदर दाख़िल होने देता है। उस हकीम अज़ली ने सलीब और गुर की राह से गुज़र कर और सच्चाई और हक़ की फ़िज़ा में दाख़िल हो कर हमें ये रास्ता दिखाया। ये राज़ बताया और क़ुदरत और इख़्तियार का वो लफ़्ज़ हमें सिखाया कि जिस के मुँह से निकलते ही आलम-ए-रूहानियत के दरवाज़े हम पर यक-दम खुल जाते हैं।

अगर जहान के नूर ने गुर की ज़ुल्मत को नूर में तब्दील ना कर दिया होता और उस घिनौने पन को जो जिस्म की नज़ाकत और क़ब्र की सख़्ती के बाहमी मेल से पैदा होता है। पाकीज़गी में ना बदल दिया होता तो वाक़ई उसने हमारे लिए कुछ भी ना किया होता आओ वो जगह देखो जहां कामिल मुहब्बत रखी गई थी ! (इक़तिबास अज़ पाथ औफ़ इटर्नल विज़डम" (अज़ली हिक्मत की राह) मन तस्नीफ़ जान कौरडीलियर)


 


1. रोमन कैथोलिक फ़िर्के की सुबह कि नमाज़

बाब दहम

"उसके जी उठने की क़ुदरत"


 

Man kneeling before the Cross
Coming to the Savior

 

यूजीन बरननड की एक नादिर किताब है जो "होली स्टर डे" के नाम से कहलाती है। उसमें मसीह के ग्यारह शागिर्द दिखाए हैं जो अहले-यहूद के ख़ौफ़ से दरवाज़े बंद किए बैठे हैं। ना उन के बूशरों से बशाशत का नूर चमक रहा है और ना ख़ुशी का तबस्सुम उन के चेहरों पर नज़र आ रहा है। ये उन की ज़िंदगी की तारीक तरीं शाम है। येसु क़ब्र में मदफ़ून है और उन की उम्मीदें भी उसके साथ ही मदफ़ून हैं वो कह रहे हैं "हमको उम्मीद थी कि इस्राइल को मख़लिसी यही देगा। लेकिन अब हमारा यक़ीन जाता रहा । हमने गलील में झील के क़रीब उस के जलाल, और उस की क़ुदरत को देखा। गलगता में हमने उस का दर्दनाक चिल्लाना सुना और अपनी आँखों से उस की जांकनी भी देखी। फिर अरमतीह का यूसुफ़ उसकी लाश ले गया और हम ने उसे दफ़न किया बिलाशक येसु मर गया !"

पतरस अपने सर को अपने हाथों पर झुकाए बैठा है और यूहन्ना जिसके चेहरे से मुख़्तलिफ़ तबस्सुम के जज़्बात का इज़्हार हो रहा है उसे तसल्ली देने की बेसूद कोशिश कर रहा है। लेकिन जानता नहीं कि किस तरह तसल्ली व तशफ़ी करे उन में से हर एक मुस्तक़बिल के ख़्याल से नाउम्मीद है। मायूस पस्त-हिम्मत, परेशान हाल, सरासीमा व हैरान हो रहा है। हर एक के चेहरे से उन की मुशतर्का तक्लीफ़ और उन के रंज का असर अयाँ है। येसु मर गया है। "हमको उम्मीद थी कि इस्राइल को मख़लिसी यही देगा ।"

ख़ुदा का शुक्र हो कि इन्जीली बयान मसीह की मौत पर ख़त्म नहीं हो जाता वो उस की फ़तह की आवाज़ "पूरा हुआ" फिर भी ख़त्म नहीं होता और ना ही रसूली पैग़ाम का यहां ख़ात्मा होता है। मसीह की मौत के बाद उसकी क़ियामत हुई "मसीह जिस्म के एतबार से दाऊद की नसल से पैदा हुआ। लेकिन मुर्दों में से जी उठने की क़ुदरत के साथ ख़ुदा का बेटा ठहरा।"

मसीह हमारे गुनाहों के लिए मरा और तीसरे दिन किताब मुक़द्दस के बमूजब ज़िंदा किया गया।" मज़कूरा बाला अल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस के बयान का ख़ुलासा है। मसीह के ज़िंदा होने के मुताल्लिक़ पौलुस के ईमान की बुनियाद अव़्वल पेशीनगोईआं और वाअदे थे जो ये ज़ाहिर करते हैं कि मसीह जी उठेगा। दोम ज़िंदा नजातदिहंदा का बार-बार अपने आपको मुख़्तलिफ़ तरीक़ से ज़ाहिर करना। क्योंकि वाक़ई वो ज़िंदा हो गया था। पौलुस अपने बयानात में मसीह के ज़हूरों को तरतीबवार लेता है। और दमिशक़ की राह में मसीह के अपने ऊपर ज़ाहिर होने को अपना गवाह क़रार देता है और नतीजा निकालता है। "अगर मसीह नहीं जी उठा तो तुम्हारा ईमान बेफ़ाइदा है तुम अब तक अपने गुनाहों में गिरफ़्तार हो। बल्कि जो मसीह में सो गए हैं वो भी हलाक हुए अगर हम सिर्फ इसी ज़िंदगी में उम्मीद रखते हैं तो सारे आदमीयों से ज़्यादा बदनसीब हैं।"

हुडिनी डोबल तमाम सबूतों और बिलख़सूस उस सबूत की एहमीयत को चश्म-ए-बसीरत से देखकर यूं लिखता है "पौलुस रसूल का मसीह के ज़िंदा होने की हक़ीक़त को अपनी बशारत का बुनियादी उसूल क़रार देने की इंतिहाई फ़िक्र ही एक अज़ीमुश्शान सबूत है। जिसके बाईस पौलुस रसूल का अपना दिमाग़ भी एक सबूत बन जाता है। उसकी गवाही सौ गवाहियों की एक गवाही है और यही हाल दूसरे रसूलों का भी है। इनकी पहली बे-एतिक़ादी के मुक़ाबले में उनका मौजूदा यक़ीन व एतक़ाद और उन का क़ियामत को एक आला व अफ़ज़ल हक़ीक़त तसव्वुर करना ही नामालूम तारीख़ी हक़ीक़तों का एक ज़बरदस्त व बय्यन सबूत है।"

मसीह के ज़िंदा होने के इन्जीली बयान से मुताल्लिक़ एक निहायत अजीब बात ये है कि उन चशमदीद गवाहों के तमाम बयानात में हमारे खुदावंद के पैरौओं के शुकुक का ज़िक्र निहायत ज़ोर से किया जाता है। वो ख़ुद एक वहमी व शक्की हालत के ज़ेर-ए-असर थे इसलिए दूसरों की गवाही को फ़ौरन क़बूल करने के लिए तैयार ना रहे थे। औरतों ने "किसी से कुछ ना कहा" "क्योंकि डरती थीं (मरकुस 16:8) जब मर्यम मगदलीनी ने उन्हें बताया कि उसने मसीह को देखा तो उन्होंने "यक़ीन ना किया" (मरकुस 16:11) जब उन्होंने उसे गलील में पहाड़ पर देखा तो बाअज़ ने उसे सज्दा किया लेकिन "बाअज़ ने शक किया" (मत्ती 28:17) तोमा रसूल एक हफ़्ता तक शक करने के बाद क़ाइल हुआ।

लिहाज़ा मसीह के ज़िंदा होने के मुताल्लिक़ रसूलों का ईमान कुछ अंधा ईमान ना था बल्कि उस की बुनियाद चशमदीद वाक़ियात और ना काबिल-ए-तर्दीद शहादत पर क़ायम थी। उसने अपनी मस्लुबियत के बाद "बहुत से सबूतों से अपने आपको उन पर ज़िंदा ज़ाहिर भी किया। चुनांचे वो चालीस दिन तक उन्हें नज़र आता रहा . . . . . "और उन की तादाद जिन्होंने उसे ज़िंदा देखा पाँच सौ से ऊपर थी (आमाल 1:3 व 1 कुरन्थियो 15:6) मसीह के सऊद और पन्तीकोस्त के रोज़-ए-अज़ीम के बाद रसूली जमात के किसी शरीक के दिल में उसके मुताल्लिक़ ज़र्रा भर भी शक बाक़ी ना रहा। मसीह के ताअबद ज़िंदा होने से वो भी सब के सब तब्दील हो गए । उसका ज़िंदा होना उनकी ज़िंदा उम्मीद थी और ना फ़क़त उनके पैग़ाम बशारत में बल्कि उनके रोज़ाना तजुर्बा में भी मूजिब तहरीक I मुक़द्दस पतरस फ़रमाता है कि "उस को ख़ुदा ने तीसरे दिन जिलाया और ज़ाहिर भी कर दिया। ना कि सारी उम्मत पर बल्कि उन गवाहों पर जो आगे से ख़ुदा के चुने हुए थे। यानी हम पर जिन्होंने उसके मुर्दों में से जी उठने के बाद उसके साथ खाया पिया" (आमाल 10:40) पौलुस रसूल फ़रमाता है "वो कमज़ोरी के सबब से सलीब दिया गया लेकिन ख़ुदा की क़ुदरत के सबब से ज़िंदा है" (2 कुरन्थियो 13:4) यूहन्ना कहता है "येसु मसीह . . . . . जो सच्चा गवाह और मुर्दों में से जी उठने वालों में से पह्लोठा" है। हाँ वो अबद तक ज़िंदा रहेगा। मौत का अब उस पर कोई इख़्तियार नहीं क्योंकि उस ने मौत को नेस्त व नाबूद  कर दिया और अपने दुबारा जी उठने से ज़िंदगी और बक़ा की तालीम दी और यही वो क़ुदरत है जिससे मसीह में नई ज़िंदगी मिलती है वो हर एक ईमानदार के लिए जलाल की उम्मीद और गुनाह पर फ़तह पाने का भेद है। ईमानदार मसीह के साथ सलीब दिया जाता उसके साथ मरता और दफ़न होता है लेकिन फिर उसमें हो कर और उस के बाईस ज़िंदा हो जाता है।

सुब्हे क़यामत एक नई रोशनी यानी बक़ा का नूर सफ़ा आलम पर फैलाती है। चुनांचे हर एक चीज़ और हर एक इन्सान में इस ज़िंदा उम्मीद यानी क़ब्र पर ख़ुदा की क़ुदरत और फ़तहयाबी के ज़हूर के बाईस एक तब्दीली वाक़े होती है जो शख़्स मसीह में क़ायम होता है वो नया मख़्लूक़ बन जाता है। पुरानी चीज़ें जाती रहती हैं और सब कुछ सुबह-ए-क़ियामत की रोशनी में नया हो जाता है।

जब लोग ज़िंदा मसीह की हुज़ूरी को महसूस कर लेते हैं तो ज़िंदगी की क़द्रो क़ीमत का एक नया मेयार क़ायम हो जाता है। डेविड लोनगस्टन कहता है "अब से लेकर मैं अपनी किसी चीज़ पर अगर कोई क़ीमत लगाऊंगा तो उस निस्बत से जो मसीह की बादशाहत के मुक़र्रर मेयार के मुताबिक़ इसे हासिल है" मुक़द्दस यूहन्ना की इंजील में लिखा है कि "जिस जगह उसे सलीब दी गई वो एक बाग़ था और उस बाग़ में एक नई क़ब्र थी ।" वो बाग़ अब तक हमारा इंतिज़ार कर रहा है। रूह के तमाम फल वहां पकते हैं। उसके ज़िंदा होने की क़ुदरत इन्सान को तमाम दुनियावी तकलीफ़ात और ज़रूरीयात का मुक़ाबला करने के क़ाबिल बनाती है। क्योंकि उसके बंदों को ये यक़ीन होता है कि मसीह सब कुछ जानता और उन्हें प्यार करता है और उनकी इहितयाजों को रफ़ा कर सकता है। हज़रत इन्सान का दिल दो बातों का ख़्वाहिशमंद होता है। यानी गुनाह से नजात पाने का और अबदी ज़िंदगी हासिल करने का अगर मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब का बाहमी मुक़ाबला किया जाये तो एक निहायत अजीब बात मालूम होगी कि मौत के बाद ज़िंदा रहने की आलमगीर उम्मीदवार और अन्वा व अक़्साम की क़ुर्बानीयों और ज़िंदों के ज़रीये से देवताओं और ख़ुदाओं को राज़ी रखने की आलमगीरी सई व कोशीश क़रीब क़रीब हर मज़्हब में पाई जाती है। मसीह में इन हर दो कि तक्मील होती है । अगरचे वहशी अक़्वाम के दरमियान आइन्दा ज़िंदगी के मुताल्लिक़ जो ख़्यालात राइज हैं वो निहायत ख़ाम हैं तो भी वो मौजूद ज़रूर हैं और उन के मोतक़िदात में उन्हें ख़ास मर्तबा और फ़ौक़ियत हासिल है। औहाम परस्ती के नाम ही से माद्दी दुनिया पर रूह की फ़ज़ीलत ज़ाहिर होती है ना फ़क़त वहशी अक़्वाम के मज़ाहिब ही बल्कि बुत परस्तों और मुशरिकों के तमाम मज़ाहिब भी बकाए दवाम की तालीम देते हैं और फ़ित्रतन उन की तबीयत में अबदीयत और ग़ैर-फ़ानीयत के अक़ीदे की बहुत क़द्रो क़ीमत पाई जाती है।

लोग महिज़ मौजूदा इन्सानी ज़िंदगी की ज़ाती ख़ामीयों और उस के ग़ैर-मुकम्मल होने की वजह से ग़ैर-फ़ानीयत और बक़ा पर ईमान रखते हैं क्योंकि उन्होंने देख लिया कि बसा औक़ात कवाय इन्सानी में ज़ोफ़ आने के बाद भी हमारे जज़्बात मुहब्बत के पुरज़ोर मुतालिबात के बाईसे अख़्लाक़ व अतवार तरक़्क़ी करते हैं। मुहब्बत मौत से क़वी तर है। हमारे अंदर कायनात की उस आवाज़ की सदाए बाज़गश्त पैदा होती है और रूहें ख़ुद बख़ुद अपने अबदी मस्कन के वाहिद रास्ता पर बे-इख़्तियार खिची चली जाती हैं। तमाम अश्या ख़ुदा के दिल की तरफ़ रुजू करती हैं जो उनका मब्दा और मंबा और उन की इंतिहा भी है।

लोई पासेटोर कहता है "वो जो उस लामहदूद की हस्ती का ऐलान करता है और कोई नहीं जो ऐसा ना करे वो उस ऐलान में जुमला मज़ाहिब की तमाम मोजज़ाना बातों से कहीं ज़्यादा एजाज़ शरीक करता है। क्योंकि लामहदूद हस्ती का तसव्वुर इस दो गुना ख़सलत का इज़्हार करता यानी ये कि वो अपने आपको ज़बरदस्ती हम पर ज़ाहिर भी करती है और साथ ही हमारे फ़हम व इदराक से कहीं बालातर भी है लेकिन जब हमें उसका इदराक हासिल होता है तो हम सर-ए-तस्लीम ख़म करने के सिवा और कोई चारा नहीं पाते। मैं हर जगह दुनिया में इस लामहदूद हस्ती का नागुरेज़ इज़्हार देखता हूँ इसी के बाईस हर शख़्स के दिल की तह में एजाज़ का तसव्वुर मौजूद होता है "साईंस लामहदूद फ़िज़ा, लामहदूद ज़माना, लामहदूद आदाद, लामहदूद ज़िंदगी और लामहदूद हरकत का ज़िक्र करती है" उसने अबदीयत को भी उनके दिल में जागज़ीं किया" (वाइज़ 3:11)

मौत ज़िंदगी की ख़्वाहिश से ज़्यादा आम नहीं। इन्सानी रूह ज़िंदगी बल्कि कसरत के साथ ज़िंदगी की ख़्वाहिशमंद है । ऐसी ज़िंदगी जो मसीह ने अपनी जलाली क़ियामत और अपने सऊद के ज़रीये से ज़ाहिर की।

ये हक़ीक़त एटरोरीयह (इटली के वस्त में एक मुल्क है) के क़दीम बाशिंदों के मोतक़िदात, क़दीम मिस्रियों की मुर्दों की किताब (जो फ़िल-हक़ीक़त किताब-ए-हयात थी) मनु के धर्म शास्त्र की आख़िरी किताब जो मसला तनासुख़ और आख़िरी मुबारकबादी से मुताल्लिक़ है। अहले-इस्लाम की मशहूर-ओ-मारूफ़ किताबें जो मौत और सज़ा व जज़ा से भी मुताल्लिक़ हैं हत्ता कि निरवान के मुताल्लिक़ बुध मज़्हब के आलिमों के ख़्यालात से भी आश्कार होती हैं।

अबदी ज़िंदगी के लिए अक़्वाम-ए-आलम की ख़्वाहिश मसीह और फ़क़त मसीह ही में पूरी होती है इसलिए कि वो अपनी मौत और अपनी क़ियामत के ज़रीये से ज़िंदगी और बक़ा को दुनिया में लाया। उस ने हमें एक नादिर पैग़ाम दिया। हाँ ऐसा पैग़ाम जो बनीनौ इन्सान के मर्ज़ ख़ुसूसी यानी गुनाह और उस के अवाक़िब यानी रंज-वालम के ऐन हसबे-हाल है।

हर मुल़्क व क़ोम के हक़ीक़ी तालिबान-ए-हक़ एक नादीदनी दुनिया को देखते हैं । ख़ामोश आवाज़ें सुनते और ग़ैर महसूस हक़ीक़तों को अपने क़ब्जे में लाना चाहते हैं । इसलिए वो इस मसीही पैग़ाम की तरफ़ कभी राग़िब नहीं होंगे जो आइन्दा जहान के हालात से मुताल्लिक़ ना हो। मसीह ने लाज़र की क़ब्र के पास क़ियामत की ख़ुशख़बरी दी "क़ियामत और ज़िंदगी तो मैं हूँ जो मुझ पर ईमान लाता है गो वह मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है और मुझ पर ईमान लाता है वो अबद तक कभी नहीं मरेगा ।"

यही पौलुस की मुनादी की जान थी। वो मसीह और उसके ज़िंदा होने की मुनादी करता था। और किसी और ख़ुशख़बरी से वाक़िफ़ ना था। "अब ए भाईओ मैं तुम्हें वही ख़ुशख़बरी जताए देता हूँ जो पहले दे चुका हूँ जिसे तुमने क़बूल भी कर लिया था। और जिस पर क़ायम भी हो। इसी के वसीले से तुमको नजात भी मिलती है। बशर्ते के वो ख़ुशख़बरी जो मैंने तुम्हें दी थी याद रखते हो। वर्ना तुम्हारा ईमान लाना बेफ़ाइदा हुआ। चुनांचे मैंने सबसे पहले तुमको वही बात पहुंचा दी जो मुझे पहुंची थी कि मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के बमूजब हमारे गुनाहों के लिए मुआ और दफ़न हुआ और तीसरे दिन किताब-ए-मुक़द्दस के बमूजब जी उठा...........और अगर मसीह नहीं जी उठा तो हमारी मुनादी भी बेफ़ाइदा और तुम्हारा ईमान भी बेफ़ाइदा। बल्कि हम ख़ुदा के झूटे गवाह ठहरे । क्योंकि हमने ख़ुदा की बाबत ये गवाही दी कि उसने मसीह को जिला दिया। हालाँकि नहीं जिलाया। अगर बिलफ़र्ज़ मुर्दे नहीं जी उठते" (1 कुरन्थियो 15:1-4, व 14,15)

मसीह मौत पर ग़ालिब आया। वो क़ब्र के ख़ौफ़ को दूर करता है। उसने इंजील में ज़िंदगी और बक़ा का दर्स हमें दिया। अगर फ़क़त इसी ज़िंदगी ही में मसीह हमारी उम्मीद है तो हमारा पैग़ाम और हम ख़ुद भी निहायत बदनसीब हैं। लेकिन नहीं हम तो मौत और गुनाह पर ग़ालिब आने वाले और जलाल के अबदी बादशाह के सफ़ीर और एलची हैं। हमारी इंजील फ़क़त इसी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ नहीं बल्कि इसका ताल्लुक़ अबदीयत से है और इसी लिए इसकी क़द्रो क़ीमत भी बे-अंदाज़ा है हमारी तमाम मसीही तालीम गा हैं। हमारा कुल नज़म व मनक़। हमारी मसीही तदाबीर और तजावीज़ सब के सब हुसूल अंजाम के ज़राए हैं ये दरहक़ीक़त मदारिज व मनाज़िल हैं जो हमें उस घर तक पहुंचाते हैं जो हाथों से नहीं बनाया गया बल्कि जो आस्मान पर ग़ैर-फ़ानी मुक़ाम और जाये दवाम है।

मआशरी ख़िदमत भी अपना ज़ोरावर दर्जा रखती है क्योंकि मसीह शिकस्ता-दिलों को शिफ़ा देने और क़ैदीयों को रिहाई बख़्शने आया। गोहम इंजील के अख़्लाक़ी उसूलों और उन के ज़बरदस्त मुतालिबात को हरगिज़ नज़रअंदाज नहीं कर सकते लेकिन मुर्दों में से जी उठने की ख़ुशख़बरी से बढ़कर और कोई पैग़ाम दिलकश और दिलफ़रेब नहीं हो सकता।

बूलशोकों के ख़्याल के मुताबिक़ इंजील मुफ़लिसों और बेकसों के लिए कोई ख्व़ाब-आवर शै नहीं जो दौलतमंद और मुतमव्विल अश्ख़ास उन्हें जबरन पिला देते हैं। बल्कि इंजील उस हक़ीक़त का ऐलान करती है जो चीज़ें हम देखते हैं वो फ़ानी हैं। और उन-देखी अश्या ग़ैर-फ़ानी हैं। अब इस इन्साफ़ से ख़ाली दुनिया में शायद हमें मसीह के दुखों की शराकत में शरीक होना पड़े। लेकिन उस पर ईमान लाने के सबब हम मुर्दों में से जी उठने की नौबत तक पहुंच जाते हैं। "वो अपनी उस क़ुव्वत की तासीर के मुवाफ़िक़ जिससे सब चीज़ें अपने ताबे कर सकता है। हमारी पस्त हाली के बदन की शक्ल बदल कर अपने जलाल के बदन की सूरत पर बनाएगा" (फिलिप्पियों 2: 21)

वो ग़ैर-फ़ानी खूबियां जो उनमें छिपी होती हैं जो मसीह की मौत और उसकी क़ियामत पर ईमान लाते हैं रसूलों, कलीसिया के मुक़द्दसों और शहीदों की ख़ुशी और उनकी रूह की फ़र्हत का बाईस थीं। इसलिए कि वो दुनिया को हक़ीर व नाचीज़ जानते थे। उन्होंने दुनिया को मसीह के लिए जीत लिया और हर एक मुल्क में एक रुहानी बादशाहत की बिना डाली क्योंकि वो आस्मानी हुकूमत का हक़-ए-रईयत रखते थे। उन्होंने हर एक शहर में कलीसिया की बुनियाद रखी क्योंकि वो ख़ुद परदेसी और मुसाफ़िर थे और उस पायदार शहर की तलाश में थे। "जिसका मेअमार और बनाने वाला ख़ुदा है।"

मसीही इलाहिय्यात में अगर किसी सदाक़त पर इन दिनों निस्बतन ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत है तो वो क़यामत-ए-मसीह का अक़ीदा है। अगर हम ज़िंदा मसीह और अबदी ज़िंदगी के इस पैग़ाम को ग़ैर मसीही दुनिया में पहुंचा दें तो हम समझेंगे कि हमने फ़िल-हक़ीक़त अपनी इलाहिय्यात की रूह को पा लिया है और अब सही माअनों में राह तरक़्क़ी पर गामज़न हैं।

डाक्टर डीसमन (Dr. Deissman) फ़रमाते हैं कि क़रीबन गुज़शता तीस साल से येसु की मौत और उनकी क़ियामत की बशारत मुख़्तलिफ़ मसीही अक़्वाम की इलाहिय्यात में एक दिलचस्प मबहस बनी रही और मैं उसे मज़हबी तहक़ीक़ात में एक निहायत मुफ़ीद और अहम क़दम तसव्वुर करता हूँ। आज-कल हमें मौत और क़ियामत की तालीम पर अज़हद ज़ोर देना चाहिए । और इसका ऐलान करना कलीसिया का फ़र्ज़ अव्वलीन होना चाहिए। हम पर फ़र्ज़ है कि हम अपनी तवज्जाह को इस हक़ीक़त पर मर्कूज़ करें कि ख़ुदा की बादशाहत क़रीब है और कि ख़ुदा अदालत व नजात के ज़रीये अपनी कामिल हुकूमत के साथ आने वाला है और हमें अपने आपको रुहानी तौर से उस की आमद के लिए तैयार करना चाहिए क्योंकि "ख़ुदावंद आ रहा है।"

दरअसल यही हमारा मिशनरी पैग़ाम है यानी एक ऐसे शख़्स की ज़िंदा जावेद बशारत देना जो इस दुनिया में आया, सलीब दिया गया, मुर्दों में से जी उठा, आस्मान पर चढ़ गया और वहां से फिर आने वाला है। बैत-लहम, कलवरी ख़ाली क़ब्र बल्कि उन बादलों से भी जिन्होंने उसे छिपा लिया। ग़ैर फ़ानीयत और बक़ा का नूर दरख़शां है।

हम इस अज़ीमुश्शान बैज़वी शक्ल के रकबा को जो दुनिया के लिए हमारे पैग़ाम व ईमान पर मुहीत है। जिस क़दर चाहें वसीअ तसव्वुर कर सकते हैं । लेकिन मसीह की मौत और क़ियामत और इन्सान के अज़ली व अबदी अंजाम से इसका ताल्लुक़ हमेशा यही इसके दो मर्कज़ी नुक़्ते रहेंगे और यही क़ियामत की ख़ुशख़बरी है।


1

उस ने ये कुछ किया हमारे लिए
क्या उसे सज्दा भी करेंगे ना हम
वो है तैयार करने को ये कुछ
पस्त हिम्मत का दम् भरेंगे ना हम
आओ उस के हुज़ूर सज्दा में
करें हासिल सरवर सज्दा में
अपनी तकलीफों का गिरां तरबार
उस के क़दमों पे क्या धरेंगे ना हम

2

और इन आँखों से हमारी काश
शुक्र का उस के नूर रोशन हो
ख़ुश हूँ ताइब हूँ और बह इत्मीनान
तकिया उस पर दिली हमा-तन हो
और हम अपनी ज़िंदगानी भर
बल्कि बाद उसके जब ये हो आख़िर
हम्द के गीत गाने में हर वक़्त
ना थकावट हो और ना उलझन हो

3

ज़िंदगी मौत रंज व ग़म में भी
गुना की हालत अलम में भी
हाँ मेरे वास्ते वो काफ़ी है
है हमेशा हर एक दम में भी
यही अव़्वल है क्योंकि आख़िर है
यही आख़िर और अव्वलीं तर है
अव्वल हसत है मसीह भी
है यही आख़िर अदम में भी

Sufi Saints in Islam

تفتیش الاولیا

یہ کتاب  صوفیہ  اور ان کے تصوف اور ان کے ولیوں کی کفیت  کے بارے میں


پادری مولوی عماد الدین لاہز

۱۸۳۰ - ۱۹۰۰


نےاس مراد سے لکھی ہےکہ اہلِ فکر صوفی اس سے فائدہ اٹھائیں

اور درمیان ۱۸۸۹ء

رلیجیس بک سوسائٹی کی منظوری سے
ریاض ہینڈ پریس میں طبع ہوئی


 

Dr. Imad ul-din Lahiz

اے تو جوسوتا جاگ اور مردوں میں سے اٹھ کہ مسیح تجھے روشن کرے گا۔

(انجیل  مقدس خط افسیوں ۱۴:۵)


Taftishul Auliya

Researches about Islamic Saints

An inquiry into the origin of Sufi Saints in Islam

By

Rev. Mawlawi Dr.Imad ud-din Lahiz

1830−1900


Wake up, sleeper, rise from the dead, and Christ will shine on you.

Ephesians 5:15


فہرستِ مضامین تفتیش الاولیا
دیباچہ
۱۔ فصل زمانہ گذشتہ و حال کی کیفیت میں ۷
۲۔ فصل اسلام اور تصوف کے بیان میں ۹
۳۔فصل صوفی کی وجہ تسمیہ کیے بیان میں ۱۱
۴۔فصل اقسام صوفیہ کے بیان میں ۱۴
۵۔فصل ولی اور ولایت کے بیان میں ۱۷
۶۔فصل ان صوفی ولیوں کے اختیارات کے بیان میں ۱۹
۷۔فصل مجذوب ولیوں کے بیان میں ۲۰
۸۔فصل قلندروں کے بیان میں ۲۱
۹۔فصل سالکین کے بیان میں ۲۳
۱۰۔فصل ان ولیوں کے عہدوں کے نام بجب اختیارات ۲۵
۱۱۔فصل صوفی ولیوں کی مشابہت با نبیاء کے بیان میں ۳۰
۱۲۔فصل تقسیم عالم یا مقامات عالم کے بیان میں ۳۱
۱۳۔فصل معرفت کے بیان میں ۳۲
۱۴۔فصل شریعت طریقت حقیقت کے بیان میں ۳۳
۱۵۔فصل یقین کے بیان میں ۳۵
۱۶۔فصل وحدت وجودی اور شہودی کے بیان میں ۳۵
۱۷۔فصل اطوار تقرب صوفیہ کے بیان میں ۳۹
۱۸۔فصل علم سینہ اور سفینہ کے بیان میں ۴۲
۱۹۔فصل بیعت یعنی پیری مرید ی کے بیان میں ۴۳
۲۰۔فصل تصورِ شیخ کے بیان میں ۴۴
۲۱۔فصل نفی اثبات کے بیان میں ۴۵
۲۲۔فصل حبس کے بیان میں ۴۶
۲۳۔ فصل روزوں اور شب داریوں کے بیان میں ۴۷
۲۴۔فصل چلہ کشی کے بیان میں ۴۸
۲۵۔فصل صوفیہ کے ورد وظائف کے بیان میں ۴۹
۲۶۔فصل نقشبندیہ کی بعض اصطلاحات کے بیان میں ۵۰
۲۷۔فصل لطائف خمسہ کے بیان میں ۵۲
۲۸۔فصل حلقہ اور توجھ کے بیان میں ۵۳
۲۹۔فصل مراقبہ کے بیان میں ۵۵
۳۰۔فصل شجروں اور اجازت کے بیان میں ۵۶
۳۱۔فصل صوفیہ کے بعض خاص دعوؤں کے بیان میں ۵۷
۳۲۔فصل تناسخ کے بیان میں ۵۸
۳۳۔فصل صوفیوں کی وہ کیفیت جو اب ہے ۶۲

 

دیباچہ

پیروں کے نام لیتے ہیں کہ فلاں فلاں بزرگ ہمارے درمیان ایسے ولی اللہ ہوئے ہیں۔اور جب مسیح خداوند کے معجزوں کا بیان سنتے ہیں تواپنے پیروں کی کرامتوں کاایسا ذکر کرتے ہیں کہ گویامسیح کے معجزوں سے زیادہ تر قدرتیں اور تاثیریں ان کے پیرو  ں سے ظہور میں آئیں ہیں بلکہ پیغمبروں کے معجزے ان کےولیوں کی کرامتوں کے سامنے حقیر ہیں۔ان لوگوں نے نہ پیروں کو پہچانا  نہ پیغمبروں  کو نہ کرامتوں اور معجزوں کی ماہیت کو سمجھا۔

یہ تو اندھی اونٹنی کی مانند دنیا  کے  جنگل میں چرتے ہیں۔میرے ساتھ ایسے لوگوں کی بہت باتیں ہوئیں اورہوا  کرتی ہیں کیونکہ ایک وقت تھا کہ میں ان میں سے تھا۔اس لئے میں ان کے خیالوں کو سمجھتا اور پہچانتا ہوں۔کہ وہ کس رنگ میں ہیں یہ لوگ صوفیہ مشرب کے ہیں۔

اور مجھے معلوم ہے کہ ان میں بکواسی اور متعصب  اور قبر پرستی کےسبب مردہ دل لوگ بہت ہیں تو بھی بعض شخص اُن میں خدا کی قربت کے طالب ہوتے ہیں۔اوران کے اخلاق بھی اچھے ہوتے ہیں۔اور وہ دنیا کے کسی فرقے کے ساتھ عداوت نہیں رکھتے بے تعصب ہو کر صلحٔ  کل کا دم بھرتے ہیں۔اور حصولِ قربتِ  الٰہی  کی غرض سے بڑی ریاضتیں اور  مشقتیں خفیہ طور پر کرتے ہیں۔اور یہی خوبی ضرور اُن بعض میں ہے۔لیکن افسوس کہ وہ سادہ لوح اور فریب خوردہ غلطی میں پھنسے ہوئے  بے راہ چلے جاتےہیں۔اگرچہ بعض میں تحقیقات کی طاقت ہے۔لیکن عادت نہیں اور بعض میں طاقت ہی نہیں ہے کہ از دخود دریافت کرکے  غلطی کو چھوڑیں اور درست طور کو اختیار کریں تاکہ فی الحقیقت سچے خدا کی رفاقت اور قربت حاصل ہواوروہ سچ مچ ولی اللہ ہو جائیں۔

اور یہ ہی ظاہر ہے کہ اس ملک میں  اب تک خدا کی پاک کلیسیا کی طرف سے ان کو ا یسی کتاب نہیں دی گئی کہ جو ان کے خیالوں کوہلائےاور ان کو زندہ خدا  کی طرف بلائےاور ان کے خیالوں میں روشنی کا باعث ہواوراُس جنجال  کو جس میں وہ پھنسے ہوئے ہیں سلجھائےاوران کئے گور کھ دھند ے کو ہلائےاور ان کی غلطیوں کو ان پر ظاہر کرکے ان کے سامنے راہ راست کو پیش کرے۔شاید ان میں کچھ جانیں اور ہلاک ہونے سے بچیں۔

لہذا میں نے ارادا کیا کہ ایک مختصر کتاب ان کے لیے لکھوں جن میں خاص ان باتوں کا ذکرہوجو اس بارہ میں تنقیح طلب ہیں اور فضول باتوں کا کچھ ذکر نہ ہو۔پس میں نے اس کتاب کو لکھ دیا اور اس کا نام  تفتیش الاولیا رکھا کیونکہ اس میں صوفیوں کے ولیوں کی تفتیش ہوئی ہے۔کہ وہ کیسے لوگ ہیں اور ان میں کیا کچھ ہے ؟خدا کرے کہ سب صوفی اسےغور سے پڑھیں اور فائدہ اٹھائیں۔وبااللہ اتوفیق۔

۱ ۔پہلی فصل زمانہ گزشتہ وحال کی کیفیت میں

ہر  عقل مند آدمی کو اسبات میں کچھ شک و شبہ نہیں کہ زمانۂ گزشتہ  میں درمیاں خیالات مردم دنیا کے خصوصاً غیراقوام کے درمیان سخت اند ھیرا تھا اور اِس وقت دنیا میں بہت روشنی اور تھوڑا  اندھیرا ہے۔بعض اندھیرے کے اسباب باانتظام خدا رفتہ رفتہ اٹھ گئے ہیں اور  اٹھتے  چلے جاتے ہیں۔

گزشتہ زمانے کی نسبت اب لوگوں کے تجربات بڑھ گئےہیں۔اب ہمیں وہ باتیں معلوم ہو گی ہیں۔جو کہ پہلے لوگوں کو معلوم نہ تھیں۔اگلے زمانے میں اپنے اپنے ملک کے درمیان گھرے ہوئے بیٹھےتھےدور دراز کے ممالک  کے باشندوں سے خط و کتابت اور ملا قات کا موقع نہ تھا کہ آپس میں خیالات کو مقابلہ کرکے صحیح و سقیم میں امتیاز کرسکتے۔اب یہ موقع خوب حاصل ہے۔

اگلے زمانے میں چھاپہ خانے نہ تھےاور یہ حکمت آدمیوں کو معلوم نہ تھی۔پس وہ اپنے اپنے خیالات کی کتابیں اپنی زبان میں بمشکل قلم  سے لکھا کرتے اور لکھواتے  تھے۔ اور  بہت سے دقت سے تھوڑے نسخےموجود ہوتے تھے۔اور بڑی قیمت سے بکتے تھے۔اب کتابیں عام ہو گئی ہیں۔

اگلے زمانے میں پڑھنے لکھنے کا عام رواج بھی نہ تھا۔ہزاروں جاہل اشخاص ان پڑھ ہوتے تھے۔اور عالم فاضل تو بہت ہی تھوڑے ہوتے تھے۔اور  وہ بھی صرف اپنے ملکی خیالات کے عالم ہوا  کرتے تھے۔نہ  جہان کی باتوں سے آگاہ اور سب جاہل ہدایت کے لیے ان کے منہ کی طرف تاکتے تھے۔اب یہ باتیں دفع ہو گئیں۔ڈاک اور ریل اور تار اور مدرسوں مطبعات اور کثرت کتب اور اخبارات اور تعلیم عام اور ملکی اسن چین وغیرہ سے دنیا کا رنگ ہی بدل گیااورروشنی کازمانہ آ  گیا ہے۔

 گزشتہ تاریکی کے عہد میں ہر ہر ملک کے  لوگوں میں سےبعض چتر آدمیوں نے بقدر اپنی اپنی فہمید کے دین و دنیا کے انتظام کے لیے کچھ کچھ مذاہب اور دستورات جاری کرلیے ہیں جنہیں اس وقت کچھ باتیں صحیح اور منا سب اور غلط اور غیر مناسب نظر آتی ہیں۔بلکہ اس روشنی کے زمانے کے درمیان مذاہب اور دستورات دنیا کے عجیب کہلبلی مچی ہوئی ہے۔بعض اپنے مذہبوں کو چھوڑ کر دوسرے مذہبوں میں چلے جاتے ہیں۔بعض اپنے قدیم مذہب کی مرمت کرتے ہیں۔بعض لا مذہب ہو بیٹھتے ہیں اور  بالکل جھوٹ بولتے ہیں۔کہ ہم اپنے قدیم مذہب پر ہیں۔جب کہ قدیم خیالات و دستورات چھوڑ دیا ہے ۔ ہاں بعض ہیں جوکہ بےفقری سے لیکر کے فقیر ہیں۔

اب فکر کیجیے  کہ یہ کہلبلی دنیا میں کیوں پڑی ہے۔اسی روشنی کے سبب جو کہ اب دنیا میں آگئی ہے۔ان  لوگوں نے اپنے مذاہب قدیمہ کے درمیان اس روشنی کی کچھ غلطیاں دیکھیں اور ان کی تمیز نے انہیں بے چین کیا۔تب سے وہ کچھ حرکتیں کرنے لگے ہپں۔

یہودی اور عیسائی دین کی کتابیں بھی اسی تاریکی کے عہد میں لکھی گئیں تھی ۔لیکن اس روشنی کےزمانے میں وہی ایک عیسائی دین ہے ہر منصف اور عاقبت اندیش آدمی کے خیال میں قائیم رہ سکتا ہے اور بغیر اس کے وہ کہیں تسلی نہیں پاسکتا۔بلکہ جس قدر یہ روشنی دنیا میں زیادہ بڑھتی ہے۔اُسی قدر زیادہ زیادہ اس دین کی خوبی ظاہر ہوتی جاتی ہے۔یہ دین تمام دنیا کی حدوں تک دوڑ گیااور اس دین کی اصل کتاب یعنی بائبل شریف دو سو پچاس زبانوں سے زیادہ میں ترجمہ ہو کر عام ہو گئی۔اوریوں اس دین کا مقابلہ دنیا کے تمام مذاہب کے ساتھ خوب ہو گیااور ہو رہا ہے۔ اس نے دنیا کے سب مذہبوں کو گرا دیا ہےاور کوئی دنیا کا مذہب اس پر غالب نہ آیااور نہ آسکتا ہے۔اس لیے کہ یہ خدا سے ہے۔اگرچہ اس عہد تاریکی میں جاری ہوا۔مگر خدا سے جاری ہواتھا لہذا اس عہدِروشنی میں قائم اور مضبوط رہتا ہے۔اہلِ دنیا کے مذاہب انسانوں سے تھے اس لیے وہ شکست کھا گئے۔لیکن خدا کی ڈالی ہوئی بنیاد محکم ہے اسےا بد تک جنبش نہ ہو گی۔اور وہی عیسائی دین ہے۔

ہاں  بعض دنیاوی عقلمندوں نےاس دین کا بھی بڑی سختی سے مقابلہ کیا ہےاور اس پر کچھ اعتراض کیے ہیں۔کیونکہ کوئی بات خواہ حق ہو یا نا حق  لوگوں نے بغیر اعتراض کیے نہیں چھوڑی خدا کی پاک ذات پر بھی ملحدوں نے اعتراض کیے ہیں۔لیکن صرف اعتراضوں سے کوئی بات باطل نہیں ہو سکتی ہے۔جب تک کہ واجبی اعتراض  اس کو کہا نہ جائے۔دیگر مذاہب پر جو اعتراض ہوئے ہیں وہ ان پر کیے گئے ہیں۔مگر مسیحی دین پر جو اعتراض ہوئےہیں وہ اسے باطل نہیں کرسکتے۔بلکہ الٹے معترض کی حالت پر واقع ہوتے ہیں۔

 ہم لوگ جو عیسائی ہیں اور خود کو خدا اور اپنی تمیزوں کے سامنے باانصاف سمجھتے ہیں ۔ہم نے اپنی باتوں پر حتٰی المقدور  باانصاف فکر کیا ہے۔ہمیں یہ معلوم ہوا ہے کہ جن اصولوں پر دینِ عیسائی قائم ہے۔ان کا ماننا ہر فردِ بشر پر اس روشنی کے زما نہ میں بھی زیادہ تر فرض ہےاور جن اصولوں پر قائم ہو کر ہمارے مخالف بولتے ہیں وہ اصول عقلاً باطل اور مکروہ ہیں۔اس لیے ان کے اعتراض بھی نالائق ہوتے ہیں اور  ہمارے دلوں میں سے دین عیسائی کو ہلا نہیں سکتے۔پس ہم کہہ سکتے ہیں کہ مخالف شکست خوردہ ہیں اور دین ِ عیسائی فتحمند ہے ہر قسم کے مخالف پر یعنی دنیاوی مذاہب  کے خیالات پر اور تمام جسمانی و روحانی بد خواہشوں پر اور سب اہل الحاد پر بلکہ تمام ظالم بادشاہ ہوں کی تلواروں پر اور سب سلیم الطبع عاقبت اندیش آدمیوں کے دلوں میں بھی ۔

 چار لفظ عہدِ عتیق میں ایسے ہیں۔جن پر اس وقت فکر کرنا چاہئے ۔ اول اندھیرا۔ دوئم موت  کاسایہ ۔سوئم چراغ۔چہارم آفتابِ صداقت پہلے ساری دنیا میں اندھیرا تھااورموت کے سائے میں سب بیٹھے تھے۔لیکن یہودیوں پر موت کا سایہ نہ تھا۔ان پرمسیح کا سایہ تھاکہ جو زندگی ہے وہ اس کےنمونوں میں تھے۔ہاں کچھ کچھ اندھیرا ان پر بھی تھا۔مگرایسا جیسا رات کو چراغ آدمیوں کے اردگرد ہوتا ہے۔کیونکہ ان کے پاس خدا کا کلام تھا۔جو کہ چراغ کی مانند تھااوراس چراغ  کو روشنی میں یہ دکھلایا  گیاتھاکہ آفتابِ صداقت نکلنے والا ہے۔اور وہ سارے جہان کو روشن کرے گا۔سچائی کے اظہار سے۔اب ہم دیکھتے ہیں کہ سیدنا مسیح  کی روشنی سے کہ وہ آفتابِ صداقت ہے تمام دنیا میں دھوپ سےکہل گئی ہےاور ہر برائی بھلائی تمام دنیا میں نظر آتی ہے۔سچی باتیں اور جھوٹی باتیں۔آشکارا ہو گئیں ۔بھلے برُے آدمی بھی پوشیدہ نہ رہے ۔پس یہ وقت خدا کے وعدے کے مطابق آیا ہے اورآتا چلا جاتا ہے۔تاریکی اور موت کے نیچے سے نکلنے کا وقت ہی وہ زمانہ ہے کہ اب ہر  کوئی اپنے خیالات کواور اپنے مذہب کی باتوں کو بلکہ اپنے آپ کو بھی انجیل کے سامنے لائے اور بطلان و سچائی میں امتیاز کرے۔اگر اس کے پاس انجیل سے بہترکوئی چیز ہےوہ اسے تھامے رہے۔اور ہمیں بھی دکھلائےاور اگر اس کے پاس محض بطلان  اوردھوکا ہے تو وہ گمراہی میں کیوں مرنا چاہتا ہے۔اپنی جان  پر رحم کرے اور غلطی میں سے نکلے ۔

صوفیوں کو بھی اِس وقت مسیح کی روشنی میں  اپناتصوف اور سلوک لے کر حاضر ہونا واجب ہے اوریہ دیکھنا کہ ان کے پاس کیا کچھ ہے۔لیکن وہ صاحب اب تک گوشوں میں بیٹھے ہو ئے ہُوحق کرتے  ہیں اوراپنی خانقاہوں اور مردوں کی قبروں پر سے اٹھ کر زندگی کے درخت کا پھل کھانے  کو باہر  نہیں آتے میں چاہتا ہوں کہ انہیں ہوشیار کروں اور دائمی استغراق میں سے نکلال کر زندگی کی روشنی میں لاؤں۔میرے بھی بعض بزرگ ہم جد ہیں ۔جو صوفی ہیں ۔اور بہت سے شریف زادے ہیں۔جو اس تصوف کی آفت میں مبتلا ہیں۔خدا تعالیٰ ان کی مدد کرےاور انہیں حیات ِ ابدی میں شامل کریں۔ 

۲ ۔فصل اسلام اور تصوف کے بیان میں

سوال یہ ہے کہ آیا علم تصوف  علوم اسلام میں داخل  ہے یانہیں اور کہ  صوفی آدمی مسلمان ہے یا نہیں۔اسلام کےمعنی اپنی حدِ یثوں میں  محمد صاحب نے یوں بتلائے ہیں خدا کو ایک اور محمد صاحب کو نبی ماننا ، نماز، روزہ ،حج اور زکواۃٰ ادا  کرنا اسلام ہےاورعقلاً بہ وسعت یوں کہہ سکتے ہیں کہ جو کچھ محمد صاحب نے تمام مجموعہ قرآن اور اس کے موافق حدیثوں میں سکھلایا ہے کہ وہی ان کا اسلام ہے۔چنانچہ جو کچھ ویدومیں لکھا ہےوہی ویدانت ہے۔ اور جو کچھ انجیل مقدس میں مذکور ہے وہی عیسایت ہے۔پس اگر  علمِ تصوف  قرآن و حدیث سے باستنباط صحیح مستنبط  ہےتو وہ علومِ اسلام میں سے ہے۔اور ہر صوفی آدمی مسلمان ہے اور اگر وہ قرآن و حدیث سے نہیں ہےکوئی خارجی بات ہے جو صوفیہ نے کہیں سے نکالی ہے۔تو وہ علومِ اسلام میں سے نہیں اور نہ صوفی آدمی مسلمان ہے۔کیونکہ اس کے عقائد تصوف کے ہیں نہ کہ اسلام کے  اور جو محمد صاحب کو مانتا ہے۔بطور صلح کل کے مانتا ہے نہ کہ بطور اسلام کے۔

اب اسبات کا فیصلہ کون کر سکتا ہے؟اولاً چاہیے کہ معتبر محمدی عالم اس کا فیصلہ کریں کہ وہ تصوف کو اپنے اسلام کاجز سمجھتے ہیں یا نہیں ثایناً ہم خود فکر کرسکتے ہیں کہ تصوف اسلام میں سے نکلا ہےیا باہر سے آیا ہے۔سب سے زیادہ معتبر کتاب اسلام کے تفسیر اتقان ہے۔اس کی نوع ۷۸ میں لکھا ہے کہ ( واماکلام الصوفیۃ فی القرآن فلنس بنمفسیر ۔یعنی صوفیا کا کلام جو قرآن کی بعض آیات کے معنی میں ہوتا ہے۔وہ قرآن کی تفسیر میں نہیں ہے۔یعنی ان کا اپنا تجویز کیا ہوامضمون ہوتا ہے۔جو کہ محمد صاحب کی مراد نہیں ہے)۔ پھر لکھا ہے کہ ( النصوص علےظواہر ہا والعدول عنہا الی معا نِ ید عیہا اہل الباطن الحاد  ) یعنی وہ جو صاف صاف قرآنی آیات ہیں۔وہ اپنے ظاہری معنے پر ہیں۔ان ظاہری معنی سے اس طرف جھکنا جن کے مدعی اہل ِ باطن یعنی صوفی ہیں الحاد یعنی کفر ہیں۔

 اب ناظرین کو معلوم کرنا چاہیے کہ تصوف کس چیز کا نام ہے؟اکثر کتبِ تصوف دیکھنے سے معلوم ہو ا ہے کہ ان میں دو قسم کی باتیں مذکور ہیں۔

اول اسلام کی باتیں ہیں مثلاً ایمان،نمازروزہ خلوص جو کہ محمدیت ہے۔ان لوگوں نے اپنی کتابوں میں نقل کی ہے۔یہ سب کچھ ہرگز تصوف نہیں ہےیہ تو اسلام ہے اور اس کا بطلان ہدایت المسلمین اور تواریخ محمدی و تعلیم محمدی وغیرہ میں بندہ نے کافی طورپرد کہلا دیا  ہے۔

دوئم خاص باتیں صوفیہ کی ہیں کچھ عقائد ہیں کچھ خیالات ہیں کچھ اطوارِ ریاضت ہیں جن کا ثبوٹ نہ قرآن سے ہے نہ معتبر حدیثوں سےبلکہ صوفیہ نےان اپنی تجویزوں سے اور کچھ بت پرست قوموں سے لے کر جمع کی ہیں۔اسی کانام علمِ تصوف یاسلوک ہےاور میری بحث اس کتاب میں انہی باتوں سے ہے۔اوروہ تصوف کی باتیں ہمیشہ اسلام سے الگ نظر آتی ہیں۔اور کہا جاتا ہے کہ یہ مسئلہ تصوف کا ہے اور یہ اسلام کا ہے۔

 اب صوفیوں سے کوئی پوچھے کہ کیا تم اپنے تصوفی خیالات کو قرآن و حدیث کی معتبر تفسیروں سے ثابت کر سکتے  ہوکہ آپ لوگ مسلمان سمجھے جائیں اورآپ کے ولیوں کی ولایت اسلام کی برکت سمجھی جائے۔اور آپ تو ہرگز ثابت نہیں کرسکتے کہ تب وہی بات جلال الدین سیوطی کے  خیالاتِ تصوف کی نسبت درست ہوگی۔کہ الحادُاور جب تصوفی خیالات الحادٹھہرے تو پھر صوفی کیا ہواملحد ہوا کہ نہیں اور ملحد سے بالفرض کرامتیں بھی ظاہر ہوں توالحاد کی حقیقت ثابت ہو گی نا کہ اسلام کی۔

 محمدیوں میں جو ۷۲ فرقے مشہور ہیں وہ سب کے سب غالباً تصوف کو ناچیز جانتے ہیں۔اور شعیہ تو اس کے بہت ہی مخالف ہیں۔ لیکن سنیوں میں سے بعض ہیں جو تصوف کی قدر کرتے ہیں۔بلکہ اپنے شاگردوں کو علومِ اسلام سکھلانے کے پیچھے سے تصوف کی طرف سے ہدایت کرتے ہیں اور وہ کامل صوفی  کی تلاش میں ہمیشہ رہتے ہیں کیونکہ اسلام میں ان کی تسلی نہیں ہوتی تصوفی خیالات کے وسیلےسے خدا کے نزدیک جانا چاہتے ہیں۔

کیاخوب بات ہے کہ محمد صاحب نے اسلام نکالاصوفیوں نے تصوف نکالا اسلام کے وسیلے سے کوئی ولی اللہ نہ ہواتصوف کے وسیلے سے ولی اللہ ہو گئے۔تب تصوف اسلام سے بڑا اور صوفی محمد صاحب سے بڑے ہادی ٹھہرے پھر وہ کہتےہیں کہ ہم محمد صاحب کے پیروں ہیں اوروہ ہمارے  پیشوا ہیں لیکن اس پیشوائی کا ثبوت اس وقت ہو سکتا ہے تصوف قرآن سے ثابت ہو جاتا ہے تصوف تو ویدوں سے ثابت ہوتا ہے۔نہ کہ قرآن سے پس ان کے پیشوا ویدوں  کے مصنف ہوں گے نہ کہ  محمد صاحب کے۔ایک محمدی بزرگ نے  یوں کہا ہے کہ

علمِ دین فقہ ہست و تفسیر و حدیث   ہرکہ خواند غیر ازین گرد وخبیث

یہ شعر اور جلال الدین کا قول بالا تصوف کو محمدی دین سے بے عزتی کے ساتھ باہر نکالتا ہے۔ مگر بعض محمدی مولویوں نے جو تصوف پر فریفتہ ہیں بہ تکلف تصوف کو اسلام  میں داخل کیا ہے۔کہ اس کو اسلام کا لب لباب سمجھا ہے اور  یہ ان کی غلطی ہے۔

 مشکوۃ کتاب الایمان جو پہلی حدیث ہے اس میں لکھاہے کہ

فَأَخْبِرْنِي عَنِ الإحْسَانِ، قَالَ: أَنْ تَعْبُدَ اللَّهَ كَأَنَّكَ تَرَاهُ فَإِنْ لَمْ تَكُنْ تَرَاهُ فَإِنَّهُ يَرَاكَ جبرائیل نے حضرت سے پوچھاکہ احسان کیا چیز ہے فرمایا یہ کہ تو خدا کی ایسی عبادت کرےگویا تو اس کو دیکھتا ہے۔اور اگر ایسا نہ کرسکے تو ایسا کہ وہ تجھے وہ دیکھتا ہے۔ مطلب یہ کہ دلی حضوری سے عبادت کرنا احسان ہے۔

مظاہرالحق جلد اول صفحہ ۲۶ میں لکھا ہےکہ احسان اشارہ ہے۔اصل تصوف پر کہ توجہ الی اللہ سے مراد ہے کہ  اور فقہ  بغیر تصوف کے تمام نہیں ہوتی۔

 یہاں اس  مصنف نے دھوکا کھایا کہ چترائی کا کلام کیا ہےکہ  تصوف محمدی فقہ کا تکملہ ہو کےاسلام کے علوم میں جگہ پائے۔اس لیے ناظرین کو معلوم ہو جائے کہ لفظ تصوف بمعنی صفائی قلب اور بات ہے۔اور علم تصوف کو اصطالاحاً مجموعہ قواعدصوفیہ کانام ہےاور بات ہے کہ بغیر اس مجموعہ قواعد  کے اگر کوئی دلی حضوری سے عبادت کرسکتا ہے پھر اس علمِ تصوف پر لفظ احسان سے کیونکر اشارہ ہو گا۔

 میں تو خوش ہوں کہ تصوف اسلام کا ایک حصہ یالب لباب ثابت ہو۔تاکہ تعلیم محمدی اور بھی زیادہ حقیر ہو جائے۔لیکن انصاف کے سبب سے کہتا ہوں کہ سارا علم تصوف ہرگز قرآن و حدیث سے  نہیں نکلا ۔نادانی کی باتیں باہر سے صوفیہ نے لے کر جمع کی ہیں۔کیونکہ اسلام سے دل کی سیری نہ ہوئی تھی اور روح کی بھوک پیاس نہ بھجی تھی تب بھوکے پیاسوں نے ادھر ادھر تاکا کہ کہیں سے کچھ پائیں۔لیکن جو کچھ بت پرستوں سے پایا اور کھایا وہ زہر قاتل تھا۔کہ ان کی روحیں ہلاک ہو  گئیں اور وہ ہمہ اوست کے غار میں اترگئے۔

نجات اور تسلی زندگی اور خوشی صرف خدا تعالیٰ کے کلام سے حاصل ہوتی ہےاور وہ کلام ان صوفیوں کے پاس نہ تھا۔اس لیے وہ انجام بخیر نہ ہوا۔اپنے گناہوں میں دھنسے ہوئے اس جہاں سے چلے گئے اور روتے ہوئے گئےاور وغدغہ میں گئےکہ بچیں گے یا نہ بچیں گے۔خدا کے بندے بائبل شریف کے مومنین ہمیشہ بوسیلہ کلام اللہ کے تسلی اور مغفرت پا کر مرتے ہیں اور مسیح نے فرمایا ہے کہ (جو کوئی میرے پاس آتا ہےکبھی بھوکااور پیاسا نہ ہوگا)۔ یہاں روح کی بھوک اور پیاس کا ذکر ہے۔ہم جتنے ایمان سے مسیح کے  پاس آئے ہیں  ہم نے تسلی او ر چین حاصل کیا ہے۔ہم الٰہی قربت اور مغفرت  وغیرہ کے لیے ادھر ادھر ہرگز نہیں تاکتے۔ہم سیر ہو گئے ہیں اوریہ  خدا کے  کلام کا خاصہ ہےکہ مومن کو سیر کرے۔یہ کام قرآن سے اور تصوف سے اور دنیا کی کتاب سے اور کسی ریاضت و عمل اور وظیفہ سے نہیں ہوسکتا ۔صرف مسیح سے ہوتا ہے کیونکہ وہ ازلی کلمہ ہے۔

۳ ۔فصل صوفی کی وجہ تسمیہ کے بیان میں

کتابوں میں اس فرقہ کی تین وجہ تسمیہ مذکور ہیں۔اول یہ کہ صوف کے معنی ہیں پشم یا اون پس وجہ پشمینہ پوشی کے یہ صوفی کہلاتے ہیں۔میرے گمان میں یہ کچھ بات نہیں ہےاس بات سےتو انگریز بڑے صوفی ہیں وہ سب ہمیشہ اونی کپڑے پہنتے ہیں۔بھیڑ بکری اور اونٹ بڑے صوفی ہیں کیونکہ صوف پوش ہیں۔یحییٰ اور الیاس پیغمبروں نے اونٹ  کے بالوں کی پوشاک استعمال کی ہےکیا وہ صوفی تھے ؟ ہرگز نہیں ۔البتہ اکثر درویشوں کا دستور رہا ہے کہ ایک کمبل یا لبادہ اون کار کھتے تھے کہ کفایت شعاری اور جسمی آرام اور بزرگانہ شکل قائم رکھنے کے لیے۔اگلے زمانے کے فقیر اکثر کمبل پوش تھے۔اوراب بھی بعض ایسے ہیں کہ کمبل پوشی کو دروشی کی سنت سمجھتے ہیں۔

