From Karbala to Calvary

 

From Karbala to Calvary

अज़ जनाब अल्लामा बरकतुल्लाह साहब एम-ए,एफ़,आर,ए ऐस

The Venerable Archdeacon Barakat Ullah.M.A

1891- 1972

कर्बला से कलवरी तक

(अज़ जनाब अल्लामा बरकतुल्लाह साहब एम-ए,एफ़,आर,ए ऐस)

मेरी पैदाइश एक शीया मुस्लिम ख़ानदान में बमुक़ाम नारवाल जो कि अब मग़रिबी पंजाब पाकिस्तान की हद पर है हुई । इस ख़ानदान को लोग उस की बुजु़र्गी ,संजीदगी और मज़हबी उसूल की पाबंदी और रसूम की अदायगी की वजह से बेहद इज़्ज़त की नज़र से देखते थे । लोग मेरे दादा का नाम नहीं लेते थे बल्कि ताज़ीमन उन को लफ़्ज़ जनाब से ख़िताब करते थे। नमाज़ व मस्जिद उन की ज़िंदगी का जुज़ बन गई थी। बफ़रज़ मुहाल अगर वो दुकान में ना मिलें तो समझ लीजिए कि वो मस्जिद में ज़रूर ही होगे । इन की क़दीम याद जब मुझे आती है तो मैं याद करता हूँ कि एक छोटा सा बच्चा हूँ और उन की गोद में बैठा हूँ और वो शाम की नमाज़ के बाद क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत कर रहे हैं। मेरी वालिदा माजिदा इस क़दर नेक थीं कि बहुत सी औरतें जो उन की क़ब्र के पास दफ़न हुईं उन के सर मेरी वालिदा मरहूमा के पैरों की जानिब किए गए । उनका एक भाई जो मेरे मामूं हुए कर्बला में जा कर बस गए थे। ये वो मुक़ाम है जहां रसूल के नवासे हज़रत इमाम हुसैन (अलैह.) मारे गए थे ।

इमाम हुसैन की कर्बला श्राइन
इमाम हुसैन की कर्बला श्राइन

मेरे ख़ानदान का रोज़ाना का काम काज सुबह की नमाज़ और क़ुरान-ए-पाक की तिलावत से शुरू होता था। जब मैं सिर्फ बच्चा ही था मैं सय्यद शाह साहब के सपुर्द कर दिया गया था ताकि उनकी मदद से क़ुरआन का हाफ़िज़ा करूँ। इन की बेटी ने मेरी बहन को भी क़ुरआन पढ़ना सिखा दिया था। दिन-भर का काम रात की दुआ करने के बाद ख़त्म कर दिया जाता था।

ये था माहौल इस घर का जिसमें मैंने परवरिश पाई। बचपन ही से मेरा एक मिशन स्कूल में दाख़िल करा दिया गया था । लेकिन जल्द ही उस के बाद में ऊंचे इबतिदाई मदरसा में चढ़ा दिया गया था। इन दोनों मदरसों में मसीही तालीम दी जाती थी । बाइबल की तालीम को इन मदारिस में बनिसबत दीगर मज़ामीन के ज़्यादा एहमीयत दी जाती थी। चूँकि मेरा हाफ़िज़ा अच्छा था जब मैं पांचवें दर्जा में पहुंचा तो मसीही तालीम की लियाक़त और मालूमात में मैं दीगर मसीही तलबा से बदरजहा बेहतर था। शायद मेरी ज़िंदगी में कोई भी ऐसा साल ना गुज़रा जबकि मैंने बाइबल की तालीम में पहला इनाम ना पाया हो।

मेरे वालिद बुजु़र्गवार शेख़ रहमत अली,मिलनसार और हमदर्द इन्सान थे। उनका रवैय्या हर मज़हब की जानिब से बहुत आज़ादाना था । हिंदू , मुस्लमान और मसीही सब उन के दोस्त थे । दूसरे फ़िर्क़ों के मुस्लमानों से भी आपका काफ़ी रब्त-ज़ब्त था अगरचे वो कारोबारी इन्सान थे लेकिन फिर भी हर सुबह वो क़ुरआन और बाइबल की तिलावत करते थे। फ़ारसी शारा-ए-और फ़ारसी नस्र निगार आपको बेहद पसंद थे। बरख़िलाफ़ उन के मेरे चचा साहिब जो उनके छोटे भाई थे बहुत ही कट्टर शीया थे जो कि सिर्फ क़ुरआन और शीया ताफ्सिरों का मुताला करते थे। वो मैट्रिकूलेशन पास थे। ये इस शहर के लिए इस ज़माने के लिहाज़ से आला किस्म की सनद तसव्वुर की जाती थी। इन के कुतुब ख़ाना में बहुत सी ऐसी किताबें थीं जोकि मसीहीयत और हिंदू मज़हब के ख़िलाफ़ थीं। दीगर फ़िरक़े मुस्लमानों के ख़िलाफ़ भी उनके पास काफ़ी कुतुब थीं।