انوار العارفین ۱ صفحہ ۸۲ میں لکھا ہےکہ حضرت محمد صاحب نے فرمایا کہ  (علیکم بلبس الصوف) یعنی اون پوشی کو اپنے اوپر لازم سمجھو اور ایک اور حدیث میں ہے کہ کان النبی یلبس الصوف ویر کب الحمار ۔نبی صاحبہ پشمینہ پوش رہتے۔اور گدھے کی سواری کیا کرتے تھےاور یہ بھی حدیثوں میں ہے کہ ایک سیاہ کمبل محمد صاحب نے علی کو دیا تھا۔صوفی کہتے ہیں کہ وہ فقیری کانشان تھا۔اور وہ کمبل پیروں میں دست بدست نصیر الدین محمود تک چلا آیا تھا۔آخر کو محمود اسےاپنی قبر میں لے گیا۔اس لیے اس فرقہ میں کمبل پوشی ایک مثل ایک سنت کے ہوگئی امام اعظم صاحب اور داؤد طائی اور ابراہیم ادہم اور حسن بصری اور سلیمان فارسی وغیرہ نے اور اول زمانے کے اکثر بزرگوں نے کمبل پوشی اختیار کی تھی پس ایک وجہ تسمیہ ان کی کمبل پوشی ہے۔اس وجہ سے صرف کمبل پوشوں کو صوفی کہنا چاہیے۔ ان پیر زادں کو جو غالیچوں پر بیٹھتے اور کم خواب پہنتے اور پیچوان پیتے ہیں۔وہ ناحق صوفی کہلاتے ہیں۔جب کہ کمبل پوش نہیں ہیں ۔دوسری وجہ تسمیہ صوفی کی یہ بیان ہوئی ہے کہ صوفی آنراگویند گا وارد دل خودرا وصاف دار خاطر خود ارا از خیال غیر حق ۔اس عبارت کا مطلب یہ ہے کہ وہ غیار حق کا خیال بھی دل اور خاطر میں نہ آنے دیں۔یعنی ہمہ دست کے خیال سے مستغرق رہےوہ صوفی ہے۔یا صوفی وہ ہےجس نےا پنے دل کو خدا کے لیے صاف کیا ہےاورصاف کرنے کے معنی ان کی اصطلاح کے مطابق یہی ہیں۔کہ کسی غیر شے کے وجود قائل نہ ر ہےاسے سب کچھ خدا نظر آئے یعنی ہمہ اوست کے درجے کو خوب پہنچا ہو۔میں سمجھتا ہوں ایسے آدمی نے اپنے دل کو زیادہ تر کدورت اگین کیا ہے کہ خالق کی عزت مخلوقات کو دی ہے۔اور خدا کو اپنے خیال میں سے نکالا ہے۔اور غیر چیزوں کو اس کی جگہ میں بٹھایا ہے۔ایسے شخص کو صاف دل کہنا غلط ہے۔اگر اس وجہ سے یہ لوگ صوفی کہلاتے ہیں تویہ وجہ خلاف واقع کے ہے۔تیسری وجہ تسمیہ صوفی کی اور ہےاور وہ میرے گمان میں زیادہ تر صحیح ہے۔چاہیے کہ سب مسیحی لوگ ان صوفیوں کو اس تیسری وجہ کے سبب سے صوفی کہیں اور وہ یہ ہے ہے کہ مکہ شہر میں ظہورِاسلام سے پہلے جب کعبہ بتوں سے بھرا ہوا تھا۔تو اس کے منتظم اور پوجاری یا خدمت گزار قوم صوفہ کے لوگ تھےاور اس وقت ان کی عزت عرب میں تھی۔وہ پیروں کے موافق تھی اور صوفہ کہلاتے تھے کہ جب اسلام ظاہرہوا تو محمدیوں میں سے بعض شخص بعض امورمیں ان بت پرستوں سے اتفاق کے سبب ان کی طرف منسوب ہو کر صوفی کہلائے شروع میں اسی سبب سے انہوں نے یہ نام پایاپھر کمبل پوشی اور صفائی وغیرہ کےچرچے ہوئے۔اور وہ اصلی پہلی مکروہ بات پو شیدہ ہوگئی۔دیکھو غیاث اللغات لفظ صوفی کے ذیل میں کیا لکھا ہے۔ (ورشرحی معتبر از شروح نوشتہ کہ صوفی منسوب کہ بصوفہ است کہ قومےبوداز اہل تجردد رایام جاہلیت کہ خدمت کعبہ میکردند د خدمت خلق برائے حق مے نموندد پس اہل تصوف منسوب بایشان شدند )۔

  پھر قاموس اور منتہی الارب افیک ہی عبارت یوں لکھی ہے ۔(وصوفہ ایضاً ابوحی من مضرو ہوالغوث بن مربن اوبن طائحتہ کا نوایحذ مون الکعبتہ ویحبیڑون الحاج فی الجاہلتہ اے  یفیفون بہم من عرفات  وکان احد ہم یقوم فیقول اجیڑی صوفہ فاذ اجازت  قال اجیڑی خندف فاذا اجازت اذن اللناس کلہم فی الا حاذۃ اوہم قوم من افنا  القبایل تجعموا فتشکبوااکتشبک الصوفۃ)۔ اس کا مطلب یہ ہے کہ مضر کے گھرانے میں سے ایک قبیلہ کے باپ کا نام صوفہ ہے۔ اس کا دوسرا نام غوث تھااور وہ مربن اوبن طایخہ کا بیٹا تھا یہ لوگ کعبہ کی خدمت کرتےتھے۔اور ایامِ جاہلیت میں حاجیوں کو چلاتے ہیں ۔یعنی مقام  عرفات سے طوائف  کے لیےانہیں روانہ کرتے تھے۔کوئی آدمی ان کاکھڑا ہو کرکہتا  تھاکہ چل اے قوم صوفہ جب وہ چلتےتب وہ کہتا چل مٹک چال جب وہ مٹک چال چلتے تو تب تمام لوگوں چلنے کی اجازت ہوتی  تھی۔

اور صوفہ ایک گروہ کا نام بھی تھا۔جو سب قبائل میں سے معلوم النسب لوگ تھےوہ جمع ہوتے تھےاورآپس میں ایسا میل ملاپ کرتےتھے کہ جیسے قوم صوفہ مذکرہ بالا کا باہمی  میل ملاپ تھا۔پس یہ لوگ آپ کو صوفہ  کی مانند بنانے کی وجہ سے صوفہ کہلاتے تھے۔

اجیزی خندف کے معنی ہیں کہ چلو خوشی اور تکبر کی چال میں نے اس کا ترجمہ مٹک چال کیاہے۔چنانچہ اب تک وہاں تین طواف رمل ہوتی ہیں۔یعنی بانکوں کی مانند مگر محمدی لوگ یہ مٹک چال فتح مکہ کا نشان بتلاتے ہیں۔اور قدیم عرب اور مطالب سے کرتے تھے۔ خندف بمعنی مٹک چال ان کی ایک پڑدادی کانام تھا۔جو الیاس بن مضر کی زوجہ تھی اور طائحنہ کی والدہ تھی۔وہ ایک دفعہ مٹک چال جنگل میں چلی تھی۔جب خرگوش سے اووک کے اونٹ بھاگے تھے۔اس وقت سے اس کے شوہر نے ان کا نام خندف رکھ دیا تھااورطائحنہ پڑدادا ہےصوفہ غوث کا اور صوفہ غوث سے یہ تمام قوم نکلی تھی اور اپنی جدا اعلیٰ کے نام پر سب صوفہ کہلاتے تھے۔پس اس مٹک چال میں وہ اپنی دادی کی سنت پر کوئی اشارہ کہتےتھےاور یہی قوم تمام عرب کے لیے کعبہ پرستی میں پیشوا اور پوجاری تھی۔دیگر قبائل میں سے بھی وہ معلوم النسب لوگ جو قوم صوفہ کی مانند عادات بناتے تھےصوفہ کہلائے۔حاصل کلام یہ ہے کہ صوفہ غوث ایک بت پرست آدمی تھا۔اسلام سے بہت دنوں پہلےاس کی تمام اولاد کئی پشت تک صوفہ کہلائی اور دوسرے گھرانوں کے لوگ بھی جو معلوم النسب تھےصوفہ کہلائےاس لیے کہ صوفہ غوث کی اولاد کے نقشِ قدم پر میل ملاپ اور کعبہ کے بتوں کی پرستش کرتےاور سال بسال کعبہ میں جمع ہوا کرتے تھے۔

اس بیان سے جو بالکل صحیح ہےظاہر ہے کہ لفظ صوفی کی اصل وہی صوفہ غوث بت پرست آدمی ہےاس سے اولاً اسکے  اولاد صوفہ کہلائی اور ان کے اقتدار کے سبب غیر لوگ بھی صوفہ کہلائے اور اس میں کیا شبہ ہے کہ اس جہالت کے زمانے میں درمیاں اُن بت پرستوں کے صوفی لوگ ممتاز تھےوہ خدا پرست سمجھے گئے۔ اس لیے بعض دیگرقبائل کے لوگ ان کی اقتدار کرکے صوفہ ہو جاتے تھے۔وہ سمجھتے تھے کہ ان کے اطوار  خدا پرستی میں درست ہیں۔جب اسلام کا زمانہ آیااورتمام ملک عرب بزور شمشیر مسلمان کیا گیااور انہیں محمدی شریعت دی گئی۔ان سے پرانی بت پرستی کے دستور چھڑائے گئے۔تو انہیں نومسلم لوگوں میں سے اکثروں کے دلوں میں قوم صوفہ کا خمیر موجود تھا۔چنانچہ اکثر ذی علم صوفی اب تک قائل ہیں کہ ہمارا تصوف اسلام سے پہلے تھااور اسلام میں یہ طاقت نہ تھی کہ وہ خمیر اس کے ذہنوں میں سے نکالتااب وہ نومرید صوفہ لوگ کیا کر سکتے تھے۔اگر اسلام کو چھوڑیں تو مارے جائیں صوفہ کو چھوڑیں تو بگمان ذیش حقیقی خدا پرستی سے الگ ہوتے ہیں۔

 قیاس چاہتاہے کہ  اس و قت ایسے لوگوں میں بہت کانا پوسی ہوئی ہوگی اور ان ہی کی کانا پوسی کا وہ نتیجہ معلوم ہوتا ہےجو کہ آج تک صوفیہ میں مشہور ہے کہ ایک علم سینہ ہے تو دوسرا سفینہ ہے۔ایک ظاہری انتظامی شریعت ہے جو محمد صاحب قرآن وحد یث میں لائے ہیں اس کے پیرو اصحاب ظا ہر یعنی محمدی لوگ ہیں جو حقیقت سے بے بہرہ ہیں۔ تو دوسری  باطنی شریعت ہےجو صوفیہ  میں سینہ بسینہ چلی آتی ہے۔اور خدا کا وصال اسی سے ہوتا ہے۔محمدی شریعت ملکی انتظام کے لیے ہےخدا پرستی کی راہیں جدا ہیں وہ لائق آدمی کو بڑی آزمائش کے بعدصوفی لوگ بتلاتے ہیں اور  یہ لوگ اصحاب باطن ہیں۔اور کچھ عرصے کے بعداس کے ساتھ یہ بھی اڑایا کہ یہ علم سینہ محمد صاحب سے ہی پہنچا ہے تاکہ کوئی یہ نہ سمجھے کہ یہ صوفہ غوث کی بات ہے۔اور محتسب کے کوڑے اور قاضی کے فتوے میں کچھ تخفیف ہو۔اور اصحاب ظاہر میں سے جو کچھ مادہ کے شخص ہوں صوفیہ میں شامل ہونا گمراہی نہ سمجھیں بلکہ جانیں کہ محمدصاحب کی اصل ہدایت صوفیہ کے پاس ہےمحمد صاحب علی کے کان میں ڈالی گئی تھی۔حضرت علی نے امام حسن وامام حسین اور کمیل بن زیاداور حسن بصری کو ہدایت خفیہ کی تھی کہ یہی چارا شخاص  پیر طریقیت ہیں اور ان ہی سے یہ نعمت سینہ بسنیہ پیروں میں چلی آئی ہے۔

 پس تمام ملک میں جس قدر  صوفی پیدا ہوئے۔صدہا شجرے اپنے مرشدوں سے لےکہ انہیں چار میں سے کسی پیر تک پہنچتے ہیں ۔لیکن نقشبندیہ کہتے ہیں کہ ہمارا بڑا پیر ابو بکر صدیق ہےاُن کو محمد صاحب سے علم باطن پہنچا تھا۔اور اس کےسلسلے سے ہمیں پہنچا ہے۔

 قیاس اور قول بالا سے ظاہر ہے کہ ان کا اصل مرشد وہی صوفہ غوث ہےکیونکہ قوم صوفہ کی اصل باتیں ان میں اب تک ویسے پائی جاتیں ہیں عقائد اور خیالات اور اطوارِ ریاضت وہی ہیں جو ان بت پرستوں کے تھے۔چنانچہ اس کتاب میں ان کے اطوار کا مفصل بیان ہوتا ہے۔اس وقت ناظرین کو اتنا معلوم ہو جائے کہ قاموس کی عبارت میں جو صوفہ کے کاموں کا ذکر ہے۔وہی کام بعینہ یہ صوفی کرتے ہیں۔

 وہ سال بسال کعبے کے میلے  میں جمع ہوتے تھے۔یہ سال بسال قبروں پر عرس کے لیے  جمع ہوتے ہیں۔وہ من افناء القبائل تھے ۔ صحیح ترجمہ اس عبارت کا یہی ہے کہ سب قبیلوں میں سے معلوم النسب لوگ تھےیہ سب صوفی بھی ہر گروہ میں سےمعلوم النسبت ہوتےہیں اور شجروں سے پہچانے جاتے ہیں کہ کون کس گھرانے کا مرید ہے۔اگر کوئی اجنبی صوفی آجاتا ہے تو پوچھتے ہیں آپ کس سلسلے کہ ہیں وہ کہتا ہے کہ قادریہ یا ٍچشتیہ وغیرہ ہوں۔وہ آپس میں میل ملاپ کرتے تھے یہاں بھی وہی حال ہےہزار اہلِ تماشہ عرس میں آ  ئیں۔اصل گمت صوفیوں ہی  کی ہوتی ہے۔وہ بت پوجتے تھےیہ قبروں کے قدم چومتے ہیں۔وہ کعبہ کا طواف کرتے تھے۔یہ قبروں کا  طواف کر تے ہیں۔وہ آبِ زم زم پیتے تھے یہ چرنامت چکھتے ہیں۔یعنی وہ پانی جو قبروں کے غسل اوس دوبالشت کے حوض میں جمع رہتا ہے۔جو پیر کی قبرسے پیروں کی قبروں کی طرف چونے سے بنی رہتی وہ کعبہ کے غلاف چومتے تھے یہ قبروں کے غلاف آنکھوں سے لگاتے وہ بتوں سے مدد مانگتے تھے یہ مردوں سے مانگتے ہیں۔ان کا ایک آدمی پیشوائی کرتا تھا۔ان کابھی ایک سجادہ نشین پیشوا ہوتا ہے۔اور یہ خیال جواب تک ان میں ہے۔کہ تمام ولیوں میں غوث بڑا شخص ہوتا ہے۔اس کی اصل بھی وہی صوفہ غوث ہے۔جو اُن میں جدا علی تھااور کیا  تعجب ہے کہ اس کانام یا غوث بت سے کچھ علاقہ رکھتا ہو۔جو ان بت پرستوں میں نہایت بڑا دیوتا سمجھا گیا  تھا۔اب فرمائے کہ صحیح وجہ تسمیہ کیا ہے۔ 


۴ ۔فصل اقسام صوفیہ کے بیان میں

صوفیہ کی اقسام دو طرح کی ہیں۔اول خاندانوں کے اعتبار سے اور دوئم ان کی باطنی حالت کے اعتبار سے ۔خاندانوں کے اعتبار سے یہ کیفیت ہے کہ اسلام میں جو  ۷۲ فرقے اختلاف رائے سے پیدا ہوتے ہیں۔ان سے کچھ ہی زیادہ فرقے ان میں مشخیت  کے لیے پیدا ہوئےہیں خاندانوں کے اعتبار سے کہتے ہیں کہ وہ جو چار پیر تھے ان سے چودہ خانوادے نکلے ہیں۔

 زیدیہ۔عیاضیہ ۔ اوہمیہ ہیبئریہ ۔چشتیہ ۔ عجمیہ۔ طیفوریہ۔ کرضیہ۔ سقطیہ۔ جنیدیہ۔ کاردینہ طوسیہ۔ سہروردیہ۔ فردوسیہ ۔پہران چودہ سے اور فرقے اس قدر نکلے کہ مصنف لوگ جمع نہیں کرسکتے ان میں سے بعض کے نام یہ ہیں۔قادریہ۔ یسویہ ۔نقشبندیہ۔ نوریہ۔ شطاریہ۔ خضرویہ۔نجاریہ۔ زاہدیہ ۔ الضاریہ ۔ صفویہ۔ عید روسیہ وغیرہ۔اورمشرب قلندریہ میں سے بھی مدرایہ رسول شاہی ۔ نوشاہی وغیرہ قسم قسم کے فقیر ہندوستان میں پھرتے ہوئےملتے ہیں۔اور اپنے فرقوں کے نام بتلاتے ہیں اور اسی کو خوبی سمجھتے ہیں۔ کہ ہم فلاں فرقے کے ہیں ۔وہ اپنے فرقے کے نام سے روٹی کما کر کھاتے ہیں۔ اور اکثر ان میں محض جاہل اور نکارہ سست  لوگ ہیں جو محنت کرکے کھانا نہیں چاہتے ۔ غیروں سے خوراک پانا اورنشہ بازی کیے لیے کچھ دام حاصل کرنا اپنی فقیری کامنشا سمجھتے ہیں۔

پھر صوفی کہتے ہیں کہ بااعتبار باطنی کیفیت کے ہمارے درمیان تین قسم کے لوگ ہیں۔ واصلان۔متوسطان۔مقیمان۔

مقیمان وہ صوفی ہیں جو اپنی دنیاوی کیفیت میں قائم رہتے ہیں۔ اپنی بری حالت کو چھوڑ کر مدارج تصوف میں ترقی نہیں کرتے  ان لوگوں کو متصوفہ کہتے ہیں یعنی چھوٹے صوفی۔یہ لوگ شکم پرور اور دنیا دار ہیں۔ کپڑے رنگے ہوئے ہاتھ میں ہاتھ تسبیح منہ میں سبحان اللہ وغیرہ الفاظ بولتے، مقبروں اور پیروں کی تعریفیں کرتے اور ان کے عرسوں  یا میلوں کی تاریخیں یاد رکھتے اور ختم سناکے اچھےکھانے اوڑاتے اور دن رات پیسہ پیدا کرنے کی ایسی فکر ہوتی ہے جیسے ایمان دار خدا کی تلاش کرتا ہے۔دیہاتی نادانوں کی طرف  بہت جاتے  ہیں۔ اور ان کو مرید بناتے اور ان کا مال کھا جاتے ہیں۔اور ان کی تعلیم اور صحبت سے اور لوگ اسی قسم کے پیدا ہوتے رہتے ہیں۔ یہ لوگ چلہ کشی یاورد خوانی وغیرہ کچھ کام بھی اگر کرتے ہیں تومنشایہی ہوتا ہے کہ لوگوں کے دل اپنی طرف مائل کریں۔اور جب کوئی دولت مند ذی اختیار ان  کے ان کے پنجےمیں پھنس جاتا ہے  اور ان کی عزت کرتا یا کچھ زمے داری بخش دیتا ہے  یا مرنے کے بعد کسی کا مزار بنا دیتا ہے۔تو یہ بات ان کے کمال کی دلیل سمجھی  جاتی اور اس کا ذکر پشتوں تک چلاآتا  ہے۔کہ فلاں صاحب ایسے بزرگ تھے کہ فلاں امیر نے ان کو یہ کچھ بخشد یا تھا۔ بعض ان میں سے ایسے بھی ہیں جن کے پاس کچھ اثاثہ زمینداری یا کسی خانقاہ کی آمد کاجو ان کے آبا ءنے اسی طرح پیدا کیاتھاموجود ہےوہ عزت سے رہتے اور غریب صوفیوں  کو بھی کچھ کھلاتے اور مہمان داری کرتے ہیں روٹیاں تقسیم فرماتے ہیں۔اور اس وجہ سےدور  دور تک تعریفیں  ہوتی ہیں اور وہ اس تعریف سے بہت خوش ہوتے ہیں۔کیونکہ آمد بڑھتی اور ولی اللہ مشہور  ہوتے ہیں۔اور اس کے ساتھ جب خوش اخلاقی ظاہر کرتے ہیں۔تب زیادہ رونق ہوتی ہے۔لیکن بعض ان میں سخت دل،متعصب اور شہوانی شخص ہوتے ہیں۔

 متوسطان وہ ہیں جو مقیمان کے اوپر اور واصلاں  کے نیچے سمجھے گئےہیں انہوں نےد نیا کو کسی قدر چھوڑا اور تصوف کے طریقوں کو اختیار کیا ہے۔ لیکن ابھی تک خدا  کے پاس نہیں پہنچنے کوشش کررہے ہیں کہ پہنچ  جائیں ان کو سالکین کہتے ہیں ۔

  میں دیکھتا ہوں کہ  ایسے صوفیہ میں کہیں کہیں نظر آجاتے ہیں۔سو مقیمان  میں شاید پانچ ایسے ہوں۔ان میں کچھ تو خدا کی محبت ہےجس کی سبب سے انہوں نے جفا کشی اختیار کی ہےاور کچھ اپنا دنیاوی آرام چھوڑا ہے۔ اس لیے وہ عزت اور محبت اور ہم نشینی کے لائق ہیں۔ان کی نسبت مجھے یہی افسوس ہے کہ جس راہ پر وہ چلے جاتے ہیں۔وہ راہ خدا سے ملنے کی نہیں ہے۔بے فائدہ مشقت کھینچتے ہیں۔ان اطوار سے جو انہوں نے اختیار کیے ہیں۔خدا کو کبھی نہ پائیں گے۔ میں ان کی منت کرتا ہوں کہ میری یہ باتیں سن کر خفا نہ ہوں۔بلکہ فکر میں پڑ جائیں۔اور غور کریں کہ جو کچھ اس کتاب میں بیان ہوا ہےسچ ہے یا نہیں۔

 ان متوسطان میں سے کئی ایک آدمی ہمارے مسیحیوں  کی جماعت میں بھی آ ملے ہیں ۔اور دینِ مسیحیت کا انہیں لطف حاصل ہوا ہے۔کیونکہ وہ سچائی کے بھوکے اور رضیاتوں کے تھکے ماندے تھے۔جب وہ مسیح کے پاس آئے مسیح نے بموجب اپنے وعدے کے (متی 1۱۔۸)  ان کے دلوں میں آرام داخل کردیا۔اب وہ خدا کا شکر کرتے ہیں کہ صوفیوں کے جال سے نکلے اور پیغمبروں کی جماعت میں آئےاور خدا کو فی الحقیقت پایااور اس سے فضل حاصل کیا جودلوں اور خیالوں میں جلوہ گر ہواہے اور تبدیل ہو کر نئے انسان ہو گئے ہیں۔اب پورا یقین ہے کہ وہ انتقال کے بعد وہ حقیقی آرام میں پہنچیں گے۔کیونکہ اسی زندگی میں خدا کی قدرت اور محبت کا ہاتھ  اپنی طرف دیکھتے ہیں ۔پس یہ لوگ ان صوفی متوسطان کو بہت یاد کرتے ہیں جن کو غلطی میں پیچھے چھوڑا ہےان کے لیے دعائے خیر کرتے ہیں۔کہ خدا تعالیٰ ان کو بھی اس گرداب میں  سے ایسا نکالے کہ جیسا ہمیں نکالا ہے۔کیونکہ وہ جو پیچھے رہ گئے ہیں وہ بکواسی اور شریر  نہیں صرف  بھول میں ہیں۔

 واصلان وہ صوفی سمجھے گئے ہیں جو کہ  ان مقیمان اور متوسطان کے گمان میں خدا سے مل گئے ہیں ۔تصوف یا سلوک کی منزلیں طے کرکے  منزل مقصود کو پہنچے ہیں۔یہی بیان اس کتاب میں بڑی بحث کا ہے۔

 اس لیے میں صاف صاف کہتا ہوں کہ ایسے اشخاص جن کو واصلان کہا جائےصوفیہ میں کبھی ہوئے نہ کبھی ہوں گئے۔یہ صوفیوں کا وہم ہے جو وہ کہتے ہیں ہم میں واصلان بھی  گزرے ہیں۔

اور وہ جو ان میں بڑے بڑے نامور ولی اللہ مشہور  ہیں۔ جن کے عالی شان  مقبرے بنے ہوئے ہیں۔جہاں میلوں اورعرسوں کے وقت  مریدوں اور پیر زادوں  اور عوام مرد عورت کا ہجوم اور چراغوں اور غلافوں اور چورو ناچ اور حال قال اور ماہ و ساوں میں پنکھیوں  کی دھوم رہتی ہے۔یہ ساری کیفیتیں دلائل ولایت واصلان حق ہونے کے شان نہیں ہیں۔یہ تو پیر زادوں کی دکانداری ہے۔ البتہ وہ بزرگ اپنے اپنے زمانے میں بطور صوفیہ خدا پرست اور نیک ہونگےلیکن واصلان میں سے وہ ہرگز نہ تھے۔ وہ سب سلوک ہی میں مر گئے۔ہاں ان کے سلوک میں زیادہ استغراق دیکھ کر لوگوں نے انہیں واصلان میں سمجھ  لیا ہے۔اور انہیں اڑایا ہے تاکہ وہ جاہلوں میں سے پوجے جائیں اور پیر زادے حلوے کھائیں۔اور ان کے نام سے عزت حاصل کریں کہ ہم اتنے بڑے شخص کی اولاد میں سے ہیں۔آؤ ہمارے پیر وں کو ہاتھ لگاؤ اور نذرانہ لاؤ۔

اس مقام پر یہ سوال لازم ہے کہ واصلان حق کے کیا معنی ہیں اور وہ جو واصلان ہیں کیونکر پہچانے جاتے ہیں۔پہلے اس سوال کا تصفیہ کرو۔پھر کہنا کہ کون واصل اور کون فاضل ہے۔

اس سوال کا جواب صوفیہ کی بعض تحریرات  سے یوں  برآمد ہوتا ہےکہ جو لوگ ہمہ اوست کے خیال میں  پختہ ہو گئےہیں۔وہی ان کے گمان میں واصلان ہیں گویا خدا میں وصل ہوگئے ہیں۔اور وہ جو ان کی کچھ کرامتیں اورمکاشفے مذکور ہیں وہ علاماتِ ولایت ہیں۔اور یہ کہ ان کے عہد کے بعض لوگ ان کے متعقد تھے۔اور اب تک  بہت سے لوگ ان کی قبروں پر جمع ہوتے ہیں اور ان سے منت مانتے اور درخواستیں کرتے ہیں اور اپنی مرادیں پاتے ہیں۔

 اگر واصلان حق کے معنی اور علامات کچھ اور ہوں  جنہیں میں نہ سمجھا ہوں تو چاہیے کہ صوفی خود بیان کرے۔میں تو ان کی کتابوں کے مطالعہ سے ایسا ہی سمجھا ہوں۔جیسا میں نےاوپر لکھاہے۔

اور اس بیان کی نسبت یوں کہتا ہوں کہ گزشتہ تاریکی کے زمانے میں وہ بیان قبول ہوا کرتا تھااب قبول نہیں ہو سکتا ہے۔کیونکہ نہایت ناقص خیال ہے۔اس وجہ سے کہ ہمہ اوست کا خیال فی الواقع ایک  باطل وہم ہے۔خداتعالیٰ ہرگز ہمہ اوست کی کیفیت میں نہیں ہے۔پس یہ لوگ یعنی ان کے اولیا اگر واصل ہیں تو ہمہ اوست کے باطل خیال سے واصل ہیں ناکہ  خدا سے۔

 اوروہ جو ان کی کرامتیں مشہور ہیں۔ان کا اثبادت محال ہےکیونکہ اگرچہ کرامتوں کے ظہور کا اولیا اللہ سے امکان ہے۔تو بھی کچھ قاعدے ہم مسیحیوں اور محمدی محدثوں کے پاس بھی ضرور موجود ہیں۔جن سے خبروں  کی آزمائش کرناعقلاً واجب ہےتاکہ ثابت  ہو جائے کہ کس قسم کی خبریں لائق اعتبار ہوتی ہیں۔انہیں قواعد واجبہ کی رو سے محمدی معجزات کی خبریں غیر معتبر ٹھہر ی ہیں۔اور وہی قواعد ہیں جن سے ہر احمق بت پرست کا منہ کرامتوں کے بارے میں بند کیا جاتا ہے۔پس فرض ہے کہ ہم انہیں قواعد سے ان ولیوں کی کرامتوں کی خبروں کو بھی پرکھیں ثقہ روایوں کی تلاش کریں اور خبروں کا تواتر دیکھیں اگر ہم ایسا کریں تو یہ دفتر کے دفتر کرامتوں کے صاف  اڑ جاتے ہیں۔کیونکہ یہ ظاہر مریدوں اور غرض مند پیرزادوں کے بے سرو پا زٹلیات ہیں۔جو ایک وقت میں تصنیف ہو گئےاور اب تک  ہر للو پنجو سے تصنیف ہوتے چلے جاتے ہیں۔

 بائبل شریف کے معجزات ایک خاص مراد پر اور ایک خاص نبوت کے ساتھ ممتاز ہو کر مرقوم ہوئے ہیں اور ان کا وقوع سنجیدگی میں ہے۔وعلی روس الاشہاد ہوا ہےاس لیے صرف وہی معجزات اعتبار کے لائق ہیں۔

  باقی تمام زمین پرہر گروہ کے لوگ  جو کچھ کرامتیں اپنے بزرگوں کی سناتے ہیں ایک بھی نہیں ہے کہ بائبل کے معجزات کے ثبوت کی مانند اپنے بیان کا ثبوت رکھتا ہو۔

محمد صاحب قرآن میں ایک تعلیم دنیا کے سامنے لائے ہیں اگر وہ تعلیم خدا سےثابت ہوتی تو مناسب تھا کہ خدا اپنی قدرتوں سے اس پر گواہی دے کر اسے ثابت کرتا جیسے گزشتہ زمانے میں اس نے بائبل مقدس  کی نسبت کیا ہے۔لیکن خوب ثابت ہو گیا کہ خدا نے قرآنی تعلیم پر کچھ گواہی نہیں دی۔ پھر ان صوفی ولیوں کی کرامتوں پر کس بات پرگواہی دیتا ہے۔آیا تصوف پر یا ہمہ اوست کے باطل خیال پر یا ان پیروں کے حال و قال پر  ۔

 معجزات کی وہ پُر شان قدرت جو کہ خدا میں مخفی ہےاور انتظامِ فطری سے بلند و بالا ہےجسے خدا نے بڑی سنجیدگی کی صورت میں بمزاو ثبوت پیغام گاہے بگاہے ظاہر کیا ہے۔کیا وہ قدرت ایسی عام ہو گئی کہ ان ولیوں نے صدہا کرامتیں چٹکی چٹکی میں کر ڈالیں؟کیا ان ولیوں پر بھی ایمان لانا  اہل ِ دنیا پر فرض ہے؟

" دھوکا  نہ کھاؤ سوکھی جڑ سے سبز ڈالیا نہیں نکلا کرتیں"۔

رہے ان کے مکاشفے اور مہلمات سو ان کی طرف بھی غور سے دیکھو کہ صرف توہمات ہیں۔حقیقی مکاشفے جوخدا کی طرف سے ہیں بائبل میں مذکور ہیں۔ان کی مانند کوئی مکاشفہ کسی ولی کا اگر کسی کو معلوم ہو تو بتلا دےتاکہ ہم اس پر فکر کرکے کہیں کہ  وہ مکاشفہ ہے یا وہم ہےیاصرف ایک  خیال ہےجو انسان سے ہے۔

اور یہ کہنا کہ ان کے عہد کے لوگ ان کے متعقد تھے یہ کچھ بات نہیں ہے۔جیسے سچے معلموں کے متعقد دنیا میں ہو گزرے ہیں ویسے جھوٹے معلموں کے متعقد بھی ہو گزرے ہیں۔یہ دکھلانا چاہیے کہ ان میں کیا تھا جن کے سبب سے لوگ متعقد ہوئے تھے؟

 اور اب جو قبروں پر لوگ جمع  ہوتے ہیں۔ان کا سبب  تو وہی صوفی باطل خیال ہیں وراثتہ اً ان میں چلے آتے ہیں اورپیر زادگان کی طرف سے کشش بھی ہےاور وہ جو منت مانتے ہیں اس کا سبب انسانی بے ایمانی ہےکہ خدا کو چھوڑ کر مردوں سے درخواست کرتے ہیں مصیبت  زدہ جاہل عورتیں اس بلا میں زیادہ مبتلا ہے۔لیکن کیا ہوتا ہے کیا ہر کسی کی مراد پوری ہو جاتی ہےہرگز نہیں سب کام انتظام ِ الٰہی سے ہوتے ہیں۔کیو نکر کوئی ثابت کرسکتا ہےکہ فلاں کام فلاں پیر سے ہو گیا ہےاور کہ کون کون امور میں پیرپرست کامیاب ہیں؟کہ پیروں کے  منکر وہاں ناکامیاب رہے ہیں بر خلاف اس کے یہ دیکھتے ہیں کہ وہ لوگ  جو  زندہ خدا کو چھوڑ کر غیر معبودوں کے دروازوں پر بھیک مانگتے  پھرتےہیں کبھی سیر نہیں ہوتے بلکہ تمام لعنتیں ان کو گھیرے رہتی ہیں اورآخر ہائے ہائے کرکے بے ایمان مر جاتے ہیں۔

 حاصل کلام یہ ہے کہ صرف سالکین اور متصوفین صوفیہ میں ہوئے ہیں اور واصلان حق کبھی ان میں نہیں ہوئےاور جن کو انہوں نے واصلان ِ حق سمجھا ہے وہ  فی الحقیقت واصلانِ حق نہ تھے۔وہ اپنے باطل خیالات میں مستغرق تھےاور اس استغراق میں ان کی حالت دگر گوں دیکھ  کر ان لوگوں نے ان کو واصلان سمجھا ہے۔

۵ ۔فصل ولی اور ولایت کے بیان میں

 لفظ ولی مصدر ولا سے مشتق ہے۔اس کے معنی ہیں کہ محبت رکھنے والااور اس کی جمع اولیا ہے۔ولایت اسی لفظ ولاسےدوسرا مصدر ہے جس کے معنی  دوستی اور تقربِ بندہ بخدا کےہیں۔

 ہر قوم اورہر فرقے میں بعض ایسے اشخاص بھی ملتے ہیں۔جو کچھ کچھ محبت اللہ تعالیٰ سے رکھتے ہیں۔خواہ دانشمندی یا نادانی کے ساتھ لیکن وہ سب ولی اللہ نہیں سمجھے جاتے۔

 ولی اللہ میں کچھ اور بھی مطلوب ہے جس سے وہ سچا ولی اللہ سمجھا جائے۔پس کسی نے کہا کہ ولی وہی ہے جو خدا سے محبت رکھتا ہے۔یعنی دونوں میں دوستی ہو۔

 اس مضمون پر کسی نے کہا کہ یہ بھی ولی کی پوری تعریف نہیں ہے۔کیونکہ خدا کی محبت پیدائش اور رزق رسانی اور حفاظت اور دنیاوی برکت میں کافروں اور مومنین کی نسبت برابر  ظاہر ہےاور دونوں کے لوگوں میں سے بعض ہیں جو خود بھی محبت کا دم بھرتے ہیں۔پس جن میں محبت توہے کیا وہ سب ولی ہیں ؟ ہرگز نہیں۔

 مولوی عبدالغفور نفحات کے حاشیہ میں لکھتے ہیں کہ ولایت کی دو قسمیں ہیں۔عامہ اور خاصہ ولایت عامہ سب مومنین اہلِ اسلام کو حاصل ہے۔خدا کی مہربانی سے خدا کے قریب ہیں ۔جس نے انہیں کفر کی تاریکی سے نکالا اور ایمان کے نور میں شامل کیا۔

 ولایت خاصہ مقربان درگاہ کے لیے مخصوص ہے۔جس کے معنی ہیں بندہ کا خدا میں فنا ہو نا۔بہ نسبت غیر چیزوں کے اور خدا میں بقا  ہونا بہ نسبت حق کے۔

 میں سمجھتا ہوں کہ یہ بیان بھی مولوی عبدالغفور کا درست نہیں ہے۔اولاً ولایت کی تعریف صحیح کرنا چاہیے پھر تقسیم جب کہ ہم ان کے بیان سے ولایت ہی کو نہیں سمجھے کہ وہ کیا چیز ہےتو ہم اس کی قسمیں کیونکر مان سکتے ہیں؟

 اور یہ جو ولایت عامہ میں محمدی مومنین کی نسبت خدا کی مہربانی کا ذکر کیا گیا ہے۔کہ اس نے انہیں کفرسے نکالااور نور ایمان میں شامل کیا۔یہ مقام بحث طلب ہےپہلے یہ فیصلہ  ہوناچاہیے کہ کفر کیا ہے اور محمدی ایمان کیا ہےاور اس میں کیا روشنی ہےجس کو وہ نور کہتےہیں اور یہ کہ  خدانے ان کواس نور میں شامل کیا ہےیا تلوار نے یایہ کہ مجبوری سے مسلمان شدہ لوگوں کے گھروں پیدا ہو کر اسلام کے نور میں شامل ہوئےاور اس شمسول کو الٰہی فعل قرار دیتے ہیں  جب تک یہ سب باتیں صاف نہ ہو جائیں ہم کیو نکر قائل ہو سکتے ہیں۔کہ خدا کی خاص مہربانی ان پر ہوئی ہے۔اور کہ یہ قربت کی ایک صورت ہے۔پس یہ ولایت عامہ توجہ کے لائق شے نہیں ہے اوراس سے دینِ  محمدی کا  کچھ جلال ظاہر نہیں ہوسکتا۔

 اور ولایت خاصہ کی جو یہ تعریف کی ہےکہ نسبت غیر چیزوں کے فنا ہونا اور بہ نسبت حق کے خدا میں بقا حاصل کرنا البتہ یہ بات فکر کی ہے کہ یہ کیا ہے؟

یہ بات بہ تبدیل عبارت نفحات میں یوں مرقوم ہے کہ ولی وہ ہے۔ جو اپنے حال کی نسبت فناہو جائےاور مشاہدہ  حق کی نسبت باقی رہےاورتمام کتب تصوف میں ایسی ہی تعریفیں ولی  کی لکھی ہیں۔جس کا حاصل یہ ہے کہ از خود فنا بخدا رسیدہ شخص ولی ہے۔لیکن فی الحقیقت ایسا شخص ولی نہیں ہو سکتا۔یعنی وہ جو اپنے حال کی نسبت فنا ہو جائےوہ تو پاگل یا دیوانہ یا مخبط الحواس ہے ۔ پھر مشاہدہ حق کی نسبت باقی رہنا اس کا ثبوت اس شخص کی نسبت کیونکر ہو سکتا ہےکیونکہ ازخود رفتگی جواُس میں  ہےوہ حواس میں تاریکی کانشان ہےاور جب اس میں تاریکی اور خلل ہے تو روح میں خدا سے دوری ثابت  ہوگی۔نہ کہ قربت کیونکہ خدا نور ہےاس کی قربت آدمی کو منور اور روشن کرتی ہے ناکہ پاگل۔

 پھر صوفیہ  کہتے ہیں کہ ولایت اور نبوت دو حالتیں ہیں باطنی حالت کانام ولایت ہےاور ظاہری  حالت ہدایت خلق کانام نبوت ہے۔اس لیے ہر نبی ضرور ولی بھی ہےلیکن ہر ولی نبی نہیں ہے۔بعض ولیوں کو نبوت کا عہدہ بھی بخشا گیا ہے۔وہ ولی نبی کہلاتے ہیں اور بہت ولی ہیں جو نبی نہیں ہیں مگر اندورنی کیفیت ان سب نبیوں اورولیوں کی یکساں ہیں۔

 میں اس بات کو مانتاہوں کہ درحقیقت ولایت ایک باطنی کیفیت ہے مگر کلام اس میں ہے کہ وہ کس قسم کی کیفیت ہے اوروہ کون سے نشان ہیں جن سے اس کیفیت کو پہچان کر کسی کو ولی قرار دے سکتے ہیں۔اس کا فیصلہ اب تک صوفیوں سے نہیں ہوااور نہ ہو سکتا ہے۔تو بھی انہوں نے بعض آدمیوں کو ناحق  ولی سمجھ لیا ہےاور ہمیشہ چند احمق آدمی مل کر کسی نہ  کسی آدمی  کوولی مشہور کردیتے ہیں۔میں  نےجہاں تک ان کی کتابوں میں فکر کیا ہے۔مجھے یہی معلوم ہوا کہ یہ صوفی نہ حقیقی نبی کو پہچانتے ہیں اور نہ ہی حقیقی ولی سے واقف ہیں۔جس قسم کے لوگ ان میں ظاہر ہوئے ہیں ان ہی کی کیفیت پر غور کرکے انہوں نے نبوت اور ولایت کا بیان کیاہے۔ ان کے پاس خدا کا کلام نہیں ہے۔ کہ انہیں روشنی بخشےاور راہ راست دکھلادے ان کے پاس صرف آدمیوں کے اقوال ہیں اور وہ بھی ناقص اقوال اور قرآن ہے جو انسان کا کلام ہےاور حدیثیں ہیں جو کہ ناکارہ باتیں ہیں نہ ان کے درمیان  کوئی نبی ِبرحق ظاہر ہوااور کوئی سچا دل پیدا ہوا ۔اس لیے وہ غلطی میں پھنسے ہوئے ہیں۔

 معلوم ہو جائے کہ سچاولی اللہ وہ شخص ہے جو صحیح توبہ اور برحق ایمان کےبعد محبت الٰہی میں ترقی کرتا اور خدا کی مرضی خدا کے کلام سے دریافت کرکے عمل میں لاتا ہےاور خدا کے حکموں کو چمٹا رہتا ہے وہ گناہ کی نسبت فنا اور راستبازی کی نسبت بقا کا رتبہ حاصل کرتا ہے۔ایسا ہی شخص خدا کا مقرب ہوتا ہے اور نشان قربت جو اولاً خود اس پر ظاہر ہوتے ہیں۔یہ ہیں کہ اس کی روح میں ایک نئی زندگی اور روشنی اور تازگی اللہ کی طرف سے آجاتی ہے اور اس کو حقیقی اطمینان حاصل ہوتا ہےثانیا  جو نشانِ قربت غیروں پرظاہر ہوتے ہیں یہ ہیں کہ اس شخص کے افعال اور اقوال اور سب حرکات و سکنات اسی نئی زندگی اور روشنی اور تازگی و اطمینان کے مناسب ظاہر ہوتے ہیں یہ ہیں اس سے لوگ پہچانتے ہیں کہ یہ مردِ خدا ہے۔

 اور یہ بھی کچھ ضروری نہیں کہ اس سے کرامتیں ظاہر ہوں۔البتہ ہو سکتا ہے کہ کبھی کوئی کرامت کا کام بھی اگر  خدا چاہے تو اس سے ظاہر ہو جائےاور یہ بھی کچھ ضرور نہیں  کہ لوگ اس کے پیچھے دوڑیں یا اس کی قبر پرستی کریں یااس کے قدم پکڑے اگر وہ ایسے کام لوگوں کو کرنےدے تو وہ خدا کا آدمی نہیں ہے۔

 ہاں اسکے بعض نیک نمونے اگرچا ہیں تو لوگ اختیار کرسکتے ہیں اور سوچ سکتے ہیں کہ اس نے خدا کی اطاعت اور خدمت کیونکر کی ہم ایسے ہی کریں۔اس نے خدا کی طرف دل لگایا ہم بھی خدا کی طرف دل و جان سے متوجہ ہوں۔خدا نے اس پر فضل کیاہم پر بھی فضل کرے گا۔

 مسیحی ولیوں کی کیفیت  اور محمدی ولیوں کی کیفیت زمین آسمان کا فرق ہے۔اگر کوئی محمدی باانصاف اس معاملے پر غور کریں تو اسے معلوم ہو جائے گا۔سچےولی اللہ صرف مسیحیوں میں گزرے ہیں اوراب زندہ موجودہیں۔

۶ ۔فصل ان صوفی ولیوں کے اختیارات کے بیان میں

 صوفیہ کی کتابوں میں ان ولیوں کے بڑے بڑے اختیارات کا ذکر ہےجس سے خوب معلوم ہوجاتا ہے کہ یہ فرقہ کہاں تک نادان  ہے کہ گزشتہ زمانے کے لوگ کہاں تک سادہ لوح تھےجوایسے خیالوں کو مانتے تھے۔اس وقت کوئی دانشمند ایسی باتوں کو ہرگز قبول نہ کرے گا۔انوار العارفین صفحہ ۲ ۱۴ میں لکھا ہے کہ (خداتعالی رااولیا اندکہ ایشانرا بدو ستی وولایت مخصوص گردایندہ است ووالیان ملک وے اند کہ یہ بندگی برگزیدہ است ایشانراو نشانہ اظہار فعل خود گردایندہ است وامرا یشانراوالیان عالم گردایندہ از آسمان باران بابرکت اقدام یشان آید )۔ اور صفحہ ۱۰۰ کشف المحجوب سے منقول ہے کہ از آسمان باراں یرکت ایشان آبدواز زمین نباتات بصفااحوال ایشان روبدو برکا فران مسلمانان نصرت باہمت ایشان یابند )۔ایسے ایسے بیان ان کی کتابوں میں اس کثرت سے ہیں کہ گویا خدا نے اپنی ساری خدائی کا اختیار ان ولیوں کے ہاتھ میں دے رکھا ہے اور سارے جہان کا بندوبست یہی لوگ کر رہے ہیں۔یہ محض غلط اور گمراہی کا خیال جاہلوں کے دل قبروں کے طرف کھینچنے کے لیے کیا خوب ہیں۔

 قرآن  میں ایسی باتوں کا کچھ ذکر نہیں ہے بلکہ  وہاںکل اختیار خدا کے ہاتھ میں بتلایا گیا  ہےاورسب کو ناچارثابت کیا گیا ہے۔صرف صوفیہ کی کتابوں میں ایسی باتیں ہیں ایسی ہی باتوں  سےپیر پرستی اور قبر  پرستی سے رونق پائی ہے یہاں تک کہ خدا پرستی کی جگہ میں پیر پرستی قائم ہو گئی ہے۔ہزاروں مسلمان مرد اور عورت ایسے ہیں کہ اپنی مصیبتوں اور تکلیفوں کے وقت نہ کہ خدا کو بلکہ پیروں کو پکارتے ہیں۔کشمیرمیں ایک گھر کے درمیان آگ لگی تمام اہلِ محلہ مرد اور عورتیں چھاتی پٹتے اور جلد جلد بولتے تھے۔اے پیر دستگیر بچا۔وہاں ایک عیسائی مرد موجود تھا۔کہا اے کم بخت لوگوں! پانی ڈالوپیر صاحب نہیں بچاسکتا بمشکل پانی ڈلوایا تب آگ بجھی۔انصاف کیجیے کہ یہ حقیقی بت پرستی ہے کہ نہیں اور یہ بت پرستی انہیں باطل خیال سے نکلی ہے جو صوفیوں نے ان ولیوں کے  اختیار کے بارے میں تصنیف کی ہے۔

 میں پوچھتا ہوں کہ یہ محمد صاحب کی تعلیم ہےیا صوفیہ کی اگر محمد صاحب کی تعلیم ہے تو انہوں نے خدا کی عزت آدمیوں کو دی ہےاور پرانے بت ہٹا کر نئی قسم کے  بت قائم کیے ہیں اور اگر  صرف صوفیہ  کی باتیں ہیں تو فرمائیں کہ ایسے خیالات کے شخص محمدی سمجھے جائیں گےیا مشرک پھر ایسے خیالوں کو آدمیوں کو صوفی صاف دل  کہوگےیانا پاک دل کا آدمی سمجھو گے۔یہ پیر لوگ جو دیہات میں دورہ کرتے اور مرید بڑھاتے پھرتے  اور کہتے ہیں کہ ہم خلق اللہ کو ہدایت کرتے ہیں وہ کیا سکھلاتے پھرتے ہیں یہی کہ فلاں پیر صاحب نے فلاں شخص کی یوں مدد  کی تھی اور فلاں عورت نے وہاں قبر سے یو ں مراد پائی تھی پھریہ بھی کہتے ہیں کہ سب کچھ خدا سے ہوتا ہے۔


۷ ۔فصل مجذوب ولیوں کے بیان میں

 صوفی سمجھتے ہیں کہ باعتبار عقل وہوش اور چال چلن کے ولیوں کی تین قسمیں ہیں۔اول مجذوب۔ دوئم قلندر۔ سوئم سالکین۔

جذب کے معنی ہیں کھینچنااور مجذوب کے معنی ہیں کھینچا ہوا شخص یعنی دنیا سے ایسا کھینچا گیا  کہ دنیا کا کچھ ہوش  نہ رہا ننگا پھرتا، بکتا، روتا اور نیک و بد میں تمیز نہیں کرتا جیسے یہ سب پاگل  گلیوں میں پھرتے ہیں پاگل خانوں میں قید ہیں۔ 

 لیکن سب پاگلوں کو صوفی لوگ ولی نہیں سمجھتے۔بعض پاگل ان کے گمان میں مجذوب ہیں۔جن میں انہیں کچھ قدرت نظر آتی ہے۔مثلاً ان میں کچھ غیب دانی کی روح ہویا زنجیروں میں جکڑا جائےاور انہیں توڑ ڈالے یا کسی کے حق کے کچھ بات کہے اور وہ پوری ہو جائےتو ایسے پاگلوں کو مجذوب سمجھتے ہیں اور اعلیٰ درجے کا ولی بتلاتے ہیں لیکن یہ بھی کہتے ہیں کہ مجذبوں سے فیض رسانی کام نہیں ہوتا ہے تو بھی میں نےاپنی گذشتہ عمر میں اکثر شریف محمدیوں کو مجذبوں کے پیچھے بہت سر گرداب دیکھا ہےاور ان کا انجام یہی ہو ا کہ پاگلوں کے پیچھےدوڑکے خود پاگل ہو گئےاور ان کی خانہ خرابیاں ہو ئیں ۔تَّبَعُوكَ فَوْقَ الَّذِينَ كَفَرُواْ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَ

 غور کرنے سے معلوم ہوا  ہےکہ بعض آدمی کسی بیماری کے سبب سے پاگل ہوتے ہیں اور بعض میں کوئی بد  روح سماجاتی ہےاور وہ شیطان کے قبضے میں آجاتے ہیں ہم انہیں شیطان کے مقبوض سمجھتے ہیں۔صوفی انہیں اللہ کے مجذوب کہتے ہیں۔ 

جناب مسیح کو بھی ایک سخت مجذوب ملا تھادیکھو(مرقس ۵۔۱سے۱۵)اور پولوس رسول کو بھی ایک لڑکی ملی تھی جس میں غیب دانی کی روح تھی (اعمال ۱۶۔۱۶ سے ۱۸)۔اگر صوفیوں کو یہ آدمی ملتے تو کتنے بڑے ولی سمجھے جاتے اور ان کے عالی شان مزار اب تک قائم رہتے۔

 خوب یاد رہے ایسے لوگ خدا کی طرف مجذوب نہیں ہوتے بلکہ ٍشیطان کی طرف مجذوب ہوتے ہیں اوران سے جو بعض کرامتیں انکے گمان میں ظاہر ہو جاتیں ہیں اگر فی الحقیقت ہوں تو شیطانی قدرت سے ہوں گی۔

 کشش الٰہی تو ایک بڑی چیز ہے جو آدمی کے دل کو خدا کی طرف کھینچتی  ہےاوروہ فضل کا نشان ہے۔مگر جو کوئی سچے خدا کی طرف کھینچا جاتا ہےوہ زیادہ  ہوہشیار اور روشن  ہوتا ہے وہ خدا اورآدمیوں کے حقوق خوب پہچانتا ہےاور خدا کے حکموں پر مضبوط اور قائم ہو جاتا ہےتاکہ پاگل مجذوب اس بات پر خوب فکر کریں۔ 

۸ ۔فصل قلندروں کے بیان میں

لفظ قلندر کی اصل کلندر یا غلندر ہے معنی کندہ نا تراشیدہ لیکن بول چال میں بے شرع شہدے کو اور بندر یا ریچھ نچانے والے کو اور بازی گر کو اور مگر ے شہدے ہنگڑ چرسی وغیرہ کو بھی قلندر کہتے ہیں جیسے دہلی میں جامع مسجد کے شہدےیا بعض تکیوں میں کونڈی سونٹے لیے ہوئے بعض لنگارے نعرہ زن نظر آتے ہیں اور یاعلی مدد بولتے ہیں یہ سب قلندر ہیں۔

 صوفی سمجھتے ہیں کہ بعض قلندر ولی اللہ ہیں اور وہ شریر اور لچے نہیں لیکن ان کا مشرب قلندریہ ہے۔وہ عشق باز اور آزاد  ہیں۔وہ ہمہ اوست کا دم بھرتے ہیں اور شرع محمدی کے تابع نہیں ہوتے ان میں سے ایک قلندر کا یہ شعر ہے۔

ماز دریائیم دریائیم زماست   این سخن داندکسی کو آشنا ست

 شاہ  خضر رومی پہلا قلندر ہے جو روم سے ہندوستان میں آیا تھا۔وہ کسی کا مرید اور چیلا  نہ تھاکیونکہ قلندر لوگ کسی کے مرید نہیں ہوتےنہ کسی پیر کی پرواہ کرتے ہیں وہ سونٹے باز زبان دراز آزاد نعرہ زن ہوتے ہیں۔صوفیوں کا ان سے دم بند ہونا ہے۔

 جب یہ خضر رومی قلندر دہلی  میں آیا تواس وقت دہلی کے قطب صاحب باوہ فرید کے پیر مرشد زندہ تھے۔اس قلندر نے ارادہ کیا کہ حضرت کی خدمت میں جائے اور ان کا مرید ہوقطب صاحب نے جب یہ سنا تومریدی کا شجرہ کلہ اس کے ڈیرے ہی پر بھیج دیااور دور ہی سے رخصت کیااس کی آزاد طبع سے ڈر گئے۔

 حضرت نعمت اللہ ولی نے اپنے ایک رسالے میں لکھا ہے کہ پورا صوفی جب اپنے مقصد کو پہنچ جاتا ہے تو تب قلندر ہوتا ہے۔قلندر حق حق کرتا ہےقلندر کا علم شہود ہےقلندر کا عمل محو ہے قلندر کی راہ عشق ہے۔قلندر کا دین انا ہے۔قلندر کی دنیا توحید ہے۔

 پھر یہ قلندر لوگ ایک ہی قسم کے  نہیں ہیں۔بلکہ کئی ایک قسم کے لوگ ا ن میں شامل ہیں قلندریہ ایک مشرب ہی مشرب تصوف سے الگ اسی میں بانوا رسول شاہی مداری نوشاہی وغیرہ قسم کے فقیر شامل ہیں اور سب کے سب ارکانِ اسلام سے الگ رہتے ہیں اوران میں بعض شریف و خواندہ اشخاص بھی  ہوتے ہیں۔مثلاً ایک نجم الدین قلندر ہیں ایک محمود قلندر ہیں لکھنو میں ایک سید غلام محمود قلندر ہیں مرادآباد میں ایک شہباز قلندر ہیں سندھ میں لیکن سب قلندروں میں نامی گرامی شریف الدین بو علی قلندر ہیں۔جن کا اصلی مزار پانی پت میں ہےاور دو نقلی مزار ہیں۔ایک بوڈی کہڑے  میں اور دوسرا کرنال میں مسلمان سمجھتے ہیں کہ یہ بزرگ صاحبِ کرامات تھے۔کتاب سیر الاقطاب صفحہ ۱۹۰ میں لکھا ہے کہ یہ شخص صاحبِ علم اور پارساآدمی تھےاور امام اعظم ابو حنیفہ کوفی کی اولاد میں سے تھے۔ان کے آباوآجدادپانی پت میں رہتے تھےاور خود یہ شخص دہلی میں قطب صاحب کی  لاٹھ کے نیچے بیٹھ کر کتابوں کا درس طالب علموں کو دیا کرتے تھےکیونکہ اس زمانے میں دہلی وہاں آباد تھی جب خدا نے ان کو اپنی طرف کھینچا تو تب انہوں نے اپن سب کتابیں  دریا میں پھینک دی اور قلندر ہوکر پانی پت میں چلے آئے۔فارسی میں ان کی ایک مثنوی مشہور ہےاور اس کے مضامین عالی ہیں اور ان کے خیال کی جولانی اور نیت کی پاکیزگی کا اس سے خوب اظہار ہوتا ہے۔مگر وہ کتاب قلندر ہونے سے پہلے کی ہے۔قلندر ہو کر تو وہ بے ہوش سے ہو گئے تھے۔اسلام کو دل سے نکال دیا تھااور کتابوں کو دریا میں پھینک دیا تھاناکارہ سمجھ کر لڑکوں پر عاشق ہونے لگےتھے۔ پہلے جلال الدین پر عاشق ہوئے جو مخدوم صاحب ہیں۔پھرمبارز خان پر عاشق ہوئےجن کا مزار ان کے مزار کے اندر ہے۔میں ہرگز ہرگز اس آدمی کی نسبت بد گمان نہیں ہوں مگر سمجھتا ہوں کہ کس قسم کا جنون ہو گیا ہوگا۔

 اور وہ لوگ جو کہتے ہیں کہ یہ صاحب کرامات تھے اگر فی الحقیقت ایسے ہوں تو کیا ان کی کرامتوں سے اسلام کی خوبی ظاہر ہو گی؟ہرگز نہیں بلکہ یہ ثابت ہو گا کہ جب تک کوئی مسلمان  اسلام کو نہ چھوڑے اور اس کی کتابوں کے خیالات کو دل سے نکال کر نہ پھینکے تب تک بابرکت نہیں  ہوسکتا اور تصوف کی خوبی بھی ان کی حالت سے ثابت نہیں ہو سکتی کیونکہ وہ صوفی صاحبِ سلوک نہ تھےبلکہ قلندر  تھے۔وہ بحالتِ اسلام خدا کے طالب تھے۔شاید خدا نے ان پر کسی طرح سے ظاہر کیا ہو کہ اسلام کو چھوڑنا چاہیے۔تب برکت ملے گی پس انہوں نے فوراً اسلام کو چھوڑا اور ناراض ہو کر کتابوں کو  پھینک دیا۔

 یہی حال رسول شاہ نامی ایک شخص کا الور میں ہوا جس سے رسول شاہی فرقہ نکلا ہے۔اس شخص نے دینِ محمدی کو بالکل چھوڑاتب کچھ صاحبِ تاثیرہوا اور انوارالعارفین   ۳   ۶۰۳ صفحے میں اس کا مصنف کہتا ہے کہ میں اور حاجی عطا حسین جب دہلی میں آکر اس مکان میں اترے یہاں رسول شاہ کی بحالت ِ زندگی کی نشست گاہ تھی تو اس مکان کی تاثیر سے ہمارے دل میں یہ خیال آیا کہ ڈاہڑی منڈوانا چاہیےیعنہ اطاعت ِ محمدی کے چھوڑنے کا اشارہ ہمارے دلوں میں ہواپس ہم اس مکان سے توبہ توبہ کرکے بھاگے۔

 اسی رسول شاہ کا خلیفہ فدا حسین نامی شاہ عبدالعزیز صاحب کے عہد میں دہلی کے درمیان ایک مشہور بے شرع فقیر تھا۔محمدی دین کے خلاف تھا مسلمان اسے کافر کہتے تھے۔انہیں دنوں میں پانی پت کے درمیان ایک مسلمان بزرگ ذی علم سفید ریش متشرع حلیم مزاج حافظِ مانی نام رہتے تھے۔ان کی مسجد آج تک محلہ افغان میں  حافظ مانی کی مسجد مشہورہے۔میں عماد الدین لاہز اس وقت چھوٹا لڑکا تھا۔میں نے بار بار اس بزرگ حافظ کو دیکھا کہ مسجد کی اُس دیوار پر جو شمال مسجد میں سڑک کی طرف ہےبیٹھے ہوئے کسی کتاب کا مطالعہ کیا کرتے اور چپکے چپکے آنسو پونچھا کرتے تھے۔بڑے ہوکر میں نے سنا کہ مولاناروم کی مثنوی پڑھا کرتے تھےاور اس کے مضامین میں غرق ہوجاتے تھےغرض ان حافظ صاحب کو قرآن کے لفظ (ہواالظاہر) پر شک پڑ گیا اور کسی طرح ان کی تسلی نہ ہوتی تھی۔تسلی کے لیے شاہ عبدالعزیز صاحب  کے پاس  دہلی میں گئے لیکن تسلی نہ ہوئی۔آخر اس بے شرع فدا حسین نے کہلا بھیجا کہ اے بابا حافظ ادھر آ جو کچھ مولوی نہیں بتلا سکتے میں بتلاؤں گا  تب حافظ صاحب ان کی خدمت میں حاضر ہوئے۔اُس نے ان کو ہمہ اوست کی تعلیم دی اور شہودی بنا دیا۔حافظ صاحب کی تسلی ہو گئی۔ کیونکہ مولوی روم کی مثنوی سے یہ خمیر ذہن میں پختہ ہو رہا تھاتب فدا حسین نے کہا کہ آپ نے اپنا مطلب پا لیااب اپنے گھر کو جائیں۔حافظ صاحب نے کہا کہ میں جاؤں گا۔جب تک آپ مجھے اپنا چیلا نہ بنائیں۔فدا حسین نے کہا کہ یہ سفید دھاڑی اور دین محمدی کی صورت ہمیں برُی معلوم ہوتی ہے۔اگر ہمارا چیلا ہونا منظور ہے تو ہمارا طریقہ اختیار کروحافظ صاحب نے یہ منظور کیا اور عجیب شکل کے آدمی بن کر پانی پت واپس آئے تھے۔ یہاں کے مسلمانوں نے انہیں بہت تنگ کیا۔لیکن وہ موت تک اسی حال میں ر ہےاوروہ حجرہ جو مسجد میں کنوئیں کے پاس ہےاسی میں ہمیشہ فقیروں کے لیے بھنگ تیار رہتی تھی۔مگر حافظ جی نہیں پیتے تھےاور جو کوئی دہلی سے آتا تھا اس کو سجدہ کرتے تھے۔ایک دفعہ میرے والد دہلی سے ان کے پاس گئے تو حافظ جی نے ان کو بھی سجدہ کیا تھا۔میں نہیں جانتا کہ حافظ جی صاحب نے کیا پایا تھا، مگر اتنا جانتا ہوں کہ شرع محمد ی کو چھوڑا تھا۔تب دل میں تسلی آئی تھی۔

 اسی طرح بلے شاہ نام پنجاب میں ایک مشہور درویش گزرا ہے۔وہ بھی محمدی دین کے خلاف بولتا تھا۔اس کے پاس ایک شخص گیا کہ خدا کی راہ دریافت کرےکیونکہ وہ مشہور ولی تھااور یہ جو گیا نو مسلم تھا۔اورنگ زیب کے عہد میں ہندو سے مسلمان ہوا تھا۔جا کر کہاکہ یا حضرت مجھے خدا کی راہ بتائیں۔بلے شاہ نے کہا تھا کہ اگر خدا سے ملنا تھا تو مسلمان کیوں ہوا تھا۔ اب اگر مسلمانی کے خیالات  کو چھوڑے تو خدا  کو پا سکتا ہےاور جو باتیں بلے شاہ اسلام کی نسبت اس شخص سے کہیں تو میں اپنی اس کتاب میں بیان نہیں کرسکتا۔تہذیب کے سبب سے ہاں وہ سب باتیں ایک کتاب میں قلمبند ہیں۔جو دیوان بوٹا  سنگھ صاحب کے پاس لاہور میں دیکھی تھی ۔

 حاصل کلام یہ ہے کہ  اس قسم کے لوگ سب کے سب قلندریہ مشرب کے ہیں اور  انہی لوگوں کی کرامتیں ہندوستان میں زیادہ تر مشہور ہیں اور مسلمان لوگ بے فکری سے ان کو اپنی قوم کے  اولیا اقرار دیتے ہیں۔بالفرض ان سے اگر کوئی کرامتیں ہوئی بھی ہوں تو قلندروں کی کرامتوں سے مشرب قلندریہ کا حق ہونا ثابت ہو گااور بہنگڑوں کی کرامتوں سے بھنگ نوشی کے شان  ظاہر ہو گی نہ اسلام کی۔پس اب معلوم ہو گیا کہ مجذبوں اور قلندروں  کو اسلام سے کچھ علاقہ نہیں ہے صوفی لوگ مہربانی کرکے ان لوگوں کی بزرگی اور  کرامتوں کا ذکر ہم مسیحیوں کے سامنے نہ کیا کریں کیونکہ ان کی بزرگی سےاسلام کی خوبی ثابت نہیں ہوسکتی ہاں وہ جو اپنے آپ کو محمدی کہتے ہیں اور سالکین کہلاتے ہیں۔اگر بوسیلہ اسلام اور بوسیلہ تصوف ان میں کچھ اسلام کی خوبی ہو توہمیں دکھلائیں۔


۹۔فصل سالکین کے بیان میں

لفظ سالکین کے معنی ہیں کہ راہ روندہ۔لیکن صوفیہ کی اصطلاح میں تقربِ حق کے  اس طالب کو سالک کہتے ہیں کہ جو عقل و معاش بھی رکھتا ہو۔لفظ سالک مجذوب کے مقابلے میں ہے۔کیونکہ مجذوب راہ روندہ نہیں ہے۔نہ وہ مسلمان ہے نہ ہندو  ہےنہ صوفی نہ کوفی وہ بیرا ہ کھینچا ہوا شخص ہےاور اس میں عقل معاش نہیں ہے۔کیونکہ وہ پاگل ہے۔سالک با عقل ہے اورقواعد و تصوف پر چلتا ہے۔اس لیے مجذوب و سالک ہر دو لفظ مقابلے کے ہیں۔

صوفی لوگ    تین چیزوں    کی تلاش کرتے ہیں۔ان میں سے پہلی چیز جذبہ ہےاور ان میں اس کی بڑی قدرو منزلت ہے۔کیونکہ یہ ان کے گمان میں خدا کی طرف سے ایک کشش ہے۔ ہم مسیحی بھی اس کشش کو جو اللہ سے ہوتی ہے۔بڑی نعمت اور فضل سمجھتے ہیں۔چنانچہ خداوند مسیح نے فرمایا ہے کہ میرا باپ آدمیوں کو میری طرف کھینچ لاتا ہے۔اسی کشش کو ہم جذبہ سمجھتے ہیں۔لیکن ان کے خیال اورہمارے خیال میں فرق صرف اتنا ہے کہ وہ لوگ دیوانگی کو کشش سمجھتے ہیں اور ہم سمجھتے ہیں کشش الٰہی سے دیوانگی دفع ہوتی ہے ۔روح میں زندگی اور عقل میں ہو شیاری اور خیالات میں روشنی اور دل میں تازگی آتی ہے۔تب حقوق اللہ اور حقوق العبادوہ شخص پہچانتا ہے اور بجا لاتاصوفی سمجھتے ہیں کہ سب حقوق اڑ جاتے ہیں اور قیدِ الٰہی شرع کی نہیں رہتی۔

  دوسری چیز    جس کی وہ تلاش کرتے ہیں سلوک ہےاور یہ نہ کشش ہے اور بلکہ کوشش ہےجو حصول مراد کے لیے خدا کی راہ میں سالک اپنی طرف سے کرتاہے۔یعنی صوفیہ کے تجویز کیے ہوئے طریقوں کو عمل میں لاتا ہے تاکہ وہ خدا کا ولی ہو جائے۔پس ہر سالک کے گمان میں راہ روندہ ہے،جو بھی منزل و مقصود تک نہیں پہنچا جیسے مسافر جو ابھی راہ میں ہے۔

 ہم اس بات کو پسند کرتے ہیں اورواجب جانتےہیں کہ انسان کو قربتِ الٰہی کے لیے کوشش اور محنت کرنی چاہیے۔لیکن  ہم میں اور صوفیہ میں فرق  صرف اتنا ہےکہ وہ لوگ انسانی خیال سے تجویز شدہ طریقوں کو عمل میں لا کر خدا سے ملنا چاہتے ہیں اور ہم مسیحی لوگ ان طریقوں کو اس مطلب پر مفید سمجھتے ہیں جو خدا نے آپ اپنے کلام میں اپنے پیغمبروں کے ذریعے ظاہر کیا ہےاور اپنی قدرتوں سے ان پر گواہی دی ہے۔پس ان کا سلوک وہ ہے۔ہمارا سلوک یہ ہے۔

   تیسری چیز      جس کی وہ تلاش میں ہیں      عروج    ہے۔یعنی وصول بمنزلہ مقصود اس کوو ہ لوگ خدا کی بخشش بھی کہتے ہیں۔کہ خدا اس سالک کو کوئی رتبہ یا ولایت کا کوئی درجہ بخشا ہے۔مثلاً کوئی قطب ہو گیا یا غوث بن گیایا شاہ ولایت ہو گیاوغیرہ۔

ہم سمجھتے ہیں کہ ایسے عہدے اور درجے خدا نے آدمیوں کو کبھی نہیں بخشے یہ صرف فرضی باتیں ہیں۔اگر ان میں کچھ عروج ہے تو یہی ہے کہ اکثر جاہل لوگ کسی کو بڑا مرتاض دیکھ کر اس کے گرد ہو جاتے ہیں اور  برملا پیر سمجھتے ہیں اور اس کی قبر چونے یا سنگِ مرمر کی بناتے  اور برج کھڑا کرتے ہیں اور ڈھول  بجا کر  سال بسال میلہ لگاتے ہیں اور تماشہ دکھلاتے ہیں۔یہی عروج ان کے پاس ہے اور ہمیں ان میں کچھ عروج نظر نہیں آتابلکہ عروج کے عوض بہت سا نزول وہاں ہے۔

 حقیقی عروج جو  حقیقی ولیوں کو اللہ سے بخشا جاتا ہے۔یہ ہے اطمینان الٰہی ان کی روح میں اللہ سے القا ہوتا ہے اور وہ محبت الٰہی سے اللہ کی طرف سے بھر جاتے ہیں اور معرفت کے اسرار زیادہ تر ان پر منکشف ہوتے ہیں اور کبھی کبھی وہ لوگ  کلام اللہ کی خدمت کے لیے مومنین کے درمیان ا علیٰ عہدوں پر خدا کی طرف سے بھیجے جاتے ہیں اور وہ خوبی کے ساتھ جانفشانی اور جفاکشی کرکے کلام اللہ کی خدمت کرتے ہیں اور کمزوروں کو طاقت بخشتے ہیں اور  بہت سے لوگوں کو بہشت کے لیے آراستہ کرتے کر ڈالتے ہیں آخر میں ابد تک وہ خدا کے پاس کے خوشی میں زندہ رہیں گے۔پس ان کے اورہمارے عرو ج میں زمین و آسمان کا فرق ہے۔یہاں کچھ ہے جو اوپر سےا ن کے دلوں میں آتا  وہاں کچھ ہےجو اِدھر اُدھر کے آدمیوں سے دیا جاتا ہےایک چیز ابدی ہے دوسری فانی۔

 پھر صوفیہ یوں کہتے ہیں کہ جس کو خدا تعالیٰ اپنی طرف کھینچتا ہے وہ سب کچھ چھوڑتا اور عشقِ الٰہی کے رتبہ میں پہنچتا ہے اگر وہ اسی جگہ میں رہ جائے اور دنیا میں واپس نہ آئے یعنی اس کے  ہوش و حواس پھر درست نہ ہو ویسےہی بے ہوش رہے وہ (صرف مجذوب ہے) اگر وہ پھر ہوش میں آجائے اورسالک بن بیٹھے اس کو (مجذوب سالک ) کہتے ہیں اور وہ جو اولاً سالک تھا اور مراتب سلوک عطا کر چکا تھاپھر وہ خدا سے کھینچا گیااس کا نام (سالک مجذوب ) ہے اور اگر سالک ہو اور سلوک تما م نہ کیا ہو اور خدا نے بھی اسے اب تک نہ کھینچاہو۔(وہ صرف سالک )ہے پس یہ صرف چار قسم، کے لوگ ہیں۔مجذوب۔ مجذوب سالک سالک مجذوب ۔سالک۔

اب وہ جو صرف سالک ہے اور وہ جو مجذوب ہے یہ دونوں ان کے گمان میں پیر و مرشد ہونے کے لائق نہیں ہےمگر وہ جو مجذوب سالک ہے اور جو سالک مجذوب ہے وہی پیر و مرشد ہونے کے لائق سمجھے گئے ہیں اوران میں بھی مجذوب سالک کا درجہ بڑا ہے۔

(ف) یہ جومحمدی لوگ پیروں کے مرید ہوتے پھرتے ہیں اکثر سالکوں کے مرید ہوتے ہیں یا بعض مجذبوں کے معتقد ہوتے ہیں۔ان کا کام  تصوف  کے خلاف اور بے فائدہ ہےکیونکہ پیری کے لائق وہی اشخاص سمجھے گئے ہیں جنہوں نے اولاً یا آخراً کچھ جذب کی چاشنی چکھی ہے۔اس کا مطلب یہ ہے کہ بغیر دماغی خلل کے کوئی صوفی پیر مرشد ہونے کے لائق نہیں ہےاور قواعد و سلوک جن کا ذکر اسی کتاب میں  مفصل آنے والا ہے۔ناظرین دیکھ کر معلوم کر سکیں گے کہ ہو سب دماغی خلل  پیدا کرنے کے نسخے ہیں اور کچھ حاصل نہیں ہو سکتا مگر صرف دماغی خلل تاکہ وہ  پیر کامل ہو جائیں۔

 ہمارا پیرو مرشد صرف ایک ہے جو آسمان سے اترا اورازل سے خدا کے ساتھ تھاجس نے سارے جہان کو پیدا کیا جو کہ کامل خدا اور کامل انسان ہےاوروہ جہان کا نور ہے ہر ایک کہ جو اس کےپاس آتا ہےوہ روشن کرتا ہے۔یعنی یسوع مسیح ابنِ اللہ اور ہم سب مومنین اولین اورآخرین آپس میں پیر بھائی ہیں اور جس قدر سچے پیغمبر دنیا میں آئے وہ سب ہمارے بھائی تھےاور وہ اور ہم خدا وندمسیح کے بندے  اور خدمت گزار ہیں ہمیں کچھ حاجت نہیں کہ پیر تلاش کریں اور کسی خفیہ نعمت کے ہم بھوکے نہیں جو سینہ بسینہ پیروں سے  ہم تک پہنچےخدا ہمارا باپ  ہے اور ہم مسیح میں ہو کر اس کے فرزند ہیں اس کی روح ہم میں موثر ہےہم نور میں اور روشنی میں رہتے ہیں اور برائے راست مسیح سے نعمتیں پاتے  اورخوش رہتے ہیں۔

۱۰ ۔فصل ان ولیوں کے عہدوں کے نام بحسب اختیارت

صوفی سمجھتے ہیں کہ ان کے اولیا اللہ بحسب اپنے عہدوں اور درجوں دس قسم کے لوگ ہیں۔(۱) قطب العالم (۲) دیگر اقطاب یعنی  قطب اقلیم قطب ملک جس کو شاہ ولایت بھی  کہتے ہیں اور قطب  شہر وغیرہ (۳)امامان  (۴) اوتاد (۵) ابدال(۶) اخیارو ابرار(۷)  نقبا، ونجبا  (۸)عمداء (۹)  مکتومان (۱۰) مفردان ، مجردان ۔ اب ان عہدوں اوردرجوں کی شرع اور تفصیل جہاں  تک کتب تصوف مجھے معلوم ہوئی بیان کرتا ہوں۔

(۱)قطب العالم

لفظ قطب کے معنی ہیں کہ چکی کی کیلی یعنی  وہ لوہےکی میخ جس کے گرد اور جس کے سہارے سے اوپر کا پاٹ  گھومتا ہے۔صوفی کہتے ہیں کہ دنیا کے درمیان ایک آدمی ہر زمانے میں ایسا ہوتا ہے کہ اس پر خدا کی ایک خاص نگاہ ہوتی ہے۔گویا وہ خدا کی نگاہ کا محل ہوتا ہےاورسارے جہان کاانتظام اسی آدمی سے ہوتا ہے وہ سب موجودات پر اورعالم سفلی وعلوی کے تمام مخلوقات  پر حاکمِ اعلیٰ ہوتا ہے اورسب اولیا  ء اللہ اُس کے نیچے ہوتے ہیں اسی کانام قطب العالم ہے اور اسی کو قطب الاقطاب و قطب و کیر و قطب ارشاد قطب مدار بھی کہتے ہیں۔کتاب مجمع السلوک میں لکھا ہے  کہ اسی کا نام غوث ہےلیکن دوسری بعض کتابوں میں لکھا ہے کہ غوث اور شخص ہے جو قطب العالم کے نیچے ہوتا ہے۔ مراۃ الا اسرار وغیرہ میں لکھا ہے کہ قطب العالم کے دائیں بائیں دو ولی اللہ مثل وزیر وں کے  رہتے ہیں،ان دونوں کا نام غوث ہے یعنی فریاد رس وہ غوث جو قطب العالم کے دہنی طرف  رہتا ہے اس کا خطاب عبدالملک ہے اور کام اس کا یہ ہے کہ قطب العالم کے دل پر سے فیض  اٹھا کر عالمِ بالا کی موجودات کو پہنچاتا ہےاور وہ غوث جو بائیں طرف رہتا ہے اس کا خطاب عبدالرب ہے کام اس کا یہ ہے کہ قطب العالم کے دل پر سے فیض اٹھا کر عالمِ سفلی یعنی اس جہان کی موجودات کو پہنچاتا ہے اور جب قطب العالم مر جاتا ہے یا اپنے عہدے سے ترقی کرکے قطبِ وحدت ہوجاتا ہے یعنی خدا میں اس کو دوری نہیں رہتی ہے تب اس کا عہدہ خالی ہوتا ہے اور عبدالملک اس کی جگہ میں آجاتا ہےاور عبدالرب عبدالملک کی جگہ میں آجاتا ہے اور عبدالرب کی جگہ کوئی اور ولی  ترقی پا کر بھرتی ہوجاتا ہے۔

 اور یہ بھی کہتے ہیں کہ قطب العالم کا دل ہمیشہ ایسا ہوتا ہے کہ جیسا محمد صاحب کا دل تھا۔یعنی تمام خصلتیں اس کی محمدی خصلتیں ہوتی ہیں۔کتاب لطائف اشرفی ۴ میں لکھا ہے کہ اگر غوث اور قطب  نہ ہوں تمام جہان زیر زبر ہو جائےپس معلوم ہو گیا کہ یہ لوگ جہان کے سنبھالنے  والے ہیں۔

 میں کہتا ہوں کہ یہ صوفیہ کا دعوی ہے کہ ایسے لوگ دنیا میں ہوتے ہیں لیکن ہر دعوے کے  لیے کچھ دلیل ہونی چاہیے ورنہ دعویٰ باطل ہو گا۔ پس اس دعوے کے لیے کتب تصوف میں کوئی دلیل نظر نہیں آئی جس کا میں یہاں بیان کروں۔چاہئے کہ ناظرین کتاب ہذا  صوفیوں سے  اس دعوے کا ثبوت طلب کریں اوران سے کہیں کہ تم جو قرآن پر ایمان رکھتے ہوکیا تمہارے خدا نے تمہارے قرآن میں ایسے عہدوں کی تمہیں کچھ خبر دی ہے یا تمہارے پاس کوئی عقلی دلیل ان عہدوں کے ثبوت میں ہے،یاتم دنیا کی تاریخ سے یہ ثابت کرسکتے ہو،ان عہدوں کے اشخاص اس دنیا میں ہوتےآئے ہیں؟یاتم بتلا سکتے ہو کہ دنیا میں اس وقت ایسے ایسے  فلاں اشخاص موجود ہیں۔برخلاف اس کے صوفی یوں کہتے ہیں کہ  ایسے اشخاص ہوتے تو ہیں مگر کسی کو معلوم نہیں ہو سکتے کہ وہ کون ہیں اور کہاں ہیں۔اب فرمائیں کہ اس بات کو سوائے ناسمجھ آدمی کے کون قبول کرئے گا۔

 جہان کو سنبھالنااسی کا کام ہے جس نے جہان کو پیدا کیا ہے۔انسان میں تو اتنی طاقت بھی نہیں کہ وہ اپنی جان کو سنبھالے۔اگر  خدا آدمی کو نہ سنبھالے تو آدمی قائم نہیں رہ سکتا۔اگر آدمی فرضاًً خدا کے برابر ہو جائے علم اورطاقت میں اور حکمت ودور بینی میں تب وہ شاید خدا کا شریک جہان کو سنبھال سکتا ہے لیکن یہ بات عقلاً نقلاً محال ہے کہ کوئی مخلوق خدا کے برابر ہوجائےاور جب برابر نہیں ہوسکتا تو وہ کام بھی نہیں کرسکتا جو خداکے کرنے کا ہے۔

 غوث اور قطب عالم کا عہدہ اتنا بڑا بیان ہوا ہے کہ قرآن اور حدیث سے محمد صاحب کا بھی اتنا بڑا عہدہ ثابت نہیں ہوا۔پس یہ کیسا مبالغہ ان صوفیوں کا ہےاور ایسا خیال ان کے دلوں میں کہاں سے آگیا؟ شاید قوم صوفہ میں یغوث بت کی شان کاخیال چلا آیا ہواور حالتِ اسلام میں اس مکروہ خیال نے نئی شکل پکڑ کر یہ غوث قطب کا خیال پیدا  کردیاہوواللہ علم۔

 ہم مسیحی لوگ دعویٰ کرتے ہیں کہ کل جہان کا اختیار خداوند مسیح کے ہاتھ میں اور ابد تک اسی کے ہاتھ میں رہےگا۔یہ ہمارا دعویٰ کلام اللہ سے ثابت ہےاور مسیح کی شان کے مناسب ہےکیونکہ وہ اللہ انسان ہے اورسب جہان اس سے پیدا ہوا ہے پس وہ جو سارے جہان کا خالق ہےوہی جہان کو سنبھالتا بھی ہے۔

(۲) دیگر اقطاب یعنی دوازدہ اقطاب

 قطب العالم توکل جہان میں ایک شخص فرض کیا گیا پھر اس کے نیچے بارہ قطب اور مانے جاتے ہیں۔جو اس کے حکم میں رہتے ہیں۔کیا تعجب ہے کہ یہ  خیال قدیم صوفیہ نے خداوند یسوع مسیح اوراس کے بارہ شاگردوں پر غور کرکے اپنے ولیوں کی طرف الٹ لیا ہو۔وہ کہتے ہیں کہ کل زمین  ہفت اقلیم میں منقسم ہے اورہر اقلیم میں ایک قطب رہتا ہے جس کو قطب اقلیم کہتے ہیں۔پھر ہر ولایت میں ایک قطب فرض کرتے ہیں۔جس کو شاہِ ولایت کہتے ہیں اور پانچ ولایتیں بتلاتے ہیں۔یہ پرانے زمانے کی تقسیم ہے۔پس سات اورپانچ بارہ قطب ہوئے۔

فتوحاتِ مکی ۵ میں لکھا ہے کہ قطبوں کی  کچھ نہایت نہیں ہےقطب زہاد، قطب عباد ، قطب عرفا، قطب متو کلان وغیرہ۔ہر صفت پر ایک قطب ہوتا ہےاور ہر گاؤں میں ایک قطب رہتا ہےاور گاؤں کی حفاظت کرتا ہےاورولیوں کی بھی انتہا نہیں ہے۔جب کوئی ولی ترقی کرتا ہے تو وہ قطب ولایت بن جاتا ہے۔پھر ترقی کرکے قطب اقلیم ہوتا ہے۔اسی کو قطب ابدال کہتے ہیں اور وہ ترقی کرکے عبدالرب یا بایان غوث  ہو جاتا ہے۔پھر  دہناغوث یا عبدالملک بنتا ہے۔پھر قطب عالم ہوتا ہےاور وہاں سے ترقی کرکےقطب وحدت ہوتا ہےانہیں کو مفردون اور مجردون کہتے ہیں لیکن یہ صرف صوفیہ کی تجویز ہےاس کا ثبوت تو کچھ نہیں ہےبلکہ دعوے بے دلیل ہے۔اوراس روشنی کے زمانے میں اس کا بطلان ظاہر گو گیا  اور معلوم ہوگیاہے۔کہ یہ ان کی وہمی اور فرضی بات تھی۔خدا نے ایسے غوث اور قطب وغیرہ کچھ نہیں بنائے۔البتہ بعض لوگ خود نیک اور خدا پرست گزرے ہیں۔ان کی موت کے بعد مریدوں نے ان کی قبروں پر دکان داری جاری کرنے کے لیے ان کے نام غوث اور قطب اور شاہ ولایت اور مخدوم صاحب رکھ لیے ہیں اور مذکورہ عہدے فرض کیے ہیں۔پھر آپ ہی کہتے ہیں کہ ان عہدے داروں کی موت کے بعد دوسرے لوگ ان عہدوں پر مقرر ہوتے ہیں۔پس چاہئے کہ ان مرد گان کو ان عہدوں سے برخاست شدہ سمجھ کر ان کی قبریں نہ پوجیں۔بلکہ ان زندوں کو تلاش کریں جو بجائے ان کے عہدہ یاب ہوئے  ہیں۔

(۳) اوتاد

 لفظ اوتاد وَتَد یا وِتَد کی جمع ہے۔لکڑی کی کھونٹے کو عربی میں وَتَد کہتے ہیں محمد صاحب نے  پہاڑوں کو قرآن میں اوتاد کہا ہے۔گویا وہ خدا کی طرف سے زمین پر گاڑے ہوئے کھونٹے ہیں۔تاکہ زمین جنبش نہ کرے صوفی کہتے ہیں کہ ہمارے ولیوں میں سے چار ولی ایسے ہیں کہ وہی اوتاد ہیں۔مراۃ الاسرار ۶ میں لکھا ہے کہ مشرق میں عبدالرحمٰن کھونٹا ہے۔مغرب میں عبدالودود  کھونٹا ہے۔جنوب میں عبدالرحیم کھونٹا ہے۔شمال میں عبدالقدوس کھونٹا ہے۔ان چاراشخاص سے جہان کا استحکام ہے۔ہم سمجھتے ہیں کہ جہان کا استحکام صرف خدا کی قدرت سے ہےنہ  کہ ان چار اوتاد سے جن کا ثبوت نہ عقل سے ہے نہ کلام اللہ سے۔

(۴) ابدال

  لفظ بَدل بامعنی معاوضہ یا بُدیل بمعنی شریف کے  جمع ابدال ہے۔لیکن اس کا استعمال واحدا ور جمع پر برابر ہےبعض صوفی کہتے ہیں کہ ابدال وہ لوگ ہیں جنہوں نے تبدیلی حاصل کی ہےبرُی  صفتوں میں سے نکلے ہیں اچھی صفتیں پیدا کی ہیں یہی مضمون سچ ہےاور یہ انجیل شریف کی بات ہے  نہ کہ قرآن کی کیونکہ انجیل کی بڑی اور مقدم تعلیم  یہی ہےکہ مسیحی ایماندار مسیح کی قدرت سے تبدیل ِدل اور تبدیلِ  مزاج کرتاہےاور جتنے سچے مسیحی ہیں وہ سب ابدال ہیں اور اہلِ دنیا بھی اگر غور سے دیکھیں توانہیں حقیقی مسیحی بدلے ہوئے نظر آسکتے ہیں۔

  میں سمجھتا ہوں کہ یہ خیال ان صوفیہ میں ملک شام سے آیا ہے۔اس لیے ان کی کتابوں میں عراق اور شام کی طرف بہت ابدال بیان ہوئے ہیں کیونکہ وہاں رُہبان بکثرت رہتے ہیں۔

(انورالعارفین صفحہ۱۰۵) میں لکھا ہے کہ    نشان ابدال آنست کہ زائدہ نمیشو مردایشان رااولاد و ایشان لعنت نمیکنندِچیزیرہ    کسی چیز پر لعنت نہ کرنایہ خاصہ صرف مسیحی آدمی کا ہے    اور اولاد پیدا نہ ہونا یہ خاصہ رہبان کا ہے۔کیونکہ رہبان نکاح نہیں کرتےاور اگر شادی والے پہلے سے ہوں تو وہ دونوں مرد عورت اس دنیاوی خیال سے الگ ہو کر عبادت میں مصروف رہتے ہیں اس لیے ان کی اولاد پیدا نہیں ہوتی۔پس صوفی کہتے ہیں کہ خدا نےابدال کو وہ طاقت دی ہےکہ جہاں چاہیں اڑ کر چلے جائیں اور اپنی مثالی صورت اس جہاں پر چھوڑ جائے بلکہ بعض اوقات گیڈریا شیر یا بلی وغیرہ کی صورت بھی بن جاتے ہیں۔یہ سب باتیں غلط ہیں۔ابدال وہی مسیحی ہیں جو بدل گئے ہیں جنہوں نے نیا جنم پایا ہے۔اگر کوئی صوفی ابدال بننا چاہے تو حقیقی مسیحی ہو جائے۔

صوفیوں کا تصوف اور محمدیوں کا اسلام اور کل مذاہب  دنیا کےخیالات عبادات وغیرہ سے کوئی آدمی دل کی تبدیلی حاصل نہیں کرسکتا اور جب تک اس کا دل تبدیل نہ ہو جائےخدا کا مقرب بھی نہیں سکتا۔صرف مسیحی دین ہےجس سے تبدیلی ہوتی ہےاور آدمی ابدال بن جاتا ہے۔

(۵) اخیاروابر

یہ لفظ خیر اور بر کی جمع ہے۔بمعنی نیکو کاران فی الحقیقت یہ الفاظ سچے ایمانداروں اور نیکوکاروں کے حق میں تھے۔لیکن صوفیوں نے زبردستی یانادانی سے اپنے خاص قسم کے ولیوں کے حق میں تجویز کر لیے ہیں اور کہتے ہیں کہ تین سو آدمی ایسے ہوتے ہیں اور کچھ بیان ان کا نہیں کرسکتے۔

(۶)امامان

یعنی دین کے پیشوا ایسے لوگ  البتہ محمدیوں میں  ہوئے ہیں۔جنہوں نے ان کے دین کا بندوبست ظاہری طور پر کیا ہے۔لیکن ان عہدوں کو ولایت سے کہ  امر باطنی ہے کچھ علاقہ نہیں ہے۔ان کے امام تین قسم کےہیں۔اول بارہ امام ہیں۔جو حضرت علی کی اولاد میں سے ہوئے ہیں۔جن کو شعیہ لوگ معصوم بتاتے ہیں اور اپنے دین کا پیشوا سمجھتے ہیں۔دوئم چار امام سنیوں کی فقہ کے گزرے ہیں۔جنہوں نے مسائلِ فقہ اپنے اجتہاد  سے نکالے ہیں۔سوئم وہ امام ہیں۔جو کہ جہاد کے وقت محمدی فوج کے سردار  یا سپہ سالار ہوتے تھے۔بعض ان میں سے جہادوں میں مر گئے ہیں اور ان کے مقبر ے پوجے جاتے ہیں۔چنانچہ دو امام ہمارے پانی پت میں بھی پوجے جاتے ہیں۔پس ان صوفیہ نے اپنے ولیوں کی فہرست میں ان اماموں کو بھی شامل کیا ہے تاکہ امام پر ظاہر کریں۔وہ بھی ان کی طرف تھے۔

 کتاب اصطلاحات صوفیہ مصنفہ عبدالرزاق کاشی ۷ میں لکھا ہے کہ امامان وہ دو شخاص ہیں جو قطب عالم کے داہنے اور بائیں رہتے ہیں۔یہی قدیم اصطلاح صوفیہ کی معلوم ہوتی ہے۔اس صورت میں وہ تین قسم کے  امام ولیوں کی فہرست میں نہیں آسکتے اور یہ امامان غیر معلوم شخص ہوتے ہیں۔پس یہ صرف نام ہی نام ہے اور کچھ نہیں ہے۔

(۷) نُقَباَو بخُباَ

نُقَباَ نقیب کی جمع ہےبمعنی مہتر وعریف و دانندہ انساب مردم شرح فصوص ۸ میں لکھا ہے کہ نُقبا تین سو اشخاص ہیں انہیں کو ابرار بھی کہتے ہیں اور یہ لوگ مغرب میں رہتے ہیں اور سب ولیوں میں ان کا درجہ چھوٹا ہے۔

 بخبا بخیب کی جمع ہے بعنی برگزیدہ۔شرح فصوص میں ہے کہ بخبا سات آدمی ہیں۔انہیں کو رجال الغیب کہتے ہیں۔مجمع السلوک میں لکھا ہے کہ وہ چالیس آدمی ہیں اور خلق اللہ کے حقوق میں متمرف ہیں۔آدمیوں کے حالات درست کرنے اور ان کے بوجھ اٹھانے کو کھڑے رہتے ہیں۔

 (ف) یہی چالیس آدمی ہیں جو چہل تن کہلاتے ہیں اور بعض آدمیوں کے سر پر بھی آتے ہیں۔ان کی پوجا نادان مسلمانوں میں بہت ہوتی ہے۔ایک محمدی منشی صاحب کو میں نے ۳۰ برس دیکھا کہ اپنی مصیبتوں میں برابر چہل تن کو پکارتے رہےاور ان کی نذر نیاز کرتے رہےتاکہ ان کی دنیاوی تنگیاں دفع ہوں۔لیکن کچھ تنگیاں تمام عمر دفع نہ ہوئیں۔بلکہ تنگی پر تنگی آتی رہی اور وہ اسی خیال میں مر گئےاور بعض احمق عورتوں کو اپنا برا خیال سکھلا گئے۔وہ اب تک ان چہل تن کو پکارتی ہیں۔جس کا وجود کہیں نہیں ہے۔وہ اللہ کو نہیں پکارتی ہیں جو کہ سب کچھ کرسکتا ہےاور زندہ موجود ہے۔

(۸) عُمَدا

عمود کی جمع ہے بمعنی ستون خانہ۔ صوفی کہتے ہیں کہ ایسے چار شخص ہیں جو زمین کے چار کونوں میں رہتے ہیں وہ جہان کے ستون ہیں اُن سے جہان ایسا قائم ہے جیسے چہت ستون سے قائم ہوتی ہے۔ لیکن کچھ ثبوت نہیں دے سکتے کہ وہ کون ہیں اورکہاں ہیں۔

 کمتوم بمعنی پوشیدہ یہ پوشیدہ ولی ہیں۔گویا چھپے رستم ہیں۔توضیح المذاہب میں لکھاہے کہ یہ چار ہزار آدمی ہیں۔جو پوشیدہ رہتے ہیں اور اہلِ تصرف میں سے نہیں ہیں۔کوئی ان صوفیہ سے پوچھے کہ تمہارے تو سارے ولی پوشیدہ ہیں۔تم خود انہیں جانتے کہ وہ کون ہیں اورکہاں ہیں پھر ان خاص کو مکتومان کہنے کی وجہ کیا ہےکچھ نہیں جو دل میں آیا کہہ دیا۔

(۹) مکتومان

 کمتوم بمعنی پوشیدہ یہ پوشیدہ ولی ہیں گویا چھپے رستم ہیں۔توضیح المذاہب میں لکھاہے کہ یہ چار ہزار آدمی ہیں۔جو پوشیدہ رہتے ہیں اور اہلِ تصرف میں سے نہیں ہیں۔کوئی ان صوفیہ سے پوچھے کہ تمہارے تو سارے ولی پوشیدہ ہیں۔تم خود انہیں نہیں جانتے کہ وہ کون ہیں اورکہاں ہیں پھر ان خاص کو مکتومان کہنے کی وجہ کیا ہےکچھ نہیں جو دل میں آیا کہہ دیا۔

(۱۰) مفردون ومجردون

 مفرد ومجرد وہ ہے جو اکیلا رہ گیا ہو۔صوفی کہتے ہیں کہ مفرد و مجرد وہ ہے جو فردیت کی تجلی کو پہنچا ہے۔یعنی اس مقام کو پہنچا ہے۔جہاں صرف اللہ ہی اللہ ہےاور سب چیزیں اور سب خیالات نیست و نابود ہیں۔جو لوگ اس مقام کو پہنچتے ہیں وہ خود کو بھول جاتے ہیں۔اپنے میں اور خدا میں کچھ فرق نہیں رہتا۔یہ مقام محویت ہے یا ہمہ اوست کا کامل انکشاف یہاں ہوتا ہے۔کسی صوفی نےاس مقا م کی شرح اس شعر میں کی ہے۔

توز توکم شوکہ تفریداین بود   کم ازان کم کن تجریداین بود

کشف اللغات میں لکھا ہے کہ جو لوگ اس مقام کو پہنچتے ہیں وہ قطب کے نظام سے فارغ ہو جاتے ہیں مراۃالاسرارمیں لکھا ہے کہ ایسے لوگوں  کی کچھ تعداد نہیں ہے۔اور اکثر صوفی مصنف کہتے ہیں کہ محمد صاحب بھی دعوے نبوت سے پہلے مفردوں میں سے تھے۔پہلے میرا خیال تھا کہ صوفی لوگ حضرت محمد صاحب کی نسبت ہمہ اوست کا خیال جماتے ہیں۔مگر اب زیادہ تر کتبِ تصوف کے دیکھنے سے معلوم ہوا ہے کہ شاید اس بارے میں صوفی لوگ سچے ہوں۔کیونکہ ہمہ اوست کاذائقہ البتہ محمد صاحب کے خیال میں کچھ معلوم ہوتا ہے۔غالباً وہ ضرور مفردوں سے ہوں گے۔ کیونکہ جس شخص کے خیالات میں آسمانی روشنی کچھ بھی نہیں چمکی ہے وہ اسی ہمہ اوست کے خیال میں اپنے لیے کچھ تسلی تلاش کرتا ہے۔لفظ ظاہر قرآن میں غالباً اسی مطلب پر ہو گا۔


۱۱ ۔ فصل صوفی ولیوں کی مشابہت بانبیاء کے بیان میں

 کتب صوفیہ میں دیکھنے سے معلوم ہو سکتا ہے کہ یہ لوگ اپنے ولیوں کو خدا کے سچے نبیوں کے مشاہبہ بیان کرتے ہیں۔کسی کو کہتے ہیں کہ وہو علی قلب موسیٰ اور کسی کو کہتے ہیں کہ وہو علی قلب عیسیٰ اور کسی کو علی قلب داؤد بتلاتے ہیں وغیرہ غیرہ۔ جب میں نے اس مضمون پر ان کا زور دیکھا اور ان کی اصطلاحات سے معلوم کیا کہ علی قلب معنی مشاہبت کے ہیں۔ یعنی خوخصلت اور اندرونی کیفیت اور نسبت و علاقہ بخدا اُس ولی کا ایسا ہے کہ جیسا فلاں پیغمبر کا تھااور قطب عالم کی نسبت کہتے ہیں کہ وہو علے قلب محمدیہ تو میں مانتا  ہوں علی قلب محمد مسلمان ہو سکتے ہیں۔کیونکہ ان کے مقتدی ہیں اور خصلت کی پیر وی میں ساعی رہتے ہیں۔لیکن سچے پیغمبروں کے مشاہبہ یہ لوگ کیونکر ہو سکتے ہیں یہ افترائی مضمون ہےاور تاریکی کے زمانے میں سادہ لوگوں کو فریب دینے کےلیے خوب تھا۔مگر اب روشنی کا زمانہ آگیا ہےاب ہم اس بات کو کیونکر قبول کرسکتے ہیں۔ گزشتہ پیغمبروں کی کتابیں موجود ہیں اور یہود و انصاریٰ ان کی امتیں بھی حاضر ہیں۔اور ان پیغمبروں کا مزاج اور خصلت اور ایمان وغیرہ کی کیفیت ان کتابوں میں مرقوم ہے اورصوفی ولیوں کی خو خصلت ان کے تذکروں میں مر قوم ہے۔پس مقابلہ کرکے دیکھو کہ کس قدر فرق ہے۔ایسا فرق ہے جیسا جاہل اور عالم میں یا مومن یا غیر مومن میں ہوتا ہے۔پس یہ کہنا تو بجا ہے کہ یہ اولیا لوگ پیغمبروں کے مخالف ہیں۔اور یہ کہنا بیجا ہے کہ وہ ان کے مشاہبہ ہیں۔   چہ نسبت خاک راباعالم پاک   

یہ بھی غنیمت ہے کہ ان پیغمبروں کو بڑا بزرگ تو سمجھتے ہیں۔ کہ اپنے ولیوں کو ان کے مشاہبہ بتا کر فروغ دینا چاہتے ہیں۔کیا یہ بات سچ نہیں ہے کہ اگر کوئی چاہے کہ میں اپنے مزاج میں محمد صاحب کا ہم شکل ہو جاؤں تو وہ اپنے ظاہر اور باطن کو قرآن اور حدیث کے مطابق بنادے ۔

اور اگر کوئی چاہے کہ میں پیغمبروں کا ہم شکل ہو جاؤں تو چاہیے کہ وہ   بائبل کی تعلیم  کے مطابق خود کو سنوارے۔صوفی صاحب نہ تو محض قرآن کے تابع ہیں نہ بائبل کے۔ وہ تو ویدوں اور بت پرست یونانیوں کے خیالات کے تابع ہیں۔پھر وہ کیونکر نبیوں کے ہم شکل ہو سکتے ہیں؟   یہ تو وہی بات ہے کہ رہیں جھوپنڑوں میں اور خواب دیکھیں محلوں کے   ۔یا وہ بات ہے کہ گرگ گو سفندون کے لباس میں ظاہر ہوتے ہیں۔چاہے کہ ناظرین کتاب ہذا صوفیوں سے یوں کہیں کہ اے صاحبو! انیباکی خصلت تو الگ رہی پہلے یہ تو ثابت کردو ان ولیوں میں وہی ایمان تھاجو نبیوں میں تھا؟ نبیوں کا ایمان کچھ اور ہے اور ان کا ایمان کچھ اورہے۔کون سا نبی ہمہ اوست کا قائل تھا؟بتلاؤ۔اس طرح ان کی تعلیم اور چال چلن میں فرق ہے۔پس تم نے مخالفت کا نام مشابہت کیوں رکھا ہے۔کیا خدا سے نہیں ڈرتے؟

۱۲ ۔فصل تقسیم عالم یا مقامات عالم کے بیان میں

 صوفی لوگ جہان کو چار حصوں یامقاموں میں تقسیم کرتے ہیں اور ان مقاموں کے نام یوں رکھے ہیں۔اول ناسوت۔ دوئم جبروت۔سوئم ملکوت۔ چہارم لاہوت۔

 ناسوت عالم اجسام یعنی اس دنیا کو کہتےہیں۔جبروت صفات الہیہ کی عظمت و جلال کے مقام کو کہتے ہیں۔ملکوت عالم فرشتگان یا عالم ارواح وعالم غیب وعالم اسماء کانام بتلاتے ہیں۔لاہوت ذاتِ الہٰی کا عالم ہے۔جہاں جا کر سالک فنافی اللہ ہو جاتا ہے۔یعنی مفرد ومجرد ہوتا ہے۔

 مراۃالاسرار میں لکھا ہے کہ مفردون ہمیشہ مقام لاہوت میں رہتے ہیں۔اور لفظ مقام اس جگہ مجازًاستعمال ہوتا ہے۔ورنہ لاہوت کوئی مقام نہیں وہاں جہات ستہ نہیں ہیں۔وہ تو صرف ذاتِ الٰہی کانام ہے ۔اس کے نیچے جبروت کا مقام ہے۔یعنی جبرو کسر کا مقام اور اس جگہ سے شش جہت کا انتظام شروع ہوتا ہےمعجزات و تصرفات اورتیرا میر بولنااور یہ اور وہ کا لفظ یہاں استعمال ہوتا ہےاور یہ خدا کے تخت کامقام ہے۔اور اس جگہ سے لے کر زمین کی خاک تک قطب عالم کا تصرف مانتے ہیں۔اور کہتے ہیں کہ لاہوت میں جبروت کا خیال کفر ہے۔وہ لوگ جو لاہوت میں پہنچتے ہیں مقام جبروت میں واپس آکر معجزات وغیرہ کیا کرتے ہیں۔اور اس وقت وہ لوگ لاہوت سے گرے ہوتے ہیں۔

 عبدالرزاق کاشی سے منقول ہے کہ لاہوت صوفیہ کے نزدیک وہ حیات ہے جو تمام اشیا میں سرایت کیے ہوئے ہے۔اور مقام ناسوت اور روحِ انسانی اس لاہوت کا محل ہے۔اسی مضمون پر کسی صوفی کا یہ شعر ہے۔

روح شمع وشعاع اوست حیات   خانہ روشن ازو داو از ذات

 میں کہتا ہوں کہ اگرچہ عام صوفی لفظ جبروت سے عالم جبرع کسی مراد لیتے ہیں تو درحقیقت لفظ جبروت جبر سے مبالغہ ہے۔جس کے معنی ہیں بڑی زبر دستی اور بڑی بلندی پس خدا کی وہ شان جس سے وہ سب چیزوں حکومت اور بلندی رکھتا ہے اسی شان کانام جبروت ہے۔اور وہ ذات پاک جس کی وہ شان ہےاسی کا نام لاہوت ہے۔پس لفظ جبروت سے صفات قدیمہ پر اور لفظ لاہوت سے ذات پاک پر اور لفظ ملکوت سے عالمِ بالا پر اور لفظ ناسوت سے عالم ِ اجسام پر اشارہ ہوتا ہے۔اور اس نشان پربظاہر کچھ نقصان نہیں ہے۔البتہ وہ کیفیتیں جو ان مقاموں میں صوفیہ نے اپنی عقل سے اپنے ولیوں کے لیے  فرض کی ہیں کہ یہاں یہ ہوتا ہے۔اور وہاں وہ ہوتا ہے۔اس کا ثبوت بدلیل ان کے ذمے ہے۔میں ان کے اس بیان کو محض وہم سمجھتا ہوں۔

۱۳ ۔فصل معرفت کے بیان میں

لفظ معرفت بمعنی شناختیں اگرچہ چند معنی میں اہل علم نے استعمال کیا ہے۔لیکن صوفیہ کی اصطلاح میں خدا کی ذات وصفات کی پہچان کا نام معرفت ہے۔اور یہ صحیح و درست بات ہے کہ خدا کی ذات و صفات کی شناخت معرفت ہے۔لیکن بحث اس میں ہے کہ آیا صحیح معرفت الٰہی کہاں سے ہے،اور کیونکر حاصل ہوتی ہے؟اور کہ صوفیہ نے کیا  معرفت حاصل کی ہے؟وہ خدا کی نسبت کیا کچھ سمجھتے ہیں؟اوردانشمند طالب حق کا فرض ہےکہ ان باتوں پر فکر کرے۔

 ہم جو مسیحی ہیں ہم بھی معرفت کی عزت کرتے ہیں۔اورمعرفت میں ترقی کے در پر ہیں۔کیونکہ ہم جانتے ہیں کہ تمام جہان کےعلوم کاحاصل یہی ہوناچاہیے  کہ آدمی اپنے خالق کو پہچانے اور ہم صاف کہتے ہیں کہ جس نے سب کچھ سیکھا اور خدا  کو نہیں پہچاناوہ اب تک جاہل ہے۔

 فی الجملہ خدا شناسی تو عام لوگوں کو حاصل ہےکہ وہ خدا کے وجود کے قائل ہیں۔لیکن اتنی خدا شناسی کافی نہیں ہے۔ضرور ہے کہ سب آدمی آگے بڑھیں اوراس قدر بڑھیں کہ نہ صرف کی ذات وصفات پر ہی بس کریں بلکہ اس کی مرضی اور ارادہ کو دریافت کرکے اور اس کے مناسب کام کرکے اس کی رضامندی اپنی نسبت حاصل کریں۔پس وہ معرفت جو کہ صوفیہ نے حاصل کی ہےوہ کہاں سے ہے؟کچھ قرآن سے ہے ۔تو بھی بطریق  تحریف معنوی  کے کچھ حدیثوں سے ہے۔سو بھی اکثر ضعیف اور وضعی حدیثوں سے کچھ اپنے بزرگ صوفیہ اقوال میں سے ہے۔کچھ اہلِ فلسفہ کے خیالات میں سے ہے۔کچھ بعض شعرا کے اشعارمیں سے ہے۔ ان کی معرفت کے ماخذ ہیں۔ناظرین انصاف سے کہیں کہ کیا یہ چیزیں اس لائق ہیں کہ دانش مند آدمی اپنی روح کو ان باتوں کے حوالے کردے؟ہر معتبر جگہ سے  جو باتیں سامنےآتی ہیں۔وہ اس روشنی کے زمانے میں مقبول نہیں ہوسکتی ہیں۔

 پھر صوفیوں نے اور ان کے ولیوں نے کیا معرفت حاصل کی ہے  اوران کے خیالات میں کیا کچھ بھر گیا تھا؟جو کچھ ان کے خیالوں میں بھر گیا تھا تصوف کی کتابوں میں یہ سب باتیں لکھی ہیں۔اور ہم نے ان  کی کتابوں کو پڑھ کر معلوم کر لیا ہے کہ اُن کے خیالوں میں کیا تھا؟اورجو کچھ ان کے خیالوں میں تھا وہی کچھ ان کی معرفت تھی۔سب سے عمدہ اور معبتر اور مسائل معرفت کی جامع کتا ب ان میں مولوی روم کی مثنوی ہے۔جس کی عبارت فصیح اور مضامین اکثر جید ہیں اور اس کی نسبت یہ شعر درست ہے۔

مثنوی مولوی معنوی   ہست قرآن درزبان پہلوی

لیکن  اس میں اور تمام کتب تصوف  میں قریب دو ثلث کے ایسے مضامین درج ہیں جن کو زمانہ حال کی روشنی غلط بتلاتی ہے۔البتہ بعض باتیں صحیح اوردرست بھی ہیں۔لیکن  بعض بڑے بڑے اصول محض غلط ہیں۔مثلاً ہمہ اوست وغیرہ۔اور میں یہ کہہ چکا ہوں کہ جو کچھ اس کے خیالوں میں تھاوہی ان کی معرفت تھی۔پس ان کی معرفت میں دیکھو کہ کہاں تک غلطی تھی۔اور اس کا سبب یہی ہوا کہ ماخذ معرفت ناقص تھا۔اس لیے ناقص معرفت حاصل ہوئی جس کا بطلان اب ظاہر ہو گیا۔پس سوچو کہ وہ لوگ اب غلط خیال  لے کراپنی روحوں میں کدھر گئے ہوں گے۔

 جو معرفت صوفیہ نے اپنی  کتب تصوف سےحاصل کی ہے۔اور جو معرفت ہندوں نے ویدوں اور شاستروں ویراگ سےحاصل کی ہے۔اور جو معرفت قلندروں نے اپنے مشرب قلندریہ اور عشقیہ نعرہ زنی سے حاصل کی ہےاور جو جو باتیں یہ جدید مذاہب والے لوگ اپنے خیالات سے پیدا کررہے ہیں۔یہ سب تنگ و تاریک اور پُر خطر اور بے تسلی ہیں۔کیونکہ وہ سب ایسی راہیں ہیں کہ انسان نے اپنے سے خدا تک نکالنے کا ارادہ کیا ہے۔عقل کہتی ہے کہ ایسی راہوں سے آدمی  خدا تک نہیں پہنچ سکتا۔کیونکہ وہ خدا کو نہیں جانتا۔

 انسان خود سے خدا تک راہ نہیں نکال  سکتاہاں خدا خود سے انسان تک راہ نکال سکتا ہے۔اور اس نے راہ نکالی بھی ہے۔کیونکہ اس نے دنیا کے شروع سےپیغمبروں کو بھیجا کہ اہلِ دنیا کے معلم ہوں اوراس نے پیغمبروں کے وسیلے سے الہام سے بائبل مقدس  کو لکھوایاکہ آدمیوں کے ہاتھ میں معرفت الٰہی کا دفتر ہو۔اور وہ اپنی روح سے طالبان حق کے لیے ہدایت کرنے کے لیے ہمیشہ تیار رہااور اب بھی تیار ہے۔

 پھر جن لوگوں نے پیغمبروں کو مانا اور بائبل سے معرفت حاصل کی ان کے خیالات بھی  کلیسیا  کے دفتر میں مرقوم ہیں۔اب اگر کچھ علم اور کچھ  عقل اور کچھ انصاف رکھتے ہو تو اٹھوں اور اپنی معرفتوں کو اس معرفت کے ساتھ مقابلہ کرو کہ جو بائبل سے ہےتب تمہیں معلوم ہو جائے گا کہ جو معرفت بائبل سے ہے وہ وہ نہایت لمبی چوڑی ،اونچی ، گہری،روشن اور پر تسلی اور زندگی بخش چیز  ہے۔اور تمام دنیاوی مصنوعی معرفتوں پر ایسی غالب ہے جیسے اللہ تعالیٰ سب چیزوں پرغالب ہے۔

 خدا کی ذات پاک کا صحیح علم۔اور اس کی صفات قدیمہ کا صحیح بیان اور اس مرضی اور ارادوں کا ذکر۔اور اس کے گذشتہ  عجیب کاموں اور انتظاموں کا تذکرہ۔اور اس کے ان عجیب  کاموں اور انتظاموں کا بیان جو ہر روز دنیا میں نظر آتے ہیں۔اور اس کی جلیل حکمت اور پیش بینی کی کیفیت وغیرہ باتیں جس قدر بائبل سے معلوم ہوتے ہیں۔ساری دنیا میں کوئی کتاب نہیں ہےکہ ان امور کا ایسا بیان کرے۔

 لیکن بائبل کو پڑھنا اور سیکھنا چاہئے اس کے ہر ایک لفظ پر غور کرکے اور ہر لفظ کے نیچے جو قادیق مندرج  ہیں کہ اس لفظ کی روشنی میں اور عرفان بائبل الٰہی روح کی مدد سے دریافت کرکےاپنی کتابوں میں لکھے ہیں۔ان سب کو دریافت کرکے پڑھنے کانام بائبل مقدس  کا پڑھنا ہے۔

 کیونکہ کسی شے کی پوری کیفیت اسی وقت معلوم ہوتی ہےجب اس کی خوبی اور برائی میں خوب غور کی جاتی ہے۔ایسا ہی معاملہ ویدوں اور قرآن وغیرہ کے سا تھ بھی برتنا واجب ہے۔تاکہ کسی کی نسبت کوئی امر حق تلفی کا وقوع میں نہ آئے۔عوام الناس کو ایسی تکلیف نہیں دی جاتی۔وہ اپنی لیاقت اور طاقت کے مناسب جو کچھ کلام متن سے سیکھتے ہیں وہ معرفت ان کی نجات کے لیے مفید  ہے۔لیکن وہ جو معرفت میں ترقی چاہتے ہیں اورلیاقت و طاقت اور ہمت بھی رکھتے ہیں۔انہیں ضرور ہے کہ اس انتہا مہر معرفت میں غوطہ زنی کرنے کی تکلیف کو گوارا کریں۔تاکہ حقیقی معرفت کا لطف  حاصل ہواورانوارِ الٰہی سے منور ہو جائیں مسیحی اولیا اللہ نے ایسا ہی کام کیا ہے۔

 حاصل کلام  یہ ہے کہ حقیقی معرفت صرف بائبل سے حاصل ہوتی ہےاور مسیحی ولیوں کو حاصل ہوئی ہےاور بائبل میں مندرج ہے۔اور پیغمبروں سے پہنچی ہے۔لیکن وہ معرفت جو تصوف وغیرہ سے ہے وہ نادانی کے خیالات ہیں جو اڑ گئے اور اڑتے جاتے ہیں۔اور وہ جو اس پر فریفتہ ہیں آخر کو شرمندہ ہوں گے۔اورہائے افسوس ؛کہیں گے۔کیونکہ انہوں نے خدا کے کلام کو ذلیل  اور حقیر سمجھا۔اور اس پر توجہ نہ کی مگر انسانوں کی باتوں  کو مفید اور معتبر قرار دیا تھا۔اس کی سزا خدا کی عدالت میں اٹھانی ہو گی۔

۱۴ ۔ فصل شریعت طریقت حقیقت کے بیان میں

مشرعت الما ۔ نہر کے گھاٹ کو کہتے ہیں۔پس پانی پر جانے کی راہ کو شرع یا شریعت کہتے ہیں پھر دین کی راہ کا نام شریعت پڑ گیاہےکیونکہ وہ بھی انہا رجنت پر جانے کی راہ ان کےگمان میں ہےمحمدی لوگ اسلام  کی راہ کو شریعت کہتے ہیں اور سمجھتے ہیں کہ ہر پیغمبر ایک شریعت لایا ہے۔لیکن یہ ان کا  خیال غلط ہےخدا کی طرف سے صرف دنیا میں ایک ہی شریعت آئی ہےجو موسیٰ لایا ہےاور سب نبی جو پیدا ہوئےاسی کے خدمت گزار تھے اس مفصل شریعت کا خلاصہ خدا نے ہر انسان کے دل میں ید قدرت سے لکھ رکھا ہےاور وہ یہ ہے کہ سب چیزوں سے زیادہ خدا کو اور اپنی جان کے برابر بنی نوع انسان کو پیار کرناچاہیے۔اب خواہ اس کے موافق ہویا نہ ہو مگر سب کا دل اس بات کو مانتا ہےمگر صوفیہ کی بولی میں ظاہری راہ و رسوم مقررہ اسلام کانام شریعت ہے۔گویادین داری کی صورتِ ظاہری کو وہ شریعت سمجھتے ہیں۔

 طریقت یہ لفظ طریق سے ہےجس کے معنی ہیں عام راستہ ہر کہیں جانے کی راہ کو طریق کہتے ہیں اور یہ لفظ طریق سے بنا ہے۔جس کے معنی ہیں کوٹنااور طریق بمعنی مطروق ہےیعنی کوٹا ہوا۔یعنی راہ جس کو آدمی اپنے پیروں کے چلنے سے کوٹتے ہیں۔صوفی سمجھتے ہیں کہ شریعت عام راہ ہے۔اور طریقت خاص راہ ہےخداسےملنے کا۔اوروہ ان کے تصوف کی چال ہےاس صورت میں محمدی شریعت سے ان کا تصوف افضل ٹھہرا۔بعض محمدی عا لموں نے اس مشکل کے دفع کرنے کو یوں کہا ہے کہ دین کی ظاہری صورت شریعت ہےاوراس کی باطنی جان طریقت ہے۔یہ بھی ان کی غلطی ہے۔وہ دین کی باطنی جان کس کو کہتے ہیں؟آیا اس کیفیت کو جو محمدی اہلِ شرع کی باطنی کیفیت ہے یا اس کیفیت کو جوصوفیہ کے ولیوں کی باطنی کیفیت تھی یہ  تودو کیفیتیں جدا جدا صاف عقل سےنظر آتی ہیں۔  اور طریقت کا لفظ صوفیہ کا ہے۔جو انہوں نے اپنے سلوک کی چال کی نسبت استعمال کیا ہے۔اور شریعتِ محمدی سے افضل اور خدا سے ملنے  کی خاص راہ سے اس کو بتلایا ہے۔ اس لیے وہ شریعتِ محمدی کی خاص باطنی جان نہیں ہے۔بلکہ وہ جدی بات ہے۔جو صوفیہ لائے ہیں۔

 حقیقت یہ لفظ حق سے  ہےیعنی سچائی ۔کشف اللغات میں لکھا ہے کہ حقیقت نزد صوفیہ ظہور ذات حق است بے حجاب تعینات و محو کثرات موہومہ در نور ذات۔پس یہ ہمہ اوست کا مقام ہے۔جو کفر کی بات ہے۔اگر  کفر کی بات حقیقت ہے تو کافر حق پر ہیں۔افسوس کہ یہ تینوں لفظ شریعت ،طریقت اور حقیقت کیسے ذلیل اورمکروہ کردئیےاپنے داہی تباہی معنی سے۔کیونکہ اگر شریعت  صرف ظاہری راہ و رسوم کا نام ہے تو یہ ایسی  چیز ہوئی  کہ جیسے مردہ لاش ہوتی ہے۔جس میں جان نہیں ہوتی۔اور طریقت نام اس تصوفی راہ  کا جو  کہ علوم اسلام سے خارج ہے۔اور حقیقت نام ہے ہمہ اوست  کے خیال کا جو باطل خیال ہےاور طریقت سے حاصل ہوتا ہے۔اب صوفیہ کے پاس کیا خوبی رہ گئی؟شریعتِ محمدی کو مردہ سمجھ کر پھینک دو اورطریقت کو اس لیے پھینک دو کہ اس سے حقیقت یعنی حماقت حاصل ہوتی ہے۔پھر صوفی تو بالکل خالی رہ گئے۔ایک صوفی بزرگ نےکہا ہے کہ شریعت نفس انسانی سے علاقہ رکھتی ہےاور بہشت میں پہنچاتی ہے۔طریقت دل سے علاقہ رکھتی ہے اور  وہ خدا سے ملاتی ہے۔حقیقت روح سے علاقہ رکھتی اور روح کو مقام ہمہ اوست میں پہنچاتی ہے۔یعنی  خدا سے مل کر خدا ہو جاتے ہیں۔اس بیان پر  بھی وہی آیت آتی ہے جس کا میں نے اوپر ذکر کیا ہےمجمع السلوک میں لکھا ہے کہ

شریعت در نمازو روزہ بودن   طریقت در جہاد اندر فزودن
حقیقت روی درولدار کردن   نظر اندر جمال یار کردن

یہ بیان بظاہر عبارت تو بہت خوب ہے لیکن حاصل اس کا بھی وہی ہے۔جوصوفیہ کے اصول سے پیدا ہوتا ہے۔کہ ہمہ اوست میں جاکر دم لیتے ہیں۔ 

وہ بات اور ہے کہ جو ہم مانتے ہیں کہ رسمی شریعت مسیح میں مکمل ہو کر اپنی اصلی روحانی صورت میں آگئی ہے۔کیونکہ رسمی اور روحانی میں سایہ اور عین کی نسبت تھی لیکن یہا ں صوفیہ میں یہ تینوں جدا جدا باتیں ہیں۔اور ان میں مخالفت کی نسبت ہے کیونکہ یہ سب انسانی بناوٹیں ہیں۔     خدا کی ڈالی ہوئی بنیاد محکم ہےجو کہ بائبل اور مسیحیت ہے۔

۱۵ ۔فصل یقین کے بیان میں

جازم راسخ ثابت اعتقاد کانام صوفیہ کی اصطلاح میں یقین ہے۔اور وہ سمجھتےہیں کہ یقین کی تین قسمیں ہیں۔اول علم الیقین  یہ حاصل ہوتاہے کہ دلائل قطعیہ سےمثلاًبرہان یا خبر متواتر سے۔دوئم عین الیقین یہ حاصل ہوتا ہے۔آنکھ کے مشاہدے سے۔سوئم حق الیقین یہ  حاصل ہوتا ہے۔کسی شے کے حاصل کے ہونے سے بتواتر خبر ملی ہے کہ دوزخ اور بہشت موجود ہیں۔ جب ہم نے  اس خبر پر یقین کیا کہ تو یہ علم الیقین ہوااور آنکھ سے دوزخ اور بہشت کو جا کر دیکھ لیا تو یہ عین الیقین ہوااورجب دوزخ یا بہشت میں ڈالے جاتے ہیں تو تب حق الیقین ہوا۔