जब मेरे चचा ने देखा कि मैं हर साल बाइबल का इनाम हासिल करता हूँ और बहुत सी आयतें भी मुझको अज़बर हैं तो उन्हों ने मुनासिब समझा कि मेरी दीनी तालीम को अपने हाथ में लें लिहाज़ा उन्हों ने मुझे चंद किताबें पढ़ने के लिए दी । इस वक़्त मेरी उम्र 12 साल की थी। मैं छटी जमात में था। सादी और फ़िर्दोसी का कलाम बख़ूबी पढ़ सकता था। पस में इन किताबों को जो मेरे चचा ने मुझको दी ख़ूब पढ़ सकता था । एक किताब ने मेरे ऊपर बहुत असर किया। इस का नाम ज़बदतूलअक़वाल फ़ी तम्रजहुल-क़ुरआन अला इंजील था । इस किताब में मसीहीयत और इस्लाम का मवाज़ाना था। जिसमें बाइबल की आयात के हक़ में तरदीद और तन्क़ीद मुंदरज थी। इस किताब को मैं हर वक़्त पढ़ता था। मैं वहां जाता था जहां मसीही बाज़ारों में मुनादी करते थे। मैं इन से हुज्जत करता था और उन को बड़ी मुश्किल में डालता था।

इन किताबों के ज़ेर-ए-असर जो मसीहीयत के ख़िलाफ़ थीं में एक-बार मत्ती रसूल की इंजील को जला डाला । मैं एक दिन चिराग़ जलाए इस किताब को पढ़ रहा था । मालूम नहीं कौन सा मज़मून था जो मैं पढ़ रहा था मैंने चिराग़ की लू में किताब लगादी और जला डाली। मेरी वालिदा ये देखकर दर गई लेकिन मैंने उन को दिलासा दिया और बताया कि मैंने एक इंजील जला दी है। लेकिन उन की आवाज़ ने वालिद साहब को भी इधर मुतवज्जा कर दिया वो कमरे में आए और उन्होंने मुझको कानी तम्बीह की। उन्हों ने कहा बताओ तुमको कैसा लगेगा अगर कोई मसीही क़ुरआन को जला दे। उन्हों ने मेरे चेहरे पर ख़ौफ़ व डर के आसार देखे तो उन्हों ने शेख़ सादी का एक क़ौल पेश किया यानी दूसरों के साथ वो सुलूक ना करो जो कि तुम नहीं चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। मेरे चचाभी कमरे में आ गए थे । लेकिन बड़े भाई के सामने कुछ बोल ना सके लेकिन बाद में मेरे चचा ने मुझसे कहा कि जो कुछ भी मैंने किया है एक बड़ा काम है ये गुनाह नहीं है।

मुहर्रम का महीना शीया मुस्लमानों के लिए एक पाक महीना माना जाता है क्योंकि हज़रत इमाम हुसैन इस माह क़तल हुए थे। हर साल इस माह से चौदह रोज़ किब्ल शीया लड़के जमा हो कर एक जलूस शहर की सड़कों पर निकालते थे और मेरे चार साथी मेरे साथ ये नारा लगाते थे। और अपना सीना पीटते थे।

हुसैन, हुसैन, हुसैन, हुसैन
शहीद कर्बला हुसैन

एक-बार हमने लखनऊ से एक ज़ाकिर बुलाया (वाक़ियात जंग कर्बला का ज़िक्र करने वाला ) उस के पास एक डंडा था जिसमें क़रीबन एक दर्जन तेज़ छुरिया बंधी हुईं थीं। इस ने इन छुरियों से अपने तमाम शाने ज़ख़मी कर डाले। जोश अक़ीदत में मैंने छुरीयां अपने हाथ में ले ली और अपने शानों को बुरी तरह ज़ख़मी कर डाला मेरे मामूं ने ज़बरदस्ती मेरे हाथों से उन को छीन लिया। इस वाक़िया से में अपने जोशोख़रोश और पाकबाज़ी में मशहूर हो गया।