 میں سمجھتا ہوں کہ ان اصطلاحوں میں کچھ غلطی نہیں ہے۔یہ درست باتیں ہیں لیکن مجھے حیرانی اس امر میں ہے کہ ان صوفیہ کےعقائد اور خیالات تو علم ایقین کےرتبےسے بھی بہت نیچے گرے ہوئے ہے۔اور وہ  لو گ ہرگز برہان سے اور خبر متواتر سےاپنے عقائد کا ثبوت نہیں دے سکتےپھر وہ عین الیقین اور حق الیقین کا ان عقائد کی نسبت کیونکر دم بھرتے ہیں۔ان کے پاس صرف توہمات ہیں اور ان کانام یقینات انہوں نے رکھ چھوڑا ہے۔اچھی اچھی اصطلاحیں محمدی اہلِ شرع کے مقابلے میں جمع کی ہیں۔لیکن ان کے اندر کچھ زندگی اور خوبی نہیں ہے۔

۱۶ ۔فصل وحدت وجودی اور شہودی کے بیان میں

 سب بُری باتوں سے زیادہ اور خطر ناک اور نالائق بات صوفیہ میں یہ ہے کہ وہ سب کے سب بالا اتفاق وحدت الوجود کے قائل ہیں اور وحدت الوجود کے معنی کتب تصوف اور غیاث اللغات میں یوں مرقوم ہیں۔(وحدت الوجود باصطلاح متصوفین موجودات راہمہ یک وجود حق سبحانہ تعالے دانستن وجود باماسوا رامحض اعتبارات شمر دن چنانچہ موج وحباب و گرداب قطرہ و ژالہ ہمہ رایک آب پندآشتن)۔

 یہی ہمہ اوست ہے جس کے سب صوفی قائل ہیں اور تمام تصوف کی ساری عمارت اسی بنیاد پرقائم ہے۔ہاں بہت محمدی عالم اس کے قائل نہیں ہیں اور اس خیال کو کفر سمجھتے ہیں تو بھی صدہا بزرگ عالم محمدی جنہوں نے اسلام میں تسلی نہیں پائی اور ناچاری سے تصوف کی طرف جھکے ہیں اس نالائق خیال کی طرف مائل نظر آتے ہیں اور ایسی تقریریں کرتے ہیں کہ اہلِ شرع کو بھی تھام رکھیں اور اس عقیدے کو ہاتھ سے نہ چھوڑیں کیونکہ یہ عقیدہ اگر گمراہی ٹھہرے تو ان کے سب اولیا گمراہ ثابت ہوتے ہیں اور تسلی کی کوئی بات ان کے پاس نہیں رہتی     کیونکہ تمام قرآن میں تسلی کا تو کوئی مقام نہیں ہے۔صوفیہ کے گھر میں یہ ہمہ اوست خیال انہیں کچھ تسلی دیتا ہے۔

 صوفیہ کے سب خاندانوں میں نقشبندیہ خاندان زیادہ تر باشرع اور احتیاط کا گھرانا ہے۔اسی گھرانے کے مرید ہمارے شہر پانی پت کے ایک بزرگِ اعظم فاضل جلیل قاضی ثنا اللہ مصنف تفسیر مظہ 9 ری وغیرہ ہیں۔اور وہ مرزا مظہر جان جانان بزرگ دہلی کے مرید تھے۔مرزا صاحب کے تصوف کی ساری کیفیت ایک کتاب میں مندرج ہے۔جس کا نام معمولات مظہریہ 10 ہے۔ہندوستان میں جس قدر تصوف کی کتابیں لکھی گئیں۔یہ کتاب ان سب میں اعلیٰ رتبہ کی ہےاور قاضی صاحب نے اس کی صحت پر گواہی لکھی ہے۔وحدت الوجود کے مسئلے کی بابت اسمیں یوں مرقوم ہے۔(صفحہ ۱۰۲) صانع اور مصنوع میں عینیت ہےیا غیریت اس بارےمیں شرع ساکت ہےلیکن کاملیں پر یہ بے حد کشف سے ظاہر ہوا ہے۔مراد یہ ہے کہ کاملین نے کشف سے معلوم کیا ہے کہ عینیت ہے۔پس یہ ہمہ اوست کا اقرار ہوگیا۔

 پھر اس خاندان میں نامدار بزرگ ہوئے ہیں۔شیخ احمد سرہندی ہیں جنکو مجدد الف ثانی کہتے ہیں اور شاہ عبدالحق محدث دہلوی ان کی بڑی تعریف شرح فتوح الغیب کے خاتمے میں لکھتے ہیں اور فی الحقیقت وہ صاحبِ علم اور سنجیدہ صوفی تھے۔ان کے مکتوبات ان کی لیاقت ظاہر ہے۔کہ محمدی دین کا علم ان کو پورا تھا۔

 انوار العارفین صفحہ ۴۷میں ان کا بیان یوں مرقوم ہےکہ حقائق الاشیا ثابتہ یہ معاملہ حواس سے علاقہ رکھتا ہے۔لیکن عارفین حواس عقلیہ سے آگے بڑھ گئے ہیں انہوں نے وہاں جا کر ہمہ اوست کا بھید پایا ہے۔پس ان بزرگوں کے بیان سے ظاہر ہے کہ وہ شرع محمدی کو بھی قائم رکھتے ہیں اور ہمہ اوست بھی چھوڑنا نہیں چاہتے۔

 یہ جو اوپر بیان ہو اہے کہ ہمہ اوست کا بھید حواس سے دریافت نہیں  ہوسکتا۔بلکہ حواس سے یہی ثابت  ہے کہ حقائق الاشیا ثابتہ لیکن یہ بھید کشف سے معلوم ہوا ہے۔اور کاملین حواس  سے آگے بڑھ گئے ہیں اور وہاں سے بھید کودریافت کرکے لائے ہیں۔یہ بات سادہ لوحوں کے دلوں کو خوش کرنے کے لیے کیا خوب معلوم ہوتی ہے۔فی الحقیقت دھوکا اور روحوں کی ہلاکت کے لیے زہر ہے۔

 جن اشخاص کو صوفیہ کاملین کہتے ہیں۔ہمیں ان میں کچھ کمال نظر نہیں آتااور جن باتوں کو وہ کمالات کہتے ہیں۔وہ ہمیں نقصانات معلوم ہوتے ہیں۔پھر ان باتوں کی نسبت جن کو وہ ان  کے مکاشفات کہتے ہیں۔حجت باقی رہتی ہے۔ہم کیونکر یقین کریں کہ وہ ان کے الٰہی مکاشفات ہیں؟کیوں نہ کہیں کہ توہمات ہیں۔جو قوت واہمہ سے نکلتے ہیں۔سچے اور جھوٹے نبیوں میں امتیاز کرنے کے لیےکچھ قواعدعقلیہ اور نقلیہ ضرور مقرر ہیں۔اوران قواعد سے جب کوئی سچا نبی ثابت ہوتا ہے توتب اس کی باتیں اس خیال سے مانی جاتی ہیں کہ  وہ خدا کا نبی  ہے۔یہ صوفی کون ہیں؟جن کو مکاشفے ہوتے ہیں۔اور حواس سے آگے بڑھتے ہیں۔اور وہاں سے جہاں حواس کا کام نہیں ہےکچھ لاتے ہیں۔ اوراپنے حواس میں رکھ کر لاتے ہیں۔ اور مریدوں کے حواس میں ڈالتے ہیں۔ان باتوں کو جو حواس سے ثابت نہیں ہو سکتیں اور وہ جو اہلِ حواس ہیں جنہیں خود مکاشفے نہیں ہوئےوہ ان کی تائد میں کوشش کرتے ہیں۔بلکہ ان کے آورد کو اپنے ایمان کی جگہ میں رکھتے ہیں۔

 ہمیں دنیا میں تین قسم کے لوگ معلوم ہوتے ہیں۔بعض خداکے منکر ہیں مگر جہان کی ،موجودگی کے قائل ہیں۔کیونکہ جہان موجود نظرآتا ہے۔یہ لوگ سمجھتے ہیں کہ جہان کا وجود اور انتظام سب کچھ دہر یعنی زمانے سے ہےاور یہ لوگ دہریہ کہلاتے ہیں۔

بعض خدا کے قائل ہیں اور سمجھتے ہیں کہ دہر بھی خدا  کی خلقت میں سے ہیں۔ان لوگوں کی بھی دوقسمیں ہیں۔یعنی وہ جوخدا کے قائل ہیں۔دو طرح سے خدا کو سمجھتے ہیں۔ایک وہ ہیں جو ہمہ اوست میں خدا کو بتلاتے  ہیں۔اور وہ سمجھتے ہیں کہ صانع اورمصنوع میں عینیت ہےنہ غیریت  یعنی خدا نے جہان کو اپنے ہی اندرسے نکالا ہےیاخدا خود جہان بن گیا ہے۔پس اس جہان  کی اور خدا کی ایک ہی ماہیت اور حقیقت ہوئی ۔قدیم زمانے کے مصری اور یونانی بت پرستوں کا بھی گمان تھا  اور ویدوں میں بھی ایسا ہی لکھا ہے۔قوم صوفیہ جو کہ بت پرست قوم تھی۔ان کو بھی قدیم بت پرستوں سے وراثتہً یہی خیال پہنچا تھا کہ وہی خیال محمدی صوفیوں میں اب تک چلا آتاہے۔اوراس میں متعصب ہوگئے۔وہ یہ  نہیں کہتے ہیں کہ ہم نے یہ خیال بت پرستوں سے لیا ہے۔ بلکہ عیب پوشی کے لیے کہتے ہیں کہ ہمارے کاملین کو مکاشفہ ہوا ہے۔بھلا صاحب  جب آپ لوگ دنیا میں نہ تھے۔تو کیا اس کا مکاشفہ اس وقت بھی بت پرستوں کو ہوا تھا؟یا ان کاعقلی خیال تھا جو کہ باطل تھا۔

 دوسرے وہ لوگ ہیں جو کہ ہمہ ازاوست کے قائل ہیں۔اور سمجھتے ہیں کہ صانع اور مصنوع میں غیریت ہے نہ عینیت اور کہ جہاں عدم سے وجود میں آیا ہے اور کہ خدا کی اور کچھ ماہییت ہےاور اشیا جہاں کی اور کچھ ماہیتیں ہیں۔اور یہ کہ حقائق الاشیا ثابتہ حق ہے۔حواس سے بھی اور مکاشفوں سے بھی۔

 ہم سب مسیحی اور یہودی جو کہ پیغمبروں کے پیروں ہیں۔اسی خیال کو مانتے ہیں ۔اور اکثر علمامحمدیہ بھی اسی خیال میں ہمارے ساتھ ہیں۔اور کلام اللہ کی بھی یہی تعلیم ہے۔لیکن وہ محمدی جو تصوف میں قدم رکھتے ہیں۔ہمہ اوست کا مہلک خیال جس سے خدا کی بے عزتی ہوتی ہے وہ نہیں چھوڑتے۔

اور یہ جو اوپر کہا گیا ہے شرع محمدی اس بارے میں ساکت ہے۔سچ تو یہ ہے کہ قرآن میں ہمہ اوست کا خیال صاف صاف کہیں نہیں لکھا ہمہ ازوست کا خیال زیادہ تر بیان ہوا ہے۔صرف ایک مقام میں سورہ حدید میں ہےجس سے صوفی کچھ استدلال کرتے ہیں کہ هُوَ   الْأَوَّلُ وَالْآخِرُ وَالظَّاهِرُ وَالْبَاطِنُ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ   وہ (سب سے) پہلا اور (سب سے) پچھلا اور (اپنی قدرتوں سے سب پر) ظاہر اور (اپنی ذات سے) پوشیدہ ہے اور وہ تمام چیزوں کو جانتا ہےلفظ ظاہر سے وہ اشیا دیدنی مرادلیتے ہیں۔اور سمجھتے ہیں کہ یہ جو کچھ ظاہر ہے اللہ ہے لیکن علما محمدیہ اس کی تاویل یوں کرتے ہیں کہ وہ بد لایل ظاہر ہے۔نہ بذات اور ہم بھی یہی مانتے ہیں کہ  وہ بد لایل ظاہر ہے۔اہلِ ہمہ اوست کہتے ہیں کہ وہ بذات ظاہر ہے اسی کا نام شہود ہے۔اور یہ بھی کہتے ہیں کہ محمد صاحب مفردوں میں سے تھےتو کیا تعجب ہے کہ ان کی مراد لفظ ظاہر سے وہی ہو کہ جو صوفی کہتے ہیں۔پھر یہ لوگ دو وصنعی حدیثیں سناتے ہیں۔کہ حضرت نے فرمایا کہ (انا احد بلامیم واناعرب بلا عین)یعنی میں احدا ور رب ہوں۔یہ تو کفر کے کلمے ہیں۔معتبر کتابوں میں ان حدیثوں کا ذکر نہیں ہے۔شاید صوفیہ نے بنائی ہوں۔

ہاں ایک حدیث اور ہے جو معتبر کتابوں میں مذکور ہے۔جس سے ہمہ اوست کا خیال حضرت کے ذہن میں کچھ معلوم ہوتا ہے۔وہ یہ ہے کہ   يؤذيني ابن آدم؛ يسب الدهر، وأنا الدهر   اللہ کہتا ہے کہ انسان مجھے دکھ دیتا ہے۔اس لیے کہ وہ دہر کو گالی دیتا ہے۔اور میں خود دہر ہوں۔اس حدیث میں حضرت دہریوں کا مذہب ثابت کرتے ہیں۔اور اللہ کو دہر بتلاتے ہیں۔

 اور ناظرین کو یہ بھی معلوم ہو جائے کہ اگرچہ بظاہر یہ دو فرقے ہیں یعنی دہریے اور ہمہ اوست والے مگر فی الحقیقت حاصل ان کا ایک ہی ہے۔دہریہ کہتے ہیں کہ خدا نہیں ہے۔جو کچھ ہے یہ جہان ہے۔ہمہ اوست والے کہتے ہیں کہ خدا ہے مگر سب کچھ خدا ہے۔یہ تو ایک ہی بات ہوئی۔ دوعبارتوں میں پس جیسے دہریہ بے خدا ہیں۔ویسے ہیں ہمہ اوست والے بھی بے خدا ہیں۔

 ہمہ اوست کا خیال عقلی تجویز ہے۔سب پیغمبر  اس کے مخالف ہیں۔ہاں سب بت پرست اس کو مانتے ہیں۔پس اس کے ماننےوالا پیغمبروں کا ساتھی نہیں۔وہ بت پرستوں کا ساتھی ہے۔اور جو جس کا ساتھی ہےاس کا حشر اسی کےساتھ ہوگا۔تب صوفی قیامت میں بت  پرستوں کے ساتھ اٹھیں گے نہ کہ پیغمبروں کےساتھ۔

 ہمہ اوست کے خیال کی جڑ یہ ہے کہ بعض آدمیوں نے ایسا سمجھا کہ دینا میں ہر کاریگر جو کچھ بناتا ہے۔کسی مادے سے بناتا ہے۔بغیر مادے کے کوئی چیز کسی کاریگر سے نہیں بن سکتی۔خدانے جہان کو کیونکر بنایا ؟وہ مادہ کہاں سے لایا؟تب ان کے قیاس نے جواب دیا کہ مادہ خدا نے اپنے ہی اندر سے نکالا اور اس میں تصرف کرکےسب کچھ ظاہر کردیا۔پس سب کچھ اس میں سے ہے۔اس لیے سب کچھ وہی ہےیہی دلیل وحدت الوجود کی ان کے پاس ہے۔

 خدا کے پیغمبر جو خدا سے سن کر بو لتے ہیں۔کہتے ہیں کہ خدا قادر مطلق ہے۔اس کی قدرت مطلق ہے۔یعنی آزاد اس کی قدرت کے لئے کوئی حد نہیں وہ کہیں رک نہیں  سکتی۔ورنہ وہ مقید قدرت ہوتی نہ  کہ مطلق۔پس اس قدرت سے اس نے جہان کو پیدا کیا عدم سے نکالا اور عدم کی تعریف علمِ حکمت میں یہ ہے(العدم یقابل الوجود فلیس للعدم وجود)۔یعنی عدم مقابلہ میں ہے  وجود کے اس لیے عدم کا وجود نہ ہوا۔جس لیے فارسی لفظ نیستی ہے۔یعنی لا وجود ۔پس خدا نے جہان کو نہ اپنے اندرسے مادہ نکال کر پیدا کیابلکہ نیستی میں سے پیدا کیا ہے۔لفظ کریٹ(Create) انگریزی میں اور خلقت عربی میں اور پیدا فارسی میں اور بارا عبرانی میں ایسے معنی میں آتا ہے۔کسی چیز کا بغیر مادے کے پیدا کرنا۔پس دنیا کے کاریگر کچھ چیزوں سے کچھ چیزیں بناتے ہیں۔کیونکہ اس کی قدرت محدود اور مقید ہے اور وہ قادر مطلق نہیں۔خدا قادرمطلق ہے۔وہ نیستی سے بحکم خود چیزیں پیدا کرتاہے۔اگر ہم خدا کو دنیا کے کاریگروں کی مانند خیال کریں تو اس کو اس کی عالی شا ن سے گراتے ہیں اور مردود ہوتے ہیں۔

 اس کے سوا یہ بات ہے کہ اگر یہ جہان خدا کے اندر سے نکلاہوا ہوتا تو خدا کی ماہیت میں اس جہان کو بھی دخل ہوتا۔اوراس پاک ماہیت کے جو خاصے ہیں وہ جہان میں بھی پائے جاتے ۔دیکھو خداوند  یسوع مسیح خدا کی ذات  میں سے نکلااور دنیا میں آیاہےاور روح القدس خدا  کے اور مسیح کے اندر سے آتااور غور کرنے سے برگزیدوں کی روحوں میں معلوم ہوتا ہے۔اور جوخاصیت الٰہی ماہیت کی ہے۔وہی خاصیت ان دو نوں شخصوں میں برابر پائی جاتی ہے۔جو خدا کی ذات میں سے ہے۔اس میں خدا کی خاصیت ہے۔ اگر جہان خدا کے اندر سےہوتا تو جہان میں الہٰی خاصیت ضرور ہوتی۔اورجہان تو کچھ بھی نہیں ہے نہ کوئی شے قائم بالذات ہے نہ کسی چیز میں قدرت اور علم اور زندگی بالذات ہے۔ہر شے معلول ہے۔اور ہر علت کے لیے علت ہے۔اور وہ جو علت العلل ہے۔مخفی ہے۔اور ہر معلول کے لیے دو طرفین ہیں۔ایک وہ طرفین ہے جس سے اس کا علاقہ علتہ العلل ہے۔بواستہ علل کے ہے۔اور اسی  سےاور بحال اور موجود ہے۔دوسری طرف وہ ہے جس سے اس کا علاقہ نیستی کی طرف ہے۔اگر علتہ العلل اس کو چھوڑ دے۔تو وہ معلول نیست ہو جاتاہے۔اور اس سے ظاہر ہےہ کہ جہان نیستی سے بقدرت واجب الوجود موجود ہو اہے ۔اگر وحدت الوجود صحیح ہے تو خدا میں نیستی میں گھرا ہوا ہے ہر طرف سے پس ہمہ اوست نہیں ہے۔بلکہ ہمہ از اوست ہے اورجو خدا ہے سب سے نیارا ہے اس کی ماہیت کچھ اور ہے۔اور موجودات کی ماہیتیں کچھ اور ہیں۔ہمہ اوست کے ابطال میں بہت سی ماہیتیں ہیں۔جو دیگر مصنفوں کی کتابوں میں مرقوم ہیں۔اور اثبات میں بارے میں سواء دوتین وہمی باتوں کے کچھ بھی نہیں ہے۔

 گزشتہ زمانہ تاریکی کا خصوصاً غیر اقوام پر ایسا تھا کہ اس میں اس ہمہ اوست کے خیال میں بعض لوگوں نے کچھ تسلی اختیار کی تھی۔مگرباطل تسلی تھی۔ وہ سمجھتے تھے کہ ہم خدا میں سے نکلے ہیں۔اور مر کر اس میں مل جائیں گے۔اور وہ لوگ اپنے جیتے جی بہ تکلف اس باطل خیال کو اپنے ذہن میں پکاتے تھے۔اورفطری بدیہی خیال جو ہمہ ازاوست کا ہے بہ مشکل ذہن سے نکا لتے تھے۔اور شیطان مجسم ہوئے پھرتےتھے۔کہتے تھے کہ ہم خود خدا ہیں۔اور اس سے شیطان کا مطلب خوب پورا ہوتا تھا۔کہ خدا کی بے  عزتی ہو۔اگر ہمہ اوست صحیح بات ہو  تو کیا ضرور ہے  کہ صوفی اتنی ریاضت کرے کہ  بے ریاضت اور باریاضت آدمی سب برابر  ہیں۔اوربت پرستی کا امر بھی مکرو ہ نہیں ہو سکتا۔اور نیکی بدی میں کچھ حاجت فرق کی نہیں ہے۔ایمانداری اور بے ایمانی فرمان برداری اور نافرمانی برابر ہیں کیونکہ سب کچھ خدا ہے نعوذباللہ من ذٰلک۔

 اب روشنی کازمانہ آگیا ہے۔کلام اللہ کی روشنی اور علمی روشنی نمودار ہوئی ہے۔اوراس خیال کا بطلان زیادہ تر واضح ہو گیا ہے۔اور معلوم ہو گیا ہے کہ ویدیں وغیرہ وہ سب کتابیں جن میں یہ خیال مرقوم ہے۔اللہ کی طرف سےہرگز نہیں ہیں۔انسانی تجویز سے لکھی گئی ہیں۔اور ان سے  بہ سبب اس خیال کے خدا کی بے عزتی ہے۔اور یہ بھی معلوم ہو گیا ہے کہ جو لوگ اس خیال میں مر گئے ہیں۔اور اولیا اللہ سمجھے گئے ہیں وہ ہرگز خدا رسیدہ نہ تھے۔ اس خیال کو پہنچے ہوئے تھے۔پس خدا کا دوست ہونا تودرکنار رہا خدا کو پہچانا بھی نہ تھا۔اور  جس کو انہوں نے خدا سمجھا تھا۔وہ بطلان تھا۔اب فرمائیں کہ وہ خدا کے دوست تھے  یا بطلان کے۔

  خدا پہچانا جاتا ہےخدا کے کلام سے نہ محض دلائل عقلیہ سے نہ احمق فقیروں کے خیالات سےنہ قدیم بت پرستوں کی تجویزات سے  نہ ہو حق کرنے سے نہ ریاضت سے نہ ذکر فکر سے مگر خدا کے کلام سے اوروہ صوفیوں اور محمدیوں  اور بت پرستوں  او ر عقل پرستوں کے پاس نہیں ہے۔پھر وہ کیونکر خدا شناسی کے دم مارتے ہیں۔اگر کوئی شخص خدا شناسی کاطالب ہو تو وہ بائبل شریف کے قریب آئے اور جو کچھ بائبل شریف خدا کےبارے میں بتلاتی ہے۔اس پر غور کرے۔پھر اپنی تمیز سے پوچھے کہ خدا کیسا ہے اور کدھر ہے۔


۱۷ ۔فصل اطوار تقرب صوفیہ کے بیان میں

صوفیہ کےاطوارجن کےوسیلے سے وہ خدا سے ملنا چاہتے ہیں ان کی کتابوں سے معلوم ہوا کہ اعتقاد واثق اور خلوص اور فروتنی اور ریاضت اور ترکِ دنیا یہ پانچ وسیلے ہیں۔

 لیکن ان کا تمام  زور تصورات پر ہے۔بعض خیالوں کو ذہن میں پکاتے ہیں جب ان میں پختہ ہو گئے تو گو یا محو ہو تے ہیں۔تب سمجھتے ہیں کہ ہم کمالات کو پہنچے چنانچہ آئندہ فصلوں میں ان کے خاص خیالات کا ذکر آئے گا۔جن کے پختہ کرنے سے وہ ولی بنتے ہیں۔

 اس فصل میں عام طور پرمیں ان کے اطوار  کی طرف دیکھتا ہوں کہ کیا ہیں۔پس وہ پانچ باتیں جو اوپر مذکور ہوئیں۔اگر افراط تفریط سے محفوظ ہوں۔اور مناسب طور سے عمل میں آ یں تو بہت خوب ہیں۔لیکن ان پانچ باتوں میں اس اصل  کو نہیں پاتا۔جو عقلاً و نقلاًخدا پرستی کی جڑ ہےجس کے ساتھ ہر خوبی فی الحقیقت خوبی ہوتی ہے۔اور جس کے بغیر تمام خوبیاں برباد اور غیر مفید ہیں۔

 اور وہ اصل یہ ہے کہ خدا پرست آدمی میں سب سے پہلے صحیح اور زندہ ایمان ہونا چاہیے۔

دنیا میں  ہر فرقہ اپنے گمان میں ایک ایمان کامدعی ہے اور اس کی حماعت کرتا ہےاور وہ سب ایمان جو دنیاکے فرقوں میں ہیں ہرگز یکساں نہیں ہیں اور سب فرقےایساسمجھتے ہیں کہ گویا ہم نے باوسیلہ اپنےایمان کے خدا کو راضی کیا ہے۔

 یہ کیفیت دنیا میں ایمانوں کی دیکھ کے کیا کروں گے؟اپنے ہی قومی ایمان کو بے دلیل یا زبردستی کی دلیل سے صحیح ایمان سمجھو گے یا تمام دنیا کے ایمانوں کا مقابلہ کرکے صحیح  ایمان تلاش کرو گے اور اس کو خدا کی رضامندی کا وسیلہ سمجھے کر اختیار کرو گے۔اگر دانائی اور انصاف ہے  تو ایسا ہی کرو گے۔

 لفظ ایمان کی بحث محمدی کتابوں میں بہت ہوئی ہے۔ کتاب عینی شرح صحیح بخاری اور فتح المبین شرح اربعین اور شرح مواقف وغیرہ میں بہت کچھ لکھا ہے۔لیکن ایمان کے بارے میں جو بات فکر کی ہے۔اس کا وہاں کچھ بھی ذکر نہیں ہے۔

 جو کچھ وہاں لکھا ہےاس کا خلاصہ یہ ہے کہ بعض نےکہا ہے کہ ایمان صرف دل کا کام ہے یعنی تصدیق۔بعض نے کہا کہ دل کا اور زبان کا اکٹھا کام ہے یعنی دل سے یقین زبان سے اقرار ۔بعض نے کہا ہے  کہ ایمان صرف دل کا کام ہے۔یعنی تصدیق۔ بعض نے کہا ہے کہ صرف زبان کا کام ہے یعنی اقرار۔بعض نے کہا ہے کہ دل اور زبان کا اکٹھا کام ہے۔یعنی دل سے یقین اور زبان سے اقرار۔بعض نے کہا کہ دل کا اور زبان کا اور تمام بدنی عضاکاکام ہے ۔یعنی اعمال بھی شامل ہیں ۔پھر یہ کہ آیا ایمان اوراسلام ایک ہی بات ہے۔ یادو جدا جدا  چیزیں بعض نے کہا کہ ایک ہی چیز ہے۔دو چیزیں ہیں۔پھر یہ کہ آیا ایمان گھٹتا بڑھتا ہے۔کسی نے کہا کہ نہیں پھر یہ کہ آیا ایمان مخلوق ہے یا غیر مخلوق احمد بن حنبل نے کہا کہ غیر مخلوق ہے اور لوگوں نے کہا کہ مخلوق ہے۔فیصلہ یوں ہوا کہ آدمی کا اقرار جو اس کا فعل ہےمخلوق ہے اور ہدایتِ الہٰی جو کہ خدا کا کام ہے۔وہ غیر مخلوق ہے۔پس شے مخلوق اور غیر مخلوق مل کر ایک ایمان ٹھہرا۔

 اصل بات کا کچھ ذکر نہیں کہ جس چیز کا اقرار اور یقین ہوتا ہےوہ کیا ہے اورکہاں سے ہے؟ہم مسیحوں کا زور اس بات پر بہت ہےکہ کیا ہے اور کہاں سے ہے؟

 یہ دو الفاظ کہ ہمارا ایمان کیا ہے اورکہ کہاں سے ہے؟اگر ناظرین یاد رکھیں تو جلد صحیح ایمان پائیں گے۔اس سوال کا جواب کہ کہاں سے ہے؟اور کیا ہے؟محمدی لوگ یوں دیں گے کہ ہمارا ایمان قرآن و حدیث سے ہےاور خدا کی وحدتِ فردی اور اور محمد صاحب کی رسالت پر ہے۔صوفی یوں کہیں گے کہ ہمارا ایمان قرآن و حدیث اور اقوال صوفیہ سے ہے۔اور خدا کی وحد ت وجودی اور محمد صاحب کی رسالت پر اور انتظام قطبیہ پر ہے۔ہم مسیح یوں کہیں گےکہ ہمارا ایمان تمام سچے پیغمبروں کی کتابوں  میں سے ہے۔نہ کہ آدمیوں کی حدیثوں اور اقوال  میں سے۔اور خدا کی وحدت اور تثلیث مجید پر ہےاوراس بات پر ہے کہ یسوع مسیح ابنِ اللہ اور ہمارے گناہوں کاخداکی طرف سےبھیجا ہوا کفارا ہے۔اوراسی کے ہاتھ میں سب کچھ ہے۔لفظ کہاں سےمیں ہم یہ ڈھونڈتے ہیں کہ آیا ماخذایمان معتبر ہے یا نہیں اور لفظ کیا میں ہم یہ تلاش کرتے ہیں کہ وہ چیز جو روح میں رکھی  جاتی ہے۔ اس کی ابدی زندگی کے لیے مفید ہےیا نہیں۔پس ہمارے ایمان  کو اور اس کے ماخذ کو اور اپنے ایمانوں کو ان کے ماخذوں کو دیکھ کر آپ ہی انصاف کرسکتے ہیں کہ صحیح ایمان کیا ہے؟

 صوفیہ وغیرہ کا ایمان نہ روح کی مرضی کے مناسب ہے اور نہ اس کا ماخذ معتبر اس لیے ان کی بنیاد خام  رہتی ہے اسی بنیاد خام پر وہ ان پانچ باتوں پر زور دیتے ہیں جن کا اب میں ذکر کرتا ہوں۔

(۱) یہ وہ سچ کتے ہیں کہ اعتقاد واثق چاہیےلیکن سچائی پر اعتقاد واثق چاہیے۔ناکہ باطل بات پر صرف اعتقاد واثق میں ہی خوبی نہیں ہے خوبی سچائی میں ہے۔ بعض بت پرستوں اور جاہل آدمیوں نے غلط باتوں پر اعتقاد واثق رکھ کر جان نثار کی ہے۔تو کیا ان کا بھیلا ہو جائے گا؟ہرگز نہیں۔یہ قول بالکل غلط ہےکہ پیر من خس است اعتقاد من بس است۔

(۲) وہ خلوص کا ذکر بہت کرتے ہیں۔فی الحقیقت خلوص عجیب نعمت ہے۔اور ہر حال میں مفیدہے۔مناسب ہے کہ آدمی بےریا ہو کر پاک نیت سے خدا پرستی اور سب کام دنیاوی بھی کیاکرے۔اس سے کامیابی ہوتی ہے۔لیکن جب خلوص کے ساتھ پتھر بھی پوجےاور ہدایتِ الٰہی کے خلاف راہ اختیار کرے تو اور مکروہ و باطل عقائد میں خلوص کے در پہ ہو تو خلوص سے کیا نکلے گا؟یہی کہا جائے گا کہ یہ آدمی تو نیک نیت  ہے مگر نادانی کی دلدل میں پھنسا ہوا ہے۔کبھی کبھی ایسا بھی دیکھا گیا ہے کہ باخلوص لوگو ں پر خدا کی مہربانی ہوئی ہے۔اوروہ مہربانی یہی ہوئی ہے کہ انھیں راہ راست کی طرف ہدایت کےلئے بعض وسائل بخشے گئے ہیں۔اور ان کی دانانی ان پر ظاہر کی گئی ہے۔اور دکھلایا گیا ہے کہ جہاں سے تم کچھ ڈھونڈتے ہووہاں سے  کچھ نہیں مل سکتا ۔مسیح خدا وند کی طرف جاؤ وہاں سے سب کچھ پاسکتے ہو۔پس اگر وہ مسیح کی طرف آئیں تو سب کچھ پاتے ہیں۔ورنہ اپنے خلوص کا ٹوکرا سر پراٹھا کر  جہنم میں جانا ہوگا۔

(۳) فروتنی اور خاکساری بھی خوبی کی صفتیں ہیں۔اور دل کی درستی کے نشان ہو سکتے ہیں۔جب کہ سچی خاکساری ہو ورنہ ہوسکتا ہے کہ ظاہر میں فروتنی ہو اور باطن  میں پوشیدہ غرور ناپاک مطلب بھرے ہوں۔بعض لوگوں نے فروتنی کو اس لیے اختیار کیا ہے کہ لوگوں سے ان کی تعریف ہواور ان کے بہت دوست اور مرید ہو جائیں۔ایسی فروتنی ناپاک مراد کے ساتھ غیر مفید اور بلکہ عین گناہ ہے۔حقیقی    فروتنی  وہ ہےجس کا ذکر مسیح خداوند نے کیامبارک ہیں وہ جو دل کے غریب ہیں۔خواہ بظاہر شان و شوکت میں ہوں لیکن اندر دل غریب ہے۔ایسے لوگوں کے ساتتد برکت کا وعدہ ہے۔

(۱) صوفیہ کا ریاضت  پر بہت زور ہے۔اور اکثر دیکھا جاتا ہے کہ جب کوئی آدمی دنیاسے الگ ہو کر ریاضیت و عبادت میں مشغول ہوتا ہےتب وہ بہت ہی جلد پیر بن  جاتا ہےاور احمق لوگ ریاضت پر فریفتہ ہو کر اس کے گرد جمع ہو جاتے ہیں۔اوراس کے لیے کرامتیں تصنیف کرڈالتے اورچرچے اڑاتے  ہیں۔یہ سب پیر اسی طرح سے پیر مشہور  پوتے ہیں۔اوراب بھی اگر کوئی چاہے کہ میں پیر بن جاؤں تو وہ دو کام کرےاول وہ ایسی جگہ جائے جہاں بہت زیادہ جاہل ہوں۔وہاں بیٹھ کر دنیا سے کچھ نفرت دکھائےاور ریاضت کرے۔پھر دیکھو کہ وہ جلد پیر بن جاتا ہےنہیں۔ہندوں اور مسلمان فقیروں  نے ریاضت ہی دکھلاکر جاہلوں کو اپنی طرف کھینچا ہے۔لیکن دانشمند لوگ صرف ریاضت پر ہی فریفتہ نہیں ہوتے۔دیکھو رسول کیا فرماتا ہے(فلپیوں۔۔۔۲۔۲۳) یہ چیزیں تو ایجاد کی ہوئیں عبادت اور خاکساری اور بدنی ریاضت اور تن کی عزت نہ کرنا کہ اس کی خواہشیں پوری ہوں حکمت کی صورت رکھتی ہے۔

صورت بغیر جان کے مردہ ہے۔دانشمند جان کی تلاش کرتا ہے۔نہ کہ صرف صورت کی۔مگر جاہل صرف صورت پر فریفتہ ہوتے ہیں۔پھر رسول بتلاتا ہے۔کہ ریاضت کی دو قسمیں ہیں۔ایک بدنی ریاضت ہے اوردوسری دینداری کی ریاضت (۱ تمطاؤس ۴۔۷، ۸) بے ہودہ اور بوڑھیوں کی کہانیوں سے منہ موڑ اور دینداری میں ریاضت کر کہ بدنی ریاضت کافائدہ تھوڑا ہے۔پر دینداری سب باتوں کے واسطے فائدہ مند ہے۔کہ اب کی اور آیندہ کی زندگی کاوعدہ اسی کے لیے ہے۔وہ ریاضت جو دینداری میں ہے۔اس کا علاقہ ایمانِ بر حق اور تمام صحیح عقائد اور حقیقی نیک اعمال اور حمیدہ اخلاق ہےاور بدنی ریاضت کا علاقہ ان جسمانی تکلیفات کی برداشت سے ہے۔جو امور ایجادی ہیں انسانی تجویز سے ہیں۔صوفیہ میں اور ہندو فقیروں میں بدنی ریاضت بہت ہوتی ہے۔لیکن  دینداری کی ریاضت صرف ان حقیقی مسیحیوں میں ہے جو خدا کے کلام پر چلنے کی کوشش میں رہتے  ہیں۔ان کو دنیا کے درمیان سب معاملات میں رہ کر بڑی نفس کشی کرنی پڑتی ہے۔اور یہی ریاضت مفید و آفرین کے لائق ہے۔

(۲) اور یہ جو ترک دنیا کا ذکر وہ کرتے ہیں۔یہ مضمون بھی سخت غورِ طلب ہے۔ترک دنیا کی دو صورتیں ہیں۔اول دنیا کی محبت اور خدمت دلوں میں ایسی غالب نہ رہے کہ خدا کی محبت اورخدمت میں قصور آجائے۔دنیا کے سب مناسب کاروبار اور اہلِ رشتہ کے حقوق خدا کے حکم سے اور عقل کے حکم سے فطرت کے موافق پورے کرنا انسان کا فرض ہے۔اور ایسا فرض ہے کہ اس میں قصور آئے تو آدمی خدا کا گناہگار ہوتا ہے۔اور وہ اس میں ایسادھسے کہ خداکی محبت اور خدمت میں قصور آئے تو وہ ملعون ہوتا ہے۔اس کو ضرور ہے کہ وہ حقوق اللہ اور حقوق العباد دونوں کو پورا کرے۔پس جب ہم ترکِ دنیا کا ذکر سنتے ہیں تو یہی مطلب ہمارے خیالوں میں آتا ہے۔کہ دنیا کی محبت  خدا کی محبت پر غالب نہ آجائے۔جیسے سب دنیا داروں کی کیفیت ہے۔یہ ہم ہرگز نہیں سمجھتے کہ دنیا  کے سب کارو بار کو چھوڑ کر ہمیں جنگلوں میں جانا ضرور ہے۔یہ دنیا کو ترک کرنے کی دوسری قسم ہے۔لیکن اس قسم میں حقوق العباد متعلقہ فوت ہوتے ہیں۔اور خدا کی اور عقل کی اورفطرت کی نافرمانی ہوتی ہے۔پھر ہماری سمجھ میں نہیں آتا کہ ہم ایسے نافرمان ہو کر کیونکر  خداسے برکت پائیں گے؟کیا وہ اپنےنافرمانوں کو اپنا دوست سمجھے گا؟

صوفیہ نے یہ سمجھ لیا  ہے کہ دنیا سے مطلقاً  بھاگنا خدا پرستی ہے۔ہم سمجھتے ہیں کہ یہ صورت گناہ کی ہے۔مخالفوں کے درمیان کھڑا رہ کر اور جنگ کرکے فتح یاب ہونا بہادری ہے یا مخالفوں کے ڈر سے دور بھاگ جانا اور کہنا کہ میں دشمنوں سے جان بچا کر بھاگ آیا ہوں۔اس لیے میں بہادرہوں۔اب فرمایئے کہ بادشاہ کون سے سپاہی سے کہے گا کہ تو بہادر تیرے لیے انعام ہے پہلا شخص مسیحی ہے اور دوسرا صوفی ہے۔

۱۸ ۔فصل علم سینہ اور سفینہ کے بیان میں

لفظ  سفینہ کے معنی ہیں بیاض اشعار یعنی شعروں کی کتاب اور کشتی کور بھی سفینہ کہتے ہیں۔علمِ سفینہ بااصطلاح صوفیہ وہ علم ہے جو کتب میں مرقوم ہے۔اور اس سے محمدی شرع  کی کتابوں پر اشارہ ہوتا ہے۔

 علم سینہ ان کے گمان میں وہ باتیں ہیں جو محمد صاحب سے اور  صوفی بزرگوں سےسینہ بہ سینہ یعنی خفیہ تعلیم سے ان میں آئی ہیں۔ان باتوں کو وہ چھپا کر رکھتے ہیں۔اور خاص مریدوں کو سکھلاتے ہیں۔اور علم سفینہ کی نسبت اس علم سینہ کی بڑی عزت کرتے ہیں۔گویا اصل معرفت یہی ہے۔مراد یہ ہے کہ محمد صاحب کی عام اور علانیہ تعلیم تو قرآن و حدیث ہےاور خفیہ تعلیم  صوفیہ کے پاس پوشیدہ ہے۔

 نتیجہ یہ ہوا کہ حضرت نے دوطرح کی تعلیم دی ہےعلانیہ اور خفیہ۔علانیہ میں کچھ اور ہے خفیہ میں کچھ اور ہے۔اور یہ بات عدم صفائی اور فساد کی ہے دنیاوی مزاج لوگ جن کے دلوں میں اور  کاموںمیں  صفائی نہیں ہے۔وہ ایسے کام کرتے ہیں کہ خدا کے پیغمبروں نے ایسے کام نہیں کیے۔جو کچھ انہوں نے خدا سے پایاجہاں کے سامنےعلانیہ رکھ دیا تاکہ اہلِ دنیا ان باتوں کو پرکھیں۔مسیح خداوند نےصاف فرمایا کہ (یوحنا ۱۸۔۲۰)میں نے آشکارا عالم سے باتیں کیں۔میں نے ہمیشہ عبادت خانوں اور ہیکل میں جہاں سب یہودی جمع ہوتے ہیں تعلیم دی اور خفیہ کچھ نہیں کہا۔

 دیکھو یہ کیسی صفائی کی بات ہےاب کوئی مسیحی یہ نہیں کہ سکتا ہےمجھے  کچھ خفیہ تعلیم مسیح سے پہنچی ہے۔پھر یہ کیا بات ہے کہ محمد صاحب سے شرعی تعلیم علانیہ اور تصوفی تعلیم خفیہ ہوتی ہے۔اُسپر لطف کی  بات یہ ہے کہ جو کچھ صوفیہ کے پاس خفیہ تھا وہ سب ظاہر ہو گیا اور ان کی کتابوں میں مرقوم ہے۔پس وہ خفیہ اب خفیہ نہ رہااور ظاہر ہو گیا۔کہ اس میں بہت کچھ تعلیم علانیہ کے خلاف ہے۔اور دانش مند کے سامنے نہ اس علانیہ کا اعتباررہا نہ اس خفیہ کا بلکہ معلم کی چالاکی ثابت ہوئی اور نقادوں کو معلوم ہو گیا کہ نہ علانیہ میں زندگی ہے اور نہ خفیہ میں۔

 اس وقت شاید کوئی محمدی صاحب کہیں حضرت محمد صاحب نے خفیہ کچھ نہیں سکھلایا ہے۔صوفی لوگ حضرت پر تہمت لگاتے ہیں جو ان کی خفیہ تعلیم کے قائل ہیں۔اس لیے مجھے یہ بتلانا بھی  واجب ہے کہ حضرت میں کچھ خفیہ تعلیم کی عادت تو تھی  خلافت کا انتظام حضرت علی کے ساتھ تو خفیتہً  کچھ اور کیااور ابو بکر کے ساتھ کچھ اور کیا اور اس خفیہ بندو بست  سے کس قدر فساداور خون  ریزی اور امت میں تفرقہ پڑااگر آنحضرت اس خلافت کا انتظام صاف صاف قرآن میں کہہ دیتے تو کاہے کو وہ فساد ہوتے؟اور کیوں یہ سنی شعیہ بنتے؟دیکھو مسیح  نے پطرس کے حق میں صاف صاف کہہ دیا تھا(متی ۱۶: ۱۸سے ۲۰، یوحنا ۲۱: ۱۵ سے ۱۷ اور ۲۳) کہ تو میرے پیچھے ہولے صاف ظاہر ہے کہ اس وقت وہ کلیسیا کے انتظام کے لیے  مقررہو گیا اور سب حواری خاموشی سے اس کے پیچھے ہو لیے  ہیں۔محمد صاحب نے ایسانہیں کیا ۔بلکہ اس کو کچھ خفیہ کہہ کر فساد برپا کردیا میری اس سے  صرف یہ غرض ہے کہ خفیہ تعلیم کی عادت توتھی کیا تعجب ہے کہ تصوفی خیالات کی جڑ خفیہ سکھلائی ہو۔ 

۱۹ ۔ فصل بیعت یعنی پیری مریدی کے بیان میں

بیعت کی اصل یہ ہےکہ ۱۰ ہجری میں جب محمد صاحب مکہ میں آئے اور بت پرست قریشیوں کا غلبہ تھااور یہ غلط بات مشہور ہو گئی تھی  کہ عثمان قریش کے ہاتھ سے مارے گئے ہیں۔ تو حضرت نے ہمراہی مسلمانوں کو جمع کرکے اس ارادے سے کہ وہ بہاورانہ لڑیں گے۔ایک ایک کے ہاتھ پر ہاتھ رکھ کر گویا قسم لی تھی کہ وہ بے وفائی نہ کریں گےاس کا ذکر سورہ فتح کے پہلے رکوع میں ہے۔پیچھے یہ بیعت کادستور مسلمانوں میں جاری ہو گیا۔علمہ محمدیہ اور احکام اس کو عمل میں لانے لگے۔صوفیہ نے اس دستور کو اپنی طرف کھینچ لیااور پیری مریدی میں جاری کیا یہ عہد بندی کا دستور ہےجو دنیا کے اقوام میں اور شکلوں میں چلا آتا ہے۔

 بیعت لفظ بیع سے ہےفروخت کرنا  گویا وہ خود کو پیر کے ہاتھوں فروخت کرتے ہیں۔کہ بالکل تیری تابعداری کریں گے۔ہم مسیحی بھی مسیح کے ہاتھوں فروخت ہوئے ہیں۔اس قیمت پر جو اس نے ہماری جانوں  کے لیے اپنے کفارے میں دی ہے۔لیکن صوفی لوگ پیروں کے ہاتھو ں مفت فروخت ہوتے ہیں۔اور انہوں نے ان کے لیے کچھ نہیں کیا۔صرف اس امید پر کہ کوئی خفیہ تعلیم تصوف کی شاید  کبھی بتلائیں گے۔

 پیر یا شیخ بڈھاآدمی ہے جو پچاس برس سے گزر گیاہوا صطلاح صوفیہ میں پیر وہ آدمی ہے جو شریعت طریقت حقیقت کی باتوں میں پورا ماہر ہو اور جانوں کے امراض سے واقف اور شفا بخشنے پر قادر ہو۔اس اصطلاح کے موافق صوفیہ میں ایک پیر بھی نہ ملے گاتو یہی وہ فرض کرتے ہیں کہ فلاں شخص ایسا ہے کہ ایسا شخص تو صرف ایک ہےیعنی یسوع مسیح جو خدا کی مرضی سے کامل  واقف ہےاور ہماری جانوں کے امراض سے خبردار ہے اور شفا بخشنے پر قادر ہے۔

 قطب بختیارا دشی کاکی فرماتے ہیں کہ پیر وہ ہے کہ جو اپنی باطنی  نگاہ  کی قوت سے دنیا وغیرہ کا زنگار اپنےمرید کے دل پر سے دور کردے تاکہ کچھ قدرت وغیرہ نہ رہے۔

 سید محمد سینی گیسودراز کہتے ہیں کہ پیر وہ ہے جس کو کشف قبور و کشف ارواح  ہوا کرتاہو۔اور جس کی ملاقات ارواح انبیا سے ہوا کرتی ہواور افعال  صفات الہیہ کی تجلی اور ذات باری تعالیٰ ظہور حاصل ہو یہ سب باتیں صرف مسیح میں ہیں اور کسی میں نہیں مجمع السلوک میں لکھا ہے کہ پیر وہی ہے جو شرع پر مستقم ہو۔اور کچھ ہو نہ ہو شرع الہٰی پر کامل طور پر چلنے والا اور اس کو مکمل کرنے والاصرف یسوع مسیح ہےاور کوئی نہیں۔

اس لیے ہم مسیحی کسی پیر مرشد کی تلاشش میں ہرگز نہیں رہتےہم سب کا ایک ہی پیر مرشد ہے یعنی یسوع مسیح جو ہر جگہ حاضر و ناظر ہے۔اور قادر  خدا اور کامل انسان ہے۔ہمارے درمیان بعض ایسے بزرگ مسیحی بھی ہیں جو یقیناً خدا کے دوست ہیں۔اور ہر وقت خدا کی حضوری میں رہتے ہیں اور بابرکت ہیں۔ہم مسیحی ان کی عزت کرتے اور انہیں بزرگ سمجھتے ہیں اور ان کے نیک نمونے اور چال چلن  میں اور عبادات میں دیکھتے  اور سیکھتے ہیں۔اور ان کی تعلمات سے فائدہ اٹھاتے اوران کو  اپنے لیے خدا کی بڑی بخشش سمجھتے ہیں۔لیکن ہم کسی کو اپنا پیر و مرشد نہیں بناتے وہ اور ہم سب پیر بھائی ہیں کیونکہ اپنی روحوں کو سوائے مسیح خداوند کے کسی اور آدمی  کے ہاتھ میں  سوپنا عقلاً نقلاً ناجائز ہے۔

 پھر صوفی کہتے ہیں کہ مرید کو پیر کی نسبت اعتقاد میں مضبوط ہونا اور اطاعت بلا حجت کرنا چاہیے۔ورنہ کامیاب نہ ہو گا۔چنانچہ وہ کہتے کہ پیر من خس است و اعتقاد و من بس است یہ قول تجربہ اور عقل اور کلام اللہ کے خلاف ہے۔اگر خوبی صرف اعتقاد  میں ہے تو خوبی ہم میں ہوئی نہ کہ پیر میں کیونکہ اعتقاد ہمارا فعل ہے۔ہم خوب جانتے ہیں کہ خوبی صرف خدا میں ہے۔نہ کسی آدمی میں نہ کسی آدمی کے فعل میں۔ہاں اعتقاد گویا ایک ہاتھ ہے جو بھیک مانگنے کے لیے خدا کےآگے پھلایا جاتا ہے۔اگر ہم آگ کی نسبت اعتقاد کریں  کہ وہ سرد ہے۔یا سانپ کی مانند کہ کہ وہ گوگا پیر ہے۔تو یہاں سے کیا نکلتا ہے  جلنا اور بت پرستوں نے بتوں پر اعتقاد کرکے کیا نکالا یہ کہ خود پتھر ہو گئے۔پس اعتقاد نے ان کے لیے وہی چیز نکالی جو وہاں تھی صوفیہ نے مردوں اور قبروں پر ایمان باندھا وہاں سے کیا پایا؟یہ کہ دلوں میں زیادہ مردگی چھا گئی تمیزیں سن ہوگئیں۔

 ہاں اگر وہ زندہ خدا پر اور اس کے کلام پر بھروسہ یا اعتقاد کرتے اورتو زندگی اور روشنی روحوں میں آجاتی۔جیسے حقیقی مسیحیوں کے دلوں  میں آگئی ہے۔کیونکہ جس چیز پر دل ٹکتا ہے وہ اسی چیز کا اثر دل میں ہوتا ہے۔اور وہ جو کہتے ہیں کہ پیر کی اطاعت ہر امر  میں  بلا حجت کرنا چاہیےاور یہ شعر سناتے ہیں کہ

بمے سجادہ رنگین کن گرت پیر مغان گوید
کہ سالک بے خبر بنود زراو رسم منزلہا

 اس بارے میں ہم یوں کہتے ہیں کہ صرف پیغمبروں کی اطاعت بلاحجت فرض ہےکیونکہ وہ خدا کی طرف سے ہادی اور معلم ہیں۔سوائے پیغمبروں کے اورکسی کی اطاعت بلا سمجھے ناجائز ہے۔کسی پیر فقیر اور پنڈت اور مولوی اورکسی پادری کا یہ منصب نہیں ہے کہ اس کی اطاعت بلا حجت کی  جائے جب وہ کچھ کہے گا تو ہم سوچیں گے کہ خدا کے کلام کے موافق کہتا ہے کہ یا نہیں اگر نہیں تو اس کی ہرگز نہ مانیں گے کیو نکہ  ہم خدا کےفرمانبردار ہیں نہ کہ کسی  آدمی کےاور ہم نے خداسے بیعت کی ہے۔نہ کہ کسی پیر سے۔

۲۰ ۔فصل تصور شیخ کے بیان میں

سب صوفی اس بات کے قائل ہیں کہ تصورِشیخ ابتدا میں  مرید کے لیے ضرور ہےیعنی خیال کے وسیلے سے پیر جی کی صورت اپنے دل میں قائم  کرنا اور ایسا قائم کرنا کہ گویاوہی صورت اس کا معبود ہے۔اور یہ شعر سناتے ہیں کہ

چون دیدہ عقل آمد اَحول   معبود تو پیر تست اول

حضرت مجدد صاحب اپنی جلد ثانی کے ۳۱ مکتوب میں اور حضرت شاہ ولی اللہ محدث دہلوی اپنی کتاب قول جمیل میں اس کی تعلیم دیتے ہیں اور کتاب رشحات کی فصل اول مقصد دوئم رشحہ چہارم میں ایک آیت قرآنی یعنی سورہ توبہ کی ۱۱۹آیت     ( وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ )     کی تفسیر خواجہ احرار سےیوں منقول ہےکہ صادقین کے ساتھ ہونا دو معنی رکھتا ہے۔

 اول مجالست جسمانی۔دوئم باطنی تصورات پس دیکھو کہ یہ صوفی قرآن کے مطالب کو کس  ظلم اور زبردستی سے  اپنے مطلب پر کہنچتے ہیں با لکل  نیچریوں کی تفسیروں کی مانند یہ تفسیر ہے۔عقل اس تفسیر کو قبول نہیں کر سکتی۔ میں پوچھتا ہوں کہ اس تعلیم میں اور بت پرستی میں کیا فرق ہے؟ حضرت مرزا مظہر  جان جانان سے  کتاب معمولات  مظہر یہ میں منقول  ہے کہ نواب مکرم خان نے اپنے پیر خواجہ محمد  معصوم صاحب کی خدمت میں خط لکھا اور کہا کہ آپ کی محبت خدا و رسول کی محبت پر غالب آ گئی اور میں اس سے شرمندہ ہوں۔پیر صاحب نے جواب دیا کہ پیر کی محبت عین خداا و رسول کی محبت ہے۔اور پیر کے کمالات مرید میں آجاتے ہیں۔یہ تو سچ ہے کہ جب پیر معبود ہو گیا تو جوکچھ پیر میں ہےاس میں تاثیر کرے گا۔جیسے بت پرستی سے سنگدلی  اور خدا پرستی سے زندگی حاصل ہوتی ہے۔لیکن پیر صاحب میں کیا ہے صرف ہمہ اوست کا خیال ہےکہ  ویسے ہی یہ ہو جائیں گے۔ہم جانتے ہیں یہ سب بدعتی لوگ خدا اور انسان کے درمیان بعض جسمانی وسائل قائم کرتے ہیں۔لیکن خدا کے کلام میں صاف لکھا ہے کہ خداایسے پرستاروں کو چاہتا ہے کہ جو روح اورراستی سے پرستش کرتے ہیں۔مگر یہ تصور شیخ کی وہی بات ہے کہ ہے جیسے بت پرست لوگ بت کو اپنے اور حقیقی خدا کےدرمیان قائم کرتے ہیں۔

۲۱ ۔فصل نفی اثبات کےبیان میں

دوسری تعلیم جو پیر لوگ مرید کو کرتے ہیں نفی اثبات کا ذکر ہے یعنی لاالہ الااللہ کا ذکر لا الہ میں نفی ہے اور الا اللہ میں اثبات ہے۔

طریقہ اس کا یوں بتلاتے ہیں کہ آدمی وضو کرکے رو بکعبہ چار زانو یا دو زانو بیٹھے اور آنکھیں بند کرکے صنوبری قلب کی طرف متوجہ ہو اور سانس کو ناف  کے نیچے بند کرکے لفظ لا کو ناف سے دماغ کی طرف سانس میں کھینچے  اور وہاں سے لفظ الہ کو دہنے کولہے کی طرف لائےپھر یہاں سے لفظ الہ اللہ  کو سانس کے زور کے ساتھ دل کے گوشت پر ایسا زور سے مارے کہ سارے بدن میں صدمہ پہنچے۔اگر آواز ہوں ہوں کی نکلے تو ذکر جہری جو قادریوں کا دستور ہےہوگیااور جو آواز مطلق نہ نکلے تو ذکر خفی نقشبندیہ کا طور ہےاور یہ ضرب کہلاتی ہے۔اسی طرح جس قدر چاہے دل پر ضربیں لگائے۔

مگر یہ ضرور ہے کہ لفظ لا الہ میں کل محدثات کی نفی کا اور لفظ لاالہ میں اثبات ذات حق کا خیال پختہ رہے یعنی جہاں کی سب چیزیں نیست ہیں صرف خدا موجود ہے۔

صوفی لوگ ابتدا میں اس ذکر کی خوب مشق کرتے ہیں اور خاص وقت پر اکھٹے ہوکر اکثر ایسا کام کرتےہیں اور ہر وقت چلتے پھرتے سانس میں یہ ذکر چلا جاتا ہے۔اور اس میں مشتاق ہوجاتے ہیں اور امید رکھتے ہیں کہ دل میں اس سے کچھ نور چمکےگالیکن کبھی کچھ نہیں چمکتا۔

یہ ہمہ اوست کے خیال کی ابتدا ئی  مشق ہے۔اور یہ محمد صاحب کی تعلیم نہیں ہے۔بلکہ محمد صاحب کی مراد کے خلاف ہےفقرہ لالہ الاللہ میں محمد صاحب نے غیر معبودوں کی نفی کرکے باری تعالیٰ کے وجودِحق کا اثبات  کیا ہے۔جو ایک دفعہ سمجھ لینا کافی ہے۔صوفیہ نے زیادتی کرکے لااللہ میں کل محدثات میں نفی  اقرار دی ہے۔پس غیر معبودوں  کی نفی کو کل محدثات  کی نفی اقرار  دینا محمد صاحب کی مراد کے خلاف ہےاور عقل کے بھی خلاف ہے بلکہ کفرہے۔

 اور اس سےفائدہ کیا ہوتا ہے؟کثرت ضربات دل کمزور اور ناتواں ہو جاتا ہے۔بلکہ بعض اوقات دلی بیماریاں لا علاج  پیدا ہوجاتی ہیں۔اوراس سے جنون بھی ہوتا ہے۔جس کو وہ لوگ جذبہ الہٰی سمجھتے ہیں۔یہ جذبہ الہٰی نہیں  ہےاور نہ اس میں کلمہ کی کچھ تاثیر ہے۔یہ تو صرف سانس کے رگڑوں کی تاثیر ہےجو حرارت پیدا کرتی ہے۔اگر کلمہ کو درمیان سے نکال کر بے معنی جلد جلد بزور سانس لیں تو بھی وہی کیفیت پیدا ہوتی ہےکیونکہ یہ برقی حرارت ہے جو سب جسموں میں موجود ہےاور رگڑ سے محسوس ہوتی ہے۔

 اوراس سے وجد بھی آتا ہے جب کہ صوفی صاحب کسی قبر پر بیٹھ کر اندر ہی اندر ضربات خفیہ کی حرارت پیدا کرتے اور اوپر سے ڈھولک کی تان اور راگ کا لطف اور قوالوں کی ٹپاٹپ تالیاں تاثیر کرتی ہیں تب وہ کودنے لگتے  ہیں اور لوگ سمجھتے ہیں کہ ان کے دل میں کچھ ظاہر ہوا ہے۔پس یہ نفی اثبات کچھ پسند کے لائق چیز نہیں ہے۔ہم صرف ایمان کی آنکھ سے سچے  خدا کی طرف دیکھتے ہیں اور اس سےہمارے دلوں میں الہٰی محبت جوش مارتی ہے۔تب ہم سب نیک کاموں کے لیے مستعد ہوتے ہیں نہ کہ کودنے کے لیے۔ 

۲۲ ۔فصل حبس کے بیان میں

تیسری تعلیم صوفیہ کی حبس ہے۔ جب وہ دیکھتے ہیں نفی اثبات کے ذکر سے دماغ میں خلل نہیں آیا تب حبس یعنی سانس گھوٹنے کی تعلیم دیتے ہیں۔