एक वाक़िया मेरे बचपन का है मुझको याद है। चंद मसीही मुबशर बाज़ार में मुनादी कर रहे थे । इन में से एक यू-पी के मिस्टर टॉमस थे। वो एक रंगरेज़ (कपड़े रंगने वाला ) की दुकान के पास मुनादी कर रहे थे कि यकलख़त वो रंगरेज़ जो एक मुस्लिम था और निहायत क़ौमी हैकल था निकला और जाकर मिस्टर टॉमस के मुँह पर थूक दिया और ज़ोर का तमांचा भी उन के गाल पर रसीद किया। लोगों को उम्मीद थी कि अब लड़ाई हो जाएगी क्योंकि मिस्टर टॉमस भी काफ़ी तंदरुस्त थे। लेकिन बरख़िलाफ़ उस के मिस्टर टॉमस ने अपना रूमाल निकाला और अपने गाल को पोंछ लिया और मुनादी करना शुरू कर दी। मिस्टर टॉमस ने इस मुस्लिम रंगरेज़ से कहा "ख़ुदा तुमको बरकत दे " यूं वो मुनादी करते रहे।

रंगरेज़ अपनी दुकान में ख़ामोश वापिस चला गया। मिस्टर टॉमस के इस रवैय्या ने लोगों पर एक बहुत अच्छा असर पैदा किया। इस वाक़िया ने मुझको सरता पा हिला दिया। क्योंकि मैं ख़्याल करता था कि मसीह का पहाड़ी वाज़ एक ग़ैर अमली तालीम है और काबिल-ए-क़बूल नहीं है। जब मैंने आठवां दर्जा पास कर लिया तो मैं एक मिशन हाई स्कूल में दाख़िल करा दिया गया। इस स्कूल में भी मैंने तमाम बाइबल के इनामात हासिल करे। मेरा एक साथी बनाम नूर मुहम्मद मसीही होना चाहता था लेकिन में इस को हमेशा ऐसा करने से रोकता रहा। तलबा और तमाम उस्तादों की नज़र में मैं मज़हबी लियाक़त और इलम में निहायत क़ाबिल समझा जाता था ।

मैं बाज़ारों में इन जगहों पर पहुंच जाता था जहां मसीही मुनादी करते थे। मैं इन से अजीब अजीब सवालात करता और यूं उन के जलसों को दरहम-बरहम कर देता था।

वो शहर जहां मेरा स्कूल था निहायत गंदा शहर था ( अख़लाक़ी एतबार से ) लिहाज़ा मुझको भी वहां की हवा लग गई। ये मेरा आलम-ए-शबाब था। ये वो आलम था जबकि ज़िंदगी बेहद असर पज़ीर होती है। स्कूल और बोर्डिंग हाऊस की हवा बदी और नारास्ती से भरी हुई थी। एक उस्ताद जो कि बोर्डिंग ही में रहता था निहायत ही बदकार और शर पसंद था। इस माहौल ने मेरी ज़िंदगी में बदकारी के जज़बात भर दिए थे। अब मुझको अपने गुनाहों की माफ़ी और खोई हुई ज़िंदगी और इस की ख़ूबीयों को दुबारा पाने की ज़रूरत महसूस हो रही थी। मैं रोज़ एक नज़दीक की मस्जिद में जाता और नमाज़ और दुआ करता कि ऐ ख़ुदा तू मुझे गुनाहों से रस्तगारी बख़श दे और शैतान के हाथों से छुड़ाले। लेकिन मुझको कोई जवाब इस दुआ का मिलता नज़र ना आया । गुनाह का कांटा मेरे बदन में हरवक़त चुभता रहता था और हमेशा मेरे दिल में खटकता रहता था। अब मेरी ज़िंदगी में एक तबदीली वाक़े हुई जबकि में ख़ुशी ख़ुशी घर वापिस जा रहा था कि अपने वालदैन को बताऊं कि मैं दर्जा नौ (9) में ख़ूबी के साथ कामयाब हो गया हूँ और बल्कि अपने दर्जे में अव़्वल आया हूँ। मेरे चेहरे पर ख़ुशी और मुसर्रत के आसार नुमायां थे लेकिन जब मैं शहर में दाख़िल हुआ तो हर चीज़ पर मैंने एक अजीब उदासी और रंजोग़म की कैफ़ीयत पाई। दरवाज़े पर मेरे चचा मुहसिन खड़े थे। वो मुझको को अलग ले गए और मुझसे कहा कि मेरे वालिद मसीही हो गए हैं। और इस वजह से शहर में एक हैजान पैदा हो गया है और हर शख़्स ग़मज़दा है क्योंकि वो यानी मेरे वालिद अंजुमन इस्लामीया के सदर थे। मैं लड़खड़ाता हुआ अंदर दाख़िल हुआ। इस वक़्त मेरे वालिद घर में ना थे। मेरी वालिदा ,दो बहनें और दो भाई थे वो भी मसीही हो गए थे उन्होंने मुझको गले लगा लिया। मेरे ज़हन से इस वक़्त तमाम तफ़क्कुरात और ग़म की शिद्दत उन से मिलकर दूर हो गई थी। मेरे चचा साहिब कमरे में आए और मुझको अलग ले जा कर बोले कि तुम अब इस मुशरिक ख़ानदान के शरीक नहीं हो सकते हो। मैं तुमको गोद ले लूं गा क्योंकि मैं तुमसे अपने हक़ीक़ी बच्चों की तरह मुहब्बत करता हूँ (ये सच्च है )मैं तुमको एम-ए तक पढ़ाऊंगा और तुमको कोई तकलीफ़ ना होगी । मैंने जवाब दिया। अगरचे वालिद साहब मसीही हो गए हैं लेकिन मैं आपके पास रहूँगा और तौर से हर अमर में जो कि दरुस्त और शरअन सही हैं ताबेदार हूँगा। जब मेरे वालिद घर आए तो वो मुझको देख बहुत ख़ुश हो गए लेकिन में उन के चेहरे पर दुख और तकलीफ़ के निशान जो कि इन के शहर-वालों के सताने से पैदा हुए थे देख बहुत ग़मगींन हो गया। वो मेरे इस जवाब से जो मैंने चचा को दिया था बहुत ख़ुश हुए।

दो रोज़ के बाद में शहर के चंद बुज़ुर्गों की जानिब से बुलाया गया। मेरे होने वाले सुसर मुझको हाथ पकड़ कर वहां तक ले गए। मेरे सुसर ने वहां उन के सामने क़ुरआन शरीफ़ की क़सम ली और इक़रार किया कि वो मुझको एम-ए तक तालीम देंगे बशर्ति की में मसीही ना हूँ और अपने वालिद की पैरवी ना करूँ। मैंने उन से जो वहाँ जमा थे कहा ,कि मेरा कोई इरादा तर्कॱएॱ इस्लाम का नहीं है । और ना ही कोई इरादा अपने अज़ीज़ों को तर्क करने का है जिन्हों ने दीन ईसवी को क़बूल कर लिया है । मैं जानता हूँ कि उनका इस में कोई बुरा मक़सद नहीं है। उन्हों ने कहा कि ये सब दरुस्त है हमको उन के इरादों की बाबत तो कोई शक नहीं लेकिन फिर भी हम आराम से नहीं बैठ सकते जबकि हमारा सदर मुशरिक हो जाए हम पर हर कोशिश अपने दीन और मिल्लत की हिफ़ाज़त में वाजिब है। मैंने उन से कहा कि मैं ये सुनकर अफ़सोस करता हूँ । शायद आप मुझको दायरा इस्लाम में रहने के लिए लालच दे रहे हैं।

इसी रात मैंने अपने वालिद से दिल खोल कर बातें कीं। उन्होंने कहा ,मैंने तुमको अपने बप्तिस्मा की ख़बर इस लिए नहीं दी कि ऐसा ना हो कि तुम्हारे इमतिहान में कोई गड़-बड़ वाके हो। वो पिछले बीस (२०)साल से हक़ की तलाश में थे बिल आख़िर उन को हक़ मसीह ही में मिला। वो मेरे इस फ़ैसला से जो मैंने अपने हक़ में बुज़्रगान-ए-दीन - के रूबरू किया था बेहद ख़ुश हुए। उनका इस्तिक़लाल और वक़ार और मुहब्बत आमेज़ सब्र के तरीक़े और उनका दुख उठाना इन तमाम चीज़ों ने मेरे ज़हन पर एक ऐसा नक़्श जमा दिया कि मैंने भी फ़ैसला कर लिया कि मैं इंजील शरीफ़ का मुताला करूँगा ताकि वो चीज़ मालूम करूँ जिसने मेरे वालिद पर-असर किया है। इंजील के मुताला में मेरे वालिद ने ख़ुद मेरी मदद की। किताबें जो उन्होंने मुझको पढ़ने के लिए दी उन में से एक फनडर साहब की किताब बनाम" मीज़ान उल-हक़" और एक टसडल साहिब की किताब बनाम" इस्लाम के एतराज़ मसीहीयत पर" थी। और कुछ किताबें जो इमाम दीन की तसनीफ़ करदा थीं । मैंने उन किताबों को बड़ी होशयारी से पढ़ा। इन किताबों ने मुझको क़ाइल कर दिया कि इंजील शरीफ़ मुस्तनद है जिसमें मसीह के सच्चे अक़्वाल मुंदरज हैं। अब जो रुकावट मेरे बपतिस्मा लेने में थी तो सिर्फ इन तीन मसाइल पर थी :—