طریقہ اس کا یہ ہے کہ خلوت میں اکیلا دو زانوں میں بیٹھے اور دونوں ہاتھوں کے دونوں انگوٹھوں سے کانوں کے دونوں سوراخ بند کرکے  اور انگوٹھوں کے پاس والی دونوں انگلیوں سے دونوں آنکھیں بند کرے اور درمیانی دو انگلیوں سےدونوں سوراخ ناک کے دباکر بند کرے پھر دو انگلیوں سے اوپر کے ہونٹ اور دو سے نیچے کے ہونٹ خوب دباکر بند کرےایسا کہ سانس لینے کی جگہ کہیں نہ رہےاس وقت خیال میں گدی کی طرف متوجہ ہو کیونکہ روح ان کے گمان وہاں رہتی ہے۔اور اب جو ہوا سانس کے اندر بند ہو گئی ہےاس سے ذکر نفی اثبات کا دل میں جاری کرے جب تنگ ہو کے جان اندر سے گھبرائے تو ہاتھ ہٹا کر سانس لینا چاہیےپھر اسی طرح بند کر لینا ۔ہر روز ایسا کرنے سے سانس گھوٹنے کی عادت بڑھتی جائے گی۔یہاں تک کہ دیر دتک سانس گھونٹا کرے گا۔یہ ایسی مشقت ہے کہ ایامِ سرما میں عرق آجاتاہےاور رگوں اور پٹھوں میں تشنج اور عضا رئیسہ کے فطری کام میں خلل آتا ہے اور اس خلل کو وہ الٰہی جذبہ سمجھتے ہیں۔یہ تعلیم ہند و جوگیوں سے صوفیوں نے اڑائی ہےاور محمدی کا کلمہ کا ذکر اس میں اپنی طرف سے ملا دیا ہے۔اورجو کچھ اس سے بدن پر تاثیر ہوتی ہےوہ اس کو کلمہ کی تاثیر سمجھتے ہیں حالانکہ وہ مشقت کی تاثیر ہے اور دیوانگی کی جسمانی  تاثیر ہے وہ فضلِ الٰہی کا اثر نہیں ہے۔بعض محمدی اس طریقہ حبس کو بدعت کہتے ہیں لیکن صوفی نہیں مانتے کیونکہ ان کا اس سےبڑا مطلب نکلتا ہےمرید کی عقل مارکر جلد اسےولی بناتے ہیں۔افسوس یہ ہے کہ یہ لوگ خدا کے کلام کے پاس نہیں آتے نہ خدا کی راہوں  کو دریافت کرتے ہیں۔فقیروں کے  بہکائے ہوئے اِدھر اُدھر بے فائدہ مشقت کھینچتے  پھرتے ہیں اور دماغی خلل حاصل کرکے سمجھتے ہیں کہ ہم خدا سے ملیں گے۔خدا کیا ہے؟اور اس سے کیونکر مل سکتے ہیں؟ اور اس سے مل کراس دنیا میں  ہمیں کیا حاصل ہوتا ہے؟اور کیسی امید آئندہ کے لیے  ہوجاتی ہے؟ان باتوں کو انہوں نےا ب تک دریافت نہیں کیا۔

یاد رکھو  کہ سانس کی  رگڑوں سےاور دم گھوٹنے سے اور کسی جسمانی زور سے خدا نہیں ملتا ۔پاک اور صحیح ایمان  کی قلبی توجہ سے وہ ملتا ہےیہ بابئل کا طریقہ ہے۔

۲۳ ۔فصل روزوں اور شب داریوں کے بیان میں۔

روزے اور شب داریاں بجائے خود قربتِ الٰہی کے لیے مفید اور خاص قسم کی عبادات تو ہیں اور اس سےفائدہ تو ہوتا ہے۔اس آدمی کو جو فی حقیقت خدا کا طالب ہے اورسچے ایمان سےخدا کے حضور میں چلتا پھرتا ہے۔روزوں اور شب داریوں کے ساتھ جب سچی طلب اور سچا ایمان نہ ہو تو ان سے صرف جسمانی دکھ حاصل ہوتا ہے۔بعض صوفی صایم الدہر بنتے ہیں یعنی سال بھر برابر خفیہ روزہ رکھتے ہیں محمدی فقہ کے امام کہتے ہیں کہ یہ کام منع ہےمحمد صاحب نے صایم الدھر ہونے سے حدیث میں منع کیا ہے۔صوفی کہتے ہیں کہ ہم عیدیں اور تشریق من روزہ نہیں رکھتے اس لیے اس لیے ہم صایم الدہر نہیں ہیں۔اور وہ شب داریاں بھی کرتے ہیں اور بعض ان میں ایسے ہیں کہ جو خفیتہً  کہ کوئی نہ جانے ساری ساری رات جاگتے کبھی آسمان کو تکتے کبھی ٹہلتے کبھی دیوار سے کمر ٹکا کر بیٹھ جاتے  کبھی کبھی ساری رات کسی قبر پر بیٹھ کر اس مردہ خاک شدہ کی منت کرتےہیں کہ ہمیں بھی کچھ نعمت دے۔اگر حقیقی روزے اور حقیقی شب داریاں ہوتیں تو ضرور تقرب الٰہی ہوتا مگر وہ تو کچھ دیوانگی کی حرکتیں دکھاتے ہیں۔اس لیے ان کی شب داریوں میں سوائے نیند کی بربادی کے سبب مزاج میں خلل آتاہےصبح کو آنکھیں سرخ نظر آتی ہی۔دل کہتا ہے کہ ہم نے رات بھر خدا کی عبادت کی ہے۔ سبحان اللہ ہم کیا خوب آدمی ہیں اب ہم کوئی دن میں ولی ہوتے ہیں اور جب ہم صاحبِ تایثر ہو جائیں گے۔فلاں فلاں مخالف کا بد عا ستیاناس کردیں گے۔ہائے افسوس یہ شیطان جو ایک بدروح ہے۔انسان کے کان میں کیسا پھس پھساتا رہتا  ہےاور نیک آدمیوں کے سب اعمال حسنہ کو  جو وہ گر پڑکے کچھ کرتے بھی ہیں یہ برباد کردیتا ہے۔ریااور فخر اور ناپاک امیدیں اور طرح طرح کے بد منصوبے لے کر ہر عابد زاہد بلکہ حقیقی خدا پرست کے پاس  بھی جاتا ہے۔اور اس کی مٹی خراب کرتا ہےوہ جس کا بھروسہ اعمال پر ہے۔ہمیشہ شرمسار اور ناامید رہتا ہے۔اور فی الواقع  آخر کو شرمندہ ہو گااگر خدا صادق القول ہے۔

 مگر وہ مسیحی جس کا بھروسہ صرف مسیح پر ہے اعمال حسنہ کی بربادی اپنی طرف سے اور شیطان کی طرف سے جب دیکھتا ہے اور جب بڑا زور مارکر نیکی کرتا ہے اور دیکھتا ہے کہ اس میں بھی نقصان رہا تو کہتا ہے کہ سچ ہے کہ میں اعمال سے  نہیں بچ سکتا مجھے یسوع مسیح کی بڑی ضرورت ہے۔

حاصل کلام یہ ہے روزے اور شب داریاں وغیرہ عبادات اگرچہ زمانہ گزشتہ کے بزرگوں کے اطوار ہیں اور مفید بھی ہیں۔مگر باطل خیالات کے ساتھ ان سے کیا ہوسکتا ہےصرف یہ کہ روزوں سے قوت بدنی میں خلل آئے اور معدہ ضعیف ہو اور شب داریوں کی کثرت سے دماغ میں خلل اور پٹھوں میں ہل چل ہو اور اس کے اوپر سانس کی رگڑوں سے دل ضعیف ہو جائے اور حبس کی تاثیر سے مزاج بدل جائے اور یوں یہ ساری حرکتیں مل کر اسے دیوانہ سا بنا دیں اور وہ ولی سمجھا جائے ۔

ان حرکتو ں سے  بعض بشدت دیوانے ہو جاتے ہیں۔دو تین شریف زادوں کے نام مجھے معلوم ہیں جوکہ انہیں حرکتوں سےپاگل ہوگئے۔اور وہ مجذوب سمجھے جاتے  ہیں۔بعض میں قدرے دیوانگی آتی ہےان کو سالک مجذوب کہتے ہیں۔

پس ان باتوں کے سوا جن کا اوپر ذکر ہوا صوفیہ کے پاس اور کچھ نہیں ہے صرف یہی ان کی اصولی باتیں ہیں۔اب ناظرین انصاف سے کہیں کہ یہ ان کے طریقے خدا سے ملنے کے ہیں یا دیوانگی سے ملاقات کرنے کے  ہیں؟ 

۲۴ ۔فصل چلہ کشی کے بیان میں

صوفی لوگ  کبھی کبھی چلہ کشی بھی کرتے ہیں یعنی چالیس دن تک بظاہر دنیا سے الگ ہو کر کسی اپنے خاص طور کے ساتھ کوئی وظیفہ پڑھتے ہیں اور سمجھتے ہیں کہ اس وظیفہ کی زکواۃ دے کر اسے اپنے قابوں میں لائیں گئے۔ 

  اور اس چلہ کشی  کے لیےموسیٰ کا چالیس دن تک پہاڑ پر رہنا اور خداوند مسیح کا دن رات کا روزہ اور جنگل میں رہنا اور محمد صاحب کا غارِ حرا میں  رہنا بطور سند کے پیش کرتے ہیں۔

 میں اس بارے میں یوں کہتا ہوں کہ البتہ کبھی کبھی اکیلا ہو کر خدا سے رفاقت کرنا اور دعا کے وسیلے سے ہم کلام ہونا کلام اللہ کے مطابق بزرگوں کاشیوا ہوا ہے لیکن اس پاک اصل کو پکڑ کر صوفیہ کے طور میں لانا اور قصیدہ غوثیہ یا حزب البحر وغیرہ کی فرضی زکواۃ میں وقت برباد کرنا کلام اللہ کے مناسب نہیں ہے اوراس سے روحانی فائدہ کچھ نہیں ہوتا۔

 جس قدر بزرگ صوفی میری اس تحریر کو پڑھیں گے میں ان سے یوں عرض کرتا ہوں کہ آپ لوگوں نے ضرور کچھ چلے بھی کیے ہوں گے۔ خدا کے سامنے اپنی  اپنی تمیزوں کو جواب دوکہ تم نے چلوں کے وسیلے سے کیا پایا ہے؟صرف یہ کہ مریدوں  نے اورآس پاس کے جاہل لوگوں نے آپ کو بزرگ پیر سمجھا اور آپ کی د نیاوی دکانداری  کی آمدگرم ہو گئی۔بعض خانقاہوں کی طرف دیکھو کہ وہ سجادہ نشین جنہیں تم جانتے ہو کہ زنا کار اور شراب خور  اور رشوت دوست اورپورے دنیا دار ہیں۔جب کہ ان کے دادا صاحب کا عرس نزدیک آتا ہے چلہ کرتے ہیں۔کسی مکان میں الگ ہو بیٹھتے ہیں۔صرف ہم راز وہاں آتے جاتے ہیں۔تسبیح ہاتھ میں اور حقہ میں رہتا ہے۔اور دل میں یہ خیال رہتا ہے کہ اس عرس میں کتنی آمد اور خرچ کیا ہو گا۔پھرعرس کے دن چلہ سے باہر آتے ہیں اور عوام الناس پیر پوجنے کو باہر کھڑے رہتےہیں اور بڑی دھوم مچتی ہے کہ حضرت پیر جی صاحب چلہ میں سے باہر آتے ہیں۔فوراً ان کو ہاتھ لگا کر آنکھوں کو لگانا چاہیےوہ برکتوں سے بھرے ہوئے باہر آتے ہیں۔

 اور بعض وہ صوفی ہیں  ایسے نہیں مگر مثلِ ہندو جوگیوں کے جنگلوں میں سے چلےاور ریاضتیں کرتے ہیں۔کیا تمہارا دلی انصاف کہتا ہے کہ انکے یہ افعال اور خیالات پیغمبروں کے کاموں کے برابر  ہیں؟صرف لفظ چلہ تو وہاں سےلیااور جو کچھ اس میں ہوتا ہےوہ بت پرستوں سے  لیکر اس میں داخل کیا۔ پھر کہتے  کہ جیسے پیغمبروں نے کیا ہم ویسے کرتے ہیں۔کیا تمہارے دلوں میں خدا  کا خوف نہیں ہے۔یہ تو وہی بات ہوئی کہ جسم انسان اور روح شیطان کی۔

 اب میں  تمہیں ایک پاک چلہ کا طریقہ بتلاتا ہوں جیسے سچے بندگان ِ خدا نے  بھی کیا ہے ۔اگر اس کو عمل میں لا ؤ تو دیکھنا کہ کیسی برکت اللہ سے پاؤ گے۔چالیس روز تک ہر روز ایک آدھا گھنٹہ پاک نیت سے خفیتہً خلوت میں جا کر خدا سے جو حاضر وناظر ہے۔اپنی اردوو زبان میں بات کیا کرواور اس سے کہو کہ اے ہمارے خالق مالک ہم گناہگاروں پر رحم کرہمارے گناہوں کو معاف کردے ہمیں اپنی راہ راست دکھا۔سب رکاٹوں کو جو تیرے پاس آنے سے روکتی ہیں۔دفع کر ہمیں  اپنا  خاص بندہ بنا لے وغیرہ ۔جہاں تک چاہوں باتیں کرو ۔لیکن اس چلہ کے ساتھ کچھ پرہیز  بھی درکار ہے۔نہ صرف چالیس دنوں تک بلکہ ساری عمر بھر اور وہ یہ ہے کہ خدا کے ان دس حکموں پر بہت  لحاظ رہے۔جوکتاب خروج کے ۲۰ باب میں مرقوم ہیں اور خدا تعالیٰ نے اپنی قدرت کی انگلی سےایک لوح پر  لکھ کر موسیٰ کو دئیے تھے۔بلکہ ہرایک تمیز دار انسان کی روح میں وہ خداکی طرف سے جلوہ گر ہیں اور محمدی شریعت کے موافق بھی ہیں وہ یہ ہیں۔

  •   تو میرے سوا کسی اور خدا نہ جاننا۔پس ہمہ اوست کو چھوڑنا ۔
  •   کسی مورت کی پوجا نہ کرنا۔پس قبر پرستی اور  پیر پرستی مطلق چھوڑنا ۔
  •   خدا کا نام بے جا نہ لینا۔پس اللہ اللہ کرکے اور ہو حق بک بک نہ کرنا چاہیے۔
  •   سبت کو ماننا۔ یہودی لوگ ہفتے کے دن کوسبت مانتے تھے۔مسیحی اتوار کو سبت مانتے ہیں۔محمدی لوگ جمعہ کو عزت دیتے ہیں۔لیکن وہ بھی مسیح کی صلیبی موت کا دن ہے۔
  •   والدین کی عزت کرنا۔تعظیم اور خدمت اور اطاعت واجبہ سے ناکہ غیر واجبہ سے۔
  •   خون نہ کرنا۔یہ تو خواہ مخواہ ہی مانوں گے کیونکہ خونی کو سرکار پھانسی دیتی ہےلیکن دل میں بھی کسی کی خون ریزی کا خیال نہ کرنا
  •   زنانہ کرنا۔اس گناہ کے سبب سے بڑی لعنتیں خدا سے آتی ہیں۔اور خانہ خرابیاں ہوتی ہیں۔
  •   چوری نہ کرنا۔خدا کو سب کچھ معلوم ہےاس سے ڈر کر ایسا کام ہرگز نہ کرنا۔
  •   جھوٹی گواہی نہ دینا۔نہ صرف کچہری میں درمیان کسی مقدمہ کے مگر پیروں اور قبروں کی نسبت جھوٹی کرامتیں سنانا بھی جھوٹی گواہی ہے۔
  •   غیر کی چیز کا لالچ کرنا۔اپنے حصے پر قناعت چاہیئے پس اس پرہیز گاری کے ساتھ چلہ کشی مفید ہو گی۔

۲۵ ۔فصل صوفیہ کے وردوظائف کے بیان  میں

صوفیوں کے پاس بہت ورد وظائف ہیں جو کہ ان کے بزرگوں نے انہیں بتلائیں ہیں بعض کوئی درود پڑھتے ہیں بعض کسی قرآنی سورۃکا ورد پڑھتے ہیں۔بعض کوئی حزب البحریاقصیدہ غوثیہ وغیرہ کااستعمال کرتے ہیں۔لیکن کوئی  نہ کوئی مختصر عربی فقرہ عربی کا یہ سب لوگ ہر وقت پڑھنے کے لیے پیروں سے پہنچا ہوا۔ضرور وردِ زبان رکھتے ہیں۔اور سمجھتے ہیں کہ ان عبارتوں کے پڑھنے سے الٰہی برکت آتی ہے۔یہ طریقہ قدیم پرستوں کا اور اس سے کچھ فائدہ نہیں ہوتاصرف وقت ضائع اور دماغ خالی ہوتا ہے۔اور بے فائدہ بک بک میں یہ سب وظائف داخل ہیں۔مسیح نے ہمیں ان کاموں سے منع کیا ہے۔اور فرمایا ہے کہ غیر لوگ سمجھتے ہیں کہ ان کی زیادہ گوئی سے ان کی سنی جائے گی لیکن تم مسیحی ایسے کام نہ کرویہ خدا کے سامنے بک بک ہےصحیح طریقہ ہے کہ کلام اللہ میں غور اور فکر کرکے خدا کی راہوں کو دریافت کرنا اور اپنی انسانی راہوں سےاس کا مقابلہ کرکے ہر روز برائی سے الگ اوربھلائی سے میل پیدا کرتے جانا یہ حقیقی وظیفہ خوانی ہے۔ناکہ ہزار دفعہ ہر روز بد ہوُ یا بد ہوَ کہنا جیسے سید میران بھیک کے مرید کرتے ہیں وغیرہ وغیرہ۔

۲۶ ۔فصل۔نقشبندیہ کی بعض اصطلاحات کے بیان میں۔

 ان لوگوں کے پاس گیارہ لفظ ایسےعمدہ ہیں جن کے سنانے سے وہ سادہ لو حوں  کے دلوں کو اپنی طرف خوب کھینچتے ہیں کیونکہ لوگ سمجھتے ہیں کہ جس آدمی میں یہ گیارہ باتیں ہوںوہ تو  ضرور ولی اللہ ہوں گے۔وہ گیارہ لفظ یہ ہیں۔

 وقوف قلبی وقوف زمانی وقوف عددی ہوش دروم نظر برقزم۔سفر دروطن۔خلوت درانجمن۔یاد کرد باز گشت۔نگاہ داشت۔یاداشت۔

وقوف قلبی یہ ہے کہ ذکر کے مفہوم سےذاکر کا قلب آگاہ رہے۔

میں کہتا ہوں کہ ضربوں کی دہمادم میں ذکر کا مفہوم ایسا گم ہوتا ہے کہ سوا جسمانی رگڑوں کے اور کچھ  نظر نہیں آتاپھر ذکر ہوتا ہے۔لاالہ الااللہ کا جس کا مفہوم یہ ہے کہ سب جھوٹے معبود باطل ہیں خدا سچا معبود برحق ہےصوفیہ نے اس کا مفہوم ہمہ اوست نکالا ہے۔جو لفظوں سےکچھ تعلق نہیں رکھتاپھر وہ کیونکر لفظوں سے چسپاں رہ سکتاہے۔

 میں سمجھتا ہوں کہ وقوف قلبی یہ ہے کہ دل ہر وقت خدا کی حضوری میں رہےذکر ہو یا نہ ہو اور یہ برکت ہم مسیحیوں کو بافضلِ مسیح بلامشقت خوب حاصل ہےکیونکہ اس نے جس کے ہم مرید ہیں ہمارے دلوں میں خدا کی محبت  کو جاری کردیا ہے۔

وقوف زمانی یہ ہے کہ صوفی اپنے حال سے آگاہ رہے۔کہ اس کا ہروقت اطاعت میں گزرتا ہےیا معصیت میں۔یہ کیسی بات ہے جب کہ صوفی ہمہ اوست کا قائل ہے۔اور فاعل ہر فعل کاخدا کو مانتا ہے۔اورو حدت الوجود میں غرق ہے۔پھر اطاعت اور مصیبت کیا چیز ہے۔کیا وہ ایمان لاتا ہے کہ میں فعل مختار انسان ہوں اور بدی مجھ سے ہوتی ہے نہ کہ خدا سےاگر وہ ایسا مانتا ہے تو صوفی نہیں ہے۔پھر ذکر کا فرضی مفہوم اس کے پاس کہاں ہے۔سچاو قوف زمانے سچے مسیحیوں سے ہوتا ہے۔کہ وہ ہر وقت اپنا حساب آپ لیتے رہتے ہیں۔

 وقوف عددی اس کو کہتے ہیں کہ نفی اثبات کا ذکر برعایت طاق ہوا کرے جفت نہ رہے یعنی ۲۰ نر ہے اکیس بارو غیرہ ہوجائے تاکہ جفت جفت الگ کرکے آخر کو تین جو طاق ہیں باقی رہیں۔کیونکہ وہ سمجھتے ہیں کہ ان اللہ وتر یحب الوتر۔اللہ طاق ہے اور طاق کو پیار کرتا ہے۔

مشکوۃ شریف ۔ جلد دوم ۔ اللہ تعالیٰ کے ناموں کا بیان ۔ حدیث ۸۰۸

اسماء باری تعالیٰ کو یاد کرنے کے لئے بشارت

راوی:

عن أبي هريرة رضي الله عنه قال : قال رسول الله صلى الله عليه و سلم : " إن لله تعالى تسعة وتسعين اسما مائة إلا واحدا من أحصاها دخل الجنة " . وفي رواية : " وهو وتر يحب الوتر "

حضرت ابوہریرہ رضی اللہ تعالیٰ عنہ راوی ہیں کہ رسول کریم صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم نے فرمایا اللہ تعالیٰ کے ننانوے نام ہیں یعنی ایک کم سو جس شخص نے ان ناموں کو یاد کیا وہ ابتدا ہی میں بغیر عذاب کے جنت میں داخل ہو گا۔ ایک روایت میں یہ بھی ہے کہ اللہ تعالیٰ طاق ہے اور طاق کو پسند کرتا ہے۔ (بخاری ومسلم)

یہ حدیث ہے محمد صاحب کی اور یہ مقام صوفیوں اور مسلمانوں اور مسیحیوں کے لیے فکر کا ہےکیونکہ اس میں محمد صاحب گواہی دیتے ہیں کہ اللہ طاق ہے۔محمدی صوفیوں کو چاہیئے کہ لفظ طاق کا بیان کریں کہ کیا ہے؟کیو نکہ مجرد واحد  تو طاق نہیں ہوسکتا۔اوریہ  حدیث معتبر حدیثیوں میں سے ہے۔اورسب اہلِ ہندسہ جانتے ہیں کہ ایک کا عدد نہ طاق  ہےنہ جفت دو جفت ہے اور تین طاق ہےاورتمام محمدی فلاسفر کہتے ہیں کہ  عدادنیٰ نام ہےتین کا  جس کو انگریزی کالم پرائم نمبر کہتے ہیں۔ اور ہم مسیحی بہدایت کلام  اللہ تعالیٰ کو طاق یعنی تثلیث سمجھتے ہیں۔اور یہ بھی سچ ہے کہ خدا طاق سے پیار کرتا ہے۔کیونکہ اس کی ذات پاک کواس سے مناسبت ہے۔اور یہی سبب ہے کہ اس کی حمد میں آسمان پر فرشتگان عدد طاق کی رعایت رکھتے ہیں۔ اور کہتے ہیں کہ قدوس قدوس قدوس رب الافواج۔

 صوفی کہتے ہیں کہ ذکر میں عدد طاق کی رعایت رہے تاکہ خدا اس کو پسند کرے۔ہم کہتے ہیں کہ ذات پاک میں بھی طاق کی رعایت رہےپس ہمارا وقوف عددی کامل ہے ناکہ ان کا انہوں نے ان اللہ وتر کو تو چھوڑ دیاجو اصلی بات تھی اوراس کی جگہ میں ہمہ اوست رکھ  دیا۔لیکن یحب الوتر عمل کرنا چاہتے ہیں۔اخیر اینہم غنیمت است اس مقام کوکئی بار  غورسے پڑھواور اس کا مطلب حفظ کرلو۔

 ہوش دروم کے معنی یہ ہیں کہ صوفی ہر سانس سے آگاہ رہے کہ وہ غفلت میں نہ گزرے۔یہ بات محال ہے  جو ہو نہیں سکتی کیونکہ غفلت جسم کا خاصہ ہے۔دیکھو خود محمد صاحب کیا فرماتے ہیں؟

مشکوۃ شریف ۔ جلد دوم ۔ استغفار وتوبہ کا بیان ۔ حدیث ۸۵۷

آنحضرت صلی اللہ علیہ وسلم کی توبہ و استغفار

راوی:

وعن الأغر المزني رضي الله عنه قال : قال رسول الله صلى الله عليه و سلم : " إنه ليغان على قلبي وإني لأستغفر الله في اليوم مائة مرة " . رواه مسلم

حضرت اغر مزنی رضی اللہ تعالیٰ عنہ کہتے ہیں کہ رسول کریم صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم نے فرمایا یہ بات ہے کہ میرے دل پر پردہ ڈالا جاتا ہے اور میں دن میں سو مرتبہ اللہ تعالیٰ سے استغفار کرتا ہوں۔ (مسلم)

(انہ لیغانُ علی قلبی)میرے دل پر غفلت کا پردہ آجاتا ہے۔بندے نے اس حدیث کا بیان تعلیمِ میں مفصل لکھ دیا ہے۔اگر خوب سمجھنا چاہوتو وہاں دیکھو۔

 نظر برقدم یہ ہے کہ جب صوفی کہیں اٹھ کر جائے  تو اس کی نظر پیر کی پشت پر رہے تاکہ متفرق چیزوں کو دیکھنے سے طبیعت پراگندہ نہ ہواور نظر بے جا نہ ہو جائے۔پس اس بات کو پسند نہیں کرنا چاہیےکہ سب چیزوں کو جو دنیا میں ہیں دیکھیں۔خدا نے آنکھیں اسی لیے دی ہیں کہ ہم اس  جہان کی چیزوں کو دیکھیں اگر ہم اللہ کے لوگ ہیں اور خدا ہمارا دوست ہو کر ہمارے ساتھ ہےتو ہم ضرور نیک نظر رہیں گے۔اگر خدا ہمارے ساتھ نہیں ہےاور زبر دستی اس کی حضوری کو اپنے خیال میں رکھتے ہیں۔تواس بناوٹ سے ہم کہاں تک نیک رہیں گے۔خواہ نظر بر قدم ہوں۔خواہ بر فلک بد خیالات ضرور دل میں پیدا  ہوں گے۔

 سفر در وطن۔یہ ہے کہ صفات بشریہ سے نکل کر صفات ملکیہ میں جاناصوفی لوگ توہمات میں مبتلا ہیں ہم کیونکر یقین کریں۔کہ وہ صفات بشریہ سے نکل کرصفات ملکیہ میں جایا  کرتے ہیں۔یہ ہم مانتے ہیں کہ جب  قیامت کے دن مومنین نئے بدن میں ہو کر مسیح میں اٹھیں گے۔تب فرشتوں کی مانند ہوں گے۔فی الحال کبھی ایسا وقت بھی آ جاتا ہے کہ خدا کی حضوری کےآثارزیادہ دلوں میں ظاہر ہوتے ہیں۔اس وقت عجیب خوشی اور جلال کا سایہ دلوں میں محسوس ہوتا ہےاور حمد و ثنا کا لطف آتا ہے جو کہ بیان سے باہر ہے۔میرے گمان میں سفر دروطن یہ ہے کہ کہ آدمی ہمیشہ قدوسیت میں ترقی کرے۔اور جسمانی بد خواہشوں میں سے نکلتا رہےگویا وہ اپنے وطن کےقریب آتا جاتا ہےاور اپنی روح میں آسمانی مسافر ہےجب سفر تمام ہو گا۔تب وطن میں جا پہنچے گا۔ہاں یہ کیفیت ہمارے تجربے میں آ چکی ہےاس لیے ہم اس کے مقر ہیں۔مگر یہ بخشش صرف مسیحی ایماندار کو حاصل ہوتی ہے۔جب کہ وہ خداوند مسیح کا پیرو ہے سوائے مسیحی کے ہو نہیں سکتا کہ کبھی کسی کو حاصل ہو۔

 خلوت در انجمن۔ اس کے معنی ہیں کہ بظاہر جماعت میں اور باطن خدا کے ساتھ رہنا یہ دلی حضوری کا بیان ہے۔جو کہ بہت سے مسیحیوں کو  مسیح کے فضل سے حاصل ہے۔صوفیہ کو اگر کچھ حاصل ہوا بھی تو یہی ہو گاکہ وہ جماعت میں بیٹھا ہے۔اور دل میں اس کے ہمہ اوست ہے۔جو خدا  نہیں ہےایسی خدا کی حضوری سے کیا فائدہ ہے کیونکہ اگر ہمہ اوست کا خیال صحیح ہو  تو خلوت درانجمن تحصیل حاصل ہے۔

 یادکرو۔یہ ہے کہ غفلت کو بکوشش دور کرنا ۔غفلت سے  کیامراد ہے؟اگر غفلت فی الاحکام مراد ہے توفرض ہے کہ وہ غفلت بکوشش دور کی جائےاور ہم بھی اس بات میں اتفاق رکھتے ہیں۔مگر صوفیہ کی مراد یہی معلوم ہوتی ہےکہ خدا کی یاد میں اگر غفلت آئے تو بکوشش دور کرنی چاہیے۔خدا موجود ہے۔یہ خیال تو ایک  ایسا بدیہی ہے کہ ہر حال میں آدمی کو یاد رہتا ہے۔لیکن ہمہ اوست کا خیال جو باتکلف ذہن میں جمایا جاتا ہےوہ ضرور خیال سے نکل بھاگنے والی چیزہے۔اس کے لیے وہ  زور اورکوشش کام میں لاتے ہیں۔

 باز گشت۔یہ ہے کہ پہلے روح میں اللہ کو یاد کریں پھر بزبان دل یاد کریں۔

 نگاہداشت۔یہ ہے کہ کیفیت آگاہی کی حفاظت کی جائے۔

 یادداشت۔یہ ہے کہ نگاہداشت میں پائداری ہو۔یہ سب کچھ بھلا ہے۔بشرطیکہ ذہن میں اس خدا کاخیال ہو جو فی الحقیقت خدا ہے۔کوئی بت پرستوں کا بت نہ ہو۔ورنہ اس کے یہ سب حجت بے فائدہ  اور مضر ہو گی۔بت پرستوں نے پتھر ولکڑی وغیرہ کے خدا تراشے ہیں اور اہلِ عقل و صوفیہ وغیرہ نےخیالی خدا تراشے ہیں وہ خیالی بت ہیں۔حقیقی خدا وہی ہے جس کا ذکر بائبل میں ہے۔کیونکہ خدا نے خود بتلایا کہ میں کیا ہوں؟پس سچے خدا کے لیے جتنی محنت  کرو گے۔پھل پاؤ گے۔اورخیالی بتوں کےلیے  جو محنت ہو گی۔شرمندگی کا باعث ہو گی۔

۲۷ ۔ فصل لطائف خمسہ کے بیان میں

طریقہ مجددیہ والے کہتے ہیں کہ تمام عالم کی دو قسمیں ہیں۔عالم خلق اور  عالم امر۔ عرش یعنی خدا کے تخت کے نیچے کا جہان عالم خلق ہے اورعرش کے اوپر کا جہان عالم امر ہےان دونوں عالموں کے مجموعہ  کانام عالم کبیر ہےاور عالم صغیر ہر ایک انسان ہے۔

 عالم خلق کے پانچ اصول ہیں۔یعنی نفس اور عناصر اربعہ اورعالم امر کے پانچ اصول ہیں قلب ۔روح۔سرخفنی ۔اخفیٰ پس عالم کبیر مرکب ہے۔اجزا عشرہ ہیں پھر وہ کہتے ہیں کہ جب خدا نے انسان کو پیدا کیا ہے تو عالم کبیر کے سانچے پر گویا ایک عالم صغیر سا بنایاہے کیونکہ انہیں عالم کبیرکی سب چیزیں اس میں معلوم ہوتی ہیں۔پانچواں اصول عالم خلق کے اس میں ہیں یعنی اربعہ عناصر اور نفسِ ناطقہ اورپانچواں اصول عالم امر کے اس میں یوں فرض کرتے ہیں۔کہ قلب کو جو عالم امر کا ایک لطیفہ ہے۔صنوبری گوشت کے ٹکڑے میں اللہ نے رکھا ہے۔اورروح کو عالم امر کا دوسرالطیفہ ہےبائیں پسلی کے نیچے رکھا ہےاورسر کو وسطی سینہ اور روح کے مابین جگہ دی ہے۔اور خفی کو روح اور سرکے درمیان رکھا  اور اخفی کو ٹھیک وسط سینہ میں رکھا دیاہے۔

 پس اب کمال حاصل کرنے کے لیے اولاً قلب کی صفائی چاہیےپھر دیگر لطائف میں بذریعہ  ذکر کے صفائی ہوتی رہے گی۔اور جب تمام لطائف صاف ہوں گےتب آدمی فنافی اللہ ہو جائے گا۔

میرے گمان میں یہ ان کا بیان بے اصل صرف وہم ہے۔کیونکہ وہ خوداپنے اس بیان کو نہیں سمجھاسکتے کہ یہ کیا بات ہے؟اور نہ اس کا ثبوت دے سکتے ہیں ۔ہاں عناصر کی بابت کچھ باتیں کرسکتے ہیں۔سو بھی اسی درجہ کے تک اہلِ علم نے لکھا ہے کہ مگر لطائف کی بابت جو کہتے ہیں کہ وہ وہمی بیان ہے۔عالم کبیر کو کسی بشر نے نہیں دیکھااور نہ انسان دیکھ سکتا ہے۔کون جانتا ہے کہ عالم کبیر کی کیفیت کیا ہے؟یہ علم صرف خدا کو ہے۔اور محمد صاحب فرماتے ہیں کہ (وما اوتیتم من العلم الاقلیلاً) تم کو بہت تھوڑا علم دیا گیا ہے۔پھر ان صوفیہ نے کیونکر عالم کبیر کی کیفیت سےآگاہ ہو کر اس کا خلاصہ انسان میں پایا ہے۔خیر اس بحث کوچھوڑتا ہوں کہ انسان عالم صغیر ہے کہ نہیں۔لیکن اس بات کومانتا ہوں کہ انسان خدا کی صورت پر بنایاگیااورآزاد تھا۔اس کی وہ صورت الٰہی گناہ اور اس کے وبال کے سبب سے بگڑ گئی ہےاور وہ لعنتی ہو گیا ہے۔مسیح خداوند اس لیے دنیا میں آیا کہ فرمانبردار مومن کی بگڑی ہوئی صورت کو اپنی قدرت کی تاثیر سے بحالی بخشے اوراس پر سے لعنت کو ہٹا دے۔

 یہ بھی سچ ہے کہ اولاً قلب کی صفائی چاہیے کیونکہ قلب ہر انسانیت کی انسانی زندگی کا مرکز ہے۔لیکن میرا سوال صوفیہ سے یہ ہے کہ پہلے صاف صاف ان باتوں کا فیصلہ کرو۔کہ قلب وغیرہ میں کیوں کدورت آگئی اور کیا کدورت ہے؟بگمان شماسب کچھ خدا میں سےنکلا ہے۔کیا کدورت بھی خدا میں سے نکلی ہے؟اگر وہاں سے نکلی ہے توکدورت بھی خدا ہے۔اسے کیوں پھینکتے ہو۔کیوں ریاضت بے فائدہ  کرتے ہو۔ایک قدم پیغمبروں کے گھر  میں دوسرا بت خانے میں رکھتے ہو۔پس تم سوچو کہ کدھر کے ہو اور کہاں کی بولتے ہو۔

۲۸ ۔فصل حلقہ اور توجھ کے بیان میں

سرگرم پیروں کا ایک خاص وقت خصوصاً مغرب کے بعد مقرر ہوتا ہے۔جب  وہ اپنے مریدوں کو لے کر ذکر فکر میں مشغول ہوتے ہیں۔اس کو حلقہ اور توجہ کا وقت کہتے ہیں۔اور ان کے خاندانوں میں اس کے جداجدا طور ہیں چشتیوں کا اور طور ہے۔نقشبندیوں کا اور ہے۔مگر میں یہاں قادریوں کا طور بیان کرتاہوں۔کیونکہ ان کے حلقوں میں جانے کا مجھ کو اکثر اتفاق ہوا ہے۔

 مغرب کی نماز کے بعد پیر صاحب ایک کوٹھڑی میں جا کرپشت بدیوار اپنی مسند پر بیٹھے ہیں۔اور میرید آتے رہتے ہیں۔چند منٹ میں سب لوگ جمع ہو کر دائرے کی شکل میں پیر کے سامنے  بیٹھ جاتے ہیں اوردروازہ بند کیا جاتا ہے۔تب پیر صاحب آنکھیں بند کرکے اپنے دل کی طرف متوجہ ہوتے ہیں۔اور سب  مرید پیر کے منہ کی  طرف برابر تکتے رہتے ہیں اور پیر صاحب شوں شوں کی آواز سے ذکر کی دھونکنی جاری کرتے ہیں۔ جب  سانس کی رگڑوں کی گرمی بدن میں آتی ہے۔اس وقت آنکھ کھول کر بائیں طرف والے مرید کو گھور کر غور سے دیکھتے ہیں۔اور شوں شوں کا جٹکا دیتے ہیں۔فوراً وہ مریدبھی اسی طرح  ہوں ہوں میں ذکر جلی جاری کرتا ہے۔یعنی وہی نفی اثبات کا ذکر شروع کرتا ہے۔اور پیر صاحب پھر بطور سابق اپنے دل کی طرف متوجہ ہوتے ہیں۔پھر آنکھ اٹھا کر دوسرے کو جھٹکا دیتے ہیں۔علیٰ ہذا لقیاس سب مریدوں سے یہ معاملہ ہوتا ہے۔اور سب مرید مع پیر صاحب گھنٹہ گھنٹہ تک ہوں ہوں کا شور کرتے رہتے ہیں۔اور عرق عرق ہو جاتے ہیں اور تھک تھک کر چپ کرتے جاتے ہیں۔جب سب چپ ہو گئے۔پیر صاحب ہاتھ اٹھا کر الحمد وغیرہ پڑھتے ہیں۔اورسب لوگ منہ پر ہاتھ پھیر لیتے ہیں۔یہ مشق ہر روز ہوتی ہے۔اس نشست کے دائرہ کا نام  حلقہ ہے۔اور پیر صاحب کے گھور کر جھٹکا دینے کانام توجھ ہے۔گویا پیر صاحب اپنے اندر سے کچھ برکت نکال کر روز روز مریدوں کے دلوں میں ڈالتے ہیں۔اس سے کبھی کچھ فائدہ نہیں ہوتا۔اگر کہیں کچھ تاثیر ہوئی بھی ہو تو یہ نشان ولائت  نہیں ہے۔بلکہ مسمریزم( mesmerism)کی بات جو مومن اور کافر سب کرسکتے ہیں۔توجھ کی صوفیہ میں بڑی عزت سمجھی جاتی ہے کہ پیر میں کچھ قدرت  ہے۔وہ ہم میں اثر کرے گی۔ہمیشہ اس توجھ کے لیے کاملین کی تلاش میں رہتے ہیں۔اور کبھی دل سیر نہیں ہوتا۔میں نے اکثروں کو بڑی تمنا سے یہ شعر پڑھتے سنا۔

انانکہ خاک بنظر کمیا کنند   آیا بود کہ نظر سے برمن گدا کنند

اللہ کا دروازہ چھوڑ دیا پیر وں کا دروازے پر بھیک مانگتے پھرتے ہیں جب کچھ نہیں پاتے تو کہتے ہیں کہ ہماری قسمت۔ارے نادان قسمت کیا چیز ہےتو خدا سے بھیک مانگ وہ دے سکتا ہے۔تونے بھوکوں کے دروازوں پر جا کر بھیک مانگی اور خالی آیا۔وہ جو غنی ہے اس کے دروازے پر کیوں نہ گیا؟کہ وہ تجھے سیر کرتااس کا وعدہ ہےکہ جو کوئی میرے پاس آتا میں اسے نکال نہ دوں گا۔

 میں نے بھی ان صوفیوں کی بہت خاک چھانی بلکہ خاک پھانکی اُس وقت میں مسیحی دین سے ایسا ناواقف تھاجیسے اِس وقت بعض دیہاتی ناواقف ہیں میں نے سچے اعتقاد اور نیک نیتی سے ایسا کیا جیسا کرنا چاہئےمیں ہمیشہ جنید بغدادی اور بشیر حانی اور سری سقطی وغیرہ کی روشوں کو  نگاہ رکہتا تھا۔اور صرف خدا سے یہ سننے کا محتاج تھا کہ تیرا انجام بخیر ہےپیربن کےروپےاور عزت لینے سے مجھے نفرت تھی۔تمام جفاکشی کے بعد مجھے یہی معلوم ہوا کہ یہ راہ خدا سے ملنے کی  نہیں ہے۔اس سے صرف یہی حاصل ہوتا ہےکہ آدمی جاہلوں میں پیر کہلائے اوردنیا کمائے عاقبت کا دغدغہ روح میں سے نہیں نکلتا۔پس میں ان مشقتوں سے تھکا مانندہ اور ناامیدبلکہ متنفر ہو کر قرولی سے پانی پت  میں آیا  یہاں میرے ایک بزرگ مہربان مولوی عبدالسلام امام صابر بخش دہلوی کے داماد قاضی ثنا اللہ کے پوتوں میں سے تھے۔اورصوفی عالم گوشہ نشین کم گو اہلِ فکر میں سے تھے۔میں خلوت میں جا کر ان سےاس مذاق کی باتیں کیا کرتا۔اب آکر میں نے ان سے کہا کہ نہ اسلام سے میری تسلی ہوتی ہےاور نہ تصوف سے۔میں اب ان سب طریقوں کی پابندی چھوڑتا ہوں اورخدا کی تلاش دنیا کے اور فرقوں میں جاکر کروں گا۔اگر آپ مجھے بدلیل روک سکتے ہیں تو  مہربانی کرکے روکیں۔نیچے سر کر لیا اور چپ کرگئے۔آخر میں سلام کرکے چلا آیاسات سال کے بعد مجھ پر یہ ظاہر ہوا کہ خدا کا دین صرف مسیحی دین ہے۔اور عاقبت بخیر اسی سے ہوتی ہے۔اس وقت میں لاہور میں تھا۔اور جب مجھ پر یہ ظاہر ہوا۔تب میں نے ہٹالہ والے صاحب سے یعنی شاہ مولوی میر احسن  صاحب سےکہ صوفی عالم تھے۔یہ بھید خفیتہً وزیر خان کی مسجد واقع لاہور میں بیٹھ کر کہا کہ اگر آپ بدلیل میری تسلی کرکے مجھے مسیحی ہونے سے روک سکتے ہیں تو  خدا کے لیے یہ کام کیجیے۔فرمایا کہ روکنے کی دلیلیں اور تسلی کی طاقت میں نہیں رکھتا مگر یہ کہتا ہوں کہ مسیحی ہونے سے تمہاری مولویت عزت تو جاتی رہے گی۔مسلمان گالیاں دیں گے رشتےدار چھوٹ جائیں گےاور مسیحی لوگ یعنی انگریز بھی تمہاری کچھ پرواہ نہ کریں گے۔عام مسیحیوں کی طرح مارے مارے پھرو گے۔تب میں نے کہا کہ اگر عزت و آرام کی حفاظت کرتا رہوں تو خدا ہاتھ سے جاتا ہےاور اگر خدا کو تھامتاہوں تو یہ سب چیزیں ہاتھ سے جاتی ہیں۔ایک  نقصان تو مجھے بہر حال ہاتھ سے اٹھاناہے۔عقل کا حکم ہے کہ ایسی حالت میں چھوٹے نقصان کو گوارا کرنا چاہیےکہ بڑا نقصان نہ ہوپس میں سلام کرکے چل دیااور مسیحی ہوگیا۔اور میری روح میں تسلی آگئی۔کہ یقیناً میری عاقبت بخیر ہے۔اور اب جو میں دنیا میں زندہ ہوں ہزارکمزوریاں مجھ میں  ہوں پرواہ نہیں ہے مسیح نے مجھے بچالیا ہے۔میں نجات یافتہ ہوں۔خدا کی اور میری صلح ہو گئی۔میرے گناہ بخشے گئے۔میں نے اپنی روح میں خدا سے فضل پایا۔ہاں دنیاوی دکھوں کی موجوں میں ہوں لیکن پر پار اتر کر خدا کے پاس آرام میں ابد تک زندہ رہوں گا۔کیونکہ خدا ہر وقت میرے ساتھ ہے۔

 ناپاک دل کو تاہ اندیش بازاری مسلمانوں جوچاہا سو مجھے کہا  اور بعض جھوٹے دینی بھائیوں نے بھی جو دکھ دیا میرا دل اور خدا جانتا ہے۔بلکہ جسمانی رشتے داروں سے ایذا پائی لیکن اسی صبر سے کام نکلا۔جو پیغمبروں میں تھااور خدا نے اپنے فضل سے دل میں القا  کیا۔یہ سب کچھ خدا  وند یسوع مسیح کی پاک توجہ  سے ہوا جس نے مجھ پر رحم کیا۔۔وہ ایک ہی شخص ہے جس کی توجہ خاک  سےافلاک پر  پہنچاتی ہے۔وہ بات بالکل غلط ہے کہ دنیا میں ایسے کاملین بھی ہیں کہ جن کی توجہ سے بیڑا پارہوتا ہے۔پیر فقیر تو الگ رہے۔سچے پیغمبروں کی توجہ سے بھی کچھ نہیں ہوتا۔ایک ہی شخص ہے جس کی توجہ سے  اولین و آخرین نے فضل پایا ہے۔بغیر اس کے فضل کے نہ کوئی ولی  ہو سکتا ہے۔نہ کوئی نجات پا سکتا ہے۔نہ کسی کا دل صاف ہو سکتا ہے اور نہ ہی معرفت حاصل ہوتی ہے۔صرف اسی کی توجہ سے سب کچھ ہوتا ہے۔

 وہ جو کہتےہیں کہ  ہم مسیح کو پیچھے ہٹا کر صرف خدا سے فضل کے امید وار ہیں۔وہ سخت غفلت میں ہیں اور نادان ہیں۔کیونکہ خدا جس نے اپنا کلام یعنی بائبل پیغمبروں کے وسیلےسے دنیا کو یہ ثبوت  دیا ہے۔وہ صادق القول اور لا تبدیل خدا ہے۔اور اس نےا س بات پر مہر کردی ہےکہ بغیر خداوند یسوع مسیح کے کوئی  نہیں بچ  سکتا اور نہ روحانی برکت پا سکتا ہے۔

 پس اے میرے ہم ملک پیارے بھائیوں اٹھو فکر کرو اور باانصاف کلام اللہ کو پڑھوسمجھو اور سب واہیات مہلک خیالات پھینک دو اور مسیح پر ایمان لا کرپاک ہو جاؤتب خدا تمہارے پاس آئے گااورتم اس کے پاس جا سکو گے۔بغیر اس ایمان کے خدا اور انسان میں دشمنی رہتی ہے۔اور کسی بات پر الٰہی توجہ نہیں ہوتی حقیقی حلقہ خدا کی کیتھولک کلیسیا ہےاور حقیقی توجہ خداوند یسوع مسیح سے ہوتی ہےاس بات پر بہت سوچو۔

۲۹ ۔فصل مراقبہ کے بیان میں

لفظ مراقبہ اگر رقابت سےہے تو محافظت کے معنی میں ہےاور جو رقوبت سے ہےتو انتظاری کے معنی ہیں۔صوفیہ مراقبہ بہت کرتے ہیں۔گھروں میں، مسجدوں میں،جنگلوں میں اور خصوصاً بزرگوں کی قبروں پر بیٹھتے ہیں۔اور آنکھیں بند کرکے لطائف خمسہ میں سے کسی لطیفے کی طرف متوجہ ہوتے ہیں۔زیادی تر قلب کی طرف۔اور اس کام کی طرف مستغرق ہو جاتے ہیں۔اس امید سے کہ اندر کچھ روشنی نظر آئے گی لیکن اندر کیا ہے صرف اندھیرا۔

 جنید بغدادی فرماتے ہیں کہ میں نے مراقبہ کا عمدہ طور بلی سے سیکھا ہے۔وہ چوہے کے سوراخ پر ایسی دبکی لگا کر بیٹھی تھی کہ اس کا بال تک نہی ہلتا تھا ۔مجھے خیال آیا کہ مراقبہ اسی طرح چاہیے۔پس میں ایسا ہی مراقبہ کرنے لگا۔(از معمولات مظہریہ)

 معلوم ہو جائے کہ کسی آدمی کے اندر کچھ روشنی نہیں ہے۔صرف گناہ،ناپاکی اور تاریکی ہے۔اگر روشنی دیکھنا چاہتے ہو توکلام اللہ کے مضامین میں فکر کروزندگی کا نور وہاں سے دیکھو گے۔اور اگر چاہو کہ وہ نور ہم میں جلوہ گر ہو تو ایمان کے ساتھ خدا کے احکام بجا لانےاور دعا سے یہ ہو گا۔اور کیا ہو گا؟کہ نہ مثل شعلہ آگ کے اور یامثل دنیاوی دھوپ کے کوئی روشنی چمکے گی۔مگر خیالوں میں ایسی روشنی آجائےگی۔کہ نیک و بد میں خوب تمیز کرو گے۔اور حق کو پہچانوں گے۔اور خدا کے بعض پوشیدہ بھید سمجھو گے۔اور شیطان کی گہرائی دریافت کرکےاس کے جالوں سے بچو گے۔اور روح میں ایک تازگی اور زندگی ظاہر ہوگی  اور اس آیت مقدس کا بھید منکشف ہوگا۔کہا جہان کا نور میں ہوں۔صوفیہ ان مراقبوں میں بے فائدہ وقت خرچ کرتے ہیں۔اس طور سے نہ کسی کو  کچھ حاصل ہوا ہے اور نہ ہو گا۔ہم مسیحی بھی کبھی کبھی آنکھیں بند کرکے۔ذراچپ ہوجاتےہیں۔یہ اس لیے ہے کہ نادیدہ خدا کی طرف ذرا دل کو متوجہ کریں اور دلی حضوری سے خدا کے سامنے جائیں یا اس کا کلام پڑھیں۔اوردعا و نصیحت کریں۔یہ دلی توجہ ہے اور یہی ہمارا مراقبہ ہے۔ 

۳۰ ۔فصل شجرون اور اجازت کے بیان میں

صوفیہ  اپنے پیروں کےشجرے رکھتے ہیں کہ فلاں شخص کا مرید فلاں تھا۔اور اس کا فلاں مرید ہوا۔اپنے سے لے کر حضرت علی تک پہنچاتے ہیں۔اور جب مریدوں کو شجرے دیتے ہیں تولفظ باحق فلاں یا باطفیل صاف لکھتے ہیں۔اور آخر میں کچھ فقرہ دعا خیر کا ہوتا ہے۔مرید ان شجروں کو پڑھ کر منہ پر ہاتھ پھیر لیتے ہیں۔یا سارے بدن پر دم کر لیتے ہیں۔یہ کیا لغو کام اور بری عادت ہے۔

 تمام بزرگ تو یہ کہتے ہوئے دنیا سے چلے گئےکہ ما عرفناک حق معرفتک وماعبدناک حق عبادتک اور دلی تمیز صاف کہتی ہے کہ کہ سوا خداوند یسوع مسیح کے کوئی ایسا شخص کبھی دنیا میں ظاہر نہیں ہوا۔جس کی معرفت اور عبادت کامل ہو اور جس کے اعمال حسنہ ایسے بے نقص ہوکہ وہ کچھ حقوق خدا پر ثابت  کرے۔سب کے سب شرمسار اور امید وار ہیں۔میں نہیں جانتا کہ ان پیروں نے کیاحقوق ان بزرگوں کے خدا پر ثابت کررکھے ہیں۔جن کے واسطے سے مراد براری کے اُمید وار ہیں۔

 ہم مسیحی لوگ خداوند مسیح کے نام سے دعا مانگتے ہیں۔کیونکہ اس نے فرمایا ہے کہ میرے نام سے دعا مانگو اور اس نے وہ کام بھی کیے ہیں۔جو ہماری مقبولیت کا وسیلہ ہیں اس کا تجسم ،ولد،ختنہ،بپتسمہ ،فاقہ،امتحان اورشیطان سے  باطنی کشتی اور لہو کا پیسنااور اذیتِ صلیب اورموت وتدفین اور تیسرے دن جی اٹھنااورآسمان پر جانااورروح القدس کا نازل فرمانایہ سب کام بندگان کے فائدے کے لیے ہوئے ہیں۔اس کو خودان کاموں میں سے کسی کی حاجت نہ تھی اور یہ برحق حقوق ہیں۔جن کے سبب سے وہ ہمارا وسیلہ بنا۔پیروں نے کون سے کام مریدوں کے لیے ہیں۔جو کچھ پیر صاحب نے تصوف میں جفا کشی کی اسی ارادہ اور نیت سےکی تھی کہ ہمہ اوست کے خیال میں خود فنا ہو جائیں۔یہ مرید ناحق ان کے پیچھے چمٹ گئےہیں۔  بعض سمجھتے ہیں کہ شجروں سے یہ تواریخی فائدہ ہے کہ اپنے سلسلوں کے نام معلوم رہتے ہیں اور دوسرا فائدہ یہ  بھی ہو سکتاہے کہ کسی بات کی سند اوپر تک پہنچ جائے۔مگر صوفیہ اپنے تصوف کی سند اوپر تک نہیں پہنچا سکتےان کے مسائل اور عقائد اوراطوار وقتاً فوقتاً اِدھر اَدھرسے جمع ہوتے ہیں۔نہ حضرت علی سے نہ محمد صاحب  سے پھر سلسلہ اور شجرہ سے کیا فائدہ ہوا صرف یہ کہ ان بزرگوں  کے نام سے جاہلوں کو اپنے قابوں میں لائیں اور آپ معتبر ثابت ہوں۔

 اجازت بے شک ایک سنجیدہ بات ہے۔کیونکہ دین کی خدمت معتبر بزرگوں سے اجازت حاصل کرکے کرنا مناسب ہے۔تاکہ نالائق آدمی انتظام دین میں خلل انداز نہ ہوں اور بدعتیں نہ نکلیں مگر صوفیہ سمجھتے ہیں۔کہ کسی پیرانٹ اور منتر میں اجازت سے تاثیر ہوتی ہے۔یہ وہمی بات ہے۔

۳۱ ۔فصل صوفیہ کے بعض خاص دعوؤں کے بیان میں

اگر کوئی آدمی کہے کہ میں ایسی قدرت رکھتا ہوں۔کہ اڑ کر ستاروں میں پہنچوں اور آ جاؤں تو ہم اس کو کیا کہیں گے۔صرف یہ کہ حضرت اڑ کر دکھلاؤ۔

 صوفیہ کےپاس پانچ دعوے اسی قسم کے  ہیں۔جن سے وہ احمقوں کو دھوکا دیتا ہیں۔اور جب کبھی ان دعوؤں کا ذکر آتا ہے۔تو کہتے ہیں کہ ہم  میں جو کاملین ہیں وہ ایسے کام کر سکتے ہیں۔لیکن کسی کامل کا نام اور پتہ نشان نہیں دیتے۔کہ وہ کون ہےاور کہاں ہے؟پس اب کیا کیا جائے گا؟کچھ نہیں  دعوؤں کی طرف دیکھناہوگا کہ کیا دعوے ہیں۔اور جب ہم ان کے دعوؤں کو دیکھیں گے۔تو صاف عقل سے معلوم ہو جائے گا۔کہ بعض باتیں ممکن ہیں لیکن ولایت اور قربت الٰہی کا نشان  نہیں ہیں۔اور بعض باتیں ہیں جو بالکل باطل نہیں ہیں۔ان کا ماننا بے وقوفی ہے۔

  •  وہ کہتے ہیں ہم سلب امراض کرتے ہیں۔اور طریقہ یوں بتلاتے ہیں۔کہ بیمار کو سامنے بیٹھا دیں۔اور اپنے سانس کولمبا اندر کی طرف کھینچیں اورخیال کریں کہ  ہم نے بیمار کی بیماری کو اپنے اندر کھینچ لیا ہے۔پھر باہر کا سانس لیں اور خیال کریں کہ ہم نے اس کو باہر زمین پر پھینک دیا ہے۔اسی طرح دیر تک کرتے رہیں۔وہ بیمار اچھا ہو کر چلا جائے گا۔اس بارے میں ہم یہی کہہ سکتے ہیں  کہ وہ کونسا پیر آپ لوگوں میں ہے۔جوا یسا کرتا ہے۔اور یہ بھی کہتے ہیں کہ مسمریزم والے بھی ایسےعمل کے مدعی ہیں۔وہ تو بڑے ولی اللہ ہوں گےکیا یہ ولی اللہ کا نشان ہےیاترکیب ہے؟
  •  وہ  کہتے ہیں کہ ہم دلوں کا حال جان سکتے ہیں طریقہ یوں بتلاتے ہیں صوفی کو اپنی کیفیت سے خالی  ہوکر خدا کی علمی صفت میں مستغرق ہونا چاہیےاور باعاجزی کہنا کہ یا علیم یا خبیر اس شخص کا حال مجھے بتلادے پس جوکچھ اس وقت دل میں آئے وہی حال اس شخص کا ہے۔خدا سےکہنا کہ تو بتلادے کہ یہ تو مناسب  کام ہے۔لیکن خدا ان کوبتلا دیتا ہے۔اس کا ثبوت کیونکر ہو؟اس کا ثبوت اس طرح ہو سکتا ہےکہ کوئی صوفی اٹھےاور خدا سے ہمارے دل کی بات پوچھ کر ہمیں سنائے۔اس وقت ہم کہیں گے کہ غلط ہے یا صحیح۔
  •  وہ کہتے ہیں کہ ہمیں مکاشفے اور الہام ہوتے ہیں۔آج کل مرزاغلام  احمد صاحب کو الہام ہو ر ہے ہیں۔اور صوفی صاحبان کہتے  ہیں کہ ہاں صاحب ہوتا ہو گا۔فلاں فلاں پیروں کوفلاں فلاں وقت ہوا تھا۔یا نہیں۔دہرنیچریوں کوان کے خلاف الہام  ہو رہا ہے۔آسودہ حال اور پیٹ بھرے آدمیوں کو ایسی باتیں بہت سوجھتی ہیں۔اس بارے میں اتنا کہنا کافی ہے۔کہ گزشتہ زمانے میں جو پیغمبروں کو الہام ہوئے ہیں۔ ان کی ایک  خاص صورت ہےاور خاص وجہ یہ تھی کہ خدا کو اپنی مرضی بندگان پر ظاہر پر کرنا منظور تھا۔سو اس نے کیا۔اور صورت یہ تھی کہ ایسے دلائل قدرتیہ کے ساتھ وہ الہات پیش ہوئے کہ عقل کی مجبوری سےان کا ماننا لازم ہے ان صوفیہ کے الہا مات اور مکاشفات کی وجوہات اور صورتیں اس لائق نہیں ہیں۔کہ ان کا خدا کی طرف سے ہوناثابت ہو وہ تو ہمات اور ذہنی خیالات  ہیں۔اور میں کیا کہو ؟مگر یہ کہ اگر وہ الہامات خدا کی طرف سے ہیں تو ان میں جمع کرکے قرآن کے ساتھ مجلد کرو کہ مسلمان لوگ نماز میں پڑھا کریں۔
  •  وہ کہتے ہیں کہ ہم صرف توجہ سے آدمی کو نیک اطوار بنا دیتے ہیں۔

اس کا طریقہ یوں لکھا ہے کہ بھلا آدمی بنانا منظور ہےاسے سامنے لا کر بٹھاؤاوراگر وہ حاضر نہ ہو تواس کا تصور کرو اور بوسیلہ خیال کے اس کے دل میں توبہ ڈالواور شوق پھینکو پس وہ توبہ کرکے نیک ہو جائے گا۔

میں کہتا ہوں کہ حضرت محمد صاحب سے تو ہرگز نہ ہوا۔بہت چاہا کہ ابو جہل چچا مسلمان ہو جائےپر وہ ایمان نہ لایا اور تمام سچے پیغمبروں سے بھی یہ نہ ہوااورتمام گزشتہ صوفی بزرگوں سے بھی ایسا نہ ہوا۔بعض رشتے داروں کے لیے سر پٹ کر رہ گئےخیر اب اگر کوئی کامل صوفی دنیا میں ہے تووہ اٹھے اور ہم مسیحیوں اور ہندووں کی زندگی میں اپنے اسلام یا تصوف کو پھینکے۔لوگوں کے حق میں  دعائے خیر سے توکبھی کبھی کچھ فائدہ دیکھا گیا ہےلیکن پھینکنا کچھ بات نہیں ہے۔وہی وہم ہے۔