  1. उलूहियत मसीह
  2. कफ़्फ़ारा
  3. तस्लीस ।

मेरे वालिद ने मुझको चंद और किताबें दें लेकिन ये ज़रा मेरे लिए उस वक़्त अदक़ थीं। मेरे लिए ये मसाइल ईमान लाने के लिए बुनियादी मसाइल थे जिनको मुझे क़बूल करना था। मसीह ज़िंदगी के मुताला ने मुझको इस काबिल तो बना दिया था कि में अपने वालिद के नक़्श एकदम पर चलूं और मसीह को अपना बचाने वाला क़बूल करूँ । बनिसबत दीगर अम्बिया के मसीह ही ने अपने क़ब्र से जी उठने से गुनाह पर फ़तह हासिल की। पस सिर्फ वही मुझको मेरे गुनाहों से बचा सकता है। जिसका मैं दरअसल क़ाइल हो चुका था।

एक आन वाहिद में कलवरी की सलीब मेरे लिए मानी-ख़ेज़ बन गई वो सलीब पर मेरे गुनाहों की ख़ातिर मारा गया। अगरचे वो बेगुनाह था मुझको यक़ीन हो गया कि ख़ुदा ने मेरे गुनाह इस में माफ़ कर दिए। बपतिस्मा के वक़्त मैंने महसूस किया कि गुनाहों का एक बड़ा बोझ मेरे काँधों से उतर गया। मैं इस वक़्त मुसर्रत का बयान नहीं कर सकता वो कैसी अजीब मुसर्रत थी और इस बात का यक़ीन कि मेरे गुनाह माफ़ हो गए हैं मेरी ज़िंदगी में एक चेन व आराम सा मालूम होने लगा । ये एक ऐसा तजुर्बा था जो कि बिलकुल नया और अजीब तजुर्बा था जिसका में ज़िक्र नहीं कर सकता ।

मैं इस वक़्त बिलकुल जवान था जबकि मैंने गुनाहों की माफ़ी और मसीह में नई ज़िंदगी का तजुर्बा हासिल किया। जब में अपने मसीही तजुर्बे पर नज़र करता हूँ जो मैंने उन बरसों में हासिल किए मेरा दिल उसके शुक्र और बे-बहा फ़ज़ल से लबरेज़ नज़र आता है । जूँ-जूँ में उम्र और इलमी लियाक़त में बढ़ता गया मेरे तजुर्बे का नजरिया भी वसीअ होता गया। इस की हक़ीक़त और ज़्यादा अयाँ होती गई। मेरा अक़ीदा कि सिर्फ मसीह मस्लूब ही इस टूटी और खोई हुई इन्सानियत की उम्मीद है और भी गहिरा होता गया । गुनाह से छुटकारा और रास्तबाज़ और पाकीज़ा ज़िंदगी को हासिल करना सिर्फ मसीह ही में है।

मैं हमेशा इस बात का शाईक़ रहा कि मैं अपना तजुर्बा और अपने ख़्यालात मुस्लिम भाईयों को भी बता सकूँ । मैंने चंद किताबें भी लिखी हैं ताकि वो इस सदाक़त को जो मसीह में है पा सकें और इस ख़ुशी और ज़िंदगी में मेरे शरीक हों जो कि कलवरी की सलीब से निकलती है। इन के लिए मेरी दुआ है कि काश वो भी इस नजात की ख़ुशी को हासिल करें जो मैं कर चुका हूँ जनाब मसीह में जो जहाँ का नजातदिहंदा है हासिल करें।