  •  وہ کہتے ہیں کہ صوفی لوگ خلع دُلبس کرسکتے ہیں۔

خلع کے معنی ہیں چھوڑنالبس کے معنی ہیں پہننامراد یہ ہے کہ صوفی لوگ اپنے بدن کو چھوڑ کر کسی غیر کے بدن میں اپنی روح کو لے جا سکتے ہیں۔اس کا طریقہ یوں ہے کہ میں اپنی روح کو پیروں کی انگلیوں سے شروع کرکے کھینچو اور تمام بدن میں سےاکٹھا کرتے ہو ئے دماغ میں لئے جاؤجب ساری روح وہاں اکٹھی ہو جائےتب  منہ یا ناک کی راہ سے نکالواور کسی غیر مردہ بدن جو کہ سامنے پڑا ہو داخل کرو پس تمہارا بدن مر جائے گا۔اور وہ ،مردہ بدن جی اٹھے گااور تم جانوں کہ میں اس میں آگیا ہوں۔یہ پرانےزمانے کی جھوٹی باتوں میں سے ایک بات ہے۔ لیکن صوفیہ کو اس پر یقین ہے۔معلوم نہیں کہ علم الیقین یا حق الیقین یا  عین الیقین ہے؟

۳۲ ۔فصل تناسخ کے بیان میں

سب صوفی تو نہیں مگر  بعض صوفی تناسخ کے بھی قائل ہیں اور ایسے ایسے شعر سناتے ہیں

ہم چو سبزہ بارہاروئیدام   یکصدور ہفتا وقالب ویدہ ا م

میں سمجھتا ہوں کہ قرآن تناسخ کا قائل نہیں ہے۔اور محمدی بھی تناسخ کو نہیں مانتےوہ بعض صوفی جو تناسخ کے قائل ہیں انہوں نے بہت باتوں میں اسلام کو اپنے دلوں میں  سے نکال رکھا ہے۔اور وہ ہمیشہ بت پرستوں کے خیالات کی طرف متوجہ ہوتے  ہیں۔

 شرح مواقف و  غیرہ میں جو تناسخ کی بابت مرقوم ہے اس کا خلاصہ یہ ہے۔اہلِ تناسخ جو جسمانی قیامت کے منکر ہیں یوں کہتے ہیں کہ ارواح مردم جب اپنے کمالات کو پہنچ جاتے ہیں تب عالم قدوس میں جا شامل ہوتی ہے۔اور ہمیشہ کو بدنوں الگ ہو رہتے ہیں۔لیکن وہ روحیں جن کے کمال میں  نقص رہتا ہےایک بدن سے دوسرے بدن میں انتقال کرتی رہتی ہیں۔اور اس انتقال کانام نسخ ہےجب انسانی بدن سے کوئی آدمی اپنی حالت کے مناسب حیوانی بدن میں آتی ہے۔مثلاًشجاع آدمی مرکر شیر بن گیا یا بزدلا آدمی خرگوش بن گیا۔یا احمق آدمی مر کر گدھا بن گیا۔تو ایسی تبدیلی کو مسخ کہتے ہیں۔

اور جب ایسی تبدیلی ہوتی ہے توارواح مردم نباتات بن جاتی ہیں تو اس تبدیلی کورسخ کہتے ہیں ۔

اور جب کسی کی روح جمادات بن جاتی ہے تو یہ فسخ کہلاتا ہے۔پس لفظ تناسخ جو کہ نسخ سے نکلا ہےاس کی تین قسمیں ہیں۔مسخ، رسخ اور فسخ جب تک ارواح اپنے کمالات علمیہ اور اخلاقیہ کو نہ پہنچیں ان میں ایسی ہی تبدیلیاں  رہتی ہیں۔اور جب کمالات کو پہنچیں تو تب عالم قدوس میں شامل ہو جاتی ہیں۔امام فخرالدین رازی اپنی تفسیر میں لکھتے ہیں کہ سورہ انعام کے رکوع چار  ۴ اور آیت ۳۸ میں لکھا ہے کہ

وَمَا مِن دَابَّةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا طَائِرٍ يَطِيرُ بِجَنَاحَيْهِ إِلَّا أُمَمٌ أَمْثَالُكُم

یعنی جو پائی اور پرندی جس قدر دنیا میں موجود ہیں یہ سب تم محمدیوں کی مانند امتیں ہیں۔یعنی تم مسلمان ایک امت ہو ویسے  ہی یہ جانور بھی تمہاری مانند امتیں ہیں۔

 پھر سورہ فاطر کے ۳ رکوع  اور آیت ۲۴میں لکھا ہے کہ

وَإِن مِّنْ أُمَّةٍ إِلَّا خَلَا فِيهَا نَذِيرٌ

کوئی امت باقی نہیں جس میں خدا نے کوئی ڈرانےوالا یعنی پیغمبر نہ  بھیجا ہو۔

اہل تناسخ کہتے ہیں کہ آیت بالا میں لفظ امثال تمام ذاتی صفات مساوات کا مقتضی ہےاور کہ چوپائے اور پرندے بھی ہماری مانند  امتیں ہیں۔ اور بموجب آیت دوئم کےہر امت میں پیغمبر آیاہےتو اب جانوروں میں بھی پیغمبر آئے ہوں گے۔اس لیے جانوروں کو خدا کا اور نیکی و بدی کا علم حاصل ہو گا۔کیونکہ ان کے پیغمبروں نے انہیں سکھلایا ہوگا۔میں کہتا ہوں کہ اگر لفظ کم سے مراد تم انسان ہو تومطلب ظاہرہے کہ تم انسان حیوان  کی ایک نوع ہو ایسے تمام جانور انواح ہیں ہاں اگرلفظ کم سے مراد امت محمدیہ ہو تو شاید اہل تناسخ کا کچھ مطلب نکلے گا۔اور وہ جو محمد صاحب نے کہا ہے۔کہ ہر امت میں ایک پیغمبر پہنچایا گیا ہے۔یہ کلام حق کےخلاف ہے۔کیونکہ اگلے زمانے میں خدا نے یہود کےسوا سب قوموں کو چھوڑ دیاتھا۔کہ اپنی تمیز کے موافق کام کریں۔ان کے پاس کچھ پیغام نہیں پہنچایا گیا۔لوگوں نے اپنے خیالات سے جوسوچا کیا اور جو چاہا سو بولااگر خدا سے سب قوموں میں پیغمبر آتے تواس قدر اختلاف نہ ہوتاجیسا اب دیکھ رہے ہیں۔یہ جدائیاں اور جھگڑے اور ایمانی اختلافات  خدا کے نذیروں کے ڈالے ہوئے نہیں ہیں۔بلکہ یہ آدمیوں کی سمجھ سے ہیں۔ہاں جب نجات کاکام مسیح نے پورا کردیا توتب نذیر سب قوموں میں پہنچائے گئے ہیں۔نہ صرف نذیر بلکہ بشیر پس جانوروں میں نذیروں کا آنا تو درکنار ساری دنیا کی قوموں میں بھی ہادی نہ آئے تھےصرف یہود میں پیغمبر آئےتھے۔

(ف) میں نہیں سمجھتا کہ ہمہ اوست میں اور تناسخ میں کیا علاقہ ہے۔صوفی کہتے ہیں از روےتحقیق  ہمہ عین است نہ غیر و از روئے تعین ہمہ غیر است نہ عین۔پس تحقیق اصل بات ہےاور تعین ایک امر اعتباری ہےجو شخص محو ہوگیاہےوہ عالم بالا میں پہنچا  توکیااور  جو محو ہوا تو کیا؟دونوں خدا کے اندر تو رہتے ہیں۔اور اگر سکھ ہے تو خدا کو ہےاور جو دکھ ہے تو خدا کو ہے۔پس اپنا تصوف لے کرگھر جاؤوہ کسی کام کی چیز نہیں ہے۔ہم تو اس بات کو مانتے ہیں کہ اگر دکھ ہے تو ہمیں ہے۔جو سکھ ہے تو ہمیں ہے۔اور جب ہم خدا سے مل کر سکھ میں جاتے ہیں تو ہم  میں اور خدا میں دوری رہتی  ہے۔کہ ہم انسان ہیں۔وہ خالق ہے۔وید والوں نے بھی جب ہمہ اوست کی تعلیم دی تھی۔تو انہیں تناسخ سے ڈرانا بے جا کام تھا۔

ہمہ اوست اور تناسخ کا خیال یونانی ہےاور ہندوستانی ہے۔قدیم بت پرستوں کا ذہنی ایجاد تھا۔اور ہندوستان کے بعض ہندووں کے درمیان ایسا سرائیت کیے ہوئے ہے۔جیسے بت پرست مسلمانوں میں تقدیر کے خیال نے سرائیت کی ہے۔لیکن وہ اس تناسخ کے خیال کا کچھ ثبوت نہیں رکھتے صرف یہی کہنا پڑتا ہے کہ ایسی کتابوں میں ایسا لکھا ہوا ہے۔

یہ تو سچ ہے  ان کی کتابوں میں ایسا لکھا ہوا ہے۔مگر بحث اس  میں ہے کہ آیا تمہاری کتابیں کہاں سے ہیں؟خدا سے یا آدمیوں سے پس امور ذیل پر بحث آجاتی ہے کہ آیا ان کے مصنف کون تھے؟کس زمانے میں تھے؟اورکس طرح کے اشخاص تھے؟ان کی تحریر سے ان کے دلوں اور خیالوں کی کیا کیفیت معلوم ہوتی ہے؟صفائی کہاں تک تھی؟اور مبالغوں کی کیا کیفیت ہے؟وہ کتابیں تو مبالغوں اور واہی تباہی خیالات سے بھری ہیں۔اس لئے وہ اہلِ عقل کے سامنے غیر  معتبر ہیں۔کیونکہ انہیں کے خیالات نے جو ان کتابوں میں مرقوم ہیں انہیں باطل ثابت کیا ہے۔پس ان کتابوں کے درمیان جو غیر معتبر ہیں۔تناسخ کا ذکر ثبوت تناسخ کی دلیل نہیں ہو سکتا۔

ہم مسیحی جو بعض امور کی نسبت یہ کہہ دیا کرتے ہیں۔کہ خدا کے کلام میں ایسا لکھا ہے کہ ہماری اس بات کاماننا اس لیے واجب سمجھا جاتا ہے۔ کہ ہم نےن اولاً دیگر کتب میں ثابت کردیا ہےکہ وہ کتابیں کلام اللہ ہیں۔اور معتبر خدا پرست اورخدا ترس لوگوں سے لکھی گئی ہیں۔اور خدا نےا پنی قدرتوں سے کلام پر گو اہیاں دی ہیں۔اور اس کلام کی صدہا تعلیمات عقلاً واجب اُلتعمیل ظاہر ہو گئیں۔پھر اگرکوئی تعلیم اس میں ایسی بھی نظر آجائے جو خدا کی ذات پاک سے علاقہ رکھتی ہو۔اور فہم انسانی سے بلندو بالاہوتو صرف کلام  میں مذکورہونے کےسبب سے ہم بغیر سمجھے جرات اور دلاوری سے ادب سے قبول کر لیتے ہیں۔اور یہ مناسب کام ہے۔

ہندووں اور مسلمانوں کو ایسا کہنا جائز نہیں کہ یہ بات قرآن میں یا ویدوں میں شاستروں میں لکھی ہے۔اس لیے حق ہے کیونکہ وہ اپنی کتابوں کو من جانب اللہ ثابت نہیں کر چکے ہیں۔اور نہ کر سکتے ہیں۔اسلئے جو دعوئے وہ اپنی کتابوں سے لائیں گے۔اس کا ثبوت انہیں خارج سے دینا پڑے گا۔

اور تناسخ ہمہ اوست کے لیے خارج میں کوئی دلیل موجود نہیں ہے۔تب ان کے بے دلیل دعووں کو اس بارے میں ہم کیونکر قبول کر سکتے ہیں۔تناسخ کے لیے سوائے اس دعوئے کے جو غیر معتبر اشخاص سے ہوا ہےدلائل اثباتیہ محض معدوم ہیں دلائل انکاریہ ضرور موجود ہیں۔اور کئی ایک ہیں ان میں سے تین دلیلیں یہ ہیں۔جن کا ذکر کرتا ہوں۔

  •  جس چیز کا نام نفس ناطقہ ہے۔وہ سوا ءانسان کے کسی اورحیوان میں پایا نہیں گیا۔پھر کیونکر کہہ سکتے ہیں کہ ایک ہی روح کبھی انسان میں اور کبھی حیوان میں آتی رہتی ہے۔
  •  قوت حافظہ نفس ناطقہ کی ذاتی صفت ہے ناکہ عارضی پس کیا سبب ہے؟ کہ کسی آدمی کو کچھ کیفیت تولد اورسابقہ جنم کی کیفیت معلوم نہیں ہے۔آیا اس کیفیت کے نقش و نگار محو ہو گئے ہیں یا دب گئے ہیں۔محو تو ہو نہیں سکتے  کیونکہ حافظہ ذاتی صفت ہےہاں دبے جا سکتے ہیں۔مگر دبی ہوئی بات پھر یاد آسکتی ہے۔جب یاد دلانے والی کوئی چیز سامنے آئے۔آدمیوں کے سامنے سب حیوان پھرتے ہیں۔اور ان کے خصائص ان پر ظاہر ہیں۔اگر وہ آدمی کبھی کوئی جانور تھے۔تو ان کو ان کے ملا خط سے اپنی سابقہ کیفیت یاد کیونکہ نہیں آتی؟
  •  تناسخ کا انتظام خدا نے کس غرض سے کیا ہے؟جواب یہی ہے کہ سزائے اعمال کے لیےہم پوچھتے ہیں کہ سزائےا عمال کیا چیز ہے؟بے فکر اس بات کو نہیں جانتے دنیاوی احکام سے جو سزا ہوتی ہے۔ناسمجھ لوگ الٰہی سزا کو اسی کے موافق خیال کرتے ہیں۔ معلوم ہو جائے کہ دنیاوی سزا مجازی سزا ہے۔خدا کی طرف سے جو سزا ہےوہ حقیقی سزا ہے۔دیکھو زید  نےبکر کا لاکھ روپیہ چوراکر  باکل برباد کردیا۔اب بکر زید سے کہتا ہے کہ میرا روپیہ مجھے دےدو ورنہ میں تجھے کسی میعاد کے لیے قید کرادوں گااور خوب پٹواؤں گا۔زید کہتا ہے کہ  جو چاہوسو کرو میرے پاس تو دینے کے لیے کچھ نہیں ہے۔پس بکر نے جو کچھ کر سکتا تھا کرکے صبر کیا زید کچھ میعاد تک دکھ پاکر چھوٹ گیا۔اب بتلاؤ کہ اس میں بکر کا نقصان کیونکر پورا ہو گا؟اورزید کیونکر ظلم سے بری ہوگا؟شاید سزا کا میعادی دکھ اور وہ روپیہ مساوی چیز ہوں۔

مگر بتلائیے کہ خدا کی بے عزتی کس میعادی دکھ کے مساوی ہے؟اس لیے خدا کی سزا یہ ہے کہ یا تو کوڑی کوڑی ادا کرو یا ابدالاباد دکھ میں رہو۔لاانتہا برسوں تک کبھی سکھ کا منہ نہ  دیکھو۔یہ سزا خدا کی شان کے مناسب  ہے۔اور ظلم کے بھی مناسب ہے۔تناسخ کے دکھوں میں یہ سزا کیونکر پوری ہو جاتی ہے؟تناسخ میں دکھ کیا ہے؟کچھ بھی نہیں۔اگر گدے ہیں تو گدہے کا کام کرتے ہیں اور خوش ہیں۔اور بلے ہیں تو میاؤں میاؤں میں خوش  ہیں۔سزاکیا ہے؟سزا کے لیے یہ بھی  ضروری ہے کہ مجرم اپنے گناہوں سے آگاہ ہوکر دکھ اٹھائے تاکہ نادم ہو۔اور جانے کہ میں نے فلاں کام  غیر مناسب کیا تھااس لئے دکھ میں ہوں۔بتلاؤ کہ ان غریب ،ناچار،بیمار فاقہ زدہ اور  مصائب کشیدہ آدمیوں میں اور ان جانوروں میں کون آگا ہ ہے؟کہ میں فلاں جرم کے سبب سے اس حالت  میں ہوں۔یہ تو الٰہی حکمت کے انتظام ہیں۔اور ہر جانور اپنی فطری حالت میں خوش ہے۔اور تناسخ کا خیال غلط ہے۔

خدا کے پیغمبروں نے خدا سے معلوم کرکے ہمیں یوں سکھلایا ہے کہ حیوانات کی روحیں فانی ہیں اور سب حیوانات آدمیوں کی خدمت اور خوراک کے لیے پیدا ہوئے ہیں۔نباتات میں اور اُن میں قدرے فرق ہے۔اور ان میں انسانی روح ہرگز نہیں ہے۔انسان کی روح جو ایک مخلوق شے ہے۔ایک دفعہ دنیا میں آتی ہے۔اور جب وہ مر گیابدن مٹی ہو جاتا ہے۔اور روح اس کی عالم غیب یعنی عالم ارواح میں رہتی ہیں۔عدالت کےدن تک سب روحیں وہاں جمع رہیں گی اور ان کے لیے آسائش یا دکھ حسبِ ان کی حالت کے رہے گا۔قیامت کے دن خداوندیسوع  مسیح آئے گا۔اور جہان کی عدالت وہی کرے گااسی کو خدا باپ نے ساری عدالت سونپ دی ہے۔کیونکہ وہ اللہ انسان ہے۔اس کے سامنے سب روحیں اپنے بدنوں میں اٹھیں گی۔اورعدالت کے بعدایماندار جن کا بھروسہ مسیح کے کفارہ پر ہےابد تک خدا کی رحمت میں آرام سے رہیں گے۔اور بے ایمان ابدی دکھ میں چلے جائیں گے۔پھر وہاں سے کبھی نہیں چھوٹ  سکتے اور یہ بات کہ خدا ایک جدا شے ہے۔اور انسان وغیرہ جدی چیزیں ہیں۔برابر قائم رہیں گی۔مفرد و مجرد سب جھوٹے ثابت ہوں گے۔جب سزا کا منہ دیکھیں گےتوساری تفرید تجرید بھول جائے  گی۔ہائے ہائے سوجھے گی۔ابھی قبروں کا حلوہ اور روٹی کھا کر مست ہو رہے ہیں اور اوست کے دم مارتے ہیں۔وقت آتا ہے کہ اوست کا پوست اترے گا اور میں تو کی سوجھے گی۔

سواء یسوع ابن مریم کے ہر ایک  آدمی پیر ہو یا پیغمبر گناہگار اور ابدی سزا کا مستحق ہے۔کیونکہ سب نے خدا کی شرع کوتوڑا۔ سب نے  نامناسب کام کیے۔سب بگڑی ہوئی جڑ  کی ڈالیاں ہیں سب دوزخ کی آگ میں جلنے کے لائق ہیں لیکن خدا  نےمہربانی کرکے عدالت سے پہلے مسیح خداوند کو بھیج دیاجس نے دنیا میں آکر سب اولین اور آخرین یعنی کل بنی آدم کے لیے الہٰی قرضے کو ادا کیا۔اور دکھوں کو اٹھایا۔اور سب کے لیے شریعت الٰہی کو پورےطور پر عمل میں لایاپھر عام منادی کرائی کہ جوکوئی اس پر ایمان لائے یعنی اس کے فضل کو منظور اور قبول کرےاور کہے کہ میں اس بات سےراضی اور خوش ہوں کہ تونے میرا قرضہ ادا کیا اور مجھے بچا لیا۔میں اب تیرا غلام ہوں سب باتوں میں تیرا فرمانبردار رہوں گا۔توآگے کو بھی میری مدد اور حمایت کر تو وہ آدمی آئندہ سزاسے بچ جائےگا۔اور جو وہ کہے کہ تو کون ہے؟میں ادا کیا ہوا قرض کیوں منظور کروں؟تونے میرا دکھ کیوں اٹھایا؟میں آپ اپنا دکھ اٹھاؤں گا۔آپ نیک اعمال کرکے بچوں گا۔مجھے یقین بھی نہیں آتا کہ تونے میرا قرض اٹھا لیا۔فلاں پیر یا فلاں پیغمبر میری شفاعت کرے گا۔یا خدا آپ رحم کرکے مجھے بخش دے گا۔ایسے آدمی کو اختیار ہے کہ جدھر چاہے وہ ادھر جائے۔اور جو چاہے سو کرے مسلمان رہے یا صوفی بنے یا نیچری ہو۔لیکن یاد رکھیں کہ ابدی سزا میں ضرورپھنسا ہو گا۔خدا اس پر کبھی رحم نہیں کرے گا۔اس لیے کہ اس نے خدا کے انتظام اور  رحم کو جو مسیح میں اس کے لیے ہوا تھارد کیا ہے۔اور مسیح نے جواس کا قرض ادا کیا ہےاس شخص نے اپنی رضامندی اس بارے میں  الگ  کرکےاپنے حق میں اس ادا کیے ہوئے قرضے کومنسوخ کرایا ہے۔اور اپنے اوپر بحال کھوایا ہےاب یہ خود قرضہ ادا کرے یا ابد تک دکھ میں رہے۔

سارےگناہوں کی فہرست ابد تک پیشِ نظر رہے گی اور سب حسرتوں سےبری حسرت یہ ہوگی۔ہائے میں نے مسیح کے فضل کو رد کرکے اپنے سارے گناہوں کے تدارک کو  جو مجھے مفت ہاتھ آیا تھاکیوں نادانی سے قبول نہ کیا تھا۔ہائے میں نے مسیح کو رد کرکے اپنی ابدی آسائش کو رد کردیا اور اب کچھ نہیں ہوسکتا رحم کا دروازہ ابد تک بندا ہو گیا عدالت کا منہ ابد تک چبانے کو کھلا ہے۔ 

۳۳ ۔فصل صوفیوں کی وہ کیفیت جو اب ہے

جو کیفیت علم سلوک اور سالکین  کی اس کتاب میں کتب تصوف سے سنا چکا ہوں اور اس کا ابطال بھی دکھلا چکا ہوںوہ کیفیت حال کے صوفیہ میں برائے نام ہے بلکہ ایک اور کیفیت پیدا ہو گئی ہے۔جو پہلی کیفیت کی بانسبت زیادہ تر بری ہے۔

 شروع میں پہلی کیفیت کے لوگ ہندوستان میں ظاہر ہوئے تھے ان کے چند شاگرد ویسے ہی ہو گئے تھے۔مثلاً معین الدین چستی، قطب الدین  بختیار کاکی، فرید الدین مسعود یعنی بابا فرید،قطب جمال الدین احمد ہانسوی،نظام الدین اولیا، علاؤالدین صابر۔شاہ ابو المعانی شاہ ابوالعلااور سید بھیک وغیرہ یہ سب لوگ پہلی کیفیت کے شخص تھے۔

 ان کے بعد یہ کارخانہ نہایت بگڑ گیااب صرف نام کے صوفی پھرتے ہیں اور وہ جو اُن میں نامی ہیں اکثر خاندانی پیر زادے ہیں۔جن کا جداعلی کوئی نامی صوفی تھا۔جس کا مزار کہیں کہیں عالی شان عمارت سے بنایا اور خوب سجایا ہے قبر پر عمدہ عمدہ غلاف ڈالے ہیں۔پھولوں اور خوشبوں سے معطر کیا ہے۔رات کو بہت چراغ جلاتے اور ادب سے زیارت کرتےاور کراتے ہیں ۔قبرکے قدموں پر جھک کر بھوسے دتیے ہیں خادم یا مجاور جو مقرر ہیں۔وہ صفائی رکھتے اور مور کی دم کے پرو سے جھاڑوں دیتے ہیں۔سال میں ایک بار موت کی تاریخ  میں میلا کرتے ہیں۔کسبیوں کا ناچ ہوتاہے۔جس سےوہ پیر صاحب اپنی زندگی میں بے زار تھے۔قوالوں کے راگ درویشوں کے وجد ہوتے ہیں۔ہو حق کا نعرہ بلند ہوتا ہے۔

 جاہل منتیں مانتے نذر نیاز روپیہ پیسہ کوڑیاں اور قسم قسم کے کھانے مٹھائی ریوڑیاں خوب آتی ہیں مزے اڑتے ہیں۔خدا کو چھوڑ دیا قبروں کو معبود بنا لیاہے۔جس پیر زادے کے خاندان میں کسی بزرگ  کا ایسا مزار بن گیا ہے اس کے لیے تو دنیا میں ایک جاگیر پیدا ہوگئی ہے۔وہ زمینداروں سے اچھا رہتا ہے۔اور کتنے گھرانے اس قبر سے خوراک حاصل کرتے ہیں۔سارا خاندان اس مزار کو مزارشریف کہتا ہے۔بلکہ اس شہر کو بھی اس مزار کی وجہ سے شریف کہتے ہیں اور رات دن مداحی میں مصروف ہیں۔کرامتیں اور قدرتیں اس مزار کی نسبت ہمیشہ تصنیف ہو کر اڑتی رہتی ہیں دیکھو آج کل ایک کتاب نکلی ہےجس کانام حقیقتِ گلزار صابری 11 ہے۔اس کے مصنف نے باطل روایتوں کے فروغ دینے کو بعض کتابوں کے نام بھی دل سے فرض کر لیے ہیں۔کہ یہ بات مکتوب نطاب وغیرہ میں لکھی ہے۔نہ مکتوب نطاب وغیرہ کوئی چیز ہے اور نہ  ہی وہ بات صحیح ہے صرف گلزار صابری کی بہار ہے۔

محمدی مولوی ہمیشہ چلاتے رہتے ہیں کہ اے ظالموں کیا کرتے ہو۔یہ نہ صوفیت ہے اور نہ اسلام ہےیہ تو بت پرستی ہے۔مگر پیر زادےکب مانتے ہیں۔نالائق دلیلوں سے ان کا مقابلہ کرتے اور ایسی بری نگاہوں سے ان کو دیکھتے  ہیں۔جیسے متعصب مومن کافر کو دیکھتا ہے۔پس حال کے صوفیہ کی ایک تو یہ صفت ہے کہ جس کا بیان ہوا۔افسوس کی بات ہے کہ اڈیٹران اخبارات جو اکثر برہمو اور آریوں اور نیچریوںوغیرہ کی نسبت کچھ لکھتے رہتے ہیں۔ان صوفیوں کی طرف سے کیوں چپ ہیں چپ رہنے میں ان ہزارہاآدمیوں کا نقصان ہے۔اور چھڑ چھاڑ میں فائدہ ہے کہ آدمی جگائے جاتے ہیں۔لیکن ادب  اورشا ئستگی سے کلام کرنا مناسب ہے۔

کچھ نہ کچھ چھیٹر چلی جائے ظفر   گر نہیں وصل تو حسردت ہی سہی

دوسری بات ان میں یہ ہے کہ ہر کوئی کسی نہ کسی پیر  صاحب کا مرید ہےاس سے شجرہ لیا ہے۔اور کچھ وظیفہ سیکھاہاتھ میں تسبیح لی جمعرات کو زیارت کے لیے کچھ قبریں انتخاب کیں سالانہ عرسوں میں برابر حاضر ہیں اورکچھ کوشش بھی کرتے ہیں۔کہ لوگوں کو متعقد بنا دیں تاکہ روپیہ آئے اور عزت سے رہیں یہ مقصد اعلیٰ اکثروں کا ہے۔

میں ان صاحبان سے بمنت  کہتا ہوں کہ اگر تم منصف آدمی ہو تو آپ ہی انصاف سے کہو کہ یہ تسبیح اور وظیفہ کس مطلب سے ہے۔کیا فتوحات اور کشائش روزی اور دست غیب اوررجوعات اور تسخیر قلوب کے وظیفے ڈھوندھ ڈھونڈھ کر تم نے اپنے لیےاختیار کررکھے  ہیں۔یا نہیں اور اپنی اولاد کو بھی سکھلاتے ہو کہ نہیں۔پس یہ سر پرستی ہے یا خدا پرستی ہے۔تم کس منہ سے کہا کرتے ہوکہ فلاں شخص دنیا حاصل کرنے مسیحی ہو گیا ہے۔کیا تم خدا کے طالب ہواور وہ دنیا کاطالب تھا؟خدا سے ڈور سچا انصاف کرومیں تو مدت دراز تک صوفیہ میں رہا۔ان کے گھر کے بھید سے خبر دار ہوں۔میں نےتم میں کوئی کوئی آدمی دیکھا جو خدا کا طالب تھا۔اکثر دنیا کے طالب دیکھے اوروہی وظیفے تلاش کرتے رہے۔جن سے دنیا حاصل ہو دنیا کے طالب خود ہو دوسروں کی نسبت کیوں بد گمانی کیا کرتے ہو؟اگر تم خدا کے طالب  ہوتے تو ضرور خدا کو پاتے وہ اپنے طالبوں کو بے مراد نہیں پھرنےد یتا میں نے یہ کتاب ایذا رسانی کے لیے نہیں مگر دلی محبت اور دوستی کا حق ادا کرنے کے لیے لکھی ہے تاکہ خوابِ غلفت سے جگاؤں۔

تیسری بات جو ان میں ہے یہ ہے کہ جب ان صوفیہ نے دیکھا کہ ہم میں نہ کچھ قدرت ہے نہ تاثیر ہے۔اورہم لوگوں سے کہتے پھرتے ہیں کہ ہمارے  گزشتہ بزرگ ایسی ایسی قدرت اور تاثیر کے شخص تھے۔ہم میں کچھ  تو ہوتاکہ عزت رہےاور ہم بھی صاحبِ تاثیر مشہور ہوں۔اور جاہل سمجھیں کہ قبر والے بڑے پیر کی قدرت حضرت سجادہ نشین صاحب میں بھی ہے۔پس وہ تعویذوں اور گنڈوں اورفلتیوں اورفال اور رمل اوربعض سفلی جادوں کی طرف مائل ہوتے ہیں بلکہ رات دن دعا میں مشغول رہتے ہیں۔

دو تین انگل کا یک مربع کاغذ لے کر اس پر لکیروں سے خانے بناتےاور خانوں میں ۲ و ۴ اور ۸ وغیرہ لکھتے  اور جاہلوں کو دیتے ہیں۔کہ لو گھول کر پی لو یا گلے میں ڈال لو۔تمہاری حفاظت ہوگی۔یہ تعویذ کی صورت ہے۔

گنڈوں کی یہ صورت دو تین بالشت کا کچا دھاگا سات تار کا لیتے ہیں اوراور اس میں  سات گانٹھیں دیتےاور گانٹھ میں اپنے منہ کی ہوا کو منت پڑھ کر باندھتے ہیں۔اور کہتے ہیں کہ لو اپنے لگلے میں باندھوں بخار نزدیک نہ آئے گا۔اور کسی چڑیل وغیرہ کی تاثیر نہ ہو گی۔یا بھینس کے سینگ میں باندھوں خوب دودھ دے گی۔

فلتیوں کی یہ صورت ہے کہ جب کوئی آدمی بھوت کا بیمار سمجھا جاتا ہے تو پیر صاحب کاغذ پر فرشتوں کے یا پیغمبروں کےنام لکھتے ہیں۔اور بتی کی مانند لپیٹتے ہیں اورکہتے ہیں کہ  اسے جلا کر بیمار کی ناک میں دھواں چڑھاہو۔تاکہ اس کا دماغ خراب ہو اوروہ کچھ بکے اور یہ کہیں کہ فلیتے کی تاثیر  سے بھوت آیا ہےوہ بولتا ہے۔اورجو بیمار مضبوط ہو اوراس دھوئیں سے نہ بکےتو ایک اور فلیتہ لکھتےاور نیلے چتھڑے میں لپیٹتے  ہیں۔جس کا دھواں زیادہ گھبرا دیتا ہے اور جو وہ اس سےبھی نہ بکے تو مرچیں جلا کر دھواں دیتے ہیں یہاں تک وہ بک اٹھتا ہے۔اور کہتے ہیں کہ ہاں اب بھوت قابوں میں آیا ہے۔اب میں اس کو جلا دو گا۔چولہےمیں بیری کی لکڑیاں جلاؤ اس پر کوری ہنڈیا خالی رکھواور پاس بیٹھ کر ماش کے دانے پر کچھ پڑھتے ہیں۔اور ہنڈیا میں ڈالتے جاتے ہیں اور آستین میں ایک بکری کا پتہ جس میں سرخ نری کا رنگ بھر لاتےچھپار ہتا ہے اور موقع پا کر فوراً ہنڈیا میں ڈالتے ہیں اور کہتے ہیں کہ لو بھوت جل گیاآؤ اس کا خون دیکھ لو ارے احمقوں روح میں خون کہاں سے آ سکتا ہے؟پھر کہتے ہیں کہ ہنڈیا کو باہرلے جا کر گہرے غار میں دفن کر دوکہ بھوت پھر سے نہ نکل آئے اور جلد ایک سفید جوان مرغ ، گھی ،چاول، میدا اورمیوہ وغیرہ لاؤ کہ ان فرشتوں کانذرانہ دوں جنہوں نے اس بھوت کو پکڑ کر جلایا ہے۔اورمجھےجو کچھ دینا ہے وہ جدا نقددیدو۔تب وہ جاہل غریب دیہاتی جو تنگ دست  ہوتے ہیں جس طرح ہو سکتا ہے وہ یہ نذرانہ دیتے اور پیر صاحب اپنے گھر میں مرغا پلاو کہتے اورہنستے ہیں۔

فال کی یہ صورت ہے کہ ایک کتاب بنا رکھی ہے۔جس کے اول میں  ایک صفحہ پر ایک نقشہ  ہے  ہر خانے میں کوئی حرف لکھا ہے جیسے کہ الف بے وغیرہ اورحرف کا بیان کتاب میں کچھ لکھا ہے۔

غریب مصیبت زدہ جاہل عورتیں اپنی تنگیوں میں چپ چاپ پیر صاحب کے پاس حاضر ہوتی اور اپنا دکھ روتی ہیں اور پیر صاحب فالنامہ یعنی وہی کتاب نکالتے اور وہ عورت نذرانہ کتاب پر رکھ دیتی ہے۔تب فرماتے ہیں کہ اپنی انگلی کسی خانہ پر رکھ۔جس خاننے پر وہ انگلی رکھی۔اسی کے  حرف کابیان  کتاب میں سےنکال کرسناتے ہیں۔اگراچھا بیان ہے توفال مبارک ہوئی اور اگربرا بیان ہے تو عورت غمگین ہو گئی۔کہ میرے لیے یہ آفت آئے گی۔تب کہتے ہیں کہ یوں صدقہ دواور یوں یوں کرو بلا دفع ہو جائے گی۔بعضوں نے رمل سیکھ لیا ہے۔وہ رمل سےمثلاًً راول جوگیوں کے کچھ بتلاتے ہیں ۔ اوریوں جناب پیر صاحب کی بزرگیاں ظاہر ہوتی ہیں۔ایسی باتوں میں اسلام کا ذکر ہے۔

یہ تین باتیں جو میں نے یہاں لکھی ہیں ان میں سے پہلی بات گویا ان کاسلوک یا صوفیت ہے۔دوسری بات میں وہ گویا طرق سلوک پورےکرتے ہیں۔تیسری بات میں ان کا عروج  ہے۔جو کہ ان کی صوفیت سے حاصل ہوا ہے فقط آخر میں پھر کہتا ہوں کہ اگر خدا سے ملنا چاہتا ہو ےتو بائبل مقدس  کی طرف دیکھو اور دین مسیحی کی کیفیت اور ماہیت دریافت کرنے کے لیے کوشش کرو۔

راقم بندہ :عماد الدین لاہز


قرآن میں بیوی کو مارنیکا  حکم


According to the Qur’an
A Husband may strike his wife

(an-Nisa' 4:34 & Saad 38:44)


Published in Nur-i-Afshan Feburary 8, 1895
By Fatamil

سورۃ ص کی ۴۳ آیت میں لکھا ہے۔ کہ خدا نے ایوب کو حکم دیا۔ کہ وَخُذْ بِيَدِكَ ضِغْثًا فَاضْرِب بِّهِ وَلَا تَحْنَثْ ۔یعنے جھاڑو اپنے ہاتھ میں لے اُور اُس سے اپنی بیوی کو مارا اور حانث یعنے قسم توڑنے والا نہو یہ جھاڑو سے مارنیکی سزا زوجہ ایوب کو خدا نے اُس کے شوہر کےہاتھ سے جس قصور پر دلوائی اُس کا زکر تفسیر حسینی میں یوں لکھا ہے۔ کہ ’’حضرت ایوب کے زمانۂ مرض میں اُن کی بی بی جس کا نام رحیمہ تھا کسی کا م کو گئی تھی۔ وہاں اُس کو دیر ہو گئی ۔ تو حضرت ایوب نے قسم کھائی۔ کہ اُس کو سو لکڑیاں ماروں گا جب اُنہیں صحت ہوئی۔ اور پھر جوانی اور تندرستی کی حالت پر آئے۔ تو چاہاکہ اپنی قسم پوری کریں۔ اس لئے یہ حکم ہوا۔ اب اِس میں یہ امور قابل غور ہیں۔ کہ ایسا زکر صحیفہ ایوب میں ہر گز کہیں نہیں ہے معلوم نہیں محمد صاحب کو یہ انوکھی روایت کس الہام سے پہنچی۔ پھر زوجہ اّیوب کا ایسا بڑا قصور نہ تھا۔ کہ ایوب جیسا صابر شوہر اپنی بیوی کو اتنے خفیف تصور پر سو لکڑیاں مارنے کی قسم کھائی۔ تیسرے یہ۔ کہ کیوں خدا نے ایوب کو بھی اپنی قسم اِسی طرح اُتار ڈالنے کا حکم دیا۔ جیسا کہ محمد صاحب کو ماریہ قبطی کے معاملہ میں دیا گیا بلکہ قسم پوری کرنے کو سو جھاڑوؤں سے مارنے کا حکم دیا؟ کیا یہ سزا علاوہ بیعزتی کے کچھ کم نقصان رسان تھی؟ ہر گز نہیں بلکہ سو جھاڑوؤں کے مارے تو عورت کا کیا۔ مرد کا بھیجا پلپلا ہو جائے۔ وہ لوگ جو قرآنی تعلیمات ِاخلاقی کی تعریف کرتے ہیں زرا اِن باتوں پر غور کریں۔

اب دیکھئے کہ انجیل مقدّس میں اپنی جوروؤں کی نسبت شوہروں کو کیا حکم  دیا گیا ہے۔  افسیوں کے ۵: ۲۵ میں لکھا ہے۔ کہ ’’اے مردو اپنی جوروؤں  کو پیار کرو ۔ جیسا مسیح نے بھی کلیسیا  کو پیار کیا۔  اور اپنے تئیں اُس کے بدلے دیا‘‘۔ پھر اسی باب کی ۲۸ اور ۲۹ آیات میں ہیں۔ کہ یوں ہی مردوں پر لازم ہے۔ کہ اپنی جوروؤں کوایسا پیار کریں۔ جیسا اپنے بدن کو۔ جو اپنی جورو کو پیار کرتا ہے۔  سو آپ کو پیار کرتا ہے۔ کیونکہ کسی نے اپنے جسم سے کبھی دشمنی نہیں کی۔بلکہ وہ اُسے پالتا اور پولتا ہے۔ جیسا خداوند بھی کلیسیا کو‘‘۔ پھر قلسیوں کے ۳ باب ۱۹ آیت میں لکھا ہے۔ کہ ’’اے مردو اپنی جوروؤں کو پیار کرو۔ اور اُن سے کڑوے نہو۔‘‘ پہلے پطرس کے ۳ باب ۱۷ آیت میں حکم ہے۔ کہ ’’اے شوہرو تم دانائی سے اُن کے ساتھ رہو۔ اور عورت کو نازک پیدایش سمجھ کر عزت دو‘‘۔ پس یہ صاف ظاہر ہے۔ کہ ایوب کو حکم دینے والے قرآنی خدا میں۔ کہ’’اپنی جورو  کو جھاڑو لے کر مار‘‘۔ اور کتب مقدسہ کو الہام سے لکھوانے والے  خدا میں زمین و آسمان کا فرق ہے۔

فتامل

بعض آیات قرآن پر سرسری ریمارکس

Criticism on Qur’anic Teaching

Published in Nur-i-Afshan September 27, 1895

سال گزشتہ یعنےسنہ۹۴ء کےدرمیانی چندہفتوں کے پرچے اخبار نور افشاں  میں ایک مضمون بہ عنوان ’’بعض خیالات محمدی پر سرسری  ریمارکس‘‘ درج ہوا۔جس میں محمدی صاحبان کے بعض  خیالاتدینیہ در واجیہ کا خلاصہ۔ جن کو وہ اپنے  تئیں اہل کتاب  سمجھ کر قرآن  و حدیث  کے موافق  اپنے مذہبی فرایض عمل مین لانے کے لئےضروری اور موجب ثواب خیال  کرتے ہیں مقابلہ کے طور پر تحریر  کیا گیا ۔ اور جس کا نتیجہ صرف  یہی حاصل ہوا۔ کہ اُن کے وہ مذکورہ  کل خیالات  اہل کتاب مسیحیوں کی تعلیم  کے محض خلاف۔ مگر ہاں بہت کچھ تعلیم  ہنود کے موافق ثابت و ظاہر ہوئے۔ جو از روئے قرآن مشرک قرار دئے جاتے ہیں۔ اور جو امر نہایت ٍغور طلب ہے اور جس کے لئے  ادباً مکر التماس بھی کیا گیا  تھا کہ اگر اُن  کی کوئی دوسری  حقیقت ہو تو کوئی صاحب برائے مہربانی اُس کو ظاہر کر کے راقم مضمون کو ممنون و مشکور فرمائیں ۔ مگر ہنوز جس کو قریب ایک سال کا عرصہ  گذرتا ہے کسی صاحب نے خاکساری  کو ممنون نہ کیا ۔  

پس اب دوسرا مضمون بالا سے درج اخباء ہذا کیاجاتا ہے۔ جس میں قرآن صاحب کے اُن الفاظ  پر غورکرنا  کمال ضروری ہے۔ جن کے زریعہ بعض محمدی صاحبان ہم مسیحیوں پر بعض  دفعہ ہٹ دہرمی یا بے منصفی  کا  الزام  لگایا کرتے ہیں کہ ’’ قرآن تو ابجیل اور دیگر کتب انبیا  کی تصدیق  کرتا ہے۔ مگر مسیحی قرآن اور محمد صاحب کوقبول و تسلیم نہیں کرتے‘‘ وغیرہ وغیرہ ۔ چنانچہ اُن آیات قرآنی میں سے جن  میں وہ  کتب سابقہ یعنے توریت و انجیل وغیرہ  کے مصدق ہونے کا اقرار کرتا  ایک یہ ہے یعنے’’قرآن بناوٹ کی بات نہیں ہے۔ مگر وہ تصدیق ہے اگلی کتاب کی اور تفصیل  ہے ہر چیز کی اور ہدایت  و رحمت  ہے اُس قوم کے لئے جو ایمان  لاتے ہیں‘‘ سورہ یوسف آیت۱۱۱۔

البتہ اِن الفاظ قرآنی کے زریعہ  مسیحیوّں کومناسب ہی نہیں۔ بلکہ نہایت ضروری ہوتا۔ کہ وہ اگرچہ قرآن  کو منجانب اﷲ اور محمد صاحب کونبی برحق تو ہر گز  نہ مان سکتے تھے۔ کیونکہ نبی اور نبوّت  کی ضرورت ۔ ضرورت پر موقف  ہے۔ جن کا خاتمہ  کتاب مکاشفات  پر  ہو چکا۔  اور اب نہ کوئی اور کتاب کی ضرورت  اور نہ کسی دیگرنبی کے ظہور کی کچھ حاجت باقی رہی جس کی بحث بدلایل کتاب عدم ضرورت ؔقرآن  کےصفحہ  ۳ سے ۱۵ تک بغور مطالعہ کرنا چاہئے ۔ تاہم وہ اُن کی  عزت و تعظیم دیگر بزرگوں کے مانند ضروری کرتے۔ جس کے لئے اُنہیں  عام طور حکم  دیاگیا ہے کہ ’’ اگر تم فقط اپنے بھائیوں کو سلام  کرو تو کیا زیادہ کیا۔ کیا محصول  لینے والے بھی ایسے نہیں کرتے ۔ متی ۵: ۲۷۔ اور جن کی خاصیت  کا قرآن میں بھی  یوں مذکور ہے ’’اور دوستی کے بارہ میں مسلمانوں  کے تو اُن کو زیادہ قریب پائیگا جوکہتے ہیں کہ ہم نصاریٰ ہین اس لئے کہ ان میں قسیس  اور رہبان ہیں اور یہ لوگ تکبر  نہیں کرتے‘‘ سورہ المائدہ۔ آیت ۸۵۔

مگر تعجب کا مقام  ہے کہ وہی قرآن اپنے اِن الفاظ کی آڑ میں  دیگر  کتب سابقہ اورخصوصاً انجیل مقدس کو رد کرنے کا ارادہ  کر کے صرف اپنی ہی  ضرورت کو پیش کرنے چاہتا ہے۔  جو کلام اﷲ بیئبل مقدس کےمحض خلاف اور ناممکن  امر ہے۔ تو بھلا  کیونکر ہو سکے۔ مگر ہاں کوئی بیجا یا نامناسب  لفظ اُن کے یا کسی کے خلاف اپنی  زبان یا قلم سے  مسیحیوں کا نکالنا اُن کے اُصول ایمانیہ کے بالکل  خلاف  ہے۔ لیکن راستی اور حق کو  ظاہر کرنا بھی اُن  کا خاص و ضروری  فرض ہے۔ جو بیشک  اکثروں کو بُرا معلوم  ہو سکتا امر مجبوری ہے۔ چنانچہ قرآن کی اُن بعض آیتوں میں سے جو تعلیم  بیبل کے خلاف ہیں۔ بعض کا مختصراً یہاں زکر کیا جاتا ہے۔ کہ جن کے زریعہ قرآن خصوصاً  انجیل  مقدس پر اپناحملہ ظاہر کر کے اُس کی خاص تعلیم کو رد کرنے کی بدرجہا کوشش کرتا ہے۔ جن میں سے اول  اُن آیتوں* پر غور کرے جن کا زکر انجیل مقدس میں مطلق پایا جاتا اور نہ ہو سکتا  ہے۔ مگر قرآن  اُن کے زریعہ اپنا دعویٰ  اُس پر ثابت کرتا ہے۔


نوٹ: جن کا  جواب محمدی صاحبان کے پاس سوا اس کے اور کچھ نہیں کہ ’’ قرآن میں ایسا ہی لکھا ہے‘‘ سچ ہے۔ مگر انجیل کے سامنے اس کا منجانب اﷲ ہونا نہ آج تک ثابت ہوا اور نہ آیندہ ہو سکتا ہے۔ البتہ قرآن کے ایسے  دعویٰ ثابت  کرنے کےلئے وہ یہ ضرور کہا کرتے ہیں۔ کہ یہ انجیل تحریف و تبدیل  ہوگئی۔ اور وہ اصلی  انجیل ہے ہی نہیں ‘‘ وغیرہ وغیرہ ۔ مگر  اُن کے ایسے  بے بنیاد و بے دلیل خیال  کی قاطع تردید معہ کامل ثبوتوں کے اکثر  مسیحی علماء کی تصانیف  میں  بھری پڑی ہے ۔ جسکو کمال  غور و فکر سے مطالعہ  کرنا نہایت  ضروری  ہے۔ اور جس کا خلاصہ یہ ہے۔ کہ  بلاشک و شبہ یہ وہی اصلی کلام اﷲ انجیل مقدس ہے۔ جو بہ زمانہ  حواریان سے آجتک  بہ حفاظت  تمام مسیحیوں کے ہاتھ  میں صحیح سلامت موجود ہے۔ کہ جس میں کچھ بد لکر بڑھانا یا گھٹانا کسی انسان کا مقدور نہیں ہے چنانچہ قرآن بھی اس امر کی پوری۔ پوری تائید  کرتا ہے۔ کہ ’’اﷲ کی باتوں (کلام )  کو کوئی  بدلنے والا  نہیں ہے‘‘ دیکھو سورہ انعام آیت ۳۴۔  ۱۱۵ و سورہ یونس  آیت  ۶۵ کو ۔ کہ جس  نہایت خطرناک و مکروہ فعل بچنے کے لئے خدائے تعالیٰ کی طرف سے نہایت خوفناک  فتویٰ اس کے پاک کلام میں بھی درج ہوئے۔ دیکھو۔

اول ۔ وہ آیات قرآنی جن کا زکر  انجیل میں مطلق پایا نہیں جاتا۔

۱۔ سورہ المائدہ آیت  ۱۱۶، ۱۱۷۔ ( ۱۱۶) ۔ ’’اور جب خدا نی کہا اے عیسیٰ مریم کے بیٹے کیا تو نے لوگوں سے کہا تھا کہ مجھسے اور میری ماں کو اﷲ سے الگ دو خدا مانو۔ عیسیٰ بولا تو پاک ہے مجھ سے کیونکر ہو کہ وہ بات کہوں جومیرا  حق نہیں۔ اگر میں کہتا تو مجھے  معلوم ہوتا تو میرے دل کی جانتا ہے اور میں تیرے  دل کی نہیں جانتا تو تو چھپی باتیں  جانتا ہے۔ ( ۱۱۷) میں نے اُنہیں وہی بات کہی ہے جس کا تونےمجھےحکم دیا تھا کہ تم  اﷲ کی عبادت کرو جو میرا اور تمہارا رب ہے۔ اور جب تک  میں اُن میں رہا اُن کا نگہبان رہا اور جب تونے مجھے وفات  دی تو اُن کا نگہبان ہو گیا اورتو ہر شے پر گواہ ہے۔

آیات قرآنی مذکور ہ بالا  سے دو باتیں تشرح ہیں۔  اول یہ۔ کہ خداوند  یسوع مسیح کے اقرار کی آڑ میں بزرگان دین یعنے رسولوں۔ حواریوں اور دیگر بزرگوں نے مریم کو ایک معبود ( خدا) سمجھا۔ سوائے اﷲ کے۔ دوم۔ یہ کہ خداوند  یسوع مسیح کی الوہیت کا اقرار کیا بر خلاف اُس کے انکار کے۔ جس نے مثلِ محمد صاحب  کے ایک نبی ہو کر لوگوں کو صرف  نصیحت دی۔ کہ بندگی  کرواﷲ کی وغیرہ وغیرہ  مگر ان باتوں کا زکر انجیل مقدس میں مطلق پایا نہیں جاتا ہے۔ اور نہ کسی دیندار مسیحی کی روایت  سے آجتک  اُن کی کوئی تصدیق ہوئی لیکن تعجب ہے کہ چھ (۶۰۰)سو برس  بعد محمدصاحب کو بزریعہ وحی یہ ہدایت پہنچی۔ اب ان باتوں پر غور کرئے۔


·بقیہ فٹ نوٹ کتاب کا مکاشفات ۲۳: ۱۸، ۱۹ کو ۔ کہ جسکی کاملیت کا کامل ثبوت صرف یہی کافی ہو سکتا ہے۔ کہ اسکی تعلیم دیگر  کل مذاہب  کی تعلیموں پر غولب  ہے۔ جس کی بہت کچھ حقیقت  مضمون ’’بعض خیالات ۔


اوّل ۔ مریم انسان تھی ۔ جس کو کبھی کسی عیسائی  نے آج  تک معبود  (خدا) قرار نہیں دیا۔ جس حال کہ کلام خدا انسان کو انسان  پر صرف  بھروسا  رکھنے  پر لعنت کا فتویٰ ظاہر کرتا ہے۔ ( یرمیاہ  ۱۷: ۱۵) تو اُسکو خدا سمجھنے  کا  کس  قدر ہولناک نتیجہ۔ جس کی وجہ صرف  یہ ہے  کہ محمد  صاحب نے رومن  کیتھولک عیسائیوں کو غلطی سے مریم کی زیادہ تعظیم کرتے ہوئے دیکھ کر اُس کو پاک تثلیث  کا اقنوم  ثالث خیال  کر لیا۔ اور عیسائیوں کے سر پر یہ الزام تھوپ دیا جس  کو وہ خود کفر سمجھتے ہیں۔

دومؔ۔ خداوند یسوع مسیح کی الوہیت کے ثبوت پر انجیل مقدس میں بکثرت  شہادتیں و صداقتیں موجود ہیں جو کو  آنکھ کھولکر  دیکھنا چاہئے۔ مگر ان کا زکر بسبب طوالت قطع نظر کے یہاں پر صرف خداوند  یسوع مسیح کے چند اقول جو اس امر کہ ثبوت پر اُس میں  برملا دعوے  کے ساتھ  مذکو ر ہوئے  مندرج کئےجاتے ہیں۔ چنانچہ اُس  نے فرمایا  کہ ۔ میں باپ  کی گود  سے آیا  ہوں کہ میں  نے خدا کو  دیکھا  اور میں ہی اُس کو ظاہر کرتا ہے ( یوحنا ۱ : ۱۸)کہ ’’ میں اور باپ ایک ہوں ‘‘ ( ۱۰: ۳۰) کہ میں عدالت (قیامت) کے دِن مردون کا انصاف  کرونگا (۵: ۲۲) کہ ’’جس نے مجھے دیکھا اُس نے باپ کو دیکھا‘‘ ( ۱۴: ۹) کہ ’’آسمان و زمین کا سارا اختیار مجھے دیا گیا ‘‘ ( متی ۲۸: ۱۸) کہ ’’میں  زمانہکے آخر تک ہر روز تمھارے ساتھ ہوں‘‘ ( ۲۸: ۲۰)  وغیرہ ۔ وغیرہ ۔ پس اِس قدرا قراروں اور دعووں کے سامنے قرآن کے اُس مصنوعی انکار کی  جو محض غرض


بقہ* فٹ نوٹ  محمدی پرسر سری ریمارکس‘‘ میں ظاہر ہو چکی یا آیندہ ظاہر  ہو جائیگی۔ جو امر نہایت غور ہے کہ بے تعصب  آزمایا  جاوے۔

مولوی رحمت اﷲ کے ترجمہ میں لکھا ہے ’’پس جب قبض  کیا تونے‘‘ معنے دونوں کے ایک ہی ہیں۔ مگر یہی قرآن  دوسرے مقام میں خداوند یسوع مسیح کی وفات  کا انکاری  ہے۔ دیکھو سورہ النساء  آیت  ۱۵۶، ۱۵۷۔ جس کا زکر آیندہ کیا جاویگا۔


سے کیا گیا ۔ جس کا زکر آیندہ بھی کیا جاویگا کیا  وقعت ہو سکتی ہے۔


۲۔ سورہ  النساءآیت ۱۶۹۔ ’’ اور اے اہل کتاب اپنے دین  میں مبالغہ  نہ کر  اورخداکی نسبت صرف  حق بات بولو۔ مسیح عیسیٰ ابن مریم اﷲ کا رسول  اور اُس کا کلمہ  ہے جسے  اُس نے مریم کی طرف  ڈالا تھا اور روح ہے اُ س میں ہے  (یعنے خدا میں سے) پس تم اﷲ پر اور اُس کر رسولوں پر ایمان لاؤ اور تین نہ کہو باز آؤ تمہارابھلا ہوگا‘‘ الخ۔

البتہ اس آیت قرآنی کے درمیانی الفاظ  جن پر خط کھینچا  گیا  عجیب  اور نہایت  راست اور انجیل کے موافق  الفاظ میں ( دیکھو یوحّنا ۱: ۱، ۵ ، لوقا  ۱: ۳۵)  جو اُس میں اتفاقیہ  درج ہو گئے۔ مگر تعجب کامقام  ہے کہ بہت سے محمدی  صاحبان ان پر بہت  کم خیال کرتے ہیں۔ کیا یہ عجیب خطاب  کسی دیگر  نبی کی طرف بھی قرآن  میں منصوب  ہوئے؟ ہر گز نہیں۔ مگر اُس کے آخری الفاظ  یعنے تین نہ کہو باز آؤ  تمہارا بھلا ہوگا۔ بیشک  غور طلب  ہیں۔ کیونکہ عیسائیوں کے عقیدے میں تین خدا کہنا یا ماننا محض کفر ہے۔ بلکہ وہ صرف ایک واحد  خدا کے قایٔل  میں  ( استثنا ۶: ۴، رومیوں ۱۶: ۲۷، ۱ تمطاؤس ۱: ۱۷و یہوداہ  ۱: ۲۵)  مگر ایک واحد خدا  میں اقانیم  ثلاثہ  جنے اب ۔ ابن اور روح القدس کے البتہ قایل ہیں۔ جنسے تین  خدا ہر گز لازم نہیں آتے۔ بلکہ تین اُصول  جو فی الحقیقت شخصیت میں الگ  الگ ۔ مگر زات  و صفات اور جلال  میں واھد  ( متی ۲۸: ۱۹، ۱۔قرنتیوں ۱۳: ۱۴) اُس الہیٰ ازلی و حقیقی وحدانیت میں جو  سر الہیٰ ہے کلام اﷲ کے موافق قبول کرنا منافی اُس وحدت  کے نہیں جو اﷲ کی وحدت  ہے۔ مگر وحدت  مجرویا اُس وحدت کے ضرور خلاف ہے۔ جو عقلی وحدت ہے کیونکہ اﷲ کی وحدت  میں عقلی


نوٹ* بیضاد میں بھی لکھا ہے کہ ’’ روح منہ زو روح صدر منہ‘‘ یعنے صاحب روح  ہے جو نکلی ہے اﷲ سےکا قایل  ہونا ہی کفر  ہے جس  کے صرف  ایمان اور اقرار  سے مطلق کوئی فائدہ نہیں ہے ( یعقوب۳: ۱۹) کیونکہ خدا کی وحدت  وہ وحدت ہے جو قیاس و گمان  انسانی سے بالاتر ہے ۔اس مین نہ وحدت  وجود ہے نہ وحدت عقلی اور نہ وحدت  عدوی  ہے ۔ بلکہ وہ غیر مدرک ہے جو  متشابہات  میں سے جس  کا مطلب  آج تک  نہ کوئی سمجھ سکا۔ اور نہ انسان  کی طاقت ہے کہ اُس کو سمجھ سکے س۔ ۳: سورہ التوبہ آیت ۱۱۲ ’’مسلمانوں کی جانیں اور مال اﷲ نے بعوض  بہشت خر ید کی ہیں کہ وہ اﷲ کی راہ میں لڑیں قتل کریں اور قتل ہوںٍ یہ لازمی وعدہ  ہے اﷲ پر۔ توریتؔ میں اور انجیل و قرآن  میں  اور اﷲ سے زیادہ وعدہ  وفا کون ہے سو اُس بیع پر جو تم نے اُس سے کی خوشی  کرو اور یہ بڑی مرُاد یانی ہے‘‘۔

خدا کے پاککلام توریت  و انجیل میں نہ کہیں کی راہ  میں لڑنے۔ مرنے کا حکم ہوا اور نہ  اُس کے لئے کوئی اجر ٹھہرایا گیا اور نہ ایسے  فعل پر  کوئی طرح کی بیع قرار پائی۔ بلکہ برعکس  اس کے قصداً  ایسا کرنے والے پر اﷲ کا عتاب ہے۔ البتہ بعض  مخالفین  بنی اسرائیل کی ان لڑائیوں کو جو کنعانیوں کے ساتھ ہوئیں۔ اﷲ کی راہ پر لڑنا۔ مرنا خیال کرتے ہیں۔ مگر یہ اُن کی غلط فہمی  ہے۔ اُن  لڑائیوں  کی نسبت بنی اسرائیل کو کہیں خدا کی طرف سے یہ وعدہ نہیں  ہوا کہ جو ان لڑائیوں میں قتل کریں گے یا قتل کئے جاویں گے وہ بہشت میں داخل ہوں گے۔ جن میں سے  بہتوں کو خود خدا نے اُنکی سر کشی و نافرمانی  کے سبب بعض دفعہ ہلاک کر دیا۔ دیکھو خروج ۳۲: ۲۸ و گنتی  ۱۱: ۲۳ و ۲۱: ۶ وغیرہ وغیرہ یہاں تک کہ سوائے  بچّوں وغیرہ  کے اُن  چھ لاکھ  جنگی مرد بنی اسرائیل میں سے جومصر  سے نکلے ( خروج ۱۲: ۳۷)  صرف دو یونے کالبؔ اور یشوعاؔ ہی اُس وعدہ کے ملک  کنعان ؔ میں بھی داخل  ہوسکے۔ اور باقی سب اُس جنگل بیابان میں مرمٹے (گنتی  ۲۶: ۶۵) اور نہ کہیں یہ حکم  صادر  ہوا کہ جو کنعانی اﷲ کی راہ پر ایمان لائیں اور اُس کو قبول کریں اُنہیں چھوڑ دو۔ کیونکہ وہ اُس  خدائے  عادل  و مصنف کی عالم الغیبی کے موافق انکی سخت برائیوں کے سبب اُن پر ایک قہر تھا۔ جیسا خدائے قدوس کا برتاؤ  اُس کے عین عدل کے موافق بئیبل  مقدس کے دوسرے مقاموں سے بھی بخوبی ظاہر ہے۔ چنانچہ  دُنیا  کی برائی  کے سبب اُس کو طوفان سے غارت کر دینا۔ سدؔوم  و عمورہؔ  کی شرارت اور ناپاکی  کے باعث  اُن کو گندہک  اور آگ سے بھسم  کر ڈالنا۔ فرعون کو اُس کی سخت دلی کے سبب معہ اُسکی فوج بحر قلزم میں ڈُبا مارنا۔ وغیرہ وغیرہ  مگر دیندار اور اپنے پرستاروں کو محفوظ رکھنا۔  

انجیل مقدس میں بھی خدا کی راہ میں لڑنے و مرنے کا کہیں مطلق زکر نہیں ہے۔ بلکہ اﷲ کی راہ ظاہر کرنے کی بابت  اُس میں یوں لکھا ہے قول خداوند یسوع مسیح  دیکھو میں تمہیں  بھیڑونکی  مانند بھیڑیوں کے بیچ میں بھیجتا ہوں۔  پس تم سانپوں کی طرح ہوشیار اور کبوتروں  کی مانند سادھے بنے رہو‘‘ متی ۱۰: ۱۶۔ اور اُن سے برتاؤ کی بابت جو  خدا کے کلام سے برگشتہ ہو جاتے ہیں یوں مرقوم ہے۔ ’’مناسب نہین کہ خداوند کا بندہ جھگڑا کرے بلکہ سب سےنرمی کرے۔ اور سکھلانے  پر متعد اور دکھون کا سہنے  والا ہووے۔ اور مخالفوں  کی فروتنی  سے تادیب کرے۔  کہ شاید  خدا اُنہیں تو بخشے تاکہ وہ سچائی  کو پہچانیں۔ اور وہ جنہیں شیطان نے جیتا شکار کیا ہے بیدار ہو  جا کر  اُس کے پھندے  سے چھوٹیں۔ تاکہ خدا کی مرضی  کو بجالاویں‘‘ ۲ تمطاؤس ۳: ۲۴ ۔ ۲۶۔

پس کلام خدا بئیبل  مقدس  کے موافق اﷲ کی راہ میں لڑنے مرنے یا اُس کے لئے کوئی طرح کی سختی کرنے کی قطعی ممانعت ہے۔ اور نہ عقل گوارا کر سکتی ہے کہ اس طرح کسی انسانکی دلی تبدیلی  ہو سکے مگر ہان نرمی ملائیمت  اور بردباری سے ممکن ہے جو مسیحیوں کی انجیل  مقدس کے زریعہ  دلی خاصیت  ہے اور جس کی تائیدقرآن بھی یوں ظاہر کرتا ہے کہ ’’جو لوگ عیسیٰ کے تابع ہوئے ہم نے اُن کے دلوں میں شفقت  اور مہربانی ڈالی‘‘ الخ۔ سورہ الحدید۔ آیت ۲۷۔

۴۔ سورہ صف ۔ آیت ۶۔ ’’اور جب عیسی ابن مریم نے کہا اے بنی اسرائیلمیں تمہاری طرف اﷲ کا رسول ہوں مجھسے  آگ جو توریت ہے میں اُس کا مصدق  ہوں اور ایک رسول کی بشارت  دیتا ہوں جومیرے  بعد آئیگا اُس کا نام احمد ہوگا‘‘الخ

مگر انجیل مقدس میں نہ کسی نبی کے ظہور کی اب کچھ ضرورت  اور نہ کسی کی آمد کا کچھاشارہ ہے۔ بلکہ برخلاف اس کے۔ خداوند یسوع مسیح نے ایسے لوگوں سے جو اُس کے بعد نبوت کا دعویٰ کریں  ہوشیار رہنے کی بابت تاکیداً یوں فرمایا  ہے۔ ’’تب اگر کوئی تم سے کہے کہ دیکھو مسیح یہاں یا وہاں  ہے تو اُسے نہ ماننا کیونکہ مسیح اور جھوٹھے نبی اُٹھینگے اور ایسے بڑے نشان اور کرامتیں دکھاویں گے کہ اگر ہو سکتا تو وہ برگزیدوں کو بھی  گمراہ کرتے۔ دیکھو میں تمھیں آگے ہی کہ چکا ۔ پس اگر وے تمہیں  کہ دیکھو وہ بیابان میں ہو تو باہر نہ جائیو یا کہ دیکھو وہ کوٹھری میں ہے تو نہ مانو‘‘ ( متی ۲۴:۲۳ سے ۲۶) کیونکہ احکامات توریت  مقدس میں جو کچھ تکمیل  طلب تھے اور جن کی تکمیل کے لئے ایک تکمیل  کنندہ ’’مسیح ‘‘کی بابت سب نبیوں نے ہمزبان ہو کر گواہی  دی۔ ( یوحنا ۵: ۳۹) وہ آچکا اور سب کچھ پورا کر چکا ( متی ۵: ۱۷، ۱۸) جس کے ثبوت کے لئے کل انجیل  کو جو تکمیل کا زخیرہ ہے بغور مطالعہ  کریں اور دیکھیں۔ تو اب کسی دوسرے  کی کیا ضرورت باقی رہی۔

تاہم بعض محمدی صاحبان نے اِس آیت قرآنی  کے موافق انجیل میں نہایت  جدوجہد سے چھان بین کی۔ مگر جب کہیں اُس کا پتہ نہ پایا۔ تو لاچار بعض نے لفظ ’’ وہ نبی‘‘  کو محمد صاحب کی طرف خداوند یسوع مسیح کی طرف ہے۔ (یوحنا ۷: ۴۰۔ ۴۱) جسکی بحث کتاب  ’’عدم  ضرورت  قرآن ‘‘ مصنفہ بادری ٹھاکر داس صاحب۔ صفحہ ۱۱۵ سے ۱۲۳ میں بہ دلایل مندرج ہے مطالعہ  کریں۔ پھر بعض نے لفظ ’’تسلی دینے والا‘‘ کو اُنکی طرف خیال کر لیا۔ جس میں صرف روحالقدس مراد ہے (یوحنا ۱۴:۱۶، ۱۷) اور جس کو خداوند نے اپنے شاگردوں پر نازل کرنے کا وعدہ  فرمایا کہ جو’’ اُس کے لئے گواہی دیگا‘‘۔ ’’اُس کی بزرگی کریگا‘‘۔ اور اُس کی باتیں (تعلیم) ان کویاد دلائیگا۔ وغیرہ وغیرہ  (یوحنا ۱۴؛ ۲۶، ۱۵: ۲۶، ۱۶:۱۴) اور جس کا نزول  بھی اُس کے وعدہ  کے موافق ۔ اُس کے صعود  آسمان  کے دس دن بعد اُس کے شاگردوں پر برملا ظاہر ہو گیا( اعمال ۱: ۲،۳) مگر محمد صاحب  کی تعلیم  غور طلب ہے۔ پس جب  اُنہوں نے اس میں بھی کامیابی  نہ دیکھی  توآخر  کا بعض  نے لفظ ’’سردار جہان‘‘ کا حضرت  پرقایم کرنے کی کوشش کی۔ کہ جس کو ہم مسیحی بھی اُن کی یا کسی کی طرف ہرگز  منصوب نہیں کر سکتے۔ کیونکیہ اپس کی مراد صرف شیطان سے ہے۔  اور جس کی نسبت یہ بھی لکھا ہے کہ  ’’اس جہان کے سردار  پر حکم  کیا گیا‘‘ کہ ’’اب اِس دُنیا کا سردار نکال دیا جائیگا ‘‘وغیرہ وغیرہ ( یوحنا ۱۲: ۳۱ ، ۱۶: ۱۱) پس اِن آخری دو ثبوتوں کی حقیقت معلوم کرنےکے لئےرسالہ’’مقال‘‘ مصنفہپادری امام مسیح صاحب ۔ صفحہ ۱۳ سے ۳۴ تک بغور مطالعہ کریں اور تسلی پائیں۔

دوم۔  بعض آیات تعلیمی قرآن و انجیل  کا مقابلہ

(۱ ) انکا ر الوہیت  خداوند یسوع مسیح۔ ۱۔ سورہ المائدہ ۱۹ ’’وہ کافر ہیں جو مسیح ابن مریم کو اﷲ کہتے ہیں۔ تو کہ کہ اگر اﷲ مسیح بن مریم کواور اُس کی ماں کو اور سب کو جو زمین میں ہیں ہلاک کرنا چاہئے تو کون اُس کے ارادہ  کو روک سکیگا۔

۲۔ سورہ ایضاً آیت ۷۹۔ ’’مسیح اور کچھ نہیں مگر ایک رسول ہے ۔ اُس سےپہلے بہت رُسول گزرچکے۔ اور اُس کی ماں اور کچھ نہیں مگر صدیقہ۔ دونوں کھانا کھایا کرتے تھے۔ دیکھو ہم اُن کے لئے کیسی  نشانیاں بیان کرتے ہیں پھر دیکھ وہ کہاں اُلٹے  جاتے ہیں۔ تو کہ  کیا تم خدا کے سوا  اُسے پوجتے  ہو کہ تمہیں نفع نقصان  نہیں پہنچا  سکتا‘‘۔

۳۔ سورہ التوبہ  آیت ۳۰ ’’یہود نے کہا عزیز  (یعنے عزا کاہن) خدا کا بیٹا ہے۔ اور نصاریٰ  نے کہا کہ مسیح  خدا کا بیٹا  ہے۔ یہ اُن  کے مُنہ کی باتیں ہیں اگلے کافروں کی بات کے مشابہ اُنہیں خدا کی مار کہاں اُلٹے جاتے ہیں۔‘‘

۴۔ سورہ النسا آیت  ۱۶۹ کا آخری حصہ ۔ ’’اﷲ ایک ہے اس بات سے پاک  ہے کہ اس کے کوئی بیٹا ہو‘‘ الخ۔ اور دیکھو سورہ مریم آیت ۳۶ بھی۔

پس قرآن میں یہی  چار خاص آیتیں ہیں۔ جو الوہیت خداوند مسیح کے خلاف  زور شور سے بیان ہوئیں۔ جن میں سے اول میں یہ بتلایا گیا ہے کہ وہ صرف مخلوق ہے اور دوسرے کی مانند ہلاک  ہو سکتا ہے۔ دوم  میں اُس  کی انسانیت  کا ثبوت  اور کہ وہ انسان  کو نہ کچھ  نفع  یا نقصان  پہنچا  سکتا ہے۔ سوم یہ کہ خدا پاک  ہے  اُس سے جو مسیحی  اُس کی طرف نسبت کرتے ہیں۔ چہارم میں بڑی صفائی  سے یہ کہا گیا ہے کہ وہ خدا کا بیٹا  نہیں ہو سکتا۔  

پس اس سے زیادہ  الوہیت مسیح کا اور کیا نکار ہو سکتا تھا۔ جو قرآن کا خاص  مدعاہے۔ اور بیشک اگر مسیحی خواہ مخواہ  بلا دلایل  ثبوتی  اُس کو (مسیح کو ) اﷲ کہکر اُس کی الوہیت کے قایٔل  ہیں تو اُن سے بڑھکر کون کافر ہو سکتا ہے۔ مگر یہاں معاملہ دگر گوں  نظر آتا ہے ۔ کیونکہ جیسے مسیحیوں  پاس اُس کی انسانیت کے دلایل  ہیں کہ وہ انسان  بن کر  ابن آدم  اور مسیح کہلایا۔ اور اس لئے خصایص انسانی یعنے کھانا۔ پینا ۔ تھکنا اور سونا وغیرہ  بھی اُ س کو لازمی  ہوئےاور جن  باتوں پر محمد  صاحب  نے زیادہ بلکہ بہت  زیادہ زور دیا۔ تاکہ اُس کی الوہیت  اور خصوصیت  کو زائل کر کے  صرف قرآن  کی ضرورت کو پیش  کریں۔ مگر چونکہ وہ  کا مل انسان تھا اس لئے  وہ گناہ کی خاصیت  سے بھی مطلق  پاک  دستبرار ہے۔ اور جس امر کی قرآن بھی پوری شہادت ظاہر کرتا ہے۔ پس یہ ہے خصوصیت  اُس کی ہم گناہ آلودہ انسانوں  کا شفیع  ہونے کی ہے مگراُس کی انسانیت  سے کہیں  بڑھکر قوی دلایل اُس کی الوہیت  کے بھی  اُنکے پاس موجود ہیں۔ جو سر الہیٰ  ہے کہ وہ ( مسیح خوبصورت  انسان دنیا میں ظاہر  ہوا۔ (فلپیوں ۹: ۵۔ ۱۱)  کہ جس قوی شہادتیں و صداقتیں کلام رباّنی  میں موجود ہیں۔ اور جب  کام عمل بیان اِس جگہ نجوف طوالت دشوار ہے۔ مگر خلاصہ کے طور پر بعض یہ ہیں۔  

اوّل۔ دلایل الوہیت مسیح (۱) نبیوں کی گواہی یسعیاہ ۹: ۶ و یرمیاہ  ۲۳: ۶ و میکاہ ۵: ۲ ( ۲) روح القدس  کی گواہی بمواجب قول مسیح یوحنا  ۱۶: ۱۳و ۱۴ و قول  رسول ۔ ۱ قرنتیون  ۲: ۳۔ ( ۳) یوحنا بپتمسہ دینے والے کی گواہی۔ یوحنا  ۱: ۱۵ سے ۲۷(۴ ) رسولونکی گواہی۔ یوحنا ۱: ۱۴ اور رومیوں  ۱: ۳ سے ۴۔  ( ۵ )  خود مسیح کے اقوال جن کا زکر پیچھے  ہو چکا ( ۶ ) اور اُس  کے زندہ ہونے کاثبوت۔ متی ۲۸: ۵۔ ۸۔

دوم۔ لفظ بیٹے کا ثبوت (۱ ) نبی کا کلام۔ زبور ۲: ۱۴ (۲ ) جبرئیل فرشتہ کی گواہی ۔ کہ ’’وہ خدا تعالیٰ کا بیٹا کہلائیگا‘‘  لوقا۱:۳۵ (۳ ) خدا باپ کی گواہی۔ کہ ’’ یہ میرا پیارا  بیٹا ہے‘‘ کہ ’’ تم اُس کی سُنو‘‘ متی ۳: ۱۷ و ۱۷:۵ ( ۴) خود مسیح  کا اقرار ’’میں وہی ہوں‘‘ مرقس ۶۱:۶۴۔ علاوہ بریںاور یہی  چند باتیں خلاصہ  کے طور پر کتاب ہدایت المسلمین۔ مصنفہ  پادری عماوالدین صاحب ۔ ڈی ۔ ڈی کے صفحہ ۳۸۳ و ۳۸۴ سے نقل کرنا ضروری معلوم ہوتی ہیں یعنے

پس اُس کی(مسیح کی ) الوہیت کے یہ دلایل ہیں۔ کہ اّول  بعض فقرات عہد عتیق بیان کرتے ہیں۔  کہ خدا آپ مجسم  ہو کے دنیا میں آویگا اور ایسے ایسے  کام کریگا اور یہ باتیں مسیح میں صاٖٖف  صاف پوری ہوئی نظر آتی ہیں۔

دوم۔ آنکہ ضرور مسیح نے خود الوہیت کادعویٰ کیا اور اُس کا ثبوت  بھی دیا اور یہودی اُس کے اس لئے بھی دشمن ہوئے کہ اُس نے آپ کو خدا بتلایا۔

سوم۔ اُس  سے جو قدرت ظاہر ہوئی وہ صاف  اﷲ  کی قدرت تھی اور اُس نے اُسے اپنی قدرت بتلایا۔

چہارم۔  اُس نے جو پاکیزگی اور خوبیاں  دکھلائیں وہ سب اﷲ کی زات کئ خاصے تھے اور کوئی بشر کبھی ایسا پاک ظاہر نہیں ہوا ہے۔

پنجم۔ اُس کی ساری تعلیم کا انحصار  اسی بات پر  ہے کہ اﷲ ہے۔

ششم۔ وہ اپنی خدائی کا ثبوت  اپنے تصرفات سے ہمارے زہنوں میں ابتک کرتا ہے ایسا کہ ناممکن ہے کہ اُس کی الوہیت  کا ہم اُنکار کریں۔

پس اب ناظرین خود  انصافاً فیصلہ کر لیں۔ کہ اُلوہیت  خداند مسیح کے اِن کثرت  دلایٔل کے نزدیک جو کلام ربانی میں مندرج ہیں قرآن صاحب کی وہ چار آیتیں جو اُس کی محض  انسانیت پر دلالت  کرتی۔ کس طرح کامیاب ہو سکتی ہیں۔

(۲ ) قتل مسیح کے یہودی اقراری۔ مگر محمد صاحب انکاری  سورہ النساء آیت  ۱۵۶۔ ’’اور اس قول کے سبب کہ ہم نے عیسیٰ  ابن مریم رسول اﷲ کو قتل کیا ہے۔ حالانکہ نہ اُسے قتل کیا نہ اُسے صلیب دی لیکن وہ اُن کے لئے شبیہ میں ڈالا گیا۔ اور وہ جو اُس کے بارہ میں اختلاف رکھتے ہیں اُس کی نسبت متشکی ہیں اُنہین علم حاصل نہیں لیکن وہ گمان  کی پیروی  کرتے ہیں اور بہ یقین  اُس کو قتل نہیں کیا بلکہ اُسے خدا نے اپنی طرف  اُٹھالیا اور اﷲ غالب پختہ کار ہے‘‘۔

جبکہ قرآن خداوند یسوع مسیح کی اُلوہیت کا انکاری ہے جس کے کھلے ثبوت  اُوپر مذکور ہوچکے تو ضروری  ہے کہ وہ اُس  کے فدیہ کا بھی انکاری ہے۔ جو اُس کی کامل قربانی میں اُس کے مارے جانے  کےزریعہ کامل ہوا۔ اور جس کا زکر اُس کے واقعہ ہونے سے پہلے خداوند مسیح نے اپنے شاگردوں پر برملا ظاہر  کر دیا تھا کہ ’’ سب نبیوں کی معرفت ابن آدم کے حق میں لکھا ہے پورا  ہوگا۔ کیونکہ وہ غیر قوم والوں  کے حوالہ کیا جاویگا اور وے اُسکو ٹھٹھے  میں اُڑاویں  گے اور بے عزت کریں گے اور اُس پر تھوکیں گے اور اُس کو کوڑے مار کے قتل کریں گے اور وہ تیسرے دن جی اُٹھیگا‘‘ لوقا ۱۸: ۳۲، ۳۳۔

چنانچہ اُس کے دُکھ و تکلیف سہنے اور مارے جانے کی بابت  پیشینگوئیاں  بعض نبیوں  کی کتابوں میں پائی جاتی ہیں۔ خصوصاً یسعیاہ  نبی کی کتاب ۵۳ باب میں جو قریباً سات سو برس پہلے اس واقعہ  سے کمال صفائی کے ساتھ بیان ہوئیں۔ کہ وہ یعنے مسیح ہمارے گناہوں اور بدکاریوں کے لئے گھایل کیا اور مارا جاویگا۔ اور کہ اُس کے مار کھانے سے ہم چنگے ہوئے۔ وغیرہ وغیرہ۔ کہ جن کے وقوع کی واقعی  تکمیل خود چشم دید گواہوں خصوصاً  خداوند کے حواریاں سے انجیل مقّدس میں قلمبند کی گئی۔ جنکا خلاصہ  درج زیل ہے۔

پیشینگوئیاں معہ تکمیل انجیل

۱۔  وہ بیچا اور پکڑوایا جاویگا۔ زبور ۴۱: ۹۔ زکریا ۱۱: ۱۲۔

تکمیل  متی ۲۶: ۱۴ و ۲۳ و ۲۷:  ۳۔۵۔

۲۔ وہ تنہا  اکیلا چھوڑا جاویگا۔ زکریاہ ۱۳: ۷۔

تکمیل  متی  ۲۶: ۵۶ و مرقس ۱۴: ۵۰، ۵۲۔

۳۔ وہ حقیر و زلیل  کیا جاویگا۔ یسعیاہ ۵۳: ۳  و زبور ۲۲: ۷۔۹۔

تکمیل۔ لوقا ۹: ۵۸ و یوحنا ۱۹۔۱۵ و متی  ۲۷: ۳۹۔۴۲۔

۴۔ اُس کے دُکھ و تکلیف سہنے  کی بابت ۔ زبور ۲۳: ۱۴ ۔۱۷ و زکریاہ ۱۲: ۱۰ و یسعیاہ ۵۳: ۲،۵، ۶۔

تکمیل یوحنا ۱۹: ۱۔ ۳  و متی ۲۷:  ۳۵۔ ۳۱۔

۵۔ اُس کے کپڑوں کی تقسیم  کی بابت  زبور ۳۳: ۱۸۔

تکمیل متی ۲۷: ۳۵۔

۶۔ اُس کی موت کی جانکنی کی بابت۔ زبور ۳۳: ۱ یسعیاہ ۵۳: ۴۔ ۵۔

تکمیل ۔ متی ۲۷: ۴۶ و لوقا ۳۳: ۴۴۔

۷۔ اُس کی قبر یادفن ہونے کی بابت  یسعیاہ ۵۳: ۹

۸۔ اُس کے تین دن قبر میں رہنے کی بابت (قول مسیح) متی ۱۲: ۴۰۔


تکمیل ۔ متی ۲۸: ۱۔ ۶ و ۱ قرنتیوں ۵: ۴۔

نوٹ۔ جن میں سے بعض کا مضمون بالکل صاف ہے۔ مگر بعض  شارہ یا کنایہ کے طور پر مذکور ہوئیں۔ مگر اُ ن کا مطلب بھی تکمیل انجیل کے مقابلہ  سے بخوبی کھل جاتا ہے۔ جنکا زکر آیندہ  بیان مسیح کے جی اُٹھنے میں کیا جائیگا۔

پس اب مقام  غور ہے۔ کہ نبیوں کی اس قدر شہادتیں اُس کے دُکھ تکلیف اُٹھانے اور مارے جانے پر کلام ربّانی  میں موجود۔ اور جن کی پوری تکمیل چشم  دید گواہوں سے انجیل میں ثابت۔ یہودی  اپنے جرم کے خود اقراری ۔ نیز رومی حاکم  اور اُس وقت کے بت پرست مورّخ اس واقعہ کے گواہ۔ مگر نہایت تعجب ہے کہ محمد صاحب  جو اس واقعہ کے چھ سو برس بعد  پیدا ہوئے۔ اِن سب شہادتوں  اور صداقتوں کو رد کرنے پر مستعد۔ بھلا اِس انوکھے خیال  کا بھی کوئی ٹھکانا ہے۔ جو صرف  اس طرح  کا خیال ہے۔ کہ اگر کوئی اس وقت اپنی تصنیف میں سکندر  اعظم مقدوؔنیہ کے بادشاہ کو ہندوستان  میں آنے کا اِنکار کر کے یہ کہ۔ کہ وہ سب جھوٹے ہیں جو اُس کا پنجاب تک  آنا تسلیم کرتے ہیں۔ وغیرہ وغیرہ۔ تو بھلا  ایسے شخص کو تواریخ دان کیا کہینگے۔

سوم۔ بعض آیات  قرآن  غور طلب

سورہ المائدہ ۵۰، ۵۱ ’’ یعنے  اور پیچھے ہنمے اُن (رسولوں) کے قدموں پر مریم  کے بیٹے عیسی کو بھیجا  جو اگلی ( کتاب ) تورات کی تصدیق کرتا اور اُس کو ہم نے انجیل دی جس میں نورا ہدایات  ہے اور اگلی (کتاب)  تو راۃ  کی تصدیق ہے اور جو ہدایت اور نصیحت  ہے پرہیزگار وں  کے لئے۔ اور چاہئے  کہ جنہوں نے انجیل پائی ہے  حکم کریں اور اُس کا جو اﷲ نے اُس میں نازل کیا ہے اور جو کوئی ھکم نہ کرے اُس کو جو خدا نے نازل کیا ہے تو وہی لوگ بدکار  ہیں‘‘۔

آیات مذکورہ بالا سے چار باتیں ثابت ہیں جن کا قرآن اقراری ہے۔ اول یہ۔ کہ انجیل تورات کی تصدیق کے واسطے نازل ہوئی جو  موسیٰ پر اُتری تھی۔ دوم یہ ۔ کہ انجیل خدا کی طرف سے ہدایت نور اور نصیحت  ہے۔ سوم یہ ۔ کہ خدا نے اُس میں جو کچھ ارشاد کیا ہے چاہئے کہ لوگ اُس پر عمل کریں۔ چہارم  یہ ۔ کہ جو لوگ  عمل نہ  کریں گے اُس پر جو کچھ خدا نے اُس میں ارشاد کیا ہے تو وہ لوگ گنہگار ہیں۔

مگر اب نہایت تعجب کا مقام ہے ہ وہی قرآن اپنے ان اقراروں کے خلاف  انجیلکی خاس تعلیم یعنے الوہیت خداوند یسوع مسیح اور اُس کی موت کے زریعہ  کفارہ آمیز کام سے جس کی شہادت و صداقت نبیوں کے کلام کے موافق انجیل مقدّس سے بخوبی ثابت و ظاہر ہوئی۔ اور جو انسان کی حصول  نجات  کےلئے ازل سے ٹھہرایا گیا تھا ( افسیوں ۳: ۱۱) جس کا زکر پیچھے  مزکور ہو چکا۔ بالکل انکاری ہے۔ بلکہ اور بھی چند باتیں نہایت گور طلب ہیں۔ کہ جن کا مطلب و منشا تعلیم انجیل کے محض  خلاف ظاہر  ہے جو زیل میں درج کی جاتی ہیں۔ تو اب مجبوری ہے کہ قرآن کے کلام کو کتب سابقہ  یعنے توریت و انجیل کامصدق کیونکر سمجھا جاوے۔ چنانچہ

( ۵) یہ قرآن جہان کے پروردگار  کا کلام اور اُس کا نازل کیا ہوا ہے۔ سورہ الحاقہ آیت ۳۸ سے ۴۳ تک ’’میں قسم کھاتا ہوں اُن چیزوں کوجو دیکھتے ہو اور اُن کی جو نہیںدیکھتے کہ تحقیق یہ (قرآن) عزت والے رسول کا قول ہے۔ وہ کسی شاعر کا کہا ہوانہین تم تھوڑا یقین کرتے ہو۔ اور نہکسی کاہن کا قول ہے تم  تھوڑا  دھیان کرتے ۔یہ جہانکے پروردگار کا نازل کیا ہوا ہے۔

پیچھے مذکور ہو چکا ہے کہنبی اور نبوت کی ضرورت، ضرورت  پر موقوف ہے۔ جس کا خاتمہ کتاب مکاشفات  پر ہو چکا اور جس کے آخر اُس شخص پر جو کلام رباّنی  میں کچھ زیادہ کرے۔ یا اُس میں سے کچھ کم کرے خدا تعالیٰ کی طرف سے نہایت خوفناک فتوئے درج ہوئے۔ یعنے ’’ میں ہر ایک شخص  کے لئے جو اُس کتاب کی نبوت کی باتیں سنُتا  ہے یہ گواہی دیتا ہوں کہ اگر کوئی اِن باتون میں کچھ بڑھاوے تو خدا اُن آفتوں  کو جو اس کتاب میں لکھی ہیں اُس پر بڑھاویگا۔ اور اگر کوئی اس نبوت کی کتاب کی باتون میں سے کچھ نکال  ڈالے تو خدا اُس کا حصہ کتاب حیات سے اور مہر ِمقدس سے اور اِن باتو ں سے جو اِس کتاب میں لکھی ہیں نکال ڈالے گا۔‘‘ مکاشفات ۲۲: ۱۸، ۱۹۔ پس اِس الہیٰ خیال کرنا کس طرح ممکن ہو۔ علاوہ بریں قرآن  کی عدم ضرورت ۔ معلوم کرنے کے لئے کتاب عدم ضرورت قرآن  مصنفہ پادری ٹھاکر داس صاحب بغور مطالعہ۔ کرنا چاہئے تسلی ہو جائیگی۔  

(۶) قرآن کے موافق راہ نجات۔ سورہ العمران آیت ۲۹۔ ’’اھ محمد تو کہدے  کہ اگر تم خدا کی محبت رکھتے ہو تو میری پیروی کرو کہ خدا تم سے محبت کرے اور تمھارے گناہ بخشدے اور خدا مخشنے  والا اور مہربان  ہے ۔ تو کہدے کہ تم اﷲ اور اُس کے رسول کی تابعداری  کرو پھر اگر وے برگشتہ ہوں تو بیشک خدا کافروں کو دوست نہیں رکھتا‘‘۔

انجیل مقّدس میں لکھا ہے کہ گنہگاروں کے راست باز ٹھہرائے جانے اور پاک کئے جانے کے لئے صرف ایک ہی عسیلہ ہے یعنے خداوند یسوع مسیح کا کامل کفارہ ٹھہرایا گیا۔  جو صدق دل سے اُس پر ایمان لاتے ہیں وہی اپنے گناہوں کی معافی حاصل کریں گے۔ چنانچہ یوحنا ۳: ۲۶ میں لکھا ہے۔ کہ ’’ وہ بیٹے پر ایمان لاتا ہے سو ہمیشہ کی زندگی اُس کی ہے  اور وہ جو بیٹے پر ایمان نہیں لاتا سو زندگی کو نہ دیکھے گابلکہ خدا کا غصب اُس پر رہتا ہے ‘‘۔اور  مرقس ۱۶: ۱۵ میں۔  

بعض خیالات ِ محمدی  پرسر سری  ریمارکس

Criticism on Teaching of Muhammad


Published in Nur-i-Afshan September 07, 1894
By Bahadur Masih


 (بابت طلاق)

 قرآنی تعلیم کے مطابق  عورتوں کو طلاق دینا  ہر محمدی  کی طبیعت پر موقوف  ہے۔ چنانچہ لکھا ہے ’’نہیں گناہ  اوپر تمہارے  یہ کہ طلاق دو تم عورتوں  کو جبتک  نہ ہاتھ  لگایا  اُن کو یا  نہیں مقرر  کیا واسطے اُن  کے مقرر کرنا ۔‘‘ سورہ  البقر رکوع ۳۱۔ طلق  دو ۲ بار ہ ۔ ’’ یہ طلاق  دو بات ہے پس بند کر رکھنا ساتھ اچھی  طرح کے یا نکالدینا ساتھ اچھی طرح کے ‘‘ طلاق نمبر ۳ بارہ ۔’’ ہس اگر طلاق ؎۱ دی اُس کو پس نہیں


؎۱ ۔ الفاظ ترجمہ طلاق سہ۲ بارہ سے مطلب صاف سمجھ میں نہیں آتا۔ جس کا مطلب یہ ہے کہ  اگر کوئی مرد محمدی اپنی جورو پر  لفظ طلاق کا تین با ر بولے تو نکاح  بالکل ٹوٹ جاتا ہے۔ اور پھر وہ آپس میں___________________________________________

حلال ہوتی واسطے اُسکے  پیچھے اُس  کے یہاں تلک کہ نکاح  کرے اور خصم سے سوائے  اُس کے۔ پس اگر طلاق دے (وہ) اسکو پس نہیں اوپر اُن دونوں کے‘‘ وغیرہ وغیرہ۔ سورہ اللیضاً رکوع  ۲۹۔

ہندو بھی مندرجہ زیل عورات کو ترک کر دینا  یا اُن کے اوپر اور بواہ کر لینا اپنی مرضی  پر موقوف رکھتے ہیں۔  (۱ ) جو عورت ۔ اپنے شوہر سے فساد  کرنے والی  شراب پینے والی۔ یا دولت برباد کرنے والی ہے۔

(۲ ) جو عورت ۔ سادہوؤنکی خدمت نکرنے  والی دشمنی  رکھنے والی ۔ یا بیماریوں سے بہری ہوئی ہو۔

(۳) جو عورت بانجھ  ہو۔ یا اُس کی اولاد  نہ جیتی  ہو یا صرف لڑکیاں ہی جنتی ہو۔  وغیرہ وغیرہ  شاستر منو۔ ادبیاء ۹۔ اشلوک ۷۹ سے ۸۱ تک۔  

مگر تعلیم انجیل عورتوں کو طلاق دینے کی بابت  سوائے حرامکاری کے اور ہر حالت  میں منع کرتی ہے چنانچہ  متی ۵: ۳۱ ، ۳۲ میں لکھا ہے ’’ یہ بھی لکھا گیا کہ جو کوئی  اپنی جورو کو چھوڑدے  اُسے طلاق دے  تاکہ  لکھدے۔ پر میں (مسیح ) تمہیں کہتا ہوں  کہ جو کوئی اپنی جورو کو زنا کے سوا کسی اور سبب سے چھوڑ دیوے اُس سے زنا کرواتا  ہے۔ اور جو کوئی اُس چھوڑی ہوئی سے بیاہ کرے  زنا کرتا ہے۔ پھر باب ۱۹۔ ۷ سے ۹ تک لکھا ہے۔ ’’ اُنہوں نے اُس  سے ( مسیح سے) کہا پھر موسیٰ نے کیوں حکم  دیا کہ طلاق  نامہ اُسے دیکے اُسے چھوڑ دے۔ اُس نے (مسیح نے ) اُن سے کہا  موسیٰ نے تمہاری  سخت دلی کے سبب تم کو اپنی جورؤں  کو چھوڑ دینے کی اجازت دی پر شروع سے ایسا نہ تھا۔ اور میں تمسے کہتا ہوں کہ جو کوئی  اپنی جورو کو سوا زنا  کے اور سبب سے


بقیہ  ؎۱ جو رو خصم  نہیں ٹھہر سکتے۔ جب تک کہ عورت کسی غیر  سے نکاح  کر کے اور ہمبستر ہوکے اور اُس سے طلاق  لے کر  نہ آوے۔ اور شوہر سابق سے پھر نکاح نکرے۔(تعلیم محمدی بیان طلاق مغلظ صفحہ ۱۷۸) چھوڑدے اور دوسری سے بیاہ کرے زنا کرتا ہے اور جو کوئی  اُس چھوڑی  ہوئی عورت کو بیاہے  زنا کرتا ہے۔‘‘

( قسم کھانے کی بابت)

قرآن میں اکثر قسموِں کا زکر ہے جن کے نمونہ سے محمدی اکثر بات بات میں قسم کھانے کے عادی ہیں۔ مثلاً قسم اﷲ کی سورہ النسا رکوع ۹۔ قسم جان کی۔ سورہ الحجر  رکوع  ۵، ۶۔ قسم قرآن کی سورہ یس رکوع ۱۔ مگر لوگوں  میں صلح کرنے کے لئے محمدیوں کو قسم کھانا منع ہے۔’’ اور مت کرو اﷲ کو نشانہ واسطے قسموں اپنی کے یہ کہ بھلائی کرو اور پرہیزگاری  کرو اور صُلح کرو درمیان لوگوں کے اور اﷲ سننے و جاننے  والا ہے‘‘ سورہ البقر رکوع ۲۸۔

ہندو بھی قسم کھانا  یا کہلانا  بات کی سچائی  ثابت ہونے کے لئے ضروری سمجھتے ہیں۔ ساشتر منو ادہیاء  ۸ ۔ اشلوک  ۱۱۳۔

ہندو بھی بعض امورات میں جھوٹی قسم کھانا رواخیال کرتے ہیں۔ ادہیاء ایضاً ۔ اشلوک ۱۱۲۔

مگر تعلیم انجیل قسم کھانے کی قطعی ممانعت کرتی ہے۔ چنانچہ خداوند یسوع مسیح نے انجیل  متی ۵ : ۳۴ سے ۳۷تک یوں فرمایا’’پر میں تمہیں کہتا ہوں ہر گز قسم نہ کھانا  نہ تو آسمان کی کیونکہ وہ خدا کا تخت ہے اور نہ زمین کی کیونکہ وہ اُس  کے پانٔونکی  چوکی ہے اور نہ یروشلم کی کیونکہ وہ بزرگ بادشاہ  کا شہر ہے۔ اور نہ اپنے سر کی قسم کھا کیونکہ تو ایک بال کو سفید  یا کالا نہیں کر سکتا پس تمہاری  گفتگو میں ہاں کی ہاں اور نہیں کی نہیں ہو کیونکہ جو اس سے زیادہ ہے سو برائی  سے ہوتا ہے۔

(عورتوں کی  قدر کی بابت)

تعلیم محمدی میں ۔ ۱۔ عورتیں مردوں کی کہُییاں کہلاتی ہیں۔ سورہ البقر رکوع ۲۸۔ ۲  عورتیں  کے حقوق مردوں کی نسبت نصف  ٹھہرائے گئے۔ ۳۔ ایک عورت کی گواہی برابر  ہے نصف  آدمی کے یعنے ایک مرد کی گواہی کے برابر  دو عورتوں کی گواہی خیال کی جاتی ہے۔ ۴۔ عورتونکو  گھروں میں بند رکھنے کی سخت  تاکید کی گئی وغیرہ وغیرہ ۔ سورہ النسا رکوع ۲۔ و سورہ البقر رکوع ۳۹۔

ہندو بھی عورتوں کو کم قدر اور زلیل  خیال کرتے ہیں۔ ایسا کہ اُن کے لئے کوئی دہرم  کرم بھی سوائے  شوہر کی سیوا کرنے کے علیحدہ نہیں ٹھہرایا  گیا۔ (شاستر منو ادہیاء  ۵۔ اشلوک  ۱۵۵) پھر عورتوں کی عادت و خصیلت بھی نہایت بدتر  بیان ہوئی ایسا کہ  ماں  بہن  و بیٹی  کے ساتھ بھی تنہائی  میں اکیلا نہ بیٹھے ۔ کیونکہ پنڈتوں  کو بھی عورتیں بری راہ میں کھینچ  لی جاتی  ہیں( ادہیاء ۲ ۔ اشلوک ۲۱۳۔ سے ۲۱۶ تک)  ہندو بھی عورتوں  کی گواہی  محض کمقدر  خیال کرتے ہیں۔ ( ادہیاء ۸۔ اشلوک ۷۷)۔

مگر تعلیم انجیل مرد و عورت ہر دو کے کل حقوق  مساوی ظاہر  کرتی ہے۔ یعنے۔ ۱۔ باہمی میل و محبت  ایک دوسرے  کی ہمدردی و مددگار ی۔ عزت و فرمانبرداری پر یکساں  تعلیم دیتی ہے۔ دیکھو  نامہ افسیوں  ۵: ۳۲ سے ۳۳ تک۔ اور مانہ اول پطرس  ۳: ۱ سے  ۷ تک ۔ ۲۔ فرایض دینی بھی ہر دو کے مساوی اور ایک دوسرے کو فائیدہ  پہنچانے  والے ظاہر  کرتی ہے۔ چنانچہ نامہ اول قرنتیوں ۷: ۱۶ میں م مذکور  ہے ’’ اے عورت کیا جانے تو اپنے خصم کو بچاوے اور اے مرد کیا جانے تو اپنی جورو  کو بچاوے‘‘ یعنے  ہر ایک کا نمونہ  ایک دوسرے کو فائدہ  پہنچانے  والا اور موثر ہے۔ مسیحی دین کے موافق  مرد عورت ہر دو کی گواہی بھی یکساں خیال کی جاتی ہے۔ مطلق فرق نہیں ہے۔

 (نیکی و بدی)

قرآن میں مذکور ہے’’ اگر پہنچتی ہے اُن کو بھلائی کہتے ہیں یہ نزدیک خدا سے ہے اور اگر پہنچتی ہے اُن کو برائی کہتے ہیں  یہ نزدیک تیر ے سے ہے۔ کہ ہر ایک نزدیک  اﷲ کے سے ہے ’’ سورہ النسا رکوع۱۱۔

اکثر ہندو بھی ایسا ہی مانتے ہیں کہ ست و است  پاپ و پن سب کچھ ایشور  کی طرف ہوتا ہے۔ ( مگر اِس خیال  پر بُرائی کا خوف کہاں پھر بعض  کہتے ہیں کہ ایشور ست وا ست  پاپ و پن  سب سے نیارا ہے۔ ( تو ایسے ایشور  کا ہونا یا نہ ہونا  برابر  ٹھہر ا پس اگر اسکو مانیں تو کچھ فائدہ نہیں اور اگر نہ مانیں تو کوئی نقصان بھی نہیں)۔

مگر کلام خدا بیبٔل کی کسی تعلیم سے ایسا کہیں ظاہر نہیں ہوتا کہ برائی و بھلائی  بہت و است سب کا وہی کرنے یا کرانے  والا ہے۔ بلکہ اس کے کلام سے ظاہر ہے کہ وہ عادل (۱) ۔صادق(۲) اور قدوس(۳)  ہے۔ اور کہ اُس کے کل کام راستی(۴)  کے ہیں۔ اور اس لئے وہ برائی سے نفرت(۵) کرتا۔ اور ہر ایک کو اس کے کاموں  اور خیالوں(۶) کے موافق ٹھیک ٹھیک بدلا دیگا ۔ کیونکہ اُس سے کوئی خیال چھپا نہیں ہے۔ (۱) یرمیاہ ۔۱۹ (۲) زبور ۱۱۹: ۱۳۷ (۳) احبار  ۲۰: ۲۶ ۔ (۴) ایوب  ۳۴: ۱۰۔ ۱ (۵)امثال  ۱۵: ۲۶۔ (۶) روم  ۲:۶ ۔ (۷) عبر۱ ۴: ۱۳۔

بیشک کلام خدا بیبٔل میں بعض آیات ایسی بھی ملتی ہین جو تھوڑی دیر کے لئے ناواقف  انسان کے خیال کو کچھ حیرانی میں ڈالنے والی معلوم ہوتی ہیں۔ مگر اُن پر سوچنے  اور غور  کرنے بعد نجوبی معلوم ہوجائے  گا۔ کہ وہ آیات  اس کی عالم  الغیبی کا پورا  ثبوت  ہیں۔ کہ کسی شخص یا قوم کو اسکی از خدا برائی کے سبب اُس نے اپنا پددانہ و محبتانہ  صبر و برداشت جو اُس کے ارادہ  ازلی و مرضی کے مطابق ہے (زبور ۵۶:۱۵، یوحنا ۶: ۴) ظاہر کر کے  ہلاکت و بربادی کے لئے چھوڑ دیا۔

 (حلال و حرام)

 قرآن میں بعض چیزیں حرام ٹھہرائی گئیں۔ جن کا کہنا ۔ پینا یا چھونا محمدیوں کے ایمان کے خلاف ہے۔ سورہ المائدہ رکوع ۱۔

ہند و بھی بعض  چیزیں کھانا یا چھونا نا جائز خیال کرتے ہیں۔ دیکھو شاستر منو ادہیاء  ۵۔ اشلوک ۵ سے ۲۸ محمدی ۔ سخت بھوک کی حالت میں کسی حرام چیز  کا کھانا روا  جانتے سورہ و  رکوع  ایضاً۔

ہندو بھی سخت بھوک کی حالت میں کسی (۱) ناجائز  چیز کا کھانا بُرا نہیں خیال کرتے۔ بلکہ کئی دن فاقہ کے بعد کھانے کے لئے (۲) چوری  کر لینا بھی روا رکھتے ہیں۔ (۱) ادہیاء ۱۰۔  اشلوک  ۱۰۶۔ (۲) ادہیاء ۱۱۔ اشلوک ۱۶۔ س مگر تعلیم انجیل میں سوائے لہو اور گلا گھونٹی ہوئی چیز  ( اعمال ۱۵: ۲۹) ناجائز  استعمال  (افسیوں  ۵: ۱۸) یا جو  کھانا دوسرے کی ٹھوکر کھانے کا باعث  ہو۔ (رومیوں ۱۴: ۲۱) اور کو ئی چیز  ناروا  نہیں ہے۔ کیونکہ یہ امر طبعی ہے جس کو  جو میّسر  ہو یا جس کی طبیعت  جو چاہے کہا  کر اپنی  صحت کو قایم رکھے  تاکہ مقررہ خدمت  بجا لاسکے۔ کیونکہ ’’کھانا پیٹ کے لئے اور پیٹ کھانوں کے لئے  پر خدا اُسکو اور اُن کو نیست کریگا۔‘‘ (قرنتیوں ۶: ۱۳ ) کیونکہ خدا کی بادشاہت کھانا پینا نہیں بلکہ راستی و سلامتی اور روح  القدس سے خوشوقتی  ہے‘‘ (رومیوں ۱۴: ۱۷) ’’لیکن کھانا  ہمیں خدا سے  نہیں ہلاتا کیونکہ اگر کھاویں تو ہماری کچھ بڑھتی نہیں اور جو نہ کھاویں تو گھٹتی نہیں‘‘ ( ۱۔ قرنتیوں ۸:۸)

بیشک احکامات توریت میں بعض  حلال و حرام جانوروں کا زکر مذکورہے۔  جن کی عدم واقفیت سے بعض لوگوں نے حلال و حرام کا خیال کر لیا۔ مگر اُن مقاموں پر جہاں  حلال و حرام کا زکر  مذکور ہے۔ اگر غور کیا جائے  تو بخوبی  معلوم  ہو جائیگا۔ کہ اُن  کھانوں پر کوئی گناہ کی بخشش و معافی کا کہیں زکر مذکور نہیں ہے۔ اور نہ کہیں یہودیوں کو یہ حکم صادر ہوا کہ اُن کا طریقہ غیراقوام  کو سکھایا  جاوے ۔ سبب صرف یہ تھا۔ کہ خدائے تعالیٰ نے بنی اسرائیل  کو اپنی خاص قوم  قرار دیا۔ اور اُن کو دیگر اقوام سے علیحدہ کر کے اپنے تشبیہی احکام یعنے قربانی وغیرہ کو تشخص کئے جائے جانوروں کے زریعہ  ادا کرنے کا حکم دیا۔ جب تک وہ کامل قربانی  جس کے نمونہ پر  گزرانی  جاتی تھیں کامل طور  ظہور  میں نہ آوے۔  یعنے خداوند یسوع مسیح کی  کامل قربانی  جو تمام عالم کے گناہوں کا کفارہ  ہے۔ مگر وہ قربانیاں جانوروں  کی صرف یہودیوں کے لئے اُسی وقت  تک موثر ہوئیں ۔ نہ کہ ہمیشہ کے لئے کارآمد۔ وہ لفظ  جس کےمعنے اُن مقامات  پر ابؔدی کا استعمال  ہوا۔ عبرانی  میں اس کے کئی ایک معنوں میں سے ایک یہ ہے یعنے کسی قوم کے زمانہ  قیام تک۔ جو صرف قوم یہود کے زمانہ قیام سے مراد ہے۔

مذکورہ بالا خیالات  یا احکامات  شرعی  پر ناظرین  خود خیال  کریں کہ کون کون عقلاً  و نقلاً  جائز یا  نا جائز معلوم ہوتے۔  اور کون  کس کس کے مطابق یا مخالف  ثابت ہوتے ہیں۔

  (فرض حج)

 قرآن میں لکھا ہے ’’تحقیق  صفا اور مروہ  نشانیوں اﷲ کی سے ہیں۔ پس جو کوئی حج کرے گھر کا  یا عمرہ  کرے پس نہیں گناہ  اوپر  اُس کے یہ کہ طواف کرے بیچ اُن  دنوں کے اورجو کوئی خوشی  سے بھلائی  کرے پس تحقیق اﷲ قدردان  ہو جاننے  والا‘‘ سورہ البقر رکوع ۹۔

ہندوؤں میں بھی کئی ایک تیرتھہ مشہور ہیں۔ مثلاً  بدری ناتھہ ۔ کدارناتھہ ۔ دوارکا۔ بنارس ۔ و پراگ  وغیرہ  جہاں بعض ہندو جانا۔ مورتوں کے درشن کرنا۔  اور بعض رسمی باتوں کا ادا کرنا ضروری اور موجب ثواب خیال  کرتے ہیں۔

اس فرض حج محمدی کے عباُنی دستورات  عجیب  سے مرکب ہیں۔ اور بہت کچھ ہندوؤں  کے خیالات کے موافق  معلوم ہوتے ہیں۔ جن کا درج کرنا  بہ سبب طوالت  چھوڑا گیا۔ چنانچہ  اُن کی پوری  کیفیت  کتاب  عقایدٔ اسلامیہ  ترجمہ مولوی  محمد  شفقت  اﷲ حمیدی صفحہ ۲۴۸ سے ۲۵۵ تک اور کتاب تحقیق الایمان  مصنفۂ پادری  مولوی عماوالدین  صاحب اعتراض  چہارم صفحہ ۱۱۲ میں درج ہے۔

مگر تعلیم انجیل کسی خاص  جگہ کو عبادت الہیٰ کے واسطے مخصوص نہیں ٹھہراتی ۔ بلکہ ہر جگہ جہاں انسان اُس کی مرضی کے موافق  عمل کرے قربت الہیٰ حاصل کر سکتا ہے۔ چنانچہ انجیل یوحنا ۴: ۱۹۔ ۲۴ تک مذکور ہے ’’عورت نے اس سے (مسیح سے) کہا اے خداوند مجھے معلوم ہوتا ہے۔ کہ آپ نبی ہیں  ہمارے  باپ داداوں  نے اس پہاڑ پر پرستش کی اور تم (یہودی) کہتےہو۔ کہ وہ جگہ جہاں پرستش  کرنی چاہئے یروشلم میں ہے۔ یسوع نے اُس سے کہا ۔ کہ اے عورت میری بات کو یقین رکھ۔ کہ وہ گھڑی  آتی ہے۔ کہ جس میں تم نہ تو اِس پہاڑ پر۔ اور نہ یروشلم  میں باپ کی پرستش  کروگے تم اُسکی جسے نہیں جانتےہو  پرستش کرتے ہو۔  ہم اُس کی جسے جانتے ہیں پرستش کرتے ہیں۔ کیونکہ نجات یہودیوں  میں سے ہے۔ پر وہ گھڑی  ۔ بلکہ ابھی ہے۔ کہ جس مین سّچے پرستار روح و راستی سے باپ کی پرستش کریں گے۔ کیونکہ باپ بھہ اپنے پرستاروں  کو چاہتا  ہے۔  کہ ایسے ہوویں ۔ خُدا روح ہے اور اُس کے پرستاروں  کو فرض ہے۔ کہ روح اور راستی  سے پرستش کریں‘‘۔

پس اب اس روحانی طریقہ ٔ  عبادت ِالہیٰ کو چھوڑ کر جو اُس کی عین مرضی اور صفات کے موافق ہے۔ جس کی تشبیہ و علامتیں احکامات  توریت میں قوم یہود پر ظاہر  کی گئیں ۔ جو صرف جسمانی خیالات پر مبنی  تھیں  کون فرض خیال کر سکتا ہے؟  مگر صرف وہی جو جسمانی طبیعت رکھتا ہو۔ اور روحانی تعلیم انجیل سے  اپنی آنکھیں بند کر لے۔ جیسا لکھا ہے ۔ ’’ مگر نفسانی آدمی خدا کی روح کی باتیں نہیں قبول کرتا۔ کہ وے اُس کے آگے  بیوقوفیاں  ہیں۔ اور نہ اُنہیں  جان سکتا ہے۔ کیونکہ وے روحانی طور پر بوجھی  جاتی ہیں‘‘ ۱۔ قرنتیوں ۲: ۱۵۔

(جھوٹ بولنا)

 کتاب ہدایت  المسلمین کے صفحہ ۳۱ میں یوں درج ہے۔ ’’کہ یہ لوگ (محمدی) خدا کی راہ میں جھوٹھ بولنا ثواب  جانتے ہیں۔ چنانچہ سورہ صافات رکوع ۳ کی آیت   فنَظَرَ نَظَرۃ فی  النُّجّوم کے نیچے عبدالقادر کے ساتویں فائدہ میں لکھا  ہے کہ اﷲ کی راہ میں جھوٹ بولنا عذاب  نہیں۔ بلکہ ثواب ہے‘‘۔  ہندو بھی ’’ دیدہ دانستہ  رحم کی نظر سے جھوٹھ بولنے میں سورگ سے نہیں گرتا۔ اور اِس کی بانی منو وغیرہ دیوتا کی بانی کے برابر سمجھتے ہیں۔ جہاں سچ بولنے سے برہمن ۔ کشتری ۔ ویش۔ شودر قتل ہوتا ہے۔ وہاں جھوٹھ بولنا سچ سے بھی  اچھا ہے‘‘ شاستر منوادھیا ء ۸۔ اشلوک ۱۰۳، ۱۰۴۔

مگر تعلیم بئیبل دیدہدانستہ کسی حالت میں جھوٹھ بولنے کی مطلق پروانکی نہیں دیتی ہے۔  بلکہ ہر حالت میں جھوٹھ بولنے پر مندرجہ زیل فتوی ظاہر کرتی ہے یعنے ’’وہ جو دغا باز ہے میرے گھر میں ہرگز نہ رہ سکے گا۔ اور جھوٹھ  بولنے والا میری نظر میں نہ ٹھہریگا۔ ‘‘ زبور ۱۔ ۱۰: ۷ ’’جھوٹےلبوں سے خداوند کو نفرت ہے۔ پر وے جو راستی سے کام رکھتے ہیں اس کی خوشی ہیں۔ ‘‘ امثال ۱۲: ۲۲ ’’ سارے جھوٹھوں کا حصہ  اُسی جھیل میں ہوگا جو آگ اور گندک سے جلتی ہو۔ مکاشفات۲۱: ۸’’ ایخداوند  تیرے خیمہ میں کون رہیگا۔ اور تیرے کوہ مقدس پر کون سکونت کریگا۔ وہ جو  سیدھی چال چلتا۔ اور صداقت کے کام کرتا ہے۔ اور دل سے سچ بولتا ہے۔‘‘ زبور ۱۵: ۱، ۲۔

 (نماز کی بابت)

 قرآن میں مذکور ہے ’’ محافظت  کرو اوپر نمازوں  کے۔ اور نماز بیچ والی پر۔ یعنے عصر۔ اور کھڑے ہو واسطے اﷲ کے چپکے ‘‘ سورہہ البقر رکوع ۳۱۔ ’’ پس جب تمام کر چکو  نماز کو۔ پس یاد کرو اﷲ کو کھڑے یا بیٹے ۔ اور اوپر کروٹوں اپنی کے۔ پس جب آرام  پاؤ  پس تم سیدھی کرو نماز کو۔ تحقیق نماز ہے اوپر مسلمانوں کے لگے ہوئے وقت مقرر کئے ہوئے۔ سورہ النسا رکوع ۱۵۔

ہندو بھی بعض وقت  سندھیا (چپ) کرنا بہتر سمجھتے ہیں۔ چنانچہ شاستر منو میں مذکور  ہے۔ ’’پراتھ کال (فجر) گائتری کا چپ کرتا رہے جب تک سورج کا درشن نہو۔ اور اِسہی طرح سائین  کال ( شام) مین جب تک تارے نہ دِکھلائی   دیں ۔ پراتھ کال کی سندھیا کرنے سے رات کا پاپ چھوٹ جاتا ہے۔ اور سائیں  کال  کی سندھیا  کرنے سے دن کا پاپ  چھوٹ جاتا ہے۔ جو آدمی دونوں وقت کی سندھیا نہیں کرتا وہ شودر کی طرح دوج کرم  سے باہر ہوجاتا ہے۔ ’’ ادہیاء ۲۔ اشلوک ۱۰۱ سے ۱۰۳ تک۔

کلام خدا بائبل سے ظاہر ہے۔ کہ نماز کرنے کا دستور قدیم  سے چلا آتا ہے۔ یہودی بھی نماز کرنا ضروری سمجھتے تھے۔ چنانچہ زبور ۹۵: ۶ میں مذکور ہے ’’ آؤ ہم سجدہ کریں۔ اور جھکیں اور اپنے پیدا کرنے والے خداوند کے حضور  گھٹنے ٹیکیں‘‘ اِنجیل مقدس میں بھی مذکور ہے۔ ’’ اور جب تو دُعا مانگے ریاکاروں کی مانند مت ہو۔ کیونکہ وے عبادت خانوں  میں اور راستوں کے کونوں پر کھڑے ہو کے دُعا مانگنے کو دوست رکھتے ہیں تاکہ لوگ انہیں دیکھیں۔ میں تم سے سچ کہتا ہوں کہ وے  اپنا بدلا پاچکے ۔ لیکن جب تو دُعا مانگے اپنی کوٹھری  میں جا۔ اور اپنا دروازہ  بند کر کے اپنے باپ سے جو پوشیدگی میں ہے دُعا مانگ۔ اور تیرا باپ جو پوشیدگی میں دیکھتا ہے ظاہر میں تجھے بدلادیگا۔ اور جب دُعا مانگتے ہو تو غیر قوموں  کی بیفائدہ بک بک مت کرو۔ کیونکہ وے سمجھتے ہیں کہ زیادہ کوئی  سے ان کی سُنی جائیگی‘‘ متی ۶: ۵۔ ۷ تک پھر رسول فرماتا ہے ’’ دُعا مانگنے میں مشغول اور اُس میں شکر گزاری کے ساتھ ہشیار رہو‘‘ قلسیوں ۴: ۲ پساس لئے مسیحی لوگ بھی دُعاؤں  ( نمازوں) میں اکثر مشغول رہتے ہیں کیونکہ ضروری بات ہے۔

بیشک محمدی نماز کایہ قاعدہ کہ جماعت کے بہت سے لوگ  فراہم ہو کر دُعا یا نماز کرتے ہیں۔ ایک عمدہ اؤاہل  کتاب کے موافق قاعدہ ہے۔ مگر اُن کی نماز کا منشاء وہی ہے جو ہندؤں  کا ہے  یعنے نمازوں کے زریعہ  آدمی نیک بنے اور گناہ (پاپ) سے چھوٹ  جاوے۔ یا ثواب حاصل کرے پرمسیحی نمازوں  کا یہ منشاء نہیں ہے۔  بلکہ یہ کہ آدمی  پہلے نیک  ہو۔ یا بنے  تاکہ خدا کی شکر گزاری ادا کر سکے۔ اور اُس کے  ساتھ دُعا میں ہم کلام ہو کر خوشی حاصل  کتے۔ پس محمدی ہندؤں کی نمازیں انسان کے پاک  ہونے اور ثواب  پانیکا ایک زریعہ  خیال کی جاتی ہیں۔ مگر مسیحی نمازیں نجات  یافتہ لوگوں  کی شکر گزاری  سمجھی جاتی ہیں۔ جو ضروری ہے۔  

(بہشت  کی بابت)

 قرآن میں مذکور ہے ’’ اور خوشخبری  دے اُن لوگوں کو کہ ایمان لائے۔ اور کام کئے اچھے۔ یہ کہ واسطے اُن کے بہشت ہیں چلتی مین نیچے اُن کے سے نہریں  ‘‘ سورہ البقر رکوع ۳ ’’ مگر بندے سے اﷲ کے کالس کئے گئے یہ لوگ واسطے اُن کے رِزق  ہے معلوم میوے اوروہ عزت دے جاویں  گئے بیچ باغوں نعمت کے اوپر تختوں کے آمنے سامنے پھرایا جاوے گا اوپر اُن کے پیالہ شراب  لطیف کا۔ سفید مزہ دینے والی پینے والوں کو۔ نہ بیچ اس کے خرابی ہے ۔اور نہ وہ اس سے بیہودہ کہینگے۔ اور نزدیک انکے بیٹھی  ہونگی  نیچے رکھنے والیاں خوبصورت  آنکوں والیاں گویا کہ وہ انڈے ہیں چھپائے ہوئے ‘‘ سورہ الصافات رکوع ۲۔  

پس بہشت کی بابت ایسا ہی کم و بیش  زکر قریباً ۲۸ یا ۲۹ جگہ قرآن میں مذکور ہے۔ مگر کسی آیات بہشتی  میں کہیں یہ مذکور نہیں ہے۔ کہ بہشت میں خدا اُن کے ساتھ ہوگا۔ اور مومنین اس کے چہرہ  پرنظر کریں گے۔ اور اس کی ستائیش و تعریف  میں ابد الاآباد  مشغول رہکر لاثانی خوشی حاصل کریں ہے۔

ہندؤوں کے خیال موافق پر لوک کا آئندصرف یہ  ہے۔ کہ آدمی اپنی بھول و بھرم سے چھوٹ کر جسکا نتیجہ کرم کے سمان آواگون میں حاصل  کرتا رہتا ہے۔ گیان حاصل  کر کے ’’سب جانداروں مین آتما کے وسیلہ سے  آتما کو دیکھتا ہے۔ اور سمد رشی ہو کر بڑی برہم پددتی کو پاتا ہے ‘‘  )شاستر منوادہیاء ۱۲۔ اشلوک ۱۲۵) یعنے پرمیشور میں لین ( وصل) ہوجاتا ہے اور بس۔

مگر اِنجیل مقدس میں اس پاک بہشت ۔ اور اُس کی لاثانی خوشی کی بابت لکھا ہے کہ خدا نے اپنے محّبوں  کے لئے  وہ چیزیں تیار کیں۔ ’’ جو نہ آنکھوں  نے دیکھی۔ نہ کانون نے سنُی۔ اور نہ آدمی کے دل میں آئی ۔ بلکہ خدا نے اپنی روھ کے وسیلے ہم پر ظاہر کیا ‘‘ ۱۔ قرنتیوں  ۲: ۹  جس کی خواہش میں اس کے سچّے  مومنین مرنے تک مستعد رہتے ہیں ( مکاشفات ۴: ۱) یوں ظاہر کیا۔ ’’ یسوع نے جواب میں اُن سے کہا تم  نوشتوں اور خدا کی قدرت کو نہ  جانکر غلطی  ہو کیونکہ قیامت میں لوگ  نہ بیاہ کرتے نہ بیاہے جاتے ہیں۔ بلکہ آسمان پر خدا  کے فرشتوں  کی مانند ہیں۔ ‘‘ متی ۲۲: ۲۹، ۳۰۔

(۱ ) بہشت میں خدا اپنے مقدسوں کے ساتھ سکونت کریگا۔ مکاشفات ۲۱: ۳۔

(۲ ) بہشتیوں کی خوشی ۔ مکاشفات  ۷: ۱۶، ۱۷۔ اور ۲۱: ۴، ۲۵۔

(۳ ) بہشتیوں کا کاروبار ۔ اس کے چہرہ پر نگاہ رکھنا  مکاشفات ۲۲: ۴۔ اور ابد الآ باد  اس کی ستائیش و تعریف  کرنا۔  مکاشفات ۴: ۱۰،۱۱۔  اور ۱۹: ۶۔

ہر سہ مذاہب کی تعلیم بہشتی مزکور ہ بالا کی بابت ناظرین  خود انصاف کریں۔ کہ کون سی تعلیم عقلاً و نقلاً  انسانی درجہ  اور خُدا کی شان کے موافق ظاہر ہوتی ہے۔ کیا وہ جس میں صرف  نفسانی خیالات موجود ہیں۔ جو بغیر  جسم اُس قدوس کے حضور میں محض بے مطلب ۔ اور اس کی قدوسیت کے خلاف ہیں۔ یا وہ جس مین اپنے خالق قادر مطلق کے امزروصل  ہوجانا۔ جو انسان کے لئے محال بلکہ ان ہونا ہے ’’ چہ نسبت خاک رابعالم پاک‘‘ مکر ہاں وہ جس میں ہمیشہ اس کے حضور حاضررہ کر ابدالآباد  اس کی تعریف  کرنا اصلی و سچی خوشی ظاہر ہوتی ہے۔

( روزہ)

 قرآن میں مذکور ہے ’’ اے ایمان والو حکم ہوا  تم پر روزے  کا جیسے  حکم ہوا تھا  تم سے اگلوں پر۔ شاید تم  پر ہیزگار  ہو جاؤ۔ مہینہ رمضان کا جسمیں نازل ہوا قرآن ۔ ہدایت واسطے  لوگوں کے۔ اور کھلی  نشانیاں راہ کی۔ اور فیصلہ پھر جوکو ئی پاوے تم میں یہ مہینہ تو روزہ رکھو۔  اور جو کوئی بیمار ہو یا سفر میں تو گنتی  چاہئے اور دنوں سے۔  حلال ہوا تم کو روزہ  کی رات میں بے پردہ ہونا اپنی  عورتوں سے۔ وے پوشاک ہیں تمہاری اور تم پوشاک اُن کی۔ اﷲ نے معلوم کیا ۔ کہ تم اپنی چوری  کرتے تھے۔ سو معاف کیا تم کو۔ اور درگزر کی تم سے۔ پھر اب ملو اُن سے۔ اور چاہو جولکھ دیا  تم کو۔ اور کھاؤ اور پیو  جب تک  صاف نظر آوے تم کو  وہاری مفید جدی وہاری سیاہ سے فجر کی۔ پھر پورا کرو روزہ رات تک‘‘ سورہ البقر رکوع  ۲۳۔

ہندو بھی بھی کئی باتوں کے لئے برت (روزہ) رکھنا ضروری سمجھتے ہیں۔ مثلاً کسی دیوی ۔ درگا کی رجامندی کےلئے۔ اور چاند و سورج  کے نام  پر  وغیرہ وغیرہ ۔ بلکہ بعض برت بعض  پاپوں کے پراشچت ٹھہرائےگئے۔ شاستر منو ادہیاء ۱۱۔ اشلوک ۱۰۱، ۱۰۲، ۱۲۵ وغیرہ۔

کلام خدا بئیبل  سے بھی معلوم ہوتا ہے۔ کہ اگلے بزرگوں نے بھی روزے رکھے۔ اور اب بھی مسیحی روزہ رکھنا مفید جانتے ہیں۔ چنانچہ خداوند یسوع مسیح نے انجیل  متی ۶: ۱۶۔ ۱۸ تک یوں فرمایا ہے ’’ پھر جب تم روزہ  رکھو ریاکاروں  کے مانند اپنا چہرہ  اُداس نہ بناؤ ۔ کیونکہ وے اپنا مُنہ  بگارتے ہیں ۔ کہ لوگوں  کے نزدیک روزہ دار  ظاہر ہوں۔  میں تمسے سچ کہتا  ہوں ۔ کہ وے اپنا بدلاپا چکے۔ اور جب تو روزہ رکھے اپنے سرپر چکنا لگا۔ اور منہ دہو تاکہ تو آدمی پر نہیں ۔ بلکہ تیرے باپ پر جو پوشیدہ ہے روزہ دار ظاہر  ہو۔ اور تیرا باپ جو پوشیدگی میں دیکھتا ہے آشکار ا تجھے بدلا دے‘‘۔

(۱ ) کلام خدا بیئبل کے موافق روزوں  کا ظاہر طور یہ ہے یعنے دعا وزاری میں مشغول ہونا۔ ا سموائیل۷: ۶ یویل ۲: ۱۲

(ب) باطنی صورت نیکی اور انسانی ہمدردی کے کام بجا لانا ۔یسعیاہ ۵۸: ۶، ۷۔

(ج) روزہ کا وقت و ضرورت اور الہیٰ برکات کے لئے دل کی تیاری۔ یویل ۱: ۱۴، ۲: ۲۳۔

پس مسیحی روزے اپنی روح کو خدا کے سامنے عاجز و فروتن بنانے کے لئے ہیں۔  ( زبور ۶۹: ۱۰، ۲۵: ۱۳) اور آں  لئے وہ سب خیالات جو دوسرے  لوگوں کے روزوں کونہیں توڑتے مسیحی روزوں  کو توڑ ڈالتے ہیں۔ کیونکہ مسیحی روزوں  کے کل ایام دن اور رات یکساں خیال کیا جاتا ہے۔ محمدیوں اور ہندوؤں کے روزے یا برت ایک حکم  کی تعمیل پاپوں کے پر اشچت یا ثواب  کے باعث  خیال کئے جاتے ہیں۔ مگر مسیحی روزے ایک روحانی  بیماری کی دوا میں جو وقت  ضرورت پروہی جاتی ہیں۔

کلام خدا بائبل میں عوام کے روزوں کی محض ایک ظاہر اور بے سود شکل بھی مذکور ہے جو بعض دیگر روزوں  سے بالکل مشابہ  ہو۔ یسعیاہ ۵۸: ۳۔ ۵ ۔

۱۴۔ (خیرات یا صدقہ) قرآن میں حکم ہے’’ اگر ؔکھلی  دو خیرات  تو کیا اچھی بات ہے۔ اگر چھپاؤ اور فقیروں کو پہنچاؤ تو تم کو بہتری ہے‘‘ سورہ البقر۔ رکوع ۲۷۔ مگر محمدی لوگ خیرات یا سدقہ خاصکر  ناتے والوں ۔ یتیموں۔ محتاجوں۔ مسافروں اور فقیروں  کو جو صرف اپنی قوم کے ہوں دنیا بہتر خیال کرتے ہیں۔

ہندو بھی دان پُن  کرنا ایک ضروری بات خیال کرتے ہیں۔ مگر وہ بھی دان۔ پن کا حقدار صرف برہمنوں کو جانتے ہیں نہ شدروں کو۔ دیکھو شاستر منو۔ ادہیاء ۱۔ اشلوک۸۸ سے ۹۱ تک ۔

کلام خدا بائبل سے بھی معلوم ہوتا ہے۔ کہ خیرات یا صدقہ دنیا ایک ضروری امر ہے۔ تاکہ اہل توفیق  بلا امتیاز قومیت  کے محتاجوں  کی مدد کریں۔ اور اس سبب دنیا کے مسیحی ممالک میں حسب الحکم  اپنے نجات دہندہ کے اِس قدر خیرات کا چندہ جمع کیا جاتا ہے  ( متی ۶: ۱۔۴) کہ جس کے زریعہ اکثر محتاجوں اور مصیبت زدونکی  مدد ہوتی ۔ اور دُنیا کے تمام غیرممالک میں مشنری لوگ جا کر غیر لوگوں کو اُنکی بھلائی و بہتری  کے واسطے خدا کے پاک کلام سے صلح و سلامتی کی بشارت  دیتے۔ مدرسے جاری کرتے۔ شفا خانے کھولتے۔ اور بہت کچھ ایسے کام کرتے ہیں جن سے عوام کو فائدہ  حاصل  ہو۔ تاکہ وہ شیطان کے پھندے سے چھوٹ کر اور خدا کے سّچے طالب بن کر آخر روز اسی سّچی  و لاثانی  کوشی کو حاسل کر سکیں۔ مگر ایسا  کرنے پر بھی وہ کوئی ثواب  یا پرلوک کے حاصل  کرنیکا مطلق خیال نہیں کرتے۔ کیونکہ نجات (پرلوک کا آنند) صرف خداوند یسوع مسیح پر صحیح و زندہ ایمان رکھنے سے حاسل ہوتی ہے۔ نہ کسی اعمال حسنہ سے۔

یہاں تک ۱۴ خیالات یا احکامات شرعیؔ محمدیان کامقابلہ جو مذکور ہوا۔ اُس سے ناظرین خود معلوم کر سکتے ہیں کہ وہ بہت کچھ اہل ہنود کے خیالوں کے موافق۔ اور اہل کتاب مسیحیوں کی تعلیم کے خلاف ہیں۔ اب آیندہ بعض  وہ خیالات مذکور ہوں گے جو صرف روایتی یا رواجی مشہور ہیں۔ اور دیکھا جائیگا کہ وہ بھی کہاں تک کس خیال کے موافق یا مخالف ہیں۔

بعض خیالات روایتی و رواجی کا مقابلہ

 (نکاح موقبت)

  ’’ یہ نکاح جس کو متعہ بھی کہتے ہیں بعض محمدیوں میں ایک خاص وقت مقررہ تک کی شرط پر کچھ دام دیکر کیاجاتا ہے۔ مگر بعد پوری ہونے میعاد کے مرد و عورت  دونوں  آزاد ہوجاتے ہیں۔ اب اہل  سنّی اس کو نہیں مانتے۔ مگر شیعہ ابتک اس کو جایز سمجھتے ہیں۔‘‘

ہندوؤں میں بھی ’’خواہش کرنے والی  ہمقوم  کنُیا کو کچھ (اجرت) دیکر اس سے صحبت کرنے والا سزا کے لایق نہیں ٹھہرتا‘‘ شاستر منو ادہیاء ۸۔ اشلوک ۳۶۶۔

 ہر کوئی جان سکتا ہےجبکہ مذہب کی تعلیم میں کوئی بھی ایسی بات رواٹھہرائی گئی ہو جس پر انسان کی طبیعت کا میلان ہے تو اُس کا کسی دوسری حالت یاشکل میں بھی تبدیل  کر لینا  یا حد سے زیادہ بڑھ جانا  کوئی غیر ممکن امر نہیں ہو سکتا ہے۔ پس جبکہ ہر دو  مذہب یعنے محمدی و ہندوؤں میں ایک سے زیادہ ازدواج  روا  ٹھہرایا  گیا جو طبیعت انسانی اور خواہش کے موافق ہے۔ تو ہر دو مذکورہ بالا مشکلوں کو بھی روا سمجھ لیناکیا کوئی ناممکن امر تھا؟ مگر اب ہر کوئی اپنی تمیز سے سوچے اور غور کرے کہ اِن  شکلوں اور رنڈی بازی میں کیا فرق ہے؟ جس کے لئے کلام  خدا انجیل مقدس نامہ اوّل  قرنتیوں ۶: ۹۔ ۱۰ میں صاف صاف  فتویٰ ظاہر کیا گیا ہے ’’ فریب نہ کہاؤ کیونکہ حرامکار اور بت پرست اور زنا کرنے  والے اور عیاش اور لونڈے باز اور لالچی اور شرابی اور گالی بکنے والے اور لوٹیرے خدا کی بادشاہت کے وارث  نہ ہوں گے‘‘۔

(تعلیم  جھوٹ کا نتیجہ) 

جھو ٹ بھی طبیعت انسانی اور خواہش کے موافق ہے۔پس جبکہ اس کو بھی کسیقدر یا کسی حالت میں دیدۂ دانستہ مذہبی تعلیم میں روا سمجھا گیا ہوتو اس کا بھی حد سے زیادہ رواج  پانا کوئی مشکل امر نہیں ہو سکتا۔ چنانچہ  اس ملک ہند میں ہر دو  مذاہب کے ایسے ایسے خیالوں کی آمیزش سے جن کا زکر  نمبر ۱۰میں ہو چکا جو نتیجہ روزینہ برتاؤ سے ظاہر ہوتا کوئی پوشیدہ امر نہیں ہے۔ جسکے لئے  بقول ایک محمدی شاعر مصرعہ ’’ دروغ مصلحت آمیزبہ ازر استی فتنہ انگیز‘‘ گویا عوام الناس میں ایک مثل ٹھہر گئی ہے۔ بلاوہ راستی جو مرضی آلہیٰ کے موافق ہے کہ جس کے لئے یہ بھی اُسی شاعر نے کہا ہے۔ مصرعہ ’’راستی موجب رضائے خداست‘‘ تو کیا ممکن ہے کہ مصنف  مزاجوں کے خیالوں میں اس سے کوئی فتنہ ظاہر  ہو؟ ہر گز نہیں۔ پس ایسے ایسے خیالوں سے بعض  کے دلوں میں جھوٹ نے یہانتک  سرایت کی کہ اُنہوں نے یہی سمجھ لیا  کہ بغیر کچھ بھی جھوٹ ملائے دنیا کی کوئی بات یا کام پورا ہو ہی نہیں سکتا۔ اور اس سبب ایسوں کے خیالوں میں ہر ایک کیطرف  جھوٹ ہی جھوٹ  کا خیال جم گیا۔ جس کا برتاؤ خاصکر  مسیحیوں کی وعظ ۔ گفتگو اور بحث کے وقت اکثر ظاہر ہوتا ہے کہ ہر دو مذاہب  کے بعض جہلا اُنکی ہر ایک بات کو۔  جسکو انہوں نے  بفرمان کلام  الہیٰ نہایت غور و فکر  سے آزما کر (تسلونیقیوں ۵: ۲۱) ثابت کر لیا اور اکثر کر ابھی دیا ہے۔ بلا تحقیق و غور کئے  فوراً  ’’جھوٹ‘‘  کہدینا گویا داخل ثواب سمجھتے ہیں۔ کہ ’’کیا تم نہیں جانتے کہ ناراست خدا کی  بادشاہت  کے وارث نہ ہوویں گے‘‘۔ قرنتیوں ۶: ۹۔

( ارواح کو ثواب )

محمدی اپنے ہر متوفی کے تیسرے و چالیسویں روز کچھ کہانے پر فاتحہ  دلوا کر اس کی روح کو ثواب پہنچانے کا خیال کرتے ہیں۔ بلکہ سال کے اندر کئی تیوہار بھی بعض  بزرگوں کی ارواح کو بعض کہانوں پر فاتحہ دلوا کر ثواب  پہنچانے کے کے خیال سے مقرر بھی کئے ہیں۔ مثلاًمحرم کی دسویں(۱۰) تاریخ حسن حسین اور اُن کے ہمراہیوں کی ارواح کو ثواب  پہنچانے کے لئے کچھ کھچڑی پکا  کر اور اس پر فاتح دلوا کر محتاجوں  کو تقسیم  کرتے  پھر  ربیع الاول کی ۱۲ تاریخ جو اکثر وں کے خیال کے موافق حضرت محمد کی وفات کا روز  ہی کچھ کھانے پر فاتحہ دلوا کر حضرت  کی روح کو ثواب پہنچانے کا خیال کرتے ہیں۔ پھر چودھویں  شعبان کو شب  برات کا تیوہار  مانتے ہیں اور اس روز  اپنے کل متوفی بزرگوں  اور رشتہ داروں کی ارواح کو ثواب پہنچانے کے خیال سے کچھ کھانوں پر فاتحہ دلوا کر محتاجوں کو تقسیم کرتے ہیں اور خود کھاتے ہیں۔

ہندو بھی اپنے ہر متوفی کے لئے تیرہ روش تک اپنے مذہب کے خیال کے موافق بہت کچھ کریا کرم کرتے اور آخر تیرہویں  روزاپنی حیثیت کے موافق کپڑا۔ کھانا۔ چارپائی اور سامان جو بہم پہنچنے  اجارچ پرہمن کو دیتے ہیں تاکہ اُن چیزوں کے زریعہ  اُنکے متوفی کی آتما کے سفر میں اُس کو آرام ملے۔ ہندوؤں  میں بھی سال کے اندر کو ارکے مہینے میں ۱۶ دن خاص سرادہوں کے نام سے مقرر کئے گئے ہیں تاکہ اُن دنوں میں اپنے کل متوفی بزرگوں و رشتہ داروں کی آتماؤں (پتروں) کو بعض  ؎۱ کھانےبرہمنوں کو کہلانے کے زریعہ فائدہ حاصل ہو ’’ کیونکہ جبتک نہایت


؎۱ سرادہوں کے مقرری کھانوں کی پوری تفصیل  جن سے پترایک  ماہ سے ۱۲ برس بلکہ بے انتہا برس تک آسودہ رہ سکتے ہیں دہرم شاستر منو کی تیسرے دہیا ء کے اشلوک ۲۶۷ سے ۲۷۲ تک مرقوم ہے۔ مگر چونکہ اُن میں طرح طرح  کے گوشت مذکور ہیں۔ اسباعث برہمنوںنے اِن سب کوتچھ سمجھ کر صرف  اشلوک ۲۶۷اور ۲۷۱ کے بعض کھانے یعنے۔ دؔہان۔ اُرؔد۔ جؔل۔ سولؔ۔ پھؔل وغیرہ اور  گؔنوکا دورہ یا اسکی کہیرؔ کو جس سے پتھر صرف ایک سال تک آسودہ رہ سکتے ہیں گرم کھانا مون (چپ چاپ) ہو کے برہمن کھاتے ہین تب تک وہ کھانا پرونکو پہنچتا ہے‘‘ شاستر منو ادہیاء ۳۔ اشلوک ۲۳۴ ۲ ۲۳۸۔

مگر کلام خدا بیبل  مقدس کے سکی مقام سے ایسی کوئی تعلیم ظاہر نہیں ہوتی کہ کسی انسان کی روح کو اس کے مرنے بعد کوئی انسان کس طرح سے کچھ فائدہ یا ثواب  پہنچانے کا خیال بھی کر سکے۔ بلکہ صرف یہی ظاہر ہوتا ہے کہ جو کچھ انسان نے اپنے جیتے جی اس دنیا مین کرلیا سو بس ہے اُسی کی سزا یا جزا عاقبت میں اس کو لے ھی۔ علاوہ بریں عقل بھی گوارا نہیں کر سکتی  ہے کہ روح جو مثل  ہوا کے ہی اس کو کوئی جسمانی کھانے۔ کپڑے یا اور کسی چیز سے کچھ بھی فائدہ حاصل  ہو سکے جو نہ اُن چیزوں کی ضرورت رکھتی اور نہ اُن  کو اپنے استعمال میں لاسکتی ہے۔

پس یہ سب خیالی باتیں ہیں جو کلام خدا کی عدم واقفیت  سے ایجاد ہوئیں۔ اور صرف انسانی خیالات پر مبنی  ہیں۔

(لفظ پر ستی)  

روایت ہے فرمایا حضرت  نے ’’اے لوگو توبہ کرو خدا کی طرف۔ کیونکہ میں بھی توبہ کرتا ہوں ایکدن  میں  سو (۱۰۰) دفعہ۔ سو (۱۰۰) دفعہ  توبہ کرنے کا یہ مطلب ہے کہ لفظ توبہ سو (۱۰۰) دفعہ ہر روز پڑہا کرتا ہوں۔ پس اسی دستور پر اکثر محمدی تسبیح ہاتھ میں لے کر۔ یا انگلیوں پر شمار کر کے سو (۱۰۰) دفعہ یا کم و زیادہ  استغفراﷲ ربی واتوب الیہ پڑہا کرتے ہیں اور خیال کرتے ہیں کہ یوں مغفرت حاصل ہوگی۔

ہندو بھی خیال کرتے ہیں کہ ’’ اُونگ  بھوَدوُ۔ بھَودوُ  سوُاہ اور گائتری کے تینوں چرنوں کو دونوں سیندھیامیں وبدپڑھنے والا برہمن  چپ کرے تو سمپورن پُن پرَاپَث ہوں۔ انہیں  تینوں الفاظ کو باہر جا کر ہزار  بار ایک مہینے تک پڑھے تو پڑے پاپ سے چھوٹ جائے جس طرح  سانپ کنیچلی سے چھوٹتا ہے۔ جو برہمن ۔ کشتری۔ ویش۔ اِن تینوں کو اپنے  پڑھنا نہیں پڑھتا  ہے اس  کے بجاے  وہ لوگ نندا کرتے ہیں۔یہ ہی تینوں یعنے اَوننگ بھَوہُ۔ بھُواوُ  گا ئتری  وید  کا کہا ہے۔ اور پرم آتما کے ملنے کا دروازہ  ہے۔ جو شخص کاہلی چھوڑ کر تین  برس تک ہر روز انہیں  تینوں کو پڑھے وہ بشکل  ہوا ہو کہ  رہم پروی کو  حاصل کرے’’ شاستر منو ادہیاء ۲۔ اشلوک ۷۸ سے ۸۲ تک۔

مگر کلام خدا انجیل مقدس میں کوئی لفظ یا جملہ  ایسا نہین ٹھہرایا گیا۔ کہ جس کے  سو (۱۰۰) یا ہزار (۱۰۰۰)  بار صرف بولنے یا کہنے سے انسان  کو کوئی فائدہ حاصل ہو سکے۔ بلکہ یہ کہ انسان نئے جنم کے وسیلے دل کی تبدیلی حاصل  کرے (یوحنا  ۳:۳) اور خدا سے مدد پا کر ( زبور ۱۱۵۔ ۱۱) تمام عمر اس کی مرضی کے موافق اپنی زندگی بسر  کرے۔ تو وہ زندگی  کا تاج ( ابدی خوشی) حاصل کریگا۔ مکاشفات ۲: ۱۰۔

(قبر پرستی)

’’ حضرت نے شروع میں قبروں کی زیارت سے منع کیاتھا۔ مگر بعد کو حکم کیا۔ کہ قبرونکی زیارت کیا کریں اور قبروں  پر جا کر مرُدوں  سے کہیں: ۔ اسلام علیکم یا اھل القبورُ ( اے قبروں میں رہنے والو تمپر سلام) اور اُنکے واسطے دعا  کریں۔ اور قرآن کی عبارتیں پڑھکر انہیں ثواب بخشیں ۔ بلکہ یہ بھی فرمایا۔ کہ کعبہ کے حج کے بعد اگر کوئی میری قبر پر آئے گا۔ تو ایسا  ہوگا۔ جیسے زندگی میں وہ مجھ سے ملا۔اور ایک حج کے عوض  دو حجوں   کا ثواب  اُس کو ملیگا۔ ۔ لیکن جس نے حج کیا  اور میری قبر پر نہ آیا وہ ظالم ہے۔‘‘

اسی خیال پر بعض محمدی صاحبان  اکثر مشہور قبروں پر جانا  اور اُنپر میلے و روشنی  اوراُنکی زیارت کرنا۔ اور چڑہاوے چڑہانا ضروری  کہتے ہیں۔ اور خیال کرتے ہیں ۔ کہ اُن پیروں اور ولیوں کی رضامندی کے زریعہ اُن کو کچھ  فائدہ حاصل ہوگا۔ اور نادانوں کو سمجھانیکے لئے ان کی فضیلت میں بڑی بڑی  روائیتیں گھڑ رکھی ہیں۔ جن کو عوام  بڑے شوق سے سنتے اور راست خیال کرتے ہیں۔ حالانکہ اُن کی کچھ بھی اصل نہیں۔ بلکہ صرف خیالی باتیں ہیں ( کتاب  لفیش لاولیا کو پڑھو اور دیکھو) جن کے سبب انسان کا توکل خدا سے علیحدہ ہو کر صرف ایک خاک کی ڈھیری پر لگ جاتا  ہےجو اُسکی مرضی کے بالکل خلاف ہے۔

ہندو بھی بعض فقیروں اور سادہوؤنکی  سمادہیں بناتے۔ اور اُن کی تعظیم  کرنا ضروری  سمجھتے ہیں۔ بلکہ بعض مشہور آدمیوں اور اکثر دیوی درگا اور بہو انیوں کے نام پر مٹہ و مند رہنا کہ بعض میں اُن کی مورتیں بھی بنا بنا کر رکھتے ہیں۔ اور مٹہ اور مندرونپر جا کر بعض  دفعہ  روشنی اور میلے بھی کرتے۔ اُن پر چڑہاوے  چڑہاتے ہیں۔ اور اُن سے منتیں مانگتے ہیں۔ اور نہ صرف ان سے ۔ بلکہ محمدیوں کی دیکھا دیکھی اِن کے نامزد پیروں  اور دلیوں کی قبروں پر بھی جا کر اور اُن کے خیالوں اور  باتوں میں شریک ہو کر اُن کے موافق وہ بھی مانتے اور عمل میں لاتے ہیں۔

مگر کلامِ  خدا بائبل مقدس کے کسی  مقام مین قبر پرستی کی کوئی تعلیم کا اشارہ بھی ظاہر نہیں ہوتا، اور نہ کسی  خدا کے نبی نے کہیں یہ فرمایا  کہ ۔ میری قبر پر آنے  اور زیارت کرنے سے تمکویہ۔ یاوہ فائدہ حاصل ہوگا۔ ورنہ ظالم ٹھہیروگے۔ بلکہ فعل مذکور کو صریح بت پرستی میں ظاہر کیا گیا ہے۔ جو عین گمراہی اور خدا کی نظر میں  نہایت نجس  کام ہے۔ ایسے کام سے بچنے کے لئے خداوند تعالیٰ  نے حضرت موسیٰ کی قبر کو ایسا غائب کر دیا ۔ جسکا آج تک کہیں پتہ بھی نہ لگا۔ (استثنا ۳۴: ۵۔ ۶) اور یہ اس لئے ہوا کہ مبادا نبی اسرائیل  اُس کی قبر کی پرستش کرنے لگ جائیں ( نامہ یہواہ  ۱:۹) اور اگرچہ بعض نبیون اور اکثر بزرگوں کی قبریں بعض جگہ آجتک بھی نامزد ہیں۔ مگر کوئی مسیحی ان کی قبروں پر اُن کو ثواب  پہنچانے۔ یا اُن کے زریعہ کوئی ثواب  یا فائدہ  حاصل  کرنے کے لئے خیال سے ہر گز  نہیں جاتا ہے۔

 ( خیالی گناہ)

’’محمدی علماء نے گناہ کی دو قسمیں ٹھہرائی ہیں۔ یعنے فعلیؔ و خیالیؔ۔خیالی گناہ جس کو وہ  وسوسہ یا باطل  منصوبہ  بھی کہتے ہیں اُس کی چار قسمیں مقرر کی ہیں۔ یعنےحوابسؔ۔ خواؔطر۔ اختیاراتؔ اور عوازمؔ۔ اول تین اقسام کے وسوسے محمدیوں  کے خیال میں اُن کو معاف ہیں۔ مگر قسم  آخر عوازمیں مسلمانوں کا  تھوڑا سا مواخذہ  اﷲکریگا۔ پوری سزا پھر بھی اُن کو نہ دیگا۔ اس لئے کہ وہ مسلمان ہیں اسلام کی رعایت ہوگی۔

ہندو بھی  منسا پاپ (ّخیالی گناہ) کو قابل مواخذہ پاپ خیال نہیں کرتے ہیں۔ جبتک کہ اُس کو پورا عمل ظہور میں نہ آوے۔

مگر کلام خدا بائبل مقدس  سے ظاہرہوتا ہے۔ کہ گناہ کو جڑ خواہش ہے( جسکو غیر لوگ ایک ہلکی بات خیال کر کے اس سے بے پروا رہتے ہیں) وہی پیشتر انسان کے دل و خیال  میں پیدا  ہوتی ہے۔ اور بعدہ وہ گناہ  کا ایک  درخت  بن جاتی ہے (ایوب ۱۵: ۳۵ و یعقوب  ۱: ۱۵) پس گناہ  قابل  سزا  بدرگاہ  الہیٓ وہی ہے جس کی خواہش انسان کے دل میں پیدا ہوتی ہے۔ جس کو  انسان ظاہر اً عمل  میں لاسکے ۔ یا نہ لاسکے۔

قول خداوند یسوع مسیح تم سن چکے ہو اگلوں سے کہا گیا۔ توخون  مت کر۔ اور جو کوئی خون  کرے  عدالت میں سزا  کے لایق ہوگا۔ پر میں (مسیح)  تمہیں کہتا ہوں ۔ کہ جو کوئی اپنے بھائی پر بے سبب غصہ ہو عدالت (روز حساب) میں سزا  کے لایق  ہوگا ( متی ۵: ۲۱، ۲۲) تم سن چکے ہو کہ  اگلوں سے کہا گیا تو زنا مت کر۔ پر میں (مسیح) تمہیں کہتا ہوں۔ جو کوئی شہوت سے کسی عورت پر نگاہ  کرے وہ اپنے دل میں اُس کے ساتھ زنا  کر چکا‘‘ ۲۷، ۲۸ آیتیں۔

پس گناہ کی اصلی جڑ اس کی کواہش ہے جو پہلے انسان کے دل و خیال میں داخل ہوتی ۔ اور  بعد میں انسان کو نہایت نفرتی و مکروہ بنا کر  خدا سے دور کرتی دیتی ہے۔  

 (منتر۔ جنتر ۔ تعویذ گنڈے وغیرہ)

   ’’حضرت نے یہ بھی تعلیم دی ہے۔ کہ بیماریوں میں دوا بھی کی جائے۔ اور بعض بیماریوں میں منتر پڑ ہے جائیں۔ پر شرک  کے  مغفر نہوں چاہئے  کہ قرآن کی آیتیں کو منتر بناویں۔ اور خدا نے ناموں کو بھی منتر بناویں۔ اور غیر زبانوں کے منتر بھی پڑھے جاویں۔ بشرطیکہ اس کے ناموں میں شرک نہو ۔ بلکہ حضرت  نظر بد کے بھی قائیل تھے‘‘۔

پس اسی خیال پر اکثر محمدی صاحبان مولویوں ملانوں سے تعویذ اور گنڈے لے کر اور دم کر اکر  اپنے بچوں وغیرہ  کے گلوں اور ہاتھوں پر باندھنا بہتر خیال کرتے ہیں۔ اور اُنکے زریعہ بعض بیماریوں۔ خطروں اور  نظر بد و غیرہ سے محفوظ رہنے کے لئے اکثر منتر ۔ جنتر۔ اور جہاڑ۔ پھونک وغیرہ کا زیادہ رکھتے ہیں بلکہ اکثر مولویوں و ملانوں سے بھی تعویذ اور گنڈے استعمال کرتے۔

مگر کلام ِ خدا  بائبل مقدّس ایسے سب وہمی و خیالی باتوں کو ناروا۔ بلکہ جادوگری ٹھہراتا ہے۔ جو اُس کی مرضی کے  محض خلاف ہے۔ ۲۔ سلاطین ۱۷: ۱۷۔ ۲۔تواریخ ۳۳: ۱) پس اس عدولی مرضی آلہیٰ کے سبب کو ئی  مسیحی جو خدا کےکلام  سےواقف ہے ہر گز ایسا نہ کریگا۔ کیونکہ فعل مذکور اس کی نظر میں محض گھنونا اور بیجا ہے۔ جس سے مطلق کوئی فائدہ نہیں ہو سکتا مگر ہاں بیماریوں کا علاج کرنا ۔ اور مریض کے لئے خدا کے حضور  میں التجا کرنا ایک امر ضروری اور عقل کے موافق بھی ہے۔ اگر مریض کی شفا اُس کی مرضی مبارک کے موافق ہے۔ تو ضرور اُس کو شفا حاصل  ہوگی۔ جس کو نہ صرف مسیحی ۔ بلکہ دنیا کے کل اپل عقل بھی تعلیم کرتے ہیں۔

 ( مکروہ اوقات)

 ’’حضرت نے تین وقت بھی مکروہ ٹھہرائے ہیں جن میں نماز یا خدا کو سجدہ کرنا ناجائز بلکہ حرام ہے۔ یعنے اول وقت طلوع  اور دوم غروب آفتاب جن کی وجہ حضرت نے یہ بتلائی ہیں قرنین الشیطان جس کے لفظی معنے یہ ہیں کہ درمیان دو سینگوں شیطان کے یعنے طلوع و غروب کے وقت  سورج درمیان  دو سینگوں شیطان کے ہوتا ہے۔ جس کو وہ اپنے سینگوں پر  اُٹھا لیتا  ہے۔ اور وقت سوم دوپہر کو جو نماز منع ہوئی اس کا سبب حضرت نے یہ  بتلایا ہے  ان جنھم تسجر الایومہ الجمعہۃ کہ دوپر کے وقت دوزخ میں ایندھن  یا بالن جھونکا جاتا ہے۔ مگر جمعہ کے دن نہیں جھونکا جاتا‘‘۔

ہندوؤں میں بھی بعض  وقت و بعض جگے وید شاستر کا پڑھنا منع کیا گیا ہے مثلاً۔  یٔتھا شکت اتسرگ کر کے پکش رات تک  یا  اُتسرگ کے دن رات تک اور یکووسٹ سرادہ کانیونا کے کر اُس کے تین دن بعد تک اور راجا کے سُو تک میں اور چاند و سورج کے گر مین کے وقت وید کو پڑھنا نہ چاہئے۔ شُکل پکش میں وید کو اور کرشن پکشن میں شاستر کو پڑھے۔ شدُر کے پاس۔ ناپاک جگے یا ناپاک جسم ہو تو اِن  حالتوں میں پڑھناجتن سے تیاگ کرے۔ شاستر  منو ادھیا ء ۴۔ اسلوک۹۷، ۹۸، ۹۹، ۱۱۰، ۱۲۷۔

مگر خداوند  یسوع مسیح نے انجیل مقدّس میں نہ کوئی وقت نماز  (دُعا) کرنے کے لئے مکروہ ٹھہرایا اور نہ کسی وقت یا کسی جگہ یاکسی کے پاس کلام خدا  کے پڑھنے اور اُس پر گور کرنے سے منع کیا ہے۔ کیونکہ نماز  (دعا) میں خدا سے مدد حاصل کرنا اور کلام خدا سے تسلّی پانا خاص کر برُے اور امتحان کیوقتوں میں ہی کمال ضروری ہے بلکہ خدا کے بندوں کے لئے ایسے وقتوں میں یہی روحانی و اصلی ہتھیار ٹھہرائے گئے ہیں جن کے زریعہ وہشیطان کا مقابلہ کر کے اُس پر غالب آسکتے ہیں ( افسیوں ۶: ۱۰ سے ۱۸ تک) مگر یہ سمجھ میں  نہیں آتا کہ سورج کے ساتھ ایسی حرکت شیطان کے کرنے کے یا دوزخ میں ایندھن جھونکے جانے کے وقت نماز آلہیٰ میں کیا  خلل واقع ہو سکے۔ بلکہ خاص ایسے ہی وقتوں میں نماز بہت ضروری ہے تاکہ خدا دوزخ  کے سخت عذاب سے بچاوے۔ پھر یہ بھی خیال  سے بالکل باہر بات کہ کسی کتاب کی تاثیر  کس وقت۔ کسی جگہ یا حالت میں یا کسی آدمی کے پاس پڑھنے سے جاتی رہے بلکہ جو کتاب آلہیٰ ہے وہ خاص  ایسے ہی وقتوں و حالتوں میں انسان  کی رہنما ہے ( زبور  ۱۹۹: ۱۰۵) اور خاصکر برُے نادان و جاہل  لوگوں کے سامنے پڑھنے اور اُس  کا مطلب اُن کو سمجھانے سے بہت کچھ فائدہ حاصل  ہوا ور ہو سکتا ہے۔ کیونکہ خدا کے سامنے کل بنی آدم یکساں ہیں اور اس لئے اُس کا کلام  مقدس بھی کل انسانوں کے لئے ایک موثر اور فائدہ بخش  عطیہ ہے۔ زبور ۱۹: ۷، ۸۔

یہاں تک محمدی صاحبان کے بعض خیالات و  مینیہ درواجیہ کامقابلہ جو مزکور ہوا اُس کی بابت ہر دانا و ہوشیار  آدمی جان سکتا۔ کہ اِن مزکورہ خیالات  میں کوئی خاص میرا گھڑا ہوا خیال نہیں ہے۔ بلکہ وہ سب کچھ ان کی مذہبی کتاب قرآن۔ یا دوسری تصاویف کا انتکاب ہے۔ علی ہذا القیاس ہندوؤں کے خیالات بھی۔ جو اُس کے مقابلہ میں درج ہوئے۔ وہ یہی بہت کچھ ان کے مذہبی قانون دہرم  شاستر منو سے نقل ہوئے۔ جس کو ہر ایک ہندو مانتا اوت جانتا ہے۔ اور جن کا مقابلہ کرنے سے ہر کوئی ان کی حقیقت  کو معلوم کر سکتا ہے۔ اگرچہ  شاستر مذکور  کی سب باتیں تو آج کل نہیں مانی جا سکتیں۔ مگر تو بھی بہت کچھ دینی و دنیاوی رسومات میں مانی  اور ادا کیجاتی ہیں۔ اور اگر چہ ایکدو باتیں صرف روائیتی بھی درج ہوئیں۔مگر وہ بھی کوئی نئی نہیں ہیں کیونکہ ہر کوئی ان کو تسلیم کرتا ہے۔  

مسیحی تعلیم کا جو انتخاب درج ہوا وہ بھی میری من گھڑت باتیں نہیں ہیں بلکہ تعلیم بیبٔل  کے موافق ہے۔ جس کو نہ سرف میں۔ بلکہ کل دنیا کے مسیحی تسلیم کرتے ہیں۔ پس اس مقابلہ سے جو کچھ ظاہر ثابت  ہوتا۔ وہ یہ ہے۔ کہ محمدی صاحبان  کے مذکورہ کل خیالات صرف اہل ہنود کے خیالوں کے موافق اور اہل کتاب مسیحیّوں کی تعلیم کے محض خلاف  اور بےسود ہیں۔

اب فرمائے کس طرح کوئی حقیقی طالب حق اپنی روح کو ان خیالوں کے سپرد کر کے اپنا دلی اطمینان اور پوری خوشی حاصل کر سکتا ہے؟ لیکن اگر ان کی کوئی دوسری حقیقت ہے۔ تو جیسا مین نے ہیشتر عرض کیا پھر بھی مکرّروہی التماس کیا جاتا ہے کہ براہ نوازش ان کی حقیقت سے پوری آگاہی جو مناسب ہے عنایت فرمائیں۔ زیادہ آداب۔

راقم۔۔۔ بہادر مسیح ۔ مناد

قرضدار ہوں!

I Owed


Published in Nur-i-Afshan Feburary 8, 1895
By Kidarnath


جناب اڈیٹر صاحب نہ سمجھنا کہ میں کسی بنئے بقال کا قرضدارہوں کبھی نہیں۔ کیونکہ میں جانتا ہوں کہ ان سے قرض لینا دعا بندگی کو کبھی جواب دینا ہے۔ بقول سعدی ع سلام  روستائی بیغرض  نیست۔ اور نہ میں کسی بوچڑ کا قرضدار  ہوں۔ اُڑدکی دال کھانا منظور ہے۔ بقول  سعدی ’’بہ تمنائے گوشت مردن بہ۔ نہ تقاضا ئے زشت قصابا‘‘ وہاں اگرچہ میں یونانیوں اور بربریوں۔ داناؤں  اور نادانوں کا قرضدار ہوں۔ لیکن اس وقت تو میں جسم اور روح  کا قرضدار ہوں۔ اِن دونوں  کے تقاضاؤں کا مختصر حال سنُئے ۔ دیکھئے کس صورت سے اُن کو ادا کرتا ہوں۔ اور میں چاہتا ہوں۔ کہ ہمارے  نا ظرین نور افشاں بھی  اندونوں کی ادائیگی قرض  کا فکر  کریں۔ اول  جسمکے تقاضے یہ ہیں۔

۱۔ خداوند خدا نے ہمارے جسموں کو ایسی حالت  پر پیدا کیا ہے۔ اور ایسا اُن کو بنایا ہے۔ کہ کم سے کم دوبارہ روز ہم پر تقاضا رہتا ہے۔ کہ کھانے کو لاؤ۔ کوئی صورت کیوں نہ ہو۔ اس کا پیٹ بھر دو۔ دنیا کے سارے کاروبار پر غور کرنے سے صاف معلوم ہوتا ہے۔ کہ بادشاہ سے گدا تک عالم سے جاہل  تک ۔ کالے سے گورے تک سب کے سب  کسی نہ کسی پیشہ یا حرفت۔ کاشف یا ملازمت ۔ دستکاری  یا گدا گری سے جسم کے تقاضے کو رفع کرتے ہیں۔ بادشاہ وزیر۔ امیر ۔ متمول اہل دول  اگر دن  میں چار بار ترنوالوں سے آسودہ ہوتے تو بیچارے مفلس قلاش۔ ٹکر گدے  روکھے سوکھے ٹکڑوں  سے شکم پرُی کر لیتے ہیں۔ آج تک ہر زمانہ  میں عالموں اور داناؤں نے اس امر کی تنیقع کی۔ کہ سب سے  بہتر اور اعلیٰ طریق  روٹی کمانیکا کیا ہے۔ اور آخر ابتک بھی تصفیہ سننے میں آیا ۔ کہ تحصیل  علم  سے برہ کر اور کوئی وسیلہ   معاش عمدہ اور قابل تعریف نہیں۔ اور یوں  نو ڈلیا ڈھونا گویا کتا بھی اپنا پیٹ بھر لیتا ہے۔ متفرق اقسام کے صیغہ معاش اور اُن مین ترقی و تنزل کا سبب سوائے اس کے اور کیا ہو سکتا ہے۔ کہ جب ایک شخص کا پیٹ اُس وسیلہ سے جس کو وہ ابتک استعمال میں لاتا رہا نہ بھرا۔ تب یا تو اُسی میں ترقی کا ڈہنگ ڈالا۔ یا دوسرے وسیلہ کو اختیار کیا ۔ اسی طرھ بقول سعدی ’’ اول بنیاد  ظلم امزک بود۔ ہر کہ آمد براں مذید کر دتابدیں غایت رسید‘‘۔ حتیٰ کہ بعض اشخاص  کم ہمت حرص پسند نے جسم کے اس تقاضاء ناشدنی کے ادا کرنے میں یہاں تک تیز دستی دکھلائی۔ اور بے شرمی اختیار کی۔ کہ وہ وسایل بھی جو عقلاً و مذہباً ہر طرح نجس  اور ناپاک ہیں  استعمال  مین لانے شروع کئے۔  جن کے انسداد کے لئے اب خیر خواہ بنی نوع انسان سر مگربیاں اور دست بزنخداں ہیں۔ پر کیا کیجئے بقول شخصے  ’’مرتا کیا  نہ کرتا‘‘۔

۲۔ ہمارے جسم نہ صرف خوراک چاہتے ہیں۔ بلکہ مرے پر سودُرّئے پو شاک  کا بھی تقاضا کرتے ہیں۔ گرمیوں مین عمل۔ تنزیب ۔ خاصہ۔ نین سکہ۔ شربتی ادھی۔ بک۔ اور جاڑوں میں مخمل۔ بانات۔ فلالین۔ کم سے کم ۱۲ پیسہ گز کی چھینٹ کی توشک۔ لحاف۔ اور اُس کے اندر روئی۔ اور وہ بھی دُہنی ہوئی۔ مجھے جسم کے پوشاکی تقاضا  پر ایک افغانی کا قصہ یاد آتا ہے۔ جس کا لکھنا یہاں  مذاق سے خالی نہوگا۔ کہتے ہیں۔ کہ موسم سرما میں ایک افغانی ہندوستان میں وارد ہوا۔چّلہ کے جاڑے تھے رات کو افغانی ساحب کو سردی سے پالا پڑا ۔ تو یوں دعا مانگنے لگے۔ کہ بار الہاٰ صدقہ اپنے رسول مقبول کا اس جاڑے کو مجھسے دور کر۔ مگر دعا قبول نہوئی۔ ماموں کا واسطہ دیا۔ شہیدوں کو کو درمیان لا یا۔ لیکن دعا جواب  مذارد۔ علی الصباح کسی ہندوستانی  سے  افغانیمذکور نے بیان کیا ۔ کہ رات کو  جاڑے نے مجھے سخت تکلیف دی اور میں خدا سے بھی دعا مانگتا رہا۔ پر لوُ  بر سے صدا سے برنخاست ہندوستانی بولا۔  کہ آغا ! تمھارے پاس کچھ روپیہ بھی ہے؟ وہ بولا۔ اچھا ہے مجھے دیجئے اُس کا ابرا استر  ۔ گوٹ۔ اور روئی لاکر درزی سے سلوا کر دُھنئے  سے روئی دھنوا کر بھروا کر افغانی کو دی۔ تو رات کو افغانی  صاحب  بجائے ہینگ گویا  گھوڑے بیچکر سوئے ۔ صبح کو فرمایا۔ اے جاڑے تجھ پر کدا کی لعنت۔ تو خدا کو بھی نہیں  مانتا۔ اب اس کے قابل روح کے تقاضے  بھی سُنئے۔

۱۔ ہر ایک بشر کی روح    تقاضا کرتی ہے۔ کہ مجھے میرے خدا کو دکھلاؤ۔ اور یہ تقاضا ایسا سخت ہے کہ اس کے ادا کرنے کے واسطے دنُیا کے جس حصہّ میں جاؤ۔ خواہ عرب کے بدؤوں میں۔ خواہ افریقہ کے ریگستانوں میں یا ہمالہ کے سلسلوں میں۔ یا ہندوستان کے باشندوں میں کسی نہ کسی صورت میں یہ تقاضا  ادا کیا جاتا ہے۔ کتنے ہی جوان گھڑے پتھروں کو خدا سمجھ کر روح  کو آسودہ کرنا چاہتے ہیں۔ اور کتنے ہیں جو عرب میں کعبہ کے گرد نہایت  زوق شوق  سے ایک  چو کھنٹے  گھر کا طواف دیکر سنگ اسود کو چومکر  روح  کو بہلاتے ہیں۔  وہ روح کو اُس بچہّ کی مانند  خیال کرتے ہیں جو سورہا ہے۔ بہتیرے  ملیں گے  جو ہمارے ہی شہر سے کبھی اجودھیاؔ۔ اور کبھی دوار کاؔ۔ کبھی گیاؔ۔ اور کبھی  ہر دوار کو بھاگے جاتے نظر آتے ہیں۔ ہزارہا پردہ نشیں مستورات ہنود ننگے پانؤں  دو دھ پیتے بچے گود  میں۔ پا پیادہ۔ مُنہ اندھیرے۔ خاوندوں کو گھر سوتا چھوڑ گھر کے کاروبار سے مُنہ  موڑ گنگا  کی طرف بھاگی جاتی  ہیں۔ پر روح کا تقاضا  وہی ہے۔ کہ خدا کو دکھاؤ۔ میری پیاس کو بجھاؤ۔ لیکن ان سارہ کارروائیوں  اور دوڑ دہوپ سے روح کا حال  بجائے  اس کے۔ کہ کچھ آسودگی نظر آتی ہو۔  اُس شخص کا سا نظر آتا ہے۔ جسے استسقا  کی بیماری ہو۔ پر شکر خدا ۔ کہ ایک آیا جو روح  کے تقاضے کو مع سودادا کرتا ہے۔ وہ آپہی  خدا ہے۔ اور خدا  کا فرزند  ہو کر انسان بن گیا۔ اور فیلبوس سے کہا کہ ’’ جس نے مجھے  دیکھا اُس نے خدا  کو دیکھا‘‘۔ ہم نے تو آزمایا۔ پرکھا اور اس سوتے سے پیا۔  جس کے پینے سے نہ صرف  تشنگی  بجھُی۔ بلکہ زندہ  پانی کاسوتا ہم میں ہو گیا۔ جو اوروں تک بھی پہنچتا ہے۔

جس طرح خداوند ہمارے خدا نے بدنوں کو غزا کا محتاج بنایا اس میں اُس کی عجیب حکمت بالغہ کا ظہور ہی کہ اُسی طرح  اُس نے ہمارے عناصر اجسام کی رعایت  سے طرح طرح کے غلہ اور قسم قسم  کے ساگ پات گوشت وغیرہ پیدا کئے یعنے بعض اقسام کے غلوں یا ترکاریوں سے لوہا چونہ وغیرہ یہاں کے عنصر کو پہنچتا ہے  اور بعض  سے کھار علی ہذا القیاس اُسی طرح خدا نے ہماری روحوں کے امانت سے اُن کی خوراک کے واسطے  ایک ایسی عمدہ کامل اور بے عیب خوراک عسامیت فرمائی جس کا بیان نہ قلم  دور دو زبان سے ہو سکتا  ہے  نہ تحریر  میں آسکتا  ہے۔ وہ خوراک بزبان حال  ہماری  گر سنہ  روحوں  سے اس طرح دعوت کر کے فرماتی ہے کہ زندہ روٹی  جو آسمان  سے اُترتی ہے مین ہون مجھے کھائے وہ کبھی بھوکھا نہو  لیکن دنیا کے تمام مزاہب میں ایسی خوراک کا فکر تک نہیں جسمانی خوراک کی بابت البتہ بہت فکر کی گئی اور حرام  و حلال بھی بہت سا بتایا یہ کھانا وہ  نہ کھانا اور اس جسمانی  خوراک کے بتلانے میں بھی اُن سے وہ غلطیاں   ہوئیں  کہ توبہ ہی توبہ  ہمارے ہندوستان کے ادنی  ٰ تٹ پونجیر حکیم اگر بتا دیں کہ اُرد کی دال بغیر  دہوئے بادی ہے نہ کھانا تو در صورت انحراف فوراً  نفخ شکم کا عارضہ عارض ہوجائے  لیکن مسلمانوں کے روحانی  ڈاکٹر کا حکم کہ سور نہ کھانا  اور بیدوں کے  آمتک بید کی یہ آگیا  کہ گائے  نہ کھانا  آپ آزما کر دیکھ لیں بلکہ تھوڑا  تھوڑا کیا حتی کہ شکم سیر  ہو کر کھا لیں  اگر کچھ نقصان  ہو جائے تو ہمارا زمۂ پر تو بھی ہوئی بعض چیزوں کو ناپاک خیال کر کے جسمانی وہم کے مرض میں مبتلا ہیں۔ پھر جس طرح کہ بدن  کا حالت  بیماری میں یہ تقاضا  ہوتا ہے کہ  دوالاؤ ورنہ مرے ہندوستانی بید سے علاج کرو چند روز دوا کھائی  آرام  نہو ا تب  مسلمانی  حکیم  کیطرف رجوع کیا جب وہاں بھی مرض بڑھتا گیا جیوں جیوں دوا کی تب سیدھے  شفا خانہ کو بھاگے ڈاکڑ صاحب دوا دیجئے  ولایت کا کھچا عرق رنگا رنگ سفید شیشوں میں دیکھتے ہی مُنہ میں پانی بھر آیا غٹ غٹ پی گئے وہاں نہ ہندوانی  کا خیال ہے نہ مسلمانی ہے نہ مسلمانی کا وہم خاصہ ہٹےّ کٹّے چنگے ہو کر  گھر کوواپس آئے  دھرم اور مذہب  جیوں کا تیوں بنا رہا  بلکہ بعض سخت بیماریوں میں طاق ہی پردھرا رہا۔ اُسی طرح روح  بھی گنہگاری کے مرض میں چلاتی ہے کہ علاج علاج گنگا اشنان  اور اُس کا جل آچون کرنا ریت پھانکنا گائے کا پیشاب  نوش جان فرمانا گوبر دھن  کی پوجامیں گائے کا گوبر استعمال کرنا گا کالی  کے استھان  پر شراب اُوڑانا حضرت عباس کی حاضری کھا کر شب رات  کا حلوا اور چپاتی سے شکم پری آب زمزم پیکر آنکھوں سے لگانا  وغیرہ مگر روح بیمار ہے اُس  کی وہی پکار ہے  پس کیا لازم نہیں کہ ہندو محمدی  بید اور حکیموں سے مایوں ہو کر خداوند  یسوع مسیح  کے پاس  کمزور لاچار گنہگار روح کو لاویں اور اُس کے خون پاک اور  بیش قیمت  لہو کو اس پر چھڑ کنے سے شفا حاصل  کریں ضرور  بالضرور۔

کیدار ناتھ  

موسیٰ و یسوع کی موافقت

Jesus and Moses


Published in Nur-i-Afshan July 19, 1895
By Rev Prem Sikh


؎  مسیح ہر مثل موسیٰ اے عزیز۔ کلام ِ پاک سے کر لے تمیز  موسیٰ یسوع مسیح کا بہت ہی صاف صاف  اور کھلا ہوا  نشان  تھا چنانچہ اُس نے  خود بنی اسرائیل  کے سامنے اپنے کو خداوند  یسوع مسیح سے نسبت دی جیسا  کہ استثنا ۱۸۔ ۱۵ میں مرقوم  ہے۔ خداوند  تیرا خدا  تیرے لئے تیرے ہی درمیان  سے تیرے بھائیوں میں سے میری مانند ایک نبی برپا کریگا تم اُس کی طرف  کان دہریؤ۔ یہ نبوت یسوع مسیح کے آنے کی ہے اوّل یہ کہ یسوع مسیح اور موسیٰ کی پیدایش کی حالت میں بہت موافقت ہے کہ موسیٰ بنی  اسرائیل  میں سے پیدا ہوا۔ اور مسیح بھی  اُسی خاندان  سے پیدا ہوا پھر موسیٰ کی پیدایش کے وقت میں یہ گھرانا  بہت  پست حالی میں تھا۔ سو یسوع کی پیدایش کے وقت میں بھی یہ خاندان پست حالت میں تھا پھر موسیٰ کی پیدایش  کے وقت میں بادشاہ  مصر نے اولاد بنی اسرائیل کو وقت ولادت  کے معرفت دائیوں کے مار ڈالنے  کا حکم دیا تھا۔ ویسا ہی یہودیہ کے بادشاہ ہیرودیس  نے بھی وقت پیدایش مسیح  کے سارے بیت لحم کے چھوٹے چھوٹے لڑکوں کو ہلاکت کا حکم دیا تھا۔ اور جس طرح خدا نے فرعان کے سخت حکم  قتل سے موسیٰ  کو بچا لیا۔  اُسی طرح ہیرودیس  کے سخت حکم سے مسیح  کو محفوظ  رکھا۔ 

دویمؔ  دونوں نے یعنے موسیٰ اور مسیح نے محض  اپنی خوشی اور مرضی سے اپنے تئیں لسپت اور  نیچ  کیا۔ موسیٰ ملک مصر کی سلطنت کا وارث  تھا۔ پر خدا کے لوگوں کو بچانے کو اپنی اُس بڑی  عزت  اور حشمت کو پسند نہ کیا۔ بلکہ اُن کے دکھ اور درد میں شریک ہونے کی  خوش عزت پر فوقیت  دی۔ جیسا کہ لکھا ہے۔ ایمان سے موسیٰ نے سیانا ہو کے فرعون کی بیٹی  کا بیٹا  کہلانے  سے انکار کیا۔ کہ اُس نے خدا کے لوگوں کے  ساتھ  دُکھ  اُٹھانا اُس  سے زیادہ  پسند کیا کہ گناہکے سُکھ کو چند روزہ ہی حاصل  کرے مسیحی  لعن طعن  کو مصر  کے خزانہ  کے  سے بڑی  دولت جانا عبرانیوں ۱۱۔۲۴۔۲۵ ۔ سو ایسا  ہی مسیح نے بھی اُس  خوشی کے لئے جو اُس کے سامنے تھی شرمندگی کو ناچیز  جانا کے صلیب  کو سہا اور خدا کے تخت  کے داہنے  جا بیٹھا  عبرانیو ں ۱۲: ۲۔

سیوم ۔ دونوں نے (مسیح و موسیٰ ) غلام اور اسیروں اورمصیبت  میں پڑے ہوؤں  کو اُن کی غلامی ا ور مصیبت  سے نکالا۔ موسیٰ نے بنی اسرائیل  کو فرعون  کے قبضے اور مصر  کی غلامی  سے چھڑایا یسوع مسیح  نے اپنے لوگوں کو شیطان  کی غلامی اور گناہ  کی اسیری سے بچا یا۔

چہارم۔ دونوں نے لوگوں  پر خدا کی مرضی اور شریعت  ظاہر  کی موسیٰ نے نجات کی راہ  اعمالوں کے وسیلہ بتلائی  اور مسیح نے فضل  کے وسیلہ نجات کی راہ دکھلائی  جیسا کہ کلام الہیٰ خبر  دیتا ہے۔  کیونکہ شریعت  موسیٰ کی معرفت  دی گئی مگر فضل  اور سچائی یسوع مسیح  سے پہونچی  یوحنا ۔ ۱۔ ۱۷۔

پنجم۔ دونوں نے خدا اور انسان کے درمیان اور کہانت  کا کام کیا۔

ششم۔ موسیٰ نے بہت معجزے دیکھائے مسیح نے بھی طرح طرح کےمعجزے دکھائے۔

ہفتم۔ موسیٰ دریائے قلزم پر سوکھی زمین سے ہو کر پار نکل گیا۔ مسیح سمندر پر پانؤں پونؤں چلا۔

ہشتم ۔ مصر سے نکلنے کے بعد پچاسویں دن خدا  نے موسیٰ کے وسیلہ کوہ سینا  پر دس(۱۰)  احکام  بڑے جلال کے ساتھ دئے ویسا ہی مسیح نے آسمان  پر جانے کے بعد پچاسویں یعنے پنتیکوست کے دن پاک روح  اپنے شاگردوں  کو عنایت کی اور وے طرح طرح کی زبانیں بولنے لگے۔ اعمال ۲۔ ۴۔

نہم۔ خدا سے موسیٰ نے روبرو باتیں  کیں اسی طرح مسیح یسوع نے خدا سے باتیں کیں۔

دہم۔ موسیٰ نے چالیس دن روزہ رکھا  اُسی طرح مسیح نے بھی چالیس دن روزہ رکھا۔

یازدھم ۔ دونوں نے خدا کی طرف سے لوگون کے لئے طرح طرح  کی بیش قیمت نعمتیں اور برکتیں حاصل کیں۔  چنانچہ موسیٰ نے بنی اسرائیل کے لئے بیابان  میں خوراک اور جو کچھ درکار تھا۔ خدا سے سفارش کر کے حاصل کیا۔ اسی طرح یسوع مسیح نے اپنے لوگوں کے لئے طرح طرح کی روحانی برکتیں اور نعمتیں حاصل  کیں۔

دو ازدھم۔ دونوں نے اوروں کی بھلائی کےلئے محنت  اور دکھ اُٹھایا موسیٰ نے بنی اسرائیل کے لئے  اپنی بے عزتی اختیار  کی اور لوگوں  کا لعن طعن سنا۔ اور یسوع مسیح نے سارے گنہگار انسانوں کے لئے دکھ اُٹھایا۔  

سیز دھم ۔ دونوں نے اُس ناحق ناشکروں سے جن کے لئے بڑے بڑے دُکھ اُٹھائے   احساسمندی نہ دیکھی بنی اسرائیل  نے اکثر موسیٰ کی بابت نہ سنُی اور اُس کی حکومت  سے ناراض  ہو کر اُس  سے سر کشی  کرنے اور الگ ہونے پر سوئے اور اکثر اُس کی  شکایت  کرنے  اور کڑکڑانے اور اپنی تکلیفوں  کو جو اُن کے گناہ کے باعث تھیں اُس کے قصور سے ٹھہراتے تھے۔  اور اسی قدر  یہودیوں  کی عادت مسیح کے ساتھ تھی کہ اُنہوں نے خونی کو اُس سے یعنے مسیح سے زیادہ  عزیز رکھا اور پسند کیا وہ اپنوں پاس آیا اپنوں نے قبول نہ کیا  فقط۔

پادری پرم سکھ  

